माय नेम इश ताता / सूर्यबाला

Gadya Kosh से
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तोतली ताता असल में सुजाता है।

‘ताता’ तो उसने खुद अपने-आपको तुतलाए बोलों में प्रचारित कर रखा है। हुआ यह कि सवा-डेढ़ की होने के साथ ही स्कूल में उसके दाखिले को लेकर दौड़-भाग करती नीना उसे उठाते-बैठाते, बाल काढ़ते, जूते पहनाते लगातार इंटरव्यू के लिए रटाती रहती थी।

‘जब मैडम पूछेगी, व्हाट इज योर नेम चाइल्ड? तो क्या कहेगी मेरी बेबी?’

‘ताता’-टप-टप दो तोतले ता पकी जामुन-से टपक पड़ते-‘माय नेम इश ताता...’

थकान से निढाल नीना भरपूर राहत से भर जाती। एक बार, बस एक बार ताता को शहर के बेस्ट ‘प्रेप’ में एडमीशन मिल जाता तो वह अपने ऑफिस की मोना दीवान और सपना मजुमदार को दिखा देती कि हारी हुई पारी को जीत में बदल देना भी वह जानती है।

लेकिन इंटरव्यू वाले दिन, ऐन वक्त पर ताता को न जाने क्या हो गया। पहले तो वह सोती रही थी, फिर जगी तो अचानक चिड़चिड़ी हो उठी। नीना ने उसका मूड ठीक करने के लिए उसे चॉकलेट, पेप्सी सब लाकर दिए; लेकिन इंटरव्यूवाली मैडम के सामने उसने गरदन जो लटकाई, सो लटकाई। चेहरा मनहूस घोंघे-सा सिकोड़ा, सो सिकोड़ा। मजाल है जो नीना या स्कूलवाली मैडम ताता की गरदन और चेहरा रत्ती-भर भी दायें-बायें या ऊपर-नीचे हिला-डुला सकें। नीना बेचैन हो पसीने-पसीने हो उठी। कितनी बार दुलराया, फुसलाया, ‘बोलो बेबी, बोलो, बोलो न, बताओ मैडम को-व्हाट इज योर नेम’

...लेकिन ताता टस-से-मस न हुई।

अपना नाम बताना तो दूर, पूछे गए किसी भी सवाल का जवाब ही नहीं। मैडम ने दो-चार खिलौने, डॉल्स दिखाईं। ‘क्या ताता के पास डॉल है?’ लेकिन ताता का लटका चेहरा सन्न-सपाट, जैसे वह न कुछ सुन रही हो, न समझ रही हो। पूरी तरह प्रतिक्रियाविहिन।

चेहरे पर छाई खिसियाहट, परेशानी और खीझ छुपाती नीना ने मैडम को समझाने की कोशिश की; लेकिन जैसी उम्मीद थी, मैडम ने बड़े तरीके से मुस्कराकर कहीं और ट्राइ करने का मशविरा दे दिया।

नीना तमाचा खाकर लौटी जैसे। ताता को धप्प-से सोफे पर डाला और रुआँसी होकर फट पड़ी शौनक के सामने। ‘‘ऐसी मनहूस, कद्दू-सी सूरत बनाए बैठी रही पूरे पौने घंटे जैसे कसम खाई हो एक शब्द भी न बोलने की-एडमीशन क्या खाक होता...’’

शौनक हैरान, क्या कहती हो? घर में तो चीख-चीखकर बात-बेबात ‘माय नेम इश ताता, माय नेम इश ताता’ की बकबक से जीना दुश्वार किए रहती थी। सुनते-सुनते कान पक जाते-कितनी बार चीखकर चुप कराना पड़ता-‘शटअप! सुन लिया, योर नेम इज ताता-ओ.के.! चलो, अब जाकर अपना नया वाला एरोप्लेन चलाओ, नहीं तो ब्लॉक्स बनाओ। मुझे काम करने दो। आउट...’’

लेकिन ताता पर तो जैसे तोतारटंत का भूत सवार होता, विशेषकर शौनक के ऑफिस से लौटने पर। दिन-भर का रटा-रटाया बीसियों बार दोहराती। यहाँ तक कि एक दिन ऑफिस से भन्नाए लौटे शौनक का रोकते-न-रोकते भरपूर चाँटा पड़ गया था ताता के गालों पर।

दर्द से बिलबिलाई ताता जोर-से रो पड़ी; लेकिन हिलक-हिलक के सिसकारी भरती वह ज्यादा हकबकी, हैरान इसलिए थी कि जो कुछ उसे दिन-भर रटाया जाता, बार-बार सुनाने को कहा जाता, सुनकर खुश हुआ जाता, उसे ही जब उसने पापा को खुश करने के लिए बार-बार सुनाना चाहा तो उसे चाँटा मारकर अपमानित क्यों किया गया?

उस दिन शौनक बाद में पछताया भी, फिर ताता को बाजार ले जाकर बड़ी-सी एक चॉकलेट और नई डॉल खरीद लाया था। खरीदकर हलका हो गया था। पछतावा काई-सा खुरच-छँट गया था। लेकिन इस वक्त नीना की दयनीय, रुआँसी शक्ल देखकर वह वापस गुस्से से बौखला पड़ा-

‘‘देना था वहीं जोर का एक चाँटा। बोल आपसे-आप फूट जाते। मैंने पहले भी हजार बार कहा है, लेकिन तुम्हारे ऊपर तो चाइल्ड साइकोलॉजी का भूत सवार रहता है न। अब भुगतो अपना किया। मैं होता न, तो...’’

‘‘क्या कर लेते तुम, जरा सुनूँ तो?’’ शौनक का सहानुभूति-प्रदर्शन की तर्ज पर शेखी बघारने वाला लहजा नीना को तमतमा गया, ‘‘शादी के बाद से अब तक अपना किया ही तो भुगत रही हूँ। वहाँ चाँटा जड़ देने से एडमीशन हो जाता क्या? उलटे तमाशा जरूर खड़ा हो जाता। हर बात में, ‘मैं होता तो, मैं होता तो’...मैं पूछती हूँ, क्यों नहीं होते, क्यों नहीं हुआ करते ऐसे मौकों पर तुम? मुझे सब मालूम है। हमेशा ऐसे मौकों पर ऑफिस की इमरजेंसी मीटिंग, वर्कशॉप आदि के नाम पर झूठ-सच बोल, अपना पिंड छुड़ाकर मुझे आगे कर देते हो; जिससे बाद में जरा भी ऊँचा-नीचा हो तो तुम अकड़कर अपना सुरक्षित वाक्य बोल सको-‘मैं होता तो...’ अब मुझे समझ में आया, ताता में ये आदत आई कहाँ से... ऐन मौके पर ठीक अपने पिता की तरह ही वह मौका ताककर दबोचती है।’’

‘‘देखो, अब अपनी असफलता की तिलमिलाहट ख्वाहमख्वाह दूसरों पर उतारने की कोशिश तो तुम करो मत।’’

शौनक का स्वर कड़ा हो गया।

नीना दुगुने वेग से चीखी, ‘‘हम दोनों की जिंदगी में सिर्फ मेरे ‘फेल्योर’ की थिगलियाँ और तुम्हारे ‘एचीवमेंट्स’ के सितारे टाँकते जाना तुम्हारी हमेशा की खूबी रही है-साजिश भी, कि दूसरों के सामने...’’

‘‘नीना, प्लीऽऽऽज शटअप...’’

नीना भी दाँत पीसकर चीखी, ‘‘यू शटअप!’’ यहाँ तक कि शौनक का उठा हुआ हाथ नीना ने दाँत पीसते हुए बीच में ही रोककर मरोड़ दिया।

और अचानक दोनों की दृष्टि दूर खड़ी, सहमकर पीली पड़ती ताता पर गई।

‘‘नो चाइल्ड, नो!’’ नीना लपकी।

‘‘आया!’’ शौनक दहाड़ा, ‘‘बेबी को ले जाओ।’’

आया, जिसका पूरा ध्यान अभी तक शौनक और नीना द्वारा दी जाने वाली अँग्रेजी की गालियों पर था और जो बड़े मनोयोग से रस ले-लेकर यह नाटक देख रही थी, अचानक चौंकी और झपाटे से ताता को पुचकारती अंदर चली गई।

शौनक आपे में लौटा। सोफे पर सिसकियों का ढेर बनी नीना से मुखातिब हुआ, ‘‘सॉरी! जानती तो हो, ऑफिस में आजकल कितना टेंशन है। दरअसल, मैं भी घर तभी-तभी ही लौटा था...’’

‘‘और मैं? मैं तो ऑफिस पिकनिक मनाने के लिए जाती हूँ न! तुम्हें मालूम है, मनचंदा आजकल जानबूझकर मुझे सुनाते हुए मोना दीवान की डिजाइनों की ज्यादा ही तारीफ करते हैं। इधर ली गई छुट्टियों की वजह से वे मुझे शगल के लिए ऑफिस आने वाली डिजाइनर समझते हैं। ऊपर से हर रोज आया की धमकियाँ, ताता का एडमीशन, मोना दीवान का टेंशन...उधर ऑफिस, इधर तुम, आया, ताता, फोन, बिजली, गैस, लाइसेंस, कनेक्शन, फंगस, कॉक्रोचेज और...’’

और कहते-कहते नीना की पीठ पर हिचकी का एक जोरदार हिचकोला उठा। हिचकोला सही मौके पर आया। शौनक पूरी तरह से पिघल गया। (वरना सिसकी फूटने में एक मिनट की भी देर हुई होती तो नीना की फेंकी ईंटों के जवाब में दर्जनों पत्थर इधर भी तैयार थे) क्योंकि ताता को एडमीशन के लिए ट्रेनिंग देने का छोड़कर तो बाकी सारे काम फिफ्टी-फिफ्टी के अनुबंध पर ही चल रहे थे। अंदर-अंदर शौनक अब भी यही सोच रहा था कि किसी तरह नीना के गुस्से की यह बला टाली जाए, किसी भी शर्त पर। खैर, वैसे भी पिछले पूरे छह महीनों से नीना ताता को दाखिले के लिए जी-जान से तैयार करा रही थी, इसमें जरा भी शक नहीं।

शौनक और नरम पड़ा, ‘‘चलो, तुम्हें लिज में पिज्जा खिला के लाता हूँ। मेरा भी लंच आज बड़ा बोर था।’’

नीना कोहनी टिकाए बैठी रही-वह अब भी हताशा से उबर नहीं पा रह थी।

‘‘मुझे विशवास ही नहीं हो रहा जैसे...बार-बार यही लग रहा है, काश! इस वाले स्कूल में एडमीशन हो गया होता...जरा-सी भी बोल गई होती...क्योंकि प्रिंसिपल तो मुझसे बहुत ही इंप्रेस्ड थी...’’ (शौनक मन-मन मुस्कराया, बेशक, बाकायदे, ‘पार्लर होकर जो एडमीशन दिलाने गई थी ताता को...’)

‘‘छोड़ो भी, और भी बहुत-से स्कूल हैं। छह महीने बाद सही...’’

‘‘पर इस स्कूल की बात ही और थी...और फिर लोगों से क्या कहेंगे? तुम्हारे-मेरे इतने कुलीग्स, दोस्त, पहचान वाले...कि ताता इंटरव्यू में फेल... एडमीशन नहीं हुआ!’’

‘‘हाँ, हाँ, नहीं हुआ-बस, कह देंगे लोगों से। जो सोचना हो, सोच लें, करना हो, कर लें। बस, चलो उठो। हम दोनों को चेंज की सख्त जरूरत है। कम्मान...’’ शौनक ने प्यार से कंधे पर थपकी दी, ‘‘आया के जाने के टाइम से पहले लौटना भी तो है।’’

नीना ने दीवान से चुन्नी उठाकर गले में फँसाई। होंठों पर लिपस्टिक घुमाई और पैरों में सैंडिलें डालती निकल गई।

दोनों चले गए तो आया ने चैन की साँस ली। उसने सहमी, हदसी ताता को उसके खिलौनों, रंग-बिरंगी किताबों और कलरपैनों के बीच ला बिठाया। ‘‘हाँ, अब अच्छे से खेलने का-चलो, अपना किचेन सेट से मुझे चाय बना के पिलाओ तो।’’

और आया आधी पढ़ी ‘तिलिस्मी कोठी’ खोलकर बैठ गई।

ताता ने जोर-से पैर पटका, ‘‘नईं, मैं अपने कप में तुमको चाय नईं देती।’’

‘‘ओ. के. बाबा।’’ आया बिलकुल डिस्टर्ब होना नहीं चाहती थी-‘‘मत दो बाबा, खेल खेलो अपना-देखा...कितना अच्छा बुक्स! छोटा-बड़ा पप्पी...एलीफैंट...डॉल...’’

‘‘नईं, मैं कुच्छ नईं खेलती-तुम मुझको श्नोवाइट की इश्टोरी सुनाओ।’’

आया फिर बिदक गई-‘‘इश्टोरी तो तुमको कित्ती बार सुनाया है, बेबी। वोई-वोई बात। अब्बी बस, पिक्चर देखने का। ये देखो इस्नोवाइट और ये देखो उसको जहेर का ढी एप्पल खिलाने वाली रानी-बुड्डी अम्मा, बस?’’

ताता अचानक रंगीन किताब पर बने चित्र की क्रुकेड क्वीन सौतेली रानी के बिचके होंठ, मिचमिचाती आँखें और सिकुड़े, बिदुरे चेहरे को देखकर चीखी, ‘‘आया! तुम बुड्डी अम्मा हो...हो न!’’

आया सिर से पाँव तक अवहेलित हो जल उठी।

‘‘बैड गल्ल बेबी! जाओ, अब मैं तुम्हें दुद्धू नईं दूँगी। बोलो, आया अच्छी!’’

ताता ने अंदाजा लगाया, आया चिढ़ रही है। उसे मजा आया, ‘‘नईं, तुम दंदी। तुम बुड्डी अम्मा।’’

अपमान से सुलगकर आया का चेहरा और ज्यादा सिकुड़ता जा रहा था। बुरी तरह मुँह बिदोरकर उसने कहा, ‘‘गंदी बेबी।’’ लेकिन उसे जल्दी-से-जल्दी ताता की जबान पर आया वह शब्द भुलवाना भी था, वरना ताता का क्या ठिकाना, चार आए-गए के सामने कभी भी ‘बुड्डी अम्मा’ उचार जाए!

‘‘चलो, दुद्धू पीओ और सो जाओ-तुम्हारा मिजाज ठिकाने नईं है। जब पापा का जोर का थप्पड़ पड़ेगा न, तब्बी तुम्हारा अक्कल...’’

सुनने के साथ ही ताता को पापा, मम्मी, उनका लड़ना, बिफरना और फिर कंधे सहलाते, गले में चुन्नी डाले, साथ-साथ बाहर निकलना याद हो आया।

अचानक ही वह जैसे असहाय हो आई। उसने हथियार डाल दिए और चुपचाप आया की थमाई दूध की बोतल थाम ली। लेकिन दूध फीका, ठंडा और बेस्वाद लगा; पर सहमी ताता बेमन से बोतल मुँह से लगाए रही।

बोतल मुँह में दबाए ताता की उदास आँखें अपने चारों तरफ टकटोर रही थीं। एक-से-एक महँगी मोटरकारें, एरोप्लेन, हेलीकॉप्टर, बिल्डिंग सेट, किचेन सेट, डॉल्स, स्टफ टॉएज, पूसीकैट, जिर्राफ, छोटे-बड़े टेडीबियर, और भी न जाने क्या-क्या, फर्श पर चारों तरफ रंग-बिरंगी किताबें चरखी, फिरकनी, ब्लॉक्स...

और इन सबके बीच ताता और आया।

आया और ताता।

अचानक ताता की आँखें एक डॉल पर ठिठककर सहम गईं। वह वही डॉल थी जो पापा ने उसे चाँटा मारने के बाद खरीदी थी।


अगले हफ्ते अचानक आया छोड़ गई। नीना सनाका खा गई। तैश में आकर बिफरी, ‘‘ऐसे कैसे छोड़ सकते हैं हम तुम्हें?...तुम्हें मालूम है, मुझे ऑफिस जाना होता है?’’

‘‘आपने तो बोला था, बेबी का आडमीसन हो जाएगा।’’

‘‘आया! तुम्हें तो अच्छी तरह मालूम था कि बेबी का एडमीशन अभी नहीं हो पाया।’’

‘‘लेकिन हम लोगों को भी अच्छा जॉब रोज-रोज हाथ पे रखा तो नहीं रैता न, मेम साब!’’ आया ने नक्शा झाड़ा।

‘‘तो तुम अभी छोड़ना चाहती हो?’’ नीना दनदनाती हुई अंदर गई और पगार के नोट उसके सामने पटककर चीखी, ‘‘ओ. के., गेट लॉस्ट।’’

आया भुनभुनाती हुई सलाम मारती निकल गई थी।

ताता तो पूरा दम लगाकर जोर-से तुतला दी, ‘‘गेत आउत!’’ फिर सहमी-सी, सोफे पर निढाल ढलकती मम्मी को देखकर दुबारा बुदबुदाई, ‘‘आया बुड्डी अम्मा-दंदी आया...’’

वह मम्मी की मदद करना चाहती थी; पर कैसे करे? कुछ न सूझा तो वह सोफे पर निढाल पड़ी नीना से चिपक गई। नन्हें-नन्हें लटपटे बाल गालों पर झूल आए। नीना चौंकी। वह बेतहाशा ताता को चूमने लगी।

आज बहुत दिनों बाद मम्मी ने उसे इतना प्यार किया था। ताता यह भी धुँधला-सा समझ रही थी कि मम्मी कहीं उसे लेकर परेशान है। लेकिन ताता आखिर मदद करे भी तो कैसे? उसकी भोली आँखें जैसे नीना से पूछ रही थीं-‘मेरी गलती क्या है?’

हाँ, गलती कहीं नहीं थी। किसी तरह की नहीं। नींव तो बहुत सोच-समझकर रखी थी, शौनक और नीना ने। अपने वैवाहिक जीवन की एक-एक ईंट नाप-जोखकर, पूरी सतर्कता और होशियारी से। दोनों पढ़े-लिखे नौकरीपेशा। समझदार और मेच्योर। शादी का मतलब शादी है, किसी का किसी पर दबाव या अहसान बिलकुल नहीं। इसलिए शुरुआत से ही सारे हिसाब-किताब बराबर-बराबर। अपने-अपने शौक, सहूलियतें, करियर और घर-बाहर काम के घंटों का भी बराबर विभाजन। सारी खुराफातों की जड़ पैसा, तो अपने-अपने खर्चे अपने हिसाब और पैसों की व्यवस्था भी अपने तरीके से। एक-दूसरे की सीमा में हस्तक्षेप बिलकुल नहीं।

इस सूझबूझ पर दोनों ने अंदर-अंदर अपनी-अपनी पीठ ठोंकी थी। शादी से पहले जिस तरह रेस्टोरेंटों और कॉफी हाउसों में कई-कई मर्तबे इकट्ठे होकर दोनों ने आगामी जीवन के सारे मुद्दे हर कोण से डिस्कस किए थे, कोई तीसरा सुनता तो यही सोचता कि यह किसी विवाह या पश्चिम जैसे मधुर रिश्तों के बजाय किसी बराबरी के हकदारी दावेवाला कानूनी करारनामा है।

अपनी तरफ से नीना ने बड़ी बारीकी से बस, एक मुद्दा और जोड़ा था कि पति-पत्नी ही नहीं, किसी अन्य तीसरे की दखलअंदाजी भी दोनों के बीच गलतफहमी का कारण बन सकती है। समझदार को इशारा काफी। शौनक ने फौरन नीना को यह कहकर निश्चिंत कर दिया था कि शुरू से कस्बे में रह आई माँ ने हमेशा शौनक को शहर के अच्छे स्कूलों में पढ़ाया है। और खुद कस्बे के उसी मकान में, ऊपर-नीचे दो-चार कोठरियाँ बनवा, उन्हें किराये पर उठा, अब तक का सारा जीवन एकादशी, प्रदोष, जन्माष्टमी, रामनवमी तथा ‘गबन’, ‘गोदान’ और ‘साकेत’ की सोहबत में काट ले गई हैं। वैसे भी माँ की प्रकृति और जीवनशैली कभी उन दोनों के बीच हस्तक्षेप करने वाली या बाधक नहीं बनेगी।

लेकिन इतना सोच-समझकर बिछाए गए सारे समीकरण ताता के आने के साथ ही लड़खड़ा गए थे। हालाँकि ताता का आगमन कोई दुर्घटना नहीं था। साल-डेढ़ साल में आखिर एकाध बच्चे का लाना तो तयशुदा था ही। और लाएँगे तो कमर कस के, पूरी तैयारी और समझदारी के साथ।

लिहाजा नीना ने पूरे नौ महीने किताबों पर किताबें पढ़ीं। मैगजींस पर मैगजींस। उनमें लिखी सारी हिदायतें पालीं। इतने से इतने महीने बच्चे का इतना विकास, इतना ज्ञान, ये लक्षण, ये सावधानियाँ, पूरा बाल-मनोविज्ञान और बच्चे को पालने के तरीके कंठस्थ।

शौनक भी प्राउड फादरहुड का खिताब हासिल करने के लिए सोत्साह जुट गया। बेबी लोशन, क्रीम, पाउडर, झूले और कॉट से लेकर टब, बच्चागाड़ी तक...बाप रे! सोचा नहीं था कि एक बच्चे की अगवानी इतनी खर्चीली होगी-यह दोनों ने एक-दूसरे से छिपकर मन में सोचा। ऊपर-ऊपर तो एक-दूसरे को समझाते हुए-यही कि प्राउड पेरेंटहुड से गुजरने की थ्रिल के एवज में इतना भी नहीं करेंगे दोनों?

हाँ, बच्चा भी फिफ्टी-फिफ्टी हम दोनों के खाते में जाएगा। पूरा डिसिप्लिन, पूरी हाइजैनिक कंडीशन। डिटॉल में नैपी धोएँगे। इनफेक्शन से बचाएँगे। टाइम से दूध। टाइम से नींद। हमारा बच्चा टाइम से सोएगा, टाइम से जागेगा। हम बारी-बारी से उसकी देखभाल कर लेंगे। दुलार-पुचकार लेंगे। पूरी सुख-सुविधा से बच्चे को पालेंगे। स्वस्थ पोषण और नए अच्छे स्कूल में एडमीशन यानी सवा-डेढ़ साल से इंटरव्यू की तैयारी शुरू-माय नेम इश ताता...

लेकिन पैदाइश के साथ ही ताता ने किताबों की एक न मानी। किताबों में नीना ने जो पढ़ रखा था, ताता उसका उलटा करती। वह तीन-चार घंटों के बदले पौन घंटे में ही जग जाती। एक बोतल दूध खत्म करने के बीच तीन बार सोती। भूखी होने पर भी एकाध औंस दूध पेट में जाते ही बोतल की निपल से मुँह हटाकर बार-बार हँस पड़ती। शाम-भर सोती और सुबह चार बजे से किलकारी मार-मार के हाथ-पैर फेंकना शुरू कर देती। प्राउड फादर, प्राउड मदर निहाल हो लेते; लेकिन दोनों के ऑफिसों की फाइलें उन्हें आतंकित करती होतीं। नीना को दर्जन-भर शर्ट की डिजाइनें पूरी करनी होतीं, शौनक को अगले पूरे साल के बजट का एस्टीमेट। आँखें थकान और बोझ से निढाल। इस वक्त, हाँ इस वक्त तो ताता को सोना ही चाहिए। आखिर इस वक्त वे उसे कैसे वक्त दे सकते हैं?

लेकिन किलकारी मारती ताता को क्या मालूम कि उसके पापा के इस नए विभागवाला बॉस किसी-न-किसी बहाने शौनक में चूकें निकालने की तरकीबें ढूँढता रहता है; जिससे वह उसकी जगह अपने आदमियों की भरती कर सके। ताता को यह भी नहीं पता कि उसे पुचकारने, दुलारने के बीच भी कहीं उसकी मम्मी नीना के दिल पर अचानक सनाका-सा बैठ जाता है कि कहीं इन छह महीनों की मैटरनिटी लीव का फायदा उठाकर साहनी ने मोना दीवान को डिपार्टमेंट-हेड का तमगा सौंप दिया तो? तो क्या कर लेगी वह?

ताता यह भी नहीं जानती कि अभी कुल पाँच महीने की भी नहीं हुई वह कि उसकी माँ पर ऑफिस जॉइन करने का ‘टेंशन’ और डिप्रेशन हावी होने लगा। और धक्के दे-देकर निकाले गए खयालों के बीच भी एक मुँहफट सवाल उसे परेशान करता ही रहा कि कहीं ताता को इस दुनिया में लाकर उसने गलती तो नहीं की? शादी, बच्चे सब कुछ अपनी-अपनी जगह ठीक होने पर भी यह छूटा हुआ समय, यह गँवाया गया अवसर फिर कभी हाथ आएगा भी या नहीं?

इतना ही नहीं, यह सब सोचते हुए खुद की नजरों में जलील भी होना कि छिः! क्या यही मेरी परिभाषा है प्राउड मदर की? फिर एक विद्रोही आक्रोश भी कि प्राउड मदर ही क्यों लॉस में रहे? प्राउड फादर क्यों नहीं?

इसलिए ठोस वास्तविकता की जमीन पर आया तलाश ली गई थी।

आया से पहले एक प्रस्ताव ‘माँ’ के पक्ष में भी उठा था और पूरी तरह पूर्वाग्रहरहित होकर विचार-विमर्श किया गया था। पहले से तय करके कि दोनों में कोई किसी की बात का बुरा नहीं मानेगा। फैक्ट इज फैक्ट। आया को नीना निर्देश दे सकती है। माँ को नहीं। लेकिन माँ चौबीसों घंटे रहेगी; पर फिर आया के साथ मुरौवत वाली बात बिलकुल नहीं। जबकि माँ की फीलिंग का थोड़ा-बहुत खयाल रखना ही होगा। आया पेड सर्वेंट होगी। पगार ज्यादा लेकिन खाना अपना खुद लाएगी। माँ पेड न होने पर भी उनका खाना-पीना तो सारा अपने जैसा ही। बल्कि वे तो शुरू से रात में सोने से पहले एक गिलास दूध पीती आई हैं।

बड़ी देर तक आया और माँ तराजू के दोनों पलड़ों पर ऊपर-नीचे होती रहीं, अंत में सारे मोल-भावों के बाद बोली आया के पक्ष में गिरी।

पूरे डेढ़ साल गाड़ी अटक-अटककर चली थी। लेकिन अब?

आया छोड़ गई थी...और नीना की दहशतजदा आँखों के सामने अपना सजा-सजाया फ्लैट, परदे, दीवान और गुलदस्ते-सब कुछ एक विकराल ब्लैक होल में तबदील होते जा रहे थे।

अगला पूरा महीना जबरदस्त गहमागहमी का था। शौनक को शायद ट्रेनिंग के सिलसिले में जर्मनी जाने का चांस मिले और नीना पर खुद बाहर से मिले आर्डर की भरपाई करने की जिम्मेदारी।

रातोंरात कहाँ से आया तलाश लाई जाए-वह भी चार-छह महीने के बच्चे के लिए नहीं, अच्छी-खासी बोलती-समझती ताता के लिए?

इसलिए अब बहस की कोई गुँजाइश नहीं थी। तर्क-वितर्क के तराजू-बटखरे एक किनारे रखे, शनिवार की आधी छुट्टी पर नीना ने ताता की बेबी मीटिंग की और शौनक इतवार की शाम माँ को उनकी छोटी अटैची के साथ लिए लौटा।

‘‘ताता! देखो बेटे, कौन आया है?’’ यह प्यार और आदर से ज्यादा, जल्दी-से-जल्दी ताता को हिला-मिला देने की चिंतावश ही कहा गया था।

‘‘बुड्डी अम्मा’’! ताता ने मटककर अरुचि से कहा और इठलाकर अपना हवाई जहाज जमीन पर तेज आवाज के साथ चलाने लगी।

‘‘बैड गर्ल।’’ शौनक अपने-आपको अपमानित महसूस कर चीखा। उन दोनों की डिसिप्लंड ट्रेनिंग की धज्जियाँ उड़ा दी थीं ताता ने माँ के सामने।

‘‘यू बैड ब्वॉय...’’

‘‘शटअप!’’

‘‘यू शत्तप।’’

‘‘नईं, बुड्डी अम्मा...’’ नीना ने बात सँभाली ‘‘नहीं बेटे, दादी...’’

माँ ने बौखलाते-खिसियाते बेटे-बहू को सँभाला, ‘‘कह लेने दो न! अड़ोगे तो बच्चा भी अड़ेगा। मैं कोई बाहर की हूँ।’’

तोतली होने पर भी ताता इतना समझती थी कि ये तो उससे चिढ़ने-मुरझाने के बदले उसका मटकना देखकर उलटे निहाल हो रही हैं। फटकार भी उलटे मम्मी-पापा को पड़ गई।

नीना जब अंदर गई तो ताता चुपके से पास आई और गोल-गोल आँखें झपकाकर धीमे-से पूछ गई, ‘‘तुम दादी ओ (हो)?’’

दादी को शरारत सूझी, ‘‘तुम ताता हो?’’

ताता चौंकी। फिर इठलाकर तुतलाई, ‘‘माय नेम इश ताता।’’

दादी बोली, ‘‘माय नेम इश दादी-ताता की दादी।’’

ताता किलककर हँस दी। फिर वह शान और रौब से अपने एक-एक खिलौने ला-लाकर दिखाने लगी, ‘‘तुमने मेला एलोप्लेन देका ऐ?... मैं लिंडा डॉल के लिए चाय बनाती हूँ। तुम भी पीओगी? लो, नईं, अबी नईं पीना-गरम है-देका? तुमको इश्टोरी आती है? मैं दो-दो टेडीबियर के साथ सोती हूँ।’’

नीना को सुबह ताता को झकझोरकर जल्दी-जल्दी उठाने की जरूरत नहीं पड़ी। ताता जब तक आँखें मलती उठी, नीना, शौनक ‘बायऽऽ’ करते जल्दी-जल्दी ऑफिस के लिए निकल रहे थे।

दादी दरवाजा बंदकर लौट रही थीं। ताता को दादी बड़ी अजूबा लगीं। न यह आया थी, न यह आंटी। एप्पल ऑरेंज वाली ताई भी नहीं। और न कपड़े धोकर पोंछा मारने वाली शेवंती।

उसने दादी के पास आकर पूछा-

‘‘दादी! तुम कौन ओ?’’

निहाल दादी ने उसे अपनी गोद में समेटकर कहा, ‘‘अपनी ताता की दादी और तुम्हारे पापा की मम्मी।’’

‘‘तुम मम्मी ओ?...फिल तुम ऑफिस चली जाओगी?’’

‘‘नहीं, मैं नहीं जाऊँगी ऑफिस।’’

‘‘क्यों? मम्मी लोग तो सारे दिन ऑफिस में रैती हैं।’’

‘‘हाँ, लेकिन दादी लोग ऑफिस नहीं जातीं।’’

‘‘फिल तुम घम्में (घर में) क्या कलोगी?’’

‘‘मैं ताता के संग खेलूँगी?’’

ताता को लगा, दादी झूठ बोल रही है-आया की तरह, पापा की तरह, मम्मी की तरह। ताता तो अपने खिलौनों के साथ खेलती है। आया ‘जादुई कालीन’ पढ़ती है। मम्मी-पापा छुट्टी के दिन भी सुबह से ही सारे दिन क्या-क्या करना है-सोच-सोचकर पगलाए रहते हैं। घर-बाहर ‘बाजार-पार्लर’ क्या-क्या सफाई, क्या-क्या मरम्मत, उठाना, लाना, धरना, समेटना। दर्जनों लोगों को कर्टसी कॉल ‘हाऽऽय’, ‘हाउ स्वीट’, ‘हाउस नाइस’, ‘हो-हो, ही-ही’ और मुँह बनाते हुए निहायत नाटकीयता से फोन कट करना। इस तरह छुट्टी के एक पूरे दिन का रस नींबू की तरह निचोड़ डालना।

लेकिन दादी तो सचमुच कहीं नहीं गईं। ताता उनके पीछे कौतुक से घूमती रही। दादी ने अपनी अटैची खोली।

‘‘ये तुमाले कपले हैं? बश इतने?’’

‘‘हाँ।’’ दादी हँसी।

‘‘दादी! तुम पुअल हो? पुअल बच्चे दंदे होते हैं। वे सड़क पे खेलते हैं। दंदी चीज खाते हैं, इशी शे कार के नीचे दब जाते हैं... एक्शीडेंट।’’

दादी ने अटैची से पूजा की घंटी, पीतल की आरती, अगरबत्तीदान, राम-कृष्ण के चित्र और छोटी-सी रामायण निकाली।

‘‘ये तुम्हारी बुक है?’’

‘‘हाँ।’’

‘‘तुम्हारे पास अच्छी बुक्श नईं हैं? मेले पास ब्लू, रेड और येल्लो बुक्स हैं।’’ फिर एकदम तमककर बोली, ‘‘मैं तुम्हें अपनी बुक्स नईं दूँगी, तुम दंदी कल दोगी।’’

दादी घंटी निकालकर रखने लगीं तो वह टुन्न से बोल गई। ताता को ये आवाज सारे खिलौनों से न्यारी लगी। उसने ललचाई नजरों से घंटी की तरफ देखा।

‘‘ये तुमाली है? तुम इसे बजाती हो?’’

दादी हँस दीं, ‘‘तुम बजाओगी? लो, बजाओ। पूजा करते समय हम दोनों बजाएँगे।’’

ताता थोड़ा हिचकी, फिर खुश होकर घंटी बजाने लगी।

दादी ने भगवानजी के चित्र एक छोटी चौकी पर सजा दिए। रुई की बत्ती बनाई और पीतल के दीपदान में तेल में भीगी बत्ती जलाई। फिर ताता के हाथ में दीपदान पकड़ाए-पकड़ाए गोल-गोल घुमाकर आरती करवाई। ताता ने एक बार दादी को गाते सुना, फिर खूब ऊँची आवाज में गलत ही तुतलाती गाती रही और लगातार टुनुन-टुनुन घंटी बजाती रही।

चित्र में भगवान के ‘एवमस्तु’ की मुद्रा देख ताता ने पूछा, ‘‘दादी, भगवानजी क्या कैते हैं?’’

‘‘कहते हैं, ताता बड़ी गुड गल्ल है।’’

‘‘औल ये वाले भगवानजी क्या कैते हैं?’’

‘‘कैते हैं, ताता खूब बड़ी-सी हो जाए?’’

ताता की आँखें खुशी से हुलसीं कि एकाएक झप्प से बुझ गईं, ‘‘नईं, मैं बली होकल ऑफिस नहीं जाऊँगी।’’

दादी भौंचक्क! ‘‘ठीक है, लेकिन क्यों नहीं जाओगी?’’

‘‘बताऊँ? ऑफिश बहुत दंदा होता है। वो मम्मी, पापा से झगड़ा करता है।’’

फिर दादी के कानों के पास आकर धीरे-से बोली, ‘‘और ऑफिश के पाश एक बश्टर्ड बॉश होता है।’’

दादी सकपका गईं, ‘‘तुमसे किसने कहा? बच्चे?’’

ताता ऐंठी, ‘‘नोबडी... आय नो।’’

दरवाजे की घंटी बजी।

ताता चीखी, ‘‘दादी, मत खोलो। रूपा आँटी होंगी। वो बौत ‘बोल’ (बोर ) कलती हैं। उनका बेबी राउल बौत चीखता है।’’

दादी फिर अचकचाईं, ‘‘तुमको कैसे मालूम?’’

ताता फिर इठलाई, ‘‘आई नो।’’

दरवाजे पर आया थी। उसने सोचा था, ऑफिस से छुट्टी लेकर नीना फोन पर फोन मार ‘आया’ तलाश रही होगी। उसे देखते ही उसकी बाँछें खिल जाएँगी। सौ-डेढ़ सौ बढ़ाकर वापस आने की मिन्नतें करेगी। लेकिन माँजी को देखकर चौंक गई। अंदर जाना चाहा, ‘‘ताता बेबी को सँभालने के वास्ते आई होंगी? क्यों माँजी? फिर भी। अपना ठिकाना छोड़कर आखिर कितना दिन रह पाओगी?’’

‘‘जब तक ताता चाहेगी...’’

आया चौंक गई।

ताता भी! दादी तो सचमुच ताता के साथ ही रहती हैं, खेलती हैं। अबोध मन में दोस्ती का, विश्वास का, आश्वस्ति का अक्स-सा उभरता गया।

आया चली गई तो दादी ने दरवाजा बंद कर पूछा, ‘‘अब ताता का दूध पीने का टाइम हुआ न!’’

‘‘मैं टाइम शे दूद्दू नहीं पिऊँगी तो तुम बुड्डा बाबा को बुलाओगी न?’’

‘‘नहीं तो। बुड्डा बाबा कौन?’’

‘‘आया बुलाती थी। आया दंदी, बैड गल्ल...दादी। अब आए न, तो तुम कैना-गेट आउट। गेट लॉस्ट...’’

‘‘नहीं, गेट आउट किसी को नहीं कहते, बुरी बात है।’’

‘‘कैते हैं। मैं पापा को भी कैती हूँ,’’ ताता उत्तेजित होकर बोली।

‘‘अब नहीं कहना! क्यों कहती हो?’’

‘‘क्योंकि पापा कैते हैं। बताऊँ कैशे? खूब गुश्शा होके-ताता! गेट आउट-ऐशे कैते हैं।’’

‘‘अच्छा! मैं पापा को मना कर दूँगी कि ताता को ऐसे नहीं कहें।’’

ताता खुश हो गई। अपने सारे ब्लॉक्स लाकर बोली, ‘‘दादी! मैं तुमाले लिए घल बनाऊँ?’’

‘‘क्यों? हमारे पास घर है तो।’’

‘‘ये तो हमाला घल है न! तुमाले लिए।’’

दादी ने जाने क्या सोचकर कहा, ‘‘अच्छा, ठीक है, बना दो।’’

लेकिन ताता का मन उचट गया। उसने घर नहीं बनाया। पूछा, ‘‘दादी! तुमाले पाछ मालूती थाउशेंड ऐ?’’

‘‘नहीं, लेकिन मेरे पास एक बहुत अच्छी चीज है।’’

बताओ क्या?

‘‘बताऊँ? मेरे पास एक बहुत ‘शुईट’-सी ताता वन थाउजेंड है।’’


ताता दादी के जोक पर किलकारी मारकर हँस दी। फिर तो यह ताता और दादी का प्रिय खेल ही बन गया। रोज दिन में कभी भी दादी एक तरफ आँखें बंदकर बैठ जातीं। फिर हाथ फैलाकर एक-एक शब्द पर रुक-रुककर कहतीं, ‘‘मेरी-मारुति-वन-थाउजेंड कौन?’’

थोड़ी दूर पर पूरे सस्पेंस में खड़ी ताता, हवा के झोंके-सी आकर, दादी की गोदी में बैठकर, खुशी से चीखकर जवाब देती, ‘‘ताता!’’

उतरी शाम अचानक कस्बे से गिरधारी आया। बताया, ‘‘आँधी-तूफान और घनघोर बरसात से पूरब वाली कोठरी की आधी छत उधड़ गई। आपके संदूक, पेटियाँ सब उघारी हैं, माताजी। किसी तरह बाल-बच्चों की निगरानी में छोड़ आया हूँ ...पर कब तक?...वैसे भी आप तो चारई-छह दिन बोल के आई रहीं। सब लोग वहाँ परेशान हैं कि माताजी बीमार-ऊमार पड़ीं क्या?’’

ताता ने छोटी बिल्लौरी आँखों से सब देखा। सब भाँपा।

‘‘दादी! तुम क्याँ (कहाँ) जाती ओ?’’

‘‘अपने घर बेटे, तुम मेरे लिए घर बनाती थीं न!’’

‘‘नईं।’’ ताता ने आदेश दिया-‘‘तुम नईं जाना।’’

दादी ने बच्ची का मान रखा, ‘‘अच्छा, नहीं जाऊँगी।’’

लेकिन ताता के मन में अंदेशा पैठ गया-दादी चली जाएँगी। मम्मी-पापा भी तो कितनी बार ऐसे ही कहते हैं, बाद में चले जाते हैं। झूठ बोलते हैं।

दादी भी किशनजी, राधाजी, घंटी, आरती सब कुछ लेकर चली जाएँगी। ताता के पास फिर से, खूब भड़कीले रंगोंवाली ढेरमढेर किताबें, स्टाफ टॉएज और तेज आवाज करने वाले भोंपू बजाते हवाई जहाज, मोटरकारें, ट्रेनें, चरखियाँ रह जाएँगी और सबके बीच अकेली ताता...या फिर आया...बुड्डी अम्मा... ‘बुड्डा बाबा’ वाली।

अचानक वह वापस दादी के पास आई।

‘‘दादी! तुम जाना मत! प्रॉमिश!’’

दादी ने अचकचाकर देखा-ताता की आँखें दुबारा पूछ रही थीं-‘प्रॉमिश? दादी?’

ताता के अनजाने उसकी बिल्लौरी आँखें झील-सी डभाडभ थीं।

इतने कीमती आँसू अरसे से किसी ने माँजी के लिए नहीं बहाए थे।

उन्होंने शौनक को एक तरफ बुलाकर कहा, ‘‘तुम्हारा हर्ज तो होगा, पर किसी तरह इस इतवार चले जाते तो अच्छा था। संदूक और पेटियाँ दूसरी कोठरी में डालकर ताला लगाकर आ जाना। मैं न जा पाऊँगी।’’

‘‘लेकिन क्यों, माँ? एक-दो दिनों की तो बात है?’’

‘‘एक-दो दिनों की बात नहीं, यह मेरे और ताता के बीच के भरोसेवाली बात है। विश्वास छोटे या बड़े नहीं हुआ करते-चाहे बच्चों के हों, या बूढ़ों के।’’

कहीं से सुनती, भाँपती ताता दौड़ी आकर दादी की गोदी में समा गई, ‘‘थैंक्यू दादी!’’