मानव-स्वत्व / गणेशशंकर विद्यार्थी

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संसार की स्‍वाधीनता के विकास का इतिहास उस अमूल्‍य रक्‍त से लिखा हुआ है, जिसे संसार के भिन्‍न-भिन्‍न भाग के कर्तव्‍यशील वीर पुरुषों ने स्‍वत्‍वों की रणभूमि में करोड़ों मूक और निर्बल प्राणियों की जिव्‍हा के बोलने की शक्ति और भुजाओं में स्‍वरक्षा का बल उत्‍पन्‍न करने के लिए निर्मोह होकर गिराया है। स्‍वाधीनता का पहला युद्ध घर ही में लड़ना पड़ता है। घर के सिर-चढ़े भूतों को उतारकर धरती पर पटकना पड़ता है जो देश या जाति अपने स्‍वेच्‍छाचारी व्‍यक्तियों की स्‍वेच्‍छाचारिता की जड़ पर कुठार चलाना अपना कर्तव्‍य नहीं समझती, वह स्‍वेच्‍छाचारिता की कठोरता को भूलती जाएगी और अंत में निरंकुशता का पाश उसे मानसिक शिथिलता के उस गहरे गड्ढे में जा फेंकेगा, जहाँ उसे श्रावण के अंधे के समान हर ओर हरियाली ही हरियाली दीख पड़ेगी और जिसका अंधकार उसके नेत्रों को स्‍वाधीनता के प्रकाश की एक झलक को भी देखने में असमर्थ बना देगा। धन्‍य हैं वे देश और वे जातियाँ, जिन्‍हें स्‍वेच्‍छाचारिता के विरुद्ध घोर संग्राम करना पड़ा और जिन्‍हें इस प्रकार मनुष्‍य की स्‍वाधीनता के विकास के क्षितिज को अधिक बढ़ाने का अवसर प्राप्‍त हुआ। इंग्‍लैंड और उसके निवासी अंग्रेज भी उन देशों में और उन लोगों में से हैं, जिन्‍हें इस संग्राम में अपना रक्‍त अच्‍छी तरह बहाना पड़ा और जिन्‍हें इस महान कार्य में कम सफलता भी नहीं हुई।

अंग्रेज जाति स्‍वाधीनताप्रिय है। अपनी स्‍वाधीनता के लिए उसे बड़े-बड़े संग्राम लड़ने पड़े-बाहरी संग्राम ही नहीं, भीतरी भी। बाहर के आक्रमण करने वालों का ही तलवारों से स्‍वागत नहीं करना पड़ा, घर के उन निरंकुश शासकों के भी होश ठिकाने करने पड़े, जो प्रजा के सिर पर पैर रखकर चले। 13वीं शताब्‍दी का आरंभ था। उस समय इंग्‍लैंड का राजा जॉन था। जॉन पूरा स्‍वेच्‍छाचारी और प्रजा को हर तरह से कष्‍ट देने वाला शासक था। अंत में उसकी निरंकुशता का पात्र एक दिन पूरा भर गया और 1215 ई. में जाति के कुछ प्रतिनिधियों ने इकट्ठा होकर जॉन को धर दबाया और उससे उस 'स्‍वाधीनता के पत्र' पर हस्‍ताक्षर करवा लिए, जो आज 'मैगना चार्टा' के नाम से प्रसिद्ध है। गला दबाये जाने पर उसने हस्‍ताक्षर तो कर दिये, लेकिन वह उसके अनुसार काम करने को तनिक भी तैयार न था। उसने फ्रांस की ओर सहायता के लिए हाथ बढ़ाया, परंतु प्रजा उसके पीछे पड़ गयी। अंत में वह देश छोड़कर भागा और रास्‍ते में ही मर गया। 17 वीं शताब्‍दी के मध्‍य में इंग्‍लैंड का राजा चार्ल्‍स प्रथम था। हजरत को युद्धों का खर्च पूरा करने के लिए मनमाने टैक्‍सों को लगाने का बड़ा चस्‍का था। रुपये भी खूब उधार लिया करते थे। बार-बार पार्लियामेंट तोड़ा और बनाया भी करते थे। इसके समय की तीसरी पार्लियामेंट ने इसे उस समय रुपया दिया, जब उससे 'पिटीशन ऑफ राइट' नाम के पत्र पर हस्‍ताक्षर करा लिये, लेकिन चार्ल्‍स का सुधार कुछ भी न हुआ। कभी जहाज पर नया टैक्‍स लगता और कभी किसी युद्ध के लिए रुपये की चिंता होती। चार्ल्‍स की धींगा-धींगी बहुत बढ़ गयी, उसका हाथ पार्लियामेंट के मेंबरों पर बुरी तरह पड़ने लगा और वह जिसे चाहता उसे कैद कर लेता। प्रजा ने उसका खुल्‍लमखुल्‍ला विरोध किया। युद्ध हुए। वर्षों देश में अशांति रही। अंत में प्रजा की अदालत से चार्ल्‍स को फाँसी की सजा हुई और उसका सिर उसकी स्‍वेच्‍छाचारिता की वेदी को भेंट हुआ। चार्ल्‍स प्रथम के पुत्र चार्ल्‍स द्वितीय के समय में राजद्रोह के कितने ही षड़यंत्र पकड़े गये और इसका फल यह हुआ कि राजद्रोहियों को नाना प्रकार के कष्‍ट दिये जाते थे। इस अत्‍याचार की भी रोक हुई और 'हाबीस कार्पस एक्‍ट' पास हुआ।

लोगों के हृदय-मंदिर में स्‍वाधीनता की मूर्ति स्‍थापित करने वाले इन तीन कानूनों पर अंग्रेज जाति को गर्व है और हमारे विचार से, यह गर्व उचित है। हमें उस जाति के दोषों और अत्‍याचारों पर दृष्टि नहीं डालनी है। निर्दोष है ही कौन? अत्‍याचारों से भी किसी का दामन बिल्‍कुल साफ होना असंभव है। किंतु वैसे अंग्रेज जाति ने संसार की अच्‍छी सेवा की है और यह सेवा अधिकतर इसी कारण हो सकी कि उसके व्‍यक्तियों के हृदयों में स्‍वाधीनता का गर्व और प्रेम है। इसी प्रेम और गर्व की प्रेरणा से समय-समय पर उन्‍होंने अपनी स्‍वाधीनता में भाग लेने के लिए संसार के अगणित प्राणियों को निमंत्रण दिया है। हाल ही में पार्लियामेंट के हाउस ऑफ कामंस से एक प्रस्‍ताव सर्वसम्‍मति से पास हुआ है कि अंग्रेजी साम्राज्‍य-भर की प्रजा को उक्‍त तीनों कानूनों के अनुसार लाभ पहुँचाना चाहिए। कौन कह सकता है कि प्रस्‍ताव में उदारता कूट-कूट कर नहीं भरी है? कौन कह सकता है कि स्‍वाधीनता के संग्रामों के लड़ने वाले लैंग्टन, हैंपडन आदि की संतानों में स्‍वाधीनता के प्रेम का रक्‍त ठंडा पड़ गया है? कौन कह सकता है कि वे अपनी प्‍यारी स्‍वाधीनता के सुख को नीचातिनीच स्‍वार्थ के वश होकर अपने ही तक रखना चाहते है?

परंतु हमें दूर से सुहावना शब्‍द निकालने वाले ढोल के अंदर पोल ही मालूम होती है। विश्‍वास की कमी नहीं हैं, परंतु केवल लड्डुओं के खाने की कल्‍पना भूख को दूर नहीं कर सकती। हाउस ऑफ कामंस के इस प्रस्‍ताव के अनुसार अंग्रेजी राज्‍य के अन्‍य देशों में जो चाहे सो किया जाये, लेकिन हमारे देश की, जिसके कारण अंग्रेजी साम्राज्‍य 'साम्राज्‍य' के नाम से पुकारा जाता है, दशा में कुछ परिवर्तन नहीं होना है। इंग्‍लैंड के उक्‍त तीनों कानूनों की तो बात ही जाने दीजिये, हम पूछते हैं कि महारानी विक्‍टोरिया की घोषणा के अनुसार ही क्‍यों नहीं काम किया जाता है? महारानी विक्‍टोरिया ने उस निरंकुशता के साथ तो वह घोषणा की न थी, जिसके अभ्‍यासी उनके पूर्वज जॉन और चार्ल्‍स थे? उन्‍होंने जो कुछ कहा था, वह सब पार्लियामेंट की अनुमति से, जिसका वही हाउस ऑफ कामंस एक बड़ा भाग है, जो इस प्रस्‍ताव को पास कर रहा है। भारतीय, विदेशों में, अंग्रेजी झंडे ही तले धक्‍के खाते फिरते हैं, देश में तरह-तरह के गलाघोटू कानून पास होते जाते हैं, जिससे प्रजा की स्‍वाधीनता दिन-ब-दिन कम होती जाती है, देश वालों को अपने ही देश के उच्‍च पद नहीं मिलते, गोरे और काले रंग का भेद दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है और शासक गोरे रंग का पक्ष लेकर अन्‍याय के गड्ढे में गिर रहे हैं। संसार से गुलामी उठ गयी है, लेकिन हमारे शासकों की कृपा से हमारे लिए वह शर्त-बँधे कुलियों की भर्ती के रूप में मौजूद है, सन् 1818 का वह निरंकुश कानून मौजूद है, जिसके अनुसार कितने ही सज्‍जन बिना कारण देश से निकाले गये और अभी न मालूम कितने निकाले जायेंगे और ये सब अत्‍याचार और अन्‍याय उस हालत में हो रहे हैं, जब हमें महारानी का स्‍वत्‍व-पत्र प्राप्‍त है और जिसके अनुसार हम संसार-भर की अंग्रेजी प्रजा के बराबर हैं। हमारे देश में काले-गोरे का भेद न होना चाहिए और हमें उच्‍च से उच्‍च पद मिलने चाहिये।

पर स्‍वत्‍व सहज ही प्राप्‍त नहीं होते। संसार में उनके लिए नदियों रक्‍त बहा है। स्‍वत्‍व की वेदी पर सिर चढ़ाने का साहस उन्‍हीं को हुआ जिनमें कर्तव्‍य का भाव था, जिन्‍हें निरंकुशता से घृणा थी, जो उसका मूलोच्‍छेदन करना अपना धर्म समझते थे और जिनमें इस काम के लिए प्राणों का तनिक भी मोह न था। उनकी तत्‍परता के सामने संसार को उन्‍हें रास्‍ता देना पड़ा। वे मनुष्‍य समझे गये और उन्‍हें मानव-स्‍वत्‍व प्राप्‍त हुए, परंतु जिन्‍होंने रक्‍त की जगह पसीना भी न बहाया हो, जो स्‍वयं निरंकुश हों और जिन्‍होंने करोड़ों भाई-बहिनों को गुलामी की बेड़ी से जकड़ रखा हो, उन्‍हें हाथ-पैर हिलाए और ऊँचे उठे बिना आशा भी न रखनी चाहिये कि संसार उन्‍हें मनुष्‍य भी समझेगा। भारतीयों के लिए पेरिया और नाम शूद्र घृणा के पात्र हैं, पर संसार के पेरिया और नाम शूद्र भारतीय स्‍वयं ही हैं। मानव-स्‍वत्‍व मिला नहीं करते, उन्‍हें लेना पड़ता है। बल चाहिए-बल! संसार की कोई भी शक्ति ऐसी नहीं-इंग्‍लैंड के उदार हाउस ऑफ कामंस से लेकर पराधीनता की भूमि में आकर पराधीनता के सूर्य के ताप को अपने हृदय की स्‍वाधीनता का सारा रस भेंट दे देने वाले निरंकुश अंग्रेज शासक तक- जो हृदय में बल रखने वाले वेग को आगे बढ़ने से रोक सके और उसे मानव-स्‍वत्‍व की डेवढ़ी से महारानी की घोषणा या विलायती कानूनों की वेदी तक न पहुँचने दे।