मानुष गन्ध / सूर्यबाला

Gadya Kosh से
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‘‘कम्माल ए-आपका वैभव अमरीका से हिंदी में चिट्ठियाँ लिखता है?’’

मोना मलकानी अपनी आँखें फाख्ते-सी झपकाती हैं।

‘‘और हर हफ्ते-’’ संभालते संभालते भी मेरे अंदर से एक मीठे गुमान से भरी गागर छल्ल से छलक पड़ती है।

‘‘हर हफ्ते?-’’ मिसेज मलकानी की आँखें अब पूरी तरह फैलकर छितर जाती हैं, फिर अपने अंदर तिनग गई ईर्ष्या की हलकी-सी तीली को फूँक मारकर खुद ही बुझाने की कोशिश करने लगती हैं-‘‘घर की याद आती होगी नी? बड़ी, ये रेते भी तो कितनी मुसीबतों में हैं। सब दूर के ढोल सुहावने वाली बातें हैं... इसी से तो चिट्ठियों पे चिट्ठियाँ-दिल की तसल्ली की खातर...लेकिन फिर भी...हर हफ्ते? अखीर लिक्ता क्या है?’’

मैंने अब तक अपनी गागर का मुँह करीने से बंद कर दिया है। नहीं तो बताना शुरू करने के साथ ही यह छलकती चली जाएगी। लिखता क्या है...दुनिया-जहान की खुराफातें, पैरोडियाँ, प्रोफेसरों की नकलें, लड़कियों की विश्वव्यापी नखरेबाजियाँ, (‘बिल्लो जी’ बनाम बेला बहन को चिढ़ाने के लिए) शरारतों की धारावाहिक किश्तें और दाल-भाजी पकाने के प्रयोगधर्मी नुस्खों की गरमागरम रपटें...अब जैसे कि-‘मुलाहजा फरमाइए कि कल सब्जी बनाने का टर्न मेरा था-जान लड़ाकर सारे मसाले भिड़ा दिए लेकिन दोस्तों ने जबान पर रखते ही बदमजा-सा मुँह बनाकर हड़क दिया-‘‘ये क्या ‘करी’ बना रक्खी है? कुछ ढंग का (ढंग से) डालते क्यों नहीं?’’...मैं निरीह वाणी में रिरियाया-‘सब कुछ तो डालता हूँ लेकिन स्वाद आता ही नहीं’... तो ममा, करी न सही, दोस्तों का कहना है कि विज्ञापन की मिमिक्री लाजवाब रही...मैंने आदाब बजाकर शुक्रिया अदा की-‘खत के पुनश्चः’ यानी पुछल्ले में यह जोड़ दूँ कि ‘दो-चार दोस्तों ने मिलकर प्याज-टमाटर को छौंका मारा और सब्जी-पापड़, अचार के सहारे हलक से उतार ली गई...तो आप यह जानकर खुश हो लीजिए कि ऐसे मौकों पर आपकी (यानी आपकी बनाई सब्जी की) बहुत याद आती है।’

अगला खत-‘वाऽ ममा वा! क्या मट्ठी भेजी है अस्थाना के हाथों। सारा अपार्टमेंट अजवायन और डबल रिफाइंड की खुशबू से गमक गया।...सदियों के भूले-बिसरे यार-दोस्त ‘मानुष की गंध, मामा मानुष की गंध’ की तर्ज पर सूँघते चले आ रहे हैं। नानी से कहना, उनकी कहानियों के इस पात्र ने यहाँ खासी लोकप्रियता अर्जित कर ली है। (नानी की कहानी के हवाले से हिंदी की पताका जोर-शोर से...अहा, मातेश्वरी की तो बाँछें खिली पड़ रही हैं-बहरहाल-) हर तरफ-‘मट्ठी आई है, आई है, मट्ठी आई है’ के कैसेट बज रहे हैं। ‘निकाल यार! दोस्तों की दुआ लगेगी-ये देख, पिकल का डिब्बा भी साथ लाए हैं-बचा हुआ, रिटर्न-गिफ्ट के तौर पर छोड़ जाएँगे’...झूठ नहीं बोलूँगा, मट्ठी तो दी सबको, लेकिन गुझिया छुपाकर रख दी। जब दिल-दिमाग उदास हो (पुनः नानी के शब्दों में), छान-पगहा तुड़ाने लगता है तो एक-आधी खाकर वापस जल्दी से छुपा देता हूँ। फिर भी हर बार खाते वक्त यह अहम सवाल खड़ा हो ही जाता है कि जब गुझिया खत्म हो जाएँगी तो तेरा क्या होगा कालिया?’

अगला खत-‘मनोहर जा रहा है। साथ में एक पैकेट भेज रहा हूँ। कुलाँचें मारती टूट पड़ीं न मेरी बिल्लो बहनजी पार्सल पर? सोच रही होंगी कि खूब रच-रचकर मावे, किशमिशों से भरी गुझिया भेजी हैं वैभउआ को-सरदार खूब खुस हुआ होगा-जरूर मनोहर के साथ घड़ियाँ, साड़ियाँ और बेशुमार सेंट की शीशियाँ भेजेगा..., लेकिन जब पैकेट खोलेंगी तो फुस्स...ले-दे के दर्जन-भर, मूछों के सफाचट होने के पहले और बाद की, मनहूस चौखटे वाली फोटुएँ और टुइयाँ-सी परफ्यूम की शीशी-जोक्स अपार्ट, मनोहर बेचारे के पास बिलकुल जगह नहीं थी-बहुत क्षमा माँग रहा था, समझीं माता-पुत्री?-’

और अगला-उसके बाद का, उसके भी बाद का-नीले, नीले, तमाम सारे खत...मेरे लिए आसमानों जैसे। देख सकती हूँ, कितनी भी दूर से। रात-दिन जग-जगकर मेहनत से पढ़ते, झोल-सी सब्जी और गले, पनीले चावल खाकर गुजारा करते, कहाँ-कहाँ से आकर परदेस में एक साथ हुए लड़के-महाराष्ट्रियन, गोअन, तमीलियन से लेकर माथुर, कोहली, चड्ढा से चतुर्वेदियों तक-हिन्दुस्तान के बाहर, अपना एक छोटा सा हिन्दुस्तान बसाए हुए। रक्षाबंधन पर दूरअंदेशी बहनों की भेजी राखियाँ बाँधकर इंस्टीट्यूट जाते हुए और नवरात्रियों पर गैर-गुजराती नौसिखुए लड़के भी हाथों में डाँडिया आजमाते हुए; फीकी, सूखी होलियों और बेरौनक दीवालियों पर साथ इकट्ठे हो, ‘पॉट-लक’ पर गा-बजा, अपनी बीती होली, दीवालियों की रज्ज-गज्ज याद करते हुए।

कभी वहाँ बसे हुए परिवार बुला लेते हैं। हमवतनों से खूब सारी बातें कहने-पूछने के लिए। साफ लगता है, बस तो गए, चाहे-अनचाहे परदेस में, लेकिन हर एक के अंदर, हर लम्हे, कंदीला-सा एक हिंदुस्तान जगमगाता रहता है। भुलाने की कोशिश में और ज्यादा याद आता हुआ। उस बच्चे-सा, जो सोने का झूठ-मूठ अभिनय करता आँखें मुलकाता रहता है। उन लोगों के पास जाकर अच्छा लगता है-पता चलता है कि याद रखने से ज्यादा मुश्किल भूल पाना है। कल श्रावणी माथुर भावुक हो आई-‘हम तो बेमुल्क ही हुए न। जो कुछ छोड़ा, वह छूट नहीं पाया और जहाँ से जुड़ना चाहा वहाँ से जुड़ नहीं पाए...’

‘हिंदुस्तान जाती हूँ, तो पहुँचने के दिन से ही, माँ वापसी की तारीख पूछकर रोना शुरू कर देती है। एक आँख रोती, एक आँख हँसती है कि सिर्फ इतने दिनों बाद मैं सपना हो जाऊँगी।’...

मैंने श्रावणी माथुर से पूछना चाहा, ‘‘लेकिन क्यों सपना होना पसंद करते हैं लोग? क्यों नहीं अपनी हकीकतों में सब्र रखते?’’ लेकिन पूछा नहीं। यह शायद जख्मों को कुरेद देना होता...और पूछने की जरूरत भी क्या? हम खुद भी क्या दिन-रात अपने-अपनी (सपनों की) गेंदों पर चौके-छक्के उड़ाते, उन्हें बाउँड्री पार जाते नहीं देखते क्या?... क्षमा करना, तुम लोग मन की उपमा मोती से देते थे, हम लोग छक्के मारती गेंदों से। स्थितियों की माँग-वक्त की जरूरत-हा-हा-हा-मोगाम्बो खुश हुआ! अब देखो मैं क्या करूँ-म से ममा, म से मोगाम्बो-जानता हूँ, चिढ़कनी गालियों की बौछार अब शुरू होने वाली है-नालायक, नकारा, निक्कमा...

पिछले 14 अगस्त को अचानक फोन घनघनाया-

‘‘कौन, बब्बा? कैसे बेटे? सब खैरियत तो?’’

‘‘खैरियत बाद में, पहले ‘इंसाफ की डगर...’ वाले गाने का दूसरा अंतरा जल्दी से लिखवाओ तो...कल पंद्रह अगस्त है और हम इंडियन स्टूडेंट एसोसिएशन के फंक्शन में यह गाना गाने जा रहे हैं। बोलो तो जल्दी’’-उसे खिझाने में मजा आता है-‘‘ऐसे तो याद नहीं आ रहा-गाऊँ तो शायद’’-

‘‘चोऽऽप्प! यानी कि इनफ, बस हुआ-कायदे से बोलो जल्दी-’’

‘‘इंसाफ की डगर पर...’’

‘‘वो तो मालूम है, अगला पैरा-’’

‘‘अपने हों-या पराए’’

‘‘अपने हों-या पराए-आगे?’’

‘‘सबके लिए हो न्याऽयऽ–’’

‘‘सबके लिए हो न्याऽयऽ-हाँ?’’

‘‘देखो कदम तुम्हारा’’

‘‘देखो कदम तुम्हारा’’

‘‘हरगिज न डगमगाए’’

‘‘हरगिज न डगमगाए-आगे-’’

‘‘रस्ते बड़े कठिन हैं-’’

‘‘रस्ते बड़े कठिन हैं-ठीक-’’

‘‘चलना सँभल-सँभल के-’’

‘‘चलना सँभल-सँ-भ-ल के-’’

‘‘-बस, इसके बाद वाली लाइनें आती हैं-ओ. के.’’-कट-

‘‘निकम्मे! कम-से-कम हालचाल तो पूछा, बता दिया होता-’’

‘‘बताने के डॉलर लगते हैं...मालूम क्या? ऊपर से परसों मेरा ट्यूटोरियल है। आजकल पार्ट टाईम क्लासेज भी लेता हूँ। जूनियर स्टूडेंटस की कोचिंग भी-तब जाकर एरोग्राम के पैसे जुटते हैं, क्या समझीं? तो इंतजार कीजिए एरोग्राम का-कि-’’

‘जी हाँ-हमारा आजादी का जश्न खूब मना। प्रोग्राम हिट रहा। मेरी आवाज पर भी तालियाँ पिट गईं। जबकि तुमसे थोड़ी ही ज्यादा बेसुरी थी शायद।- हा-हा-हा-जोक्स अपार्ट-ट्यूटोरियल अच्छा लगा। प्रोफेसर्स खुश हैं। मुझसे ही नहीं, ज्यादातर भारतीय छात्रों से। उम्दा नाम कमा रहे हैं हिंदुस्तानी लड़के। उस्तादों की नजर में काबिल, मेहनती।...वे पैसों की या कह लो डॉलरों की कीमत जानते हैं न। एक बहन का दहेज! एक छत का बंदोबस्त! खासकर मेरे साथ वाले तो सब के सब सामान्य मध्यवर्गीय खाते-कमाते घरों वाले नौनिहाल-जिनके माँ-बाप सारी उम्र, सबसे सस्ते साबुन से सबसे ज्यादा सफेदी की टनकार लाने की कोशिश में, पाई-पाई जोड़कर, एक दिन अपने नौनिहाल को उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए अमरीका भेज पाने में सफल हो जाते हैं। बाकी का दायित्व नौनिहाल का। मन में सुगबुगाता रोमांच कि सिर्फ कुछ वर्षों में उपलब्धियाँ और डॉलरों से लदा-फदा उनका नौनिहाल लौटेगा और उनके साथ पुश्तों का दलिद्दर मार भगाएगा। ये लड़के खुद भी तो, बचपन से माँ-बापों को, जिंदगी की उधड़ी सीवनों और उखड़े पलस्तरों की मरम्मती के लिए दम से बेदम होते देखते, महसूसते आए होते हैं। शायद इसीलिए उनकी आँखों में, उनसे ज्यादा उनके माँ-बापों की उम्मीदें झलझलाती होती हैं।

‘और दूसरी तरफ यहाँ के लड़के! ... बेशुमार दौलत, बेरौनक बचपन से अघाए, उकताए, ऐश-आरामों की पिरामिडों में घुटते, हर लम्हें किसी नामालूम तलाश में भटकते, ऊपर-ऊपर सब कुछ पाए हुए...अंदर-अंदर सब कुछ गँवाए हुए से। आत्मविश्वास का एक खोखला ओवरकोट। अपने आपको ढाँके-हर पलायन की एडवेंचर का नाम देते हुए। बित्ते-बित्ते भर की छोकरियाँ, माँ-बाप से कहीं ज्यादा भरोसा अपने डेढ़ बित्ते के सुपनमैनों (बॉय फ्रेंडों) को सौंपती हैं। हर हफ्ते, पखवारे, कच्चे धागों से टूटते इनके भरोसेमंद रिलेशनों को दुबारा-तिबारा जोड़ने की जोड़-तोड़ भी पार्कों, पबों, डिस्कोथिकों और एकांतों में झूम-झटक, लोटपलोट और नशे-धुएँ के गर्द-गुबार के बीच होती रहती है...ये नौसिखुए स्वयंभू...’

‘‘क्याऽ? हम भी?’’

‘‘ना-ना-ना-ना नारे-नारे, हम तो भई आपके पवित्र संस्कारों में डिसइंफेक्ट करके पैक किए हुए ‘हैंडल विद केयर’ वाले पार्सल ठहरे। नाक के सीधम-सीध चलने वाले लायक सपूत। विदेशों में भी अपनी परंपरा की मशाल जलाए अपने देश का नाम रोशन करने वाले। सुयोग्य संस्कारी नागरिक...बेटूटे-फूटे, चिटके-तड़के, साबुत-सलामत, इस संस्कारी नागरिक की बामशक्कत कैद के ढ़ाई साल तो बीत ही गए न मम्मीजान! बाकी रहे सवा दो-यानी कुल जमा पंद्रह फोन और बत्तीस एरोग्रामों के बाद-’’

‘‘ऐ ऽऽऽऽ ये हाजिर हुआ जाता है नाचीज-’’

‘‘लो, हो गया हाजिर...’’

‘‘हाँ तो ये रही थीसिस। बिल्लो जी नकनकाईं। बस्स? इत्ती पतली? इसी थीसिस के लिए उत्ती दूर हॉर्वर्ड, मैसेचुएटस और बोस्टन तक की दौड़ लगाई? इससे मोटी तो हमारे डिपार्टमेंट की सुकन्या मेहरा ने नौ महीने की प्रिगनैंसी के दौरान ही लिख मारी।’’

‘‘अब भई आपकी सुकन्या (जो ठहरी-) मेहरा जैसी डबल रोल, छप्पर फाड़ क्रिएटिविटी मुझमें कहाँ?’’

‘‘और ये इतने सारे कागज’’...

‘‘कागज नहीं मूरख, पेपर्स, आर्टिकल्स-देश-विदेश के जर्नलों में छपे, प्रशंसित हुए-और ये देख, सबसे नायाब तोहफा-मेरे गाइड, डॉक्टर ब्राइसन का दिया प्रमाणपत्र। अभिभूत से ज्यादा भावुक होकर लिखा गया-जमीन से ज्यादा ही ऊपर उछाल दिया है मुझे-’’

‘‘डॉ. वैभव शुक्ला की यह थीसिस, चाइल्ड-नेफ्रेलॉजी (यानि बच्चों की किडनी से जुड़ी) की सारी समस्याओं, जटिलताओं पर किया गया एक नायाब शोध-कार्य है। अत्यंत परिश्रमपूर्ण तथा प्रामाणिक। अपनी शोध के प्रति लेखक की संलग्नता और समर्पण बेमिसाल है...यदि सचमुच विश्व-भर में इसे गंभीरता से लिया जाए तो चिकित्सा विज्ञान विश्व को सुंदर-स्वस्थ बच्चों की एक पूरी पीढ़ी उपहार में दे सकेगा’’...बेला पढ़कर सुनाती जा रही थी।...

‘‘यह इस खिलंदड़े का करतब है री?...ये मुँह और मसूर की दाल?...मैं हँसती हूँ।

‘‘यानी तुम्हें कुकरी के सिवाय कुछ सूझता ही नहीं...कहाँ किडनी की बातें हो रही थीं, वहाँ लगीं मसूर की दाल पकाने-पता है? आने नहीं दे रहे थे डॉक्टर ब्राइसन...वहीं अपने नए प्रोजेक्ट पर रखना चाहते थे-’’

‘‘फिर?’’

‘‘मैंने कह दिया-‘सर’! माय मदर वांट्स टु गेट मी मैरिड-’’

‘‘समझ गए-‘योर मदर? ऑर यू’?’’

‘‘सर! बोथ।’’

‘‘सच्च?’’...सुनते ही मैं चहककर थैलेनुमा लिफाफे की सारी फोटुएँ बिखरा देती हूँ-‘‘ये देख-बता, ये कैसी है?’’

वह तपाक से कहता है-‘‘अच्छी है’’-

‘‘और ये?’’

‘‘अरे ये तो उससे भी अच्छी है’’-

‘‘चोप्प’’-मैं उसकी मसखरी भाँपती हूँ। झुँझलाकर सारी फोटोज समेट देती हूँ। वह छुटकारे की साँस लेता, पेपर्स सलटाने लग जाता है।

मैं पास, दूर से खड़ी अंदाजती रहती हूँ। उपलब्धियों का एक पूरा पुलिंदा जुड़ गया है उसकी एप्लीकेशन के साथ। दीवानगी की हदें पार करते हुए, बच्चों की किडनी-ट्रांसप्लांट पर की गई शोध के दौरान अपनी उम्र के बेहतरीन वर्ष, दिन-रात वह लैब में होम करता रहा है। कोरी महत्वाकाँक्षा से कहीं ज्यादा, एक जुनून की तरह-प्रयोगों पर प्रयोग, निष्कर्षों, विफलताओं, हताशाओं और समाधानों की एक अलग ही दुनिया-उस सबकी परिणति-यह थीसिस। डॉक्टर वैभव शुक्ला ने इसे समर्पित किया है विश्व-भर के, लेकिन खास तौर से हिंदुस्तान के बच्चों को-ब्राइसन ने इसे एक किताब नहीं, एक संकल्प नहीं, एक मिशन की परिणति माना है।

परिणति!...और शुरुआत? ‘निकुंज’ की मौत से-

जब राधा बाई अपने चार बरस के-से दीखते, सात वर्षीय निकुंज को लेकर, रोज जाँच, तपास, अस्पतालों से दवाखानों तक दौड़ती फिरती थी। निकुंज एक-दो दिन ठीक रहता था, वापस बुखार, सुस्ती में पड़ जाता था। जब ज्यादा नागा करने लगी तो दिमाग झुँझलाया। आए दिन बच्चे की बीमारी को अपने बचाव का अस्त्र तो नहीं बना रही यह? जाकर वैभव बाबा के कॉलेज में दिखा के तपास (जाँच) कराके आ-अगर कुछ रोग है तो ठीक इलाज होना चाहिए, वरना तेरे साथ-साथ मेरी जिंदगी भी हलकान।

अगले दिन ही छींटकार बरम्यूडा और शर्ट में सजे, काजल का टीका लगाए निकुंज को लिए अस्पताली नुस्खों के पुलिंदों से लैस, राधाबाई पहुँच गई थी। और सारे चेकअप टेस्टों के बाद हुलसती हुई घर लौटी थी-कितना भला लोग है वैभव बाबा का दोस्त लोग-ये चुंगी का डॉक्टर लोग तो चकला चलाता है, चकला। मरज का पेचान नहीं, इलाज क्या खाक करेगा-बस, पइसा चूसने के फेर में रहता-निकुंज अच्छा हो जाएगा तो हाजी मलंग के दरगाह पर माथा नवाने को ले जाएगी।

तीसरे दिन वैभव रिपोर्ट लेकर लौटा। थका, बुझा, बौखलाया-राख-सा। पूछने पर झल्लाता-होंठों से होंठ चबाता, यहाँ से वहाँ ठोकरें मारता और अंत में चुपचाप बिस्तर पर ढह गया-बहुत देर बाद चाय का प्याला लेकर पास खड़ी हुई तो जैसे अंदर रुंधता-सा कुछ भरभराकर बिखर गया-ममा! निंकुज इज फेडिंग स्लोली-उसकी दोनों किडनियाँ बेकार हो चुकी हैं-मुश्किल से दो-ढाई महीने ही-

‘‘क्याऽऽऽ? मैं अवाक्, स्तब्ध थी...राधा का यह बच्चा निर्धन, गरीबों के दर्जनों की गिनती में पैदा होने वाले आदमजातों में नहीं था। सालों-साल के व्रत-उपवासों, मंदिरों-दरगाहों पर माथा टेकने, मन्नते मनाने के बाद मिला था उसे-सिर्फ इतनी छोटी मियाद के लिए?

उधर राधा थी कि सही जाँच के बाद निश्चिंत, उत्फुल्ल खुशियाँ मना रही थी कि अब वैभव बाबा हफ्ते-महीने में निंकुज को चंगा कर देगा। जाँच के बाद ही निंकुज उसे ज्याद बेहतर लगने लगा था। नादान, बेवकूफ की तरह वैभव ने पचीसों किताबें देख डालीं-जिस-तिस से डिस्कस कर डाला। अदना-सा मेडिकल का छात्र-सब उसकी बेवकूफी पर हँसते-

‘यार! तू जानता नहीं क्या?...दोनों ही किडनियाँ करीब-करीब आखिरी स्टेज पर...हिंदुस्तान का कोई कोना निकुंज को जिंदा रखने की शर्तें पूरी नहीं कर सकता-हाँ, अगर तू उसे बफेलो (अमरीका) ले जाने की सोच रहा हो तो अलग बात है।’

फिर चला था बदहवास दिनों और बेचैन रातों का सिलसिला...जानते हुए भी कि अब कुछ नहीं हो सकता।

पहले बहुत छुपाया गया। फिर खूब सोच-समझकर बता देने का निश्चय। जिससे राधा और बच्चे की कोई इच्छा अधूरी न रह जाए। समय बहुत कम है...

और मुझे निकुंज से ज्यादा वैभव की चिंता उद्विग्न करने लगी थी। रात-दिन पढ़ाई को दिए जाने वाले समय का एक बड़ा हिस्सा, अब निकुंज की पूछताछ को दिया जाने लगा था। होस्टल से पहले की अपेक्षा अब ज्यादा घर आना। नियम से राधा की कोठरी पर हाजिरी बजाना। कभी निकुंज के लिए टॉफियाँ, कभी पतंगें, कभी रंग-बिरंगे गुब्बारों का पैकेट। मेरी उद्विग्नता अकसर उग्रता-भरी बेचैनी में बदल जाती। राधा की शोकांतिका में यह अपने करियर की होली जलाने को तुला बैठा है। पोजीशन लाने की इसकी इच्छाशक्ति ही पूरी तरह समाप्त हो गई दीखती है । इतना खिलंदड़ा, इतना मेधावी और मेहनती लड़का जैसे टूट-फूटकर ध्वस्त-पस्त हुआ पड़ा था।

लेकिन मैं गलत साबित हुई। उसने सँभाला। खुद को भी, राधा को भी। मेडिकल कॉलेज के बच्चों के वार्ड में राधा की पार्ट-टाइम ड्यूटी लगवा दी। हफ्ते में दो दिन अनाथालय, कुछ घंटों को। राधा देखती, शोकाकुल माँओं, क्लांत, कुपोषित, दर्द से कराहते बीमार बच्चों को, साधनविहीन, विपन्न...निकुंज हँसता-खेलता गया-कष्ट नहीं सहा। उसके लिए सब सुविधाएँ उपलब्ध करा दी थीं वैभव बाबा ने...पर रोग असाध्य था। समझ गई थी राधा।

पोजीशन पाने पर भी, सर्जरी, मेडिसन, गाइनेक, सब छोड़कर वैभव ने चुनी पेडियाट्री ब्रांड। किसी को अचंभा नहीं हुआ। डॉ. वैभव शुक्ला स्पेशलाइज करेंगे बच्चों की किडनियों से संबंधित कारणों और इलाजों की संभावनाओं पर। जब शोध पूरी हो जाएगी, प्रमाण जुट जाएँगे, तब सिर्फ बच्चों का एक खूब बड़ा-सा, सारी सुविधाओं से भरपूर अस्पताल-जहाँ उनके माता-पिता भी बच्चों के साथ रह सकें, ऐसी कोशिश। कहाँ ठीक होगा, ममा-लखनऊ, मद्रास, चंडीगढ़-लेकिन अभी तो पहले रिसर्च-लैब की सुविधा जुटानी होगी। कोई बात नहीं, कुल चार-पाँच साल की ही तो बात है न!-

पोस्टमैन...लंबे दबीज लिफाफे के कोन पर छपे इंस्टीट्यूट का नाम पढ़ते ही वह मुझे पकड़कर चर्खी सा घूम गया-

देश के सबसे प्रेस्टीजियस चिकित्सा-संस्थान के इंटरव्यू का बुलावा।

लौटा तो जैसे किला फतह करके। बड़ी गर्मजोशी से मिले संस्थान के उच्च अधिकारी। विदेशों में छपे उसके पेपर्स बड़े ध्यान से देखे, बधाई और शाबाशियाँ दीं। देश को गौरवान्वित करने का श्रेय प्रदान किया गया। और फिर, ‘बहुत शीघ्र सूचित करेंगे’ के सौजन्य के साथ वापसी का टिकट थमाकर विनम्रतापूर्वक विदा किया गया।

अब इसके बाद अन्य किसी संस्थान में एप्लीकेशन भेजने की कोई तुक या जरूरत तो नहीं, फिर भी, क्या मालूम, थोड़े छोटे संस्थान ज्यादा सुविधा, ज्यादा छूट दें काम करने की। प्रतिष्ठा उनके संस्थान की भी तो बढ़ेगी। हो सकता है, इसी वजह से ज्यादा उत्साह से आगे आएँ। रुचि दिखलाएँ...और फिर लिफाफे में टिकट चिपकाए रखे हैं तो भेज देने में हर्ज क्या?

इंतजार में बहुत सारे दिन हलाक किए गए। पहले उत्साह, उत्तेजना, फिर विभ्रम, उद्विग्नता और आखिर में हैरानी, विस्मय-आखिर क्या हुआ? पोस्ट ऑफिस में पता किया जाए!...कुरियर लौटा तो नहीं? कहीं मेरी स्वीकृति का इंतजार न करते हों वे लोग! और तब अनिच्छा से फोन मिलाया गया। कई लाइनों से होता हुआ फोन, संबद्ध उच्चाधिकारी तक पहुँचा तो उधर से बला की शिष्ट, संक्षिप्त और मुलायम आवाज में बताया गया कि-‘‘हमें दुख है कि सारी कोशिशों के बावजूद हम अभी अपने संस्थान में आपके लायक पोस्ट क्रिएट नहीं कर पा रहे, जिसमें आपकी योग्यता का पूरा लाभ उठाया जा सके।-बेहतर हो, आप हमें कुछ वर्षों का समय दें।’’

कुछ वर्षों...ओ...तो यह राज था इनकी खामोशी का।...

अनुभव की यह पहली कुनैन चुपचाप नहीं गुटक पाया था वैभव।

बेला के हाथों से पानी का भरा गिलास ले, गटागट पीकर निढाल पड़ा रहा।

लेकिन जल्दी ही विमूढ़ मनःस्थिति से छुटकारा पा, दूसरे अस्पतालों, संस्थानों और मेडिकल कॉलेजों में लिफाफे भेजने की गति बढ़ा दी।-छोटे-बड़े से क्या होता है, काम करने की सुविधा और संतोष मिलना चाहिए बस...

‘‘वह आपको नहीं मिल पाएगा हमारे यहाँ’’-संस्थान नंबर दो के निदेशक ने पिंड छुड़ाते हुए कहा, ‘‘आपके स्तर का माल-असबाब कहाँ से लाएँगे हम? इंफ्रास्ट्रक्चर नहीं है हमारे पास। न अमरीका, न आस्ट्रेलिया जैसी ग्रांट...’’

तीसरे संस्थान के सरपरस्त ज्यादा बेतकल्लुफ थे-‘‘आप आ जाएँगे तो हमारे पास कौन आएगा बंधु! बच्चों की किडनी बचाने के फेर में हमारे पेट पर तो लात पड़ जाएगी न भइए। हमें कौन बचाने आएगा? सो हमें बख्शो माई-बाप...’’

वक्तव्य नंबर तीन-‘‘एक बात पूछूँ? यह इतने परिश्रम और निष्ठा से अर्जित ज्ञान, विज्ञान और अनुसंधान की पूँजी इस ठंडे, भद्दे, टुटपुँजिए बाजार में क्यों लाए हैं, मान्यवर! मेरी मानिए, आपके लिए उचित स्थान वाशिंगटन, किशिगन और बोस्टन ही हो सकते हैं!’’

‘‘लेकिन हिंदुस्तान में रहना चाहता हूँ। एक निरीह-सी हो आई आकाँक्षा।

‘‘हिंदुस्तान में? भला क्यों?...बंधु! आप क्या दूसरों का इलाज करेंगे, आपको तो खुद ही इलाज की जरूरत है।...इतने पैसे खर्च कर कमाया हुनर इस मिट्टी के मोल बेचना चाहते हो? इतना भी नहीं जानते कि यही मुर्गी वहाँ सोने के अंडे देगी और यहाँ हलाल कर दी जाएगी’’...

‘‘अपने देश में रहना है! ओ...फिर तो आप डॉक्टर नहीं, फरिश्ते हुए फरिश्ते डॉ. शुक्ला। आप ऐसा कीजिए, अगर कोई संस्थान मेहरबान नहीं, तो आप एक मोबाइल हॉस्पिटल बनाइए। शहर-दर-शहर घूमिए अपने मिशन पर। दवा, शोध, जाँच सब मुफ्त मुहैया कराइए। असली देशसेवा तो ये हुई, विदेशों में कमाए डॉलरों की मार्फत’’...

सुझाव नंबर तीन-‘‘हूँ, तो ऐसा कीजिए, लोअर, जूनियर लेवल पर जॉयन कर लीजिए। इतना ‘फेवर’ जरूर कर सकते हैं हम आपका।’’

नंबर चार-‘‘समझ में नहीं आता, जब आपलोग इतने देशभक्त हो तो डिग्रियाँ क्यों लेकर आते हो इंपोर्टेड?-अरे इसी ‘लेवल’ की इंडिया की डिग्री लेकर आओ।’’

‘‘जी, लेकिन बच्चों के किडनीजन्य रोगों के उच्च शिक्षण की व्यवस्था अपने देश में है ही नहीं न, नहीं तो मैं-’’ (निकुंज को बचा नहीं लेता!)

‘‘सीधी-सी बात है, वो हमारी डिग्रियों को मान्यता नहीं देते तो हम उनकी को क्यों दें?’’

‘‘लेकिन इसमें नुकसान तो हमारा, हमारे बीमार बच्चों का होता है न-’’

‘‘अरे छोड़ो, हिंदुस्तान में बच्चों किडनी के रोगों से उतने कहाँ मरते हैं!’’ बात टाली जाने लगी।

‘‘उतने? मतलब? हम जाँच ही कहाँ कर पाते हैं सर! जाँच की व्यवस्था ही नहीं है। असहाय माँएँ और बीमार बच्चे अच्छे होने की उम्मीद में टुकर-टुकर देखते-देखते निस्पंद हो जाते हैं। (निकुंज की तरह-) और हम कुछ नहीं कर पाते। नहीं, सर! मैं आपके मरीज को नहीं हथियाना चाहता। मैं तो सिर्फ उन बच्चों को बचाना चाहता हूँ जो इलाज और सुविधा...’’

‘‘या हमें मारना?’’ उनकी आँखों में एक हिंस्र भाव है। तर्क की तराजू डगमगाने लगी तो सीधे बाट उठाकर सिर पर दे मारा-‘‘अजी, हिंदुस्तान की तो वैसे ही आबादी की मार से कमर टूटी जा रही है, और तुम हो कि रोगी, अपाहिज बच्चों को किडनी-ट्रांसप्लांट और डायलिसिस पर चढ़ाने निकले हो। इससे तो अच्छा होता परोपकार के नाम पर भुखमरे बच्चों के लिए रोटी जुटाने का बंदोबस्त करते। खैर...आपकी यह थीसिस और बायोडाटा बेशक जोरदार है, लेकिन हमारे काम का नहीं। आप तो वहीं जाओ जहाँ से बायोडाटा लाए हो-’’

जॉब लेने जाता। सीखें, सलाहें और जुगालियाँ लेकर लौटता...और लौटता तो अकसर बीच के मेज पर ताजे अखबार होते। अखबारों में देश की ज्वलंत समस्या पर हेड लाइनें, संपादकीय या फिर विशेष रपटें...जिनका साराँश होता कि ‘यह अपने देश का दुर्भाग्य है कि इस मिट्टी में उपजे, पले और शिक्षाप्राप्त उच्च तकनीकी संस्थानों के मेधावी छात्र अपने देश में रहना ही नहीं चाहते। चिकित्सा-प्रबंधन और टेक्नोलॉजी के प्राय: सभी नामी-गिरामी संस्थानों में तो ये छात्र प्रवेश ही इसलिए लेते हैं कि जिससे विदेशी विश्वविद्यालयों में इनका एडमीशन सुनिश्चित हो जाए। काश! अपने देश की प्रगति और समृद्धि की दिशा में हमारे युवा सोच पाते!...’

वह बाज की तरह इन पृष्ठों पर झपट जाना चाहता है कि रुक जाता है। शर्मिंदा होता है कि माँ-बहन को उदास किया। उस अपराध-बोध से उबरने के लिए वर्षों पहले देखी फिल्म सात हिंदुस्तानी के अमिताभ बच्चन वाले डायलॉग की मिमिक्री कर बैठता है-

सितारों के आगे जहाँ और भी हैं अभी इश्क के इम्तहाँ और भी हैं-

‘‘आइडिया! थोड़ी कोशिश सितारों के आगे भी करके देख ली जाए। क्यों ममा! यानी अंतरिक्ष-अनुसंधान केंद्र में भी अपना नाज दर्ज करा आऊँ। जब वहाँ भी कॉलोनियाँ बसेंगी, बस्तियाँ होंगी, बच्चे होंगे तो शायद मेरी सेवाओं की जरूरत लोगों को महसूस हो’’।

‘‘बेशक! और तब बब्बा, तुम मजे से अंतरिक्ष में बैठे यहाँ के प्रधानमंत्री से फोन पर बतियाना। प्रधानमंत्री कहेंगे-हमें तुम पर गर्व है वैभव! तुम हिंदुस्तान के वैभव हो।’’-

‘‘लेकिन एक बात है, अंतरिक्ष में अपना कार्यभार सँभालने से पहले उन सारे संपादकों पर नालिश भी तो करवानी है, जो भारतीय युवाओं को लेकर गलत-सलत खबरें-’’

‘‘बेशक! सजा तजवीजनी जरूरी है।’’

‘‘उम्रकैद?...नहीं, फाँसी बब्बा।’’

बेला अब जी-जान से उसे हलका करने के बहाने ढूँढ़ती रहती है।

‘‘हाँ री बिल्लो, अदालती कार्रवाई इतनी लंबी तो खिंचेगी ही कि इसी बहाने पूरी उम्र अपने इसी घर में कट जाए-’’

जैसे आर-पार चीरते चले गए, उसके संताप में डूबे, बिंधे शब्द-तत्क्षण परिहास भी-बिल्लो जी, आप मेरी थीसिस को पतली बता रही थीं न-अब देखिएगा। मैं इससे कहीं मोटी किताब भारतीय चिकित्सा संस्थानों में हुए अपने साक्षातकारों के अनुभवों पर लिखता हूँ। मम्माजी, इस वर्ष की ‘बेस्ट सेलर’ होगी वह किताब। हा-हा-हा-वह जी-जान से कोशिश करता लेकिन उसकी हँसी की खनक खत्म होती जा रही थी।

‘‘पोस्टमैन!’’ अब पोस्टमैन आना भी एक विद्रूप-सा ही लगता। एक और अस्वीकार...

वैभव हाथों में पकड़ा लिफाफा खोलता है।

दक्षिण कोलंबिया के अपने निभृत एकाकी पुश्तैनी घर में छुट्टियाँ बिताने आए डॉक्टर ब्राइसन ने उसे बुलाया है। उन्हें बच्चों की किडनी से जुड़े अपने नए प्रोजेक्ट के सिलसिले में उसकी मदद चाहिए। एक तरह से यह प्रोजेक्ट वैभव के सपने, उसके मिशन को ही आगे बढ़ाने वाला है। इस प्रोजेक्ट से जुड़ने के आकाँक्षी, लालायित बहुत लोग हैं, पर ब्राइसन उसे चाहते हैं। उसका जवाब पाने के बाद ही कोई निर्णय लेंगे। इसीलिए संस्थान से औपचारिक पत्र न भेजकर अपने घर से-डॉ. ब्राइसन ने यह भी पूछा है, इस बीच उसने कहीं जॉयन कर लिया क्या?

अधूरा पढ़ा खत थामे वैभव खड़ा है। वह अभिभूत है। गर्वित है, सम्मोहित है, संकुचित और शर्मिंदा भी।

वह ब्राइसन को झूठ नहीं लिख सकता।

वह सच को भी नहीं, स्वीकार पा रहा।

पहला, उसकी आदतों, संस्कारों में शुमार नहीं।

दूसरा, उसके आत्मसम्मान को ग्राह्य नहीं।

वह कैसे लिख सकेगा ब्राइसन को कि अपने जिस देश की आत्मीयता, आत्मा, संस्कार और उसूलों की बातें करते-करते वह भावुक हो उठता था, उसमें उसे शरण नहीं मिल पा रही। वहाँ वह तिरस्कृत, उपेक्षित है। अनवांटेड।

एक बार डॉ. ब्राइसन ने उसकी बचपनियाँ बातें सुनते-सुनते कहा था-‘‘वैभव! मैं हिंदुस्तान को नहीं जानता। तमाम सारे विरोधाभास उत्पन्न करती हैं हिंदुस्तान पर पढ़ी-सुनी बातें...लेकिन तुम्हें जानता हूँ और तुम्हारे माध्यम से हिंदुस्तान को प्यार करने लगा हूँ।’

ब्राइसन के दिल में हिंदुस्तान के लिए पैदा हुआ प्यार वैभव की उपलब्धि है। वह प्यार किसी ठोकर से चूर नहीं होना चाहिए।

तब कैसे इस विरूप सच को छुपाए?

ब्राइसन ने लिखा है-‘मुझे मात्र एक महत्वाकांक्षी, परिश्रमी, शोधार्थी नहीं चाहिए...एक रूखा अन्वेषक भी नहीं। एक दोस्त भी चाहिए, एक पिता भी, छोटा भाई, बड़ा बेटा-सब कुछ एक साथ...और ये सारे नामी-अनामी रिश्ते तुम हिंदुस्तानी बड़ी आसानी से, बड़ी गहराई से ईजाद कर लिया करते हो...’’

अधूरे खत, खुली आँखों एक सपना देख रहा है वैभव-डॉक्टर ब्राइसन के साथ वह भारत में बाल-रोगों पर होने वाले अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में विशेषज्ञ की हैसियत से सहभागी है।

सेमिनार में पढ़े गए उसके पर्चे ने धूम मचा दी है। देश-विदेश के विभिन्न चिकित्सा संस्थानों के प्रतिनिधि, उच्चाधिकारी उसे बधाई दे रहे हैं। अपने संस्थान में, विश्वविद्यालयों में आने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं...उसे हारों, पुष्प-गुच्छों से सम्मानित किया जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्री बच्चों की किडनी से संबद्ध उसके शोध की बहुआयामी उपलब्धियों पर उसे बच्चों का मसीहा और भारत का गौरव घोषित कर रहे हैं...

‘‘बब्बा! चाय-’’ बिल्लो चहकती है। चौंकता है वह, अपने आप में लज्जित-सा भी।

‘‘बधाई बब्बा।’’

‘‘क्यों भला, बिलो बिदकनी?’’

‘‘क्यों?...क्योंकि मानुष की गंध, बब्बा, मानुष की गंध...’’ (इस देश से न सही, पराए देश से मानुष की गंध तो आई।)

लबालब आँसू-भरी आँखों से दोनों ठठाकर हँसे।

‘‘अरे, यह पुनश्च यानी कि पुछल्ले में क्या लिखा है ब्राइसन ने?-’’

‘‘लिखा है, मैं वादा करता हूँ, प्रोजेक्ट पूरा होने पर तुम्हें तुम्हारे देश वापस भेज दूँगा-तुम्हें छीनूँगा नहीं तुम्हारे देश से...’’ और यह भी कि-

‘‘तो मैं इंतजार करता हूँ...’’

इस खत के मिलने के तीन हफ्ते बाद वैभव को टिकट मिल गया था।

हवाई जहाज में बैठने से पहले, उसने मुड़कर वापस चारों तरफ देखा और अपने देश से कहा-

‘‘तो, मैं इंतजार करूँ?...’’