मार्क्सवाद और समाजवाद / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान

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इसके बाद महत्वपूर्ण किताब रणधीर सिंह की एक वृहदाकार (तकरीबन 1100 पृष्ठों की) पुस्तक 'क्राइसिस आफ सोशलिज्म' थी जो 2006 में अजंता बुक्स इंटरनेशनल द्वारा प्रकाशित हुई थी। इसमें एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी द्वारा समाजवाद में संकट के बजाय समाजवाद के संकट पर विचार किया गया था। भूमिका में लेखक ने स्वीकार किया है कि इस पुस्तक को एक दशक पहले ही प्रकाशित हो जाना चाहिए था क्योंकि तब इस विषय पर बहस चल रही थी लेकिन उस समय भी लेखक ने छिटपुट लेखों के जरिए वे बातें प्रस्तुत की थीं जो इसमें विस्तार से दर्ज की गई हैं। पुस्तक के लिखने में हुई देरी की वजह बताते हुए उन्होंने लिखा है कि उन्हें आशा थी कि कोई न कोई इस काम को ज्यादा तरतीब से करेगा और उनकी उम्मीद पूरी हुई क्योंकि इसी बीच इस्तवान मेजारोस की किताब 'बीयांड कैपिटल - टुवार्ड्स ए थियरी आफ ट्रांजीशन' प्रकाशित हुई जिससे उन्होंने काफी मदद ली। लेकिन यह रणधीर सिंह की विनम्रता है क्योंकि उनकी किताब का स्वतंत्र महत्व है। मेजारोस के काम को हम थोड़ा रुक कर देखेंगे।

पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि इसमें समाजवादी निर्माण की समस्याओं पर मार्क्सवादी नजरिए से बात की गई है। इस बात पर जोर देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मार्क्सवाद के प्रति सहानुभूति जतानेवाले ऐसे भी लोग पैदा हो गए हैं जो किसी स्वप्निल मार्क्सवाद की रचना कर के समाजवादी निर्माण के सभी प्रयासों को मार्क्सवाद से विचलन साबित करने लगते हैं। किताब में बल्कि इस तरह के प्रयासों का खंडन ही किया गया है, शायद इसीलिए इसका उपशीर्षक 'नोट्स इन डिफेंस आफ ए कमिटमेंट' है यानी किताब एक प्रतिबद्धता के पक्ष में है। किताब वैसे तो सोवियत संघ के पतन के शुरुआती प्रभाव के विवेचन से शुरू होती है लेकिन इस किताब का दूसरा अध्याय 'आफ मार्क्सिज्म आफ कार्ल मार्क्स' पहले ही एक पुस्तिका के रूप में छपा था इसलिए सबसे पहले अपनी बात वे यहाँ से शुरू करते हैं कि सोवियत संघ के पतन को मार्क्सवादी सिद्धांत के एक विशिष्ट व्यवहार की असफलता के बतौर देखा और समझा जाना चाहिए न कि इसे समाजवाद और पूँजीवाद के बीच जारी जंग का अंतिम समाधान मान लेना चाहिए। इस बात पर लेखक ने इसलिए भी जोर दिया है क्योंकि रोज-रोज सोवियत संघ के पतन को समाजवाद या मार्क्सवाद की असफलता बताने के प्रचार के चलते क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजिवियों में भ्रम और संदेह फैलता है। यहाँ तक कि जो लोग इसे सिद्धांत के बतौर कारगर मानते थे वे भी सामाजिक प्रोजेक्ट के बतौर इसका कोई भविष्य स्वीकार नहीं करते और सिद्धांत तथा व्यवहार के बीच ऐसी फाँक पैदा करने की कोशिश करने लगे जैसी फाँक मार्क्सवाद में कभी थी ही नहीं।

पुस्तक का मुख्य विषय न होने के बावजूद लेखक को मार्क्सवाद पर विचार करना पड़ा। वे जोर देते हैं कि मार्क्स ने अन्य दार्शनिकों की तरह चिंतन का कोई अंतिम ढाँचा नहीं निर्मित किया क्योंकि वे 'दार्शनिक' या 'समाजशास्त्री' होने के बजाय क्रांतिकारी थे। उनका सैद्धांतिक काम एक असमाप्त प्रोजेक्ट है। अन्य विषयों (हेगेल के दर्शन, राजनीतिशास्त्र या राज्य, द्वंद्ववाद या पद्धति) पर प्रस्तावित काम की तो बात ही छोड़िए, खुद अर्थशास्त्र संबंधी काम में भी काफी कुछ बकाया रह गया था जिसे कुछ हद तक एंगेल्स ने निपटाया। रणधीर सिंह के मुताबिक इसके कारण भी मार्क्सवाद की ऐसी समझ बनती है मानो वह समाज को केवल आर्थिक नजरिए से देखता हो। यहाँ तक कि उनके लेखन में सब कुछ एक ही तरह से महत्वपूर्ण नहीं है। उन्हें बहुत सारा लेखन तात्कालिक दबाव में भी करना पड़ा था इसलिए उनके गंभीर काम को अलग से पहचानना चाहिए। उनके चिंतन में विकास भी हुआ है इसलिए शुरुआती और बाद के कामों का महत्व एक जैसा ही नहीं है। वे कहते हैं कि मार्क्स के चिंतन में अर्थशास्त्र से ज्यादा महत्वपूर्ण राजनीति है। आर्थिक ढाँचे का विश्लेषण तो वे व्यवस्था के उस आधार को समझने के लिए करते हैं जिसे क्रांतिकारी राजनीतिक व्यवहार के जरिए बदला जाना है। आर्थिक पहलू पर मार्क्स के जोर को हेगेल के भाववादी दर्शन के विरुद्ध उनके संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए। मार्क्स ने खुद ही अपनी सीमाओं को रेखांकित किया है। उनका लेखन उन्नीसवीं सदी में और 'दुनिया के एक छोटे-से कोने - यूरोप' में हुआ। रूस के एक संपादक को लिखी चिट्ठी में उन्होंने स्वीकार किया कि "'पूँजी' पश्चिमी यूरोप में पूँजीवाद की उत्पत्ति की मेरे द्वारा प्रस्तुत रूपरेखा है।" वुल्फ ने जिस तरह पर्यावरणीय पहलू पर मार्क्स की कमी का संकेत किया था उसी तरह रणधीर सिंह ने भी उसे रेखांकित किया है लेकिन उनका कहना है कि इन सबके बावजूद एक भरपूर मार्क्सवादी सिद्धांत के बारे में सोचा जा सकता है।

इस नाते रणधीर सिंह मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों को सूत्रबद्ध करते हुए कहते हैं कि भौतिकवाद और द्वंद्ववाद को जिस तरह मार्क्स और एंगेल्स ने समझाया उसे 'आधिकारिक' 'द्वंद्वात्मक भौतिकवाद' से अलग करके देखना होगा। इसके अनुसार यह दुनिया विकासमान और परिवर्तनशील संदर्भों, संबंधों, अंतर्विरोधों और प्रक्रियाओं का जटिल, बहुस्तरीय समुच्चय है जो अंतर्विरोध और टकराव, अनेक अक्सर अंतर्विरोधी घटकों की अंत:क्रिया और आपसी निर्भरता के जरिए विकसित होते हैं। दुनिया के विकास की इस तस्वीर में न सिर्फ परिमाणात्मक बदलाव बल्कि गुणात्मक छलाँगें, रूपांतरण और प्रतिरूपांतरण भी समाहित हो जाते हैं जिनमें यथार्थ संरक्षित रहता है और उसे अतिक्रमित भी किया जाता है। मार्क्स का दर्शन पूँजीवाद के यथार्थ को इस तरह विश्लेषित करता है कि वह हमें उसके आगे समाजवाद की ओर जाने की राह दिखाता है। मार्क्स की किताब 'पूँजी' उनकी पद्धति के प्रयोग का सबसे बेहतरीन नमूना है। इसमें वे आभास से यथार्थ की ओर, रूप से अंतर्वस्तु की ओर, तात्कालिक बाहरी रिश्तों से गहरे अंदरूनी अंतर्संबंधों की ओर जाते हैं और पूँजीवाद की 'छिपी हुई संरचना' और 'आंतरिक मनोविज्ञान' की खोज करते हैं ताकि उसकी उत्पत्ति और कार्यपद्धति की व्याख्या की जा सके। उनकी पद्धति की प्रामाणिकता इसी बात से सिद्ध है कि उनकी व्याख्या अब भी वैध बनी हुई है।

ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या करते हुए रणधीर सिंह बताते हैं कि 'उत्पादन पद्धति को महज व्यक्तियों के भौतिक अस्तित्व के पुनरुत्पादन के बतौर नहीं समझा जाना चाहिए। इसके बजाय वह उनके जीवन की अभिव्यक्ति का निश्चित रूप, उनकी खास तरह की जीवन पद्धति है।' मार्क्स उत्पादन के सामाजिक संबंधों को 'आधार' मानते हैं और इस तरह ऐतिहासिक प्रक्रिया में वर्ग संघर्ष की केंद्रीयता की प्रस्तावना कर देते हैं। 'उत्पादन के हालात के मालिकों का प्रत्यक्ष उत्पादकों के साथ सीधा संबंध - समूची सामाजिक संरचना की छुपी हुई बुनियाद, उसका गहनतम रहस्य है।' वैसे तो सामाजिक जीवन और इतिहास की तथाकथित आर्थिक व्याख्या प्लेटो से ही प्रचलित रही थी। मार्क्स की विशेषता यह है कि वे समाज और सामाजिक संरचना को अलग-अलग हिस्सों, कारकों, स्तरों या उदाहरणों का जमाजोड़ या मिश्रण नहीं मानते थे। यह एक जटिल और विभेदीकृत 'संपूर्णता', विभिन्न हिस्सों की ऐतिहासिक रूप से निर्मित आपसी निर्भरता है जिसमें से लंबे दिनों में (इन द लांग रन) एक हिस्से यानी अर्थतंत्र के क्षेत्र के अंतर्विरोध को प्रमुखता प्राप्त होती है (प्रमुख या संरचनागत अंतर्विरोध जिसके साथ ही विभिन्न हिस्सों के अंदरूनी और आपसी अंतर्विरोध भी मौजूद होते हैं)। ये ही उसकी गति, उसके ठोस रूप से अतिनिर्धारित ऐतिहासिक विकास के लिए जिम्मेदार होते हैं जिसमें संपूर्णता हिस्सों के जरिए रूपायित और अभिव्यक्त होती है तथा हिस्से संपूर्ण की छाप का वहन और प्रतिनिधित्व करते हुए भी अपनी अंतर्संबद्धता में वह खास किस्म की एकता बनाते हैं जिसे एक खास समाज या सामाजिक संरचना कहा जा सकता है। निर्धारण का अर्थ मार्क्स की अपनी सोच के हिसाब से विभिन्न प्रक्रियाओं के बीच संवाद अधिक महसूस होता है। इसके बावजूद यह कहना ही होगा कि समाज में आर्थिक पहलू पर जोर ही वह चीज है जो मार्क्सवाद को पारंपरिक समाजशास्त्र से अलगाती है।

इसके बाद वे ऐतिहासिक भौतिकवाद के ही अंग के बतौर वर्ग की धारणा का जिक्र करते हैं जो न केवल ऐतिहासिक प्रक्रियाओं की व्याख्या के लिए जरूरी है बल्कि मानव मुक्ति की संभावना के लिए भी प्रासंगिक है। राजनीति की समझ के लिए भी वर्ग संघर्ष के गतिविज्ञान पर पकड़ होनी चाहिए। क्रांतिकारी राजनीति के लिए तो जरूरी है ही। लेकिन यह भी किसी किस्म के अपघटन से मुक्त धारणा है क्योंकि मार्क्स पूँजीवाद के खात्मे के लिए सर्वहारा वर्ग के साथ अन्य विक्षुब्ध तबकों को भी एकताबद्ध करने की बात करते हैं। क्रांतिकारी प्रक्रिया में किसानों या निम्न पूँजीपति वर्ग की भूमिका के प्रसंग में यह बात मार्क्स के लेखन में एकाधिक जगहों पर दिखाई पड़ती है। आप कह सकते हैं कि मार्क्स ने मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया था। कारण चाहे जो भी हों, सही बात है कि यूरोप के मजदूर वर्ग से उन्हें जो उम्मीदें थीं उन पर वह खरा नहीं उतरा लेकिन रूस की क्रांति ने मजदूर वर्ग में उनके विश्वास की रक्षा की। मजदूर वर्ग की संरचना में काफी बदलाव आए। आर्थिक वैश्वीकरण और तकनीकी बदलावों ने पूँजी की राजनीतिक ताकत में इजाफा किया और मजदूर वर्ग को कमजोर किया। इसके बावजूद सही बात तो यही है कि विश्व पूँजीवाद के साथ लड़ाई में मजदूर वर्ग की निर्णायक भूमिका स्वीकार करनी होगी और समाजवाद में आज भी वास्तविक रुचि मजदूर वर्ग ही ले रहा है। मार्क्स के मुताबिक पूँजीवाद के सताए हुए वर्ग ही समाजवाद के लिए संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाएँगे। असल में मार्क्स के समूचे लेखन और चिंतन के केंद्र में पूँजीवाद का आलोचनात्मक विश्लेषण है जिसके अनुसार उसका पूरी दुनिया में विस्तार होना है, सारी दुनिया में पूँजी का प्रभुत्व होना है। आदिम पूँजी संचय की प्रक्रिया के जरिए एक ओर अकूत ऐश्वर्य और दूसरी ओर चरम दरिद्रता के सृजन का इसका संरचनागत तर्क अपने आप को सभी समाजों में व्यक्त करता है। इस विश्लेषण में नैतिक रोष है, जन्म से ले कर विस्तार के समूचे दौर में उसके मानव विरोधी होने को रेखांकित किया गया है, यहाँ तक कि उसको 'बर्बर' बताया गया है।

यह बात सही है कि मार्क्स ने वृद्धि और विकास की पूँजीवाद की क्षमता को कम करके आँका लेकिन उसकी कार्यपद्धति का उनका वर्णन आँख खोलनेवाला है। उनकी यह बात आज भी सही है कि पूँजीवाद सारत: अतार्किक व्यवस्था है और इसका तार्किक निषेध समाजवाद ही है। अगर मार्क्सवाद विज्ञान है तो क्रांति का विज्ञान है। यह केवल क्रांति की बात ही नहीं करता, इसमें क्रांति के प्रति निष्ठा भी शामिल हैं जो मार्क्स के अनुसार 'स्वतंत्र मनुष्य के सम्मान के पक्ष में सभी दिलों का रूपांतरण और सभी हाथ उठाने की क्रिया' है। मार्क्स के लिए क्रांति दिल और दिमाग दोनों का मसला है। वे ऐसे समाज का सपना देखते थे जहाँ 'हरेक का स्वतंत्र विकास सबके स्वतंत्र विकास की पूर्वशर्त' होगा। आजकल मार्क्स के इस सपने से उनके सिद्धांत को अलग कर के उन्हें सामान्य मानववादी दार्शनिक में बदला जा रहा है। सभी जानते हैं कि क्रांति के प्रति अपनी निष्ठा के चलते उन्हें जीवन भर कष्ट उठाने पड़े। इसी निष्ठा के चलते उन्होंने फ्रांस के मजदूरों को क्रांति शुरू न करने की सलाह दी लेकिन जब क्रांति फूट पड़ी तो उसका खुल कर स्वागत किया। उन्होंने अराजक विद्रोहियों की मुखालफत की लेकिन अपनी ही पार्टी के उन समाजवादियों की भी आलोचना की जो 'पुलिस की इजाजत की हदों में ही रह कर काम करते' थे। अगर उन्होंने भूलें कीं तो उनकी भूलें ऐसे लोगों के निर्भूल होने से बेहतर थीं जो बिना कुछ किए सभी आंदोलनों की भूलें गिनाते रहते हैं।

मार्क्सवाद के बारे में इस आरंभिक पीठिका के बाद वे यह बताते हैं कि एक हद तक 'यूटोपियन' होने के बावजूद मार्क्स कहीं भी भविष्य के समाज के बारे में कोई खाका नहीं खींचते। वे यही कहते हैं कि उस समय के लोग उस समय की समस्याओं का समाधान करेंगे। उन्होंने तो यह भी कहा कि 'हमारे लिए साम्यवाद कोई ऐसा आदर्श नहीं है जिसके अनुसार यथार्थ अपने आप को समायोजित करे।' उनके मुताबिक समाजवाद किसी अध्ययन कक्ष में नहीं बनेगा बल्कि समाज की वास्तविक हलचलों या ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से उपजेगा। पूँजीवाद की मार्क्स की आलोचना का केंद्रीय तत्व उत्पादकों से अतिरिक्त मूल्य के अधिग्रहण का तरीका है। इसलिए समाजवाद का मतलब महज पूँजीवादी शोषण, अतिरिक्त मूल्य के अधिग्रहण से मुक्ति नहीं है। यह सब जरूरी तो है लेकिन सब कुछ नहीं है। उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व का खात्मा और उस पर सामाजिक स्वामित्व तो न्यूनतम शर्त है। इससे तो महज शुरुआत होनी होगी। लेकिन इस नए समाज में भी पूँजीवादी व्यवस्था के 'जन्म चिह्न' बने रहेंगे। उन्हें हल करना उनका कर्तव्य होगा जो उस व्यवस्था में होंगे और मार्क्स को भरोसा था कि वे हमसे उन्नत होंगे क्योंकि हम तो वर्ग विभाजित समाज की पैदाइश हैं। समाजवाद की ओर संक्रमण की समस्याओं पर भी मार्क्स ने बहुत ध्यान नहीं दिया। एक बात लेकिन जरूर उनके लेखन से निकल कर आती है कि समाजवाद एक संक्रमणकालीन अवस्था होगा जो मनुष्य को साम्यवाद की ओर ले जाएगा। वे इस बात पर बल देते हैं कि समाजवाद को पूँजीवाद की तरह अलग किस्म का समाज नहीं मानना चाहिए। ऐसा समाज तो साम्यवाद ही होगा। समाजवाद एक तरह से साम्यवाद की निचली मंजिल हो सकता है। उसे हरेक मामले में पूँजीवाद से भिन्न होना होगा। उसके तहत संपत्ति संबंधों का आमूलचूल रूपांतरण होगा, उत्पादन का मकसद निजी मुनाफा नहीं होगा, अर्थतंत्र पर सिर्फ कानूनी नहीं बल्कि वास्तविक सामाजिक नियंत्रण होगा, मानव कल्याण के लिए सामाजिक-भौतिक संसाधनों का जनवादी तरीके से नियोजन होगा। मार्क्स की पूँजीवाद की आलोचना के पीछे मनुष्य के प्रति उनका लगाव है इसलिए समाजवादी समाज को मनुष्य की क्षमता का भरपूर विकास कर सकनेवाली व्यवस्था होना होगा। पूँजीवाद मूलत: गलाकाट प्रतियोगिता पर आधारित समाज है जो सिर्फ पूँजी के मालिकों के बीच ही नहीं होती वरन वह मनुष्य को भी उसकी अंतर्निहित सामाजिकता के बावजूद लालची और ईर्ष्यालु बना देता है इसलिए इसके उलट समाजवाद को भाईचारा का आधार बनना होगा। उसी व्यवस्था में मनुष्य सही तौर पर सामाजिक मनुष्य होगा। मनुष्य अनिवार्यता की दुनिया से स्वतंत्रता की दुनिया की ओर प्रस्थान करेगा।

समाजवाद की ओर यह संक्रमण दीर्घकालीन होगा। इस दौरान के अर्थतंत्र को ले कर अगर मार्क्स ने महज कुछ सूत्र ही दिए तो राजनीतिक ढाँचे को ले कर और भी कम कहा लेकिन एक पद 'सर्वहारा की तानाशाही' को ले कर बहुत विवाद हुए इसलिए उसके बारे में कुछ बातें रणधीर सिंह ने कीं। पहली बात तो यह कि यह सारभूत सामाजिक अंतर्वस्तु के संबंध में दिया गया वक्तव्य है, संक्रमणकालीन समाजवादी समाज में राजनीतिक सत्ता के वर्ग चरित्र का स्पष्टीकरण है क्योंकि मार्क्स की नजर में लोकतांत्रिक रूप से गठित होने के बावजूद बुर्जुआ समाज में राज्य 'बुर्जुआ की तानाशाही' ही है। यहाँ सर्वहारा तानाशाही को लोकतंत्र का विरोध नहीं समझना चाहिए बल्कि बुर्जुआ तानाशाही का विरोध समझना चाहिए। वैसे भी मार्क्स 'राज्य' को 'सरकारी मशीनरी' से अलग मानते थे। मार्क्स ने पेरिस कम्यून को इस तानाशाही का अग्रदूत माना है। तब आखिर पेरिस कम्यून ने क्या किया था ? सार्वजनिक चुनाव में चुने हुए कम्यून ने बुर्जुआजी की पुरानी सैन्य-नौकरशाही की मशीनरी खत्म कर दी, संसदवाद की जगह निर्वाचित निकायों के प्रतिनिधियों के लिए बाध्यकारी राय जताने का जनता को अधिकार दिया और प्रभावी स्वशासन का विकल्प उपलब्ध कराया, नियमित सेना और पुलिस को भंग कर दिया और इसकी जगह जनता को हथियारबंद किया, नौकरशाही का खात्मा किया और सभी प्रशासनिक, न्यायिक, शैक्षिक और दीगर पदों पर सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर निर्वाचित अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान किया, मतदाताओं की माँग पर किसी भी समय उन्हें वापस बुलाने का नियम बनाया, उनकी तनख्वाह को अन्य श्रमिकों के बराबर घोषित किया, पुलिस और पादरियों के राजनीतिक प्रभाव को बंद किया। आगे की उसकी योजना विकेंद्रित राजकीय व्यवस्था स्थापित करने की थी ताकि 'राष्ट्र सच्चे मायनों में एकताबद्ध हो सके और इसके लिए राजसत्ता को खत्म किया जाना था जो उस एकता का साकार रूप होने का दावा करती थी लेकिन राष्ट्र से स्वतंत्र और ऊपर तथा उसका परजीवी अपशिष्ट बनी हुई थी।' इसके अलावा कम्यून ने अपने सदस्यों के लिए ऐसे कायदे बनाए जिससे वे भ्रष्टाचार न कर सकें। तो यही वह राजसत्ता का रूप था जिसे मार्क्स मजदूरों की आदर्श सरकार मानते थे। यह क्रांति राज्य के विरुद्ध लक्षित थी। लेनिन ने इसी के अनुकरण में 'सारी सत्ता सोवियतों को' नारा बुलंद किया था।

समाजवाद के बारे में मार्क्स-एंगेल्स के विचारों को समझाने के बाद रणधीर सिंह एक विचार की परीक्षा करते हैं जिसके अनुसार रूस में जो स्थापित हुआ और जिसकी नकल पूर्वी यूरोप के देशों में की गई वह समाजवाद था ही नहीं। इस सवाल पर वे आलोचकों से पूरी सहमति तो नहीं जताते लेकिन इस तथ्य को भी मंजूर करते हैं कि विकृतियाँ बहुत ज्यादा थीं और ऐसे आरोपों के पीछे अवश्य ही प्रचुर अनुभव थे लेकिन सच्ची वाम कतारों पर इस समय जो जिम्मेदारी आ पड़ी है उससे पीछा छुड़ाना है क्योंकि उसे समाजवाद मान कर ही उसकी गलतियों का विश्लेषण किया जा सकता और उन्हें सुधारा जा सकता है।

समाजवादी निर्माण की एक सैद्धांतिक समस्या का जिक्र करते हुए रणधीर सिंह कहते हैं कि पूँजीवाद के खात्मे के बाद भी बुर्जुआ विचारधारा और सामाजिक अनुकूलनशीलता की ताकत को एक हद तक कम कर के आँका गया अर्थात समाजवाद की स्थापना और उसे टिकाए रखने की इच्छा के लिए जरूरी वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष का महत्व समझने में कमी रह गई। मार्क्स को तो उम्मीद थी कि क्रांति यूरोप के विकसित देशों में पहले होगी लेकिन उन्हीं के लेखन में हमें ऐसे देशों में क्रांति की संभावना भी दिखाई पड़ती है जहाँ आबादी में किसानों की बहुतायत है। वे किसान-बहुल समाजों में मजदूर किसान एकता की भी वकालत करते हैं। यह चिंतन पेरिस कम्यून के बाद विकसित हुआ था। यही चीज इतिहास में उनके सिद्धांत के व्यावहारिक प्रयोग में सही साबित हुई और क्रांतियों का गुरुत्व केंद्र पूरब की ओर चला आया। क्रांति की उनकी गौण धारणा ही इतिहास में मुख्य धारणा बनी। उनके सिद्धांत के साथ इतिहास का यह खेल बाद की अनेक परेशानियों की वजह बना। रूस में मजदूर वर्ग विकसित देशों के मजदूर वर्ग के मुकाबले पिछड़ा हुआ था। रूस की क्रांति के बाद बोल्शेविकों को यूरोप में क्रांति के फूट पड़ने की आशा बहुत दिनों तक बनी रही क्योंकि वे इसे रूसी क्रांति को टिकाए रखने के लिए जरूरी समझते थे। लेकिन ऐसा न होने पर उन्हीं पर जिम्मेदारी आ पड़ी कि वे अपने ही देश में इसे आगे बढ़ाने की कोशिश करें। रूसी समाजवाद की अनेक विकृतियों का संबंध घिराव की इस मजबूरी से भी है। संगठन का लेनिनीय सिद्धांत 'आत्मगत ताकतों का मार्क्सवादी विज्ञान' है और आज भी क्रांतिकारी संघर्ष की समस्याओं को हल करने के लिए उपयोगी औजार बना हुआ है लेकिन इसमें संगठन में नेतृत्व की भूलों को सुधारने का कोई संस्थाबद्ध ढाँचा मौजूद नहीं है इसलिए गलती के शुरू हो जाने के बाद उसके फैसलों को उलटने की गुंजाइश कम रह जाती है।

मार्क्स के सिद्धांतों के 'आर्थिक' अभिग्रहण से भी समाजवाद के ढहने का संबंध है, इसको चिह्नित करते हुए वे लेनिन के बाद सोवियत संघ में समाजवाद को महज आर्थिक उपलब्धियों तक सीमित कर के देखने समझने के नजरिए का उल्लेख करते हैं। इसका उदाहरण वे मार्क्सवाद की ऐसी 'आधिकारिक' व्याख्या को भी मानते हैं जिसमें भौतिकवाद के तीन सिद्धांत, द्वंद्ववाद के चार नियम और ऐतिहासिक भौतिकवाद के पाँच चरण होते थे। जबकि उनके मुताबिक मार्क्सवाद बहुत ही खुला हुआ दर्शन है। यहाँ तक कि वह अपने सुधार की माँग भी आगामी पीढ़ियों से करता है। इसी सिलसिले में वे कहते हैं कि नव सामाजिक आंदोलनों की चुनौती के समक्ष आज मार्क्सवाद को समृद्ध करने की जिम्मेदारी आन पड़ी है क्योंकि इन आंदोलनों की सैद्धांतिकी मार्क्सवाद विरोधी 'उत्तर-आधुनिकता' से निर्मित हुई है और ये कुल मिला कर सुधारात्मक ही हैं।

अन्य चीजों के अलावा रणधीर सिंह कुछ बेहद जरूरी सैद्धांतिक सवाल उठाते हैं। समाजवादी प्रोजेक्ट के पतन से एक सवाल पैदा हुआ है जिसका कोई सैद्धांतिक समाधान उन्हें मार्क्सवाद के भीतर नजर नहीं आता। अनुभव से दिखाई पड़ा है कि सत्ता पर कब्जा हो जाने के बाद नई तरह से वर्ग निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है। उनका कहना है कि रूसी और चीनी दोनों ही क्रांतियों के बाद लेनिन और माओ को यह समस्या नजर आई और उन्होंने इसका समाधान खोजने की कोशिश की लेकिन दोनों के ही उत्तर पार्टी ढाँचे के बाहर जा कर अंदर की समस्याओं को हल करने के समान हैं। यह बात माओ की सांस्कृतिक क्रांति में और भी खुल कर व्यक्त होती है। जबकि समस्या यह थी कि संगठन के भीतर ही आत्म सुधार का कोई कारगर तरीका खोजा जाए। उनके मुताबिक यह ऐसी समस्या है जिसका समाधान अभी नहीं पाया जा सका है।

इसके अलावा लेखक ने इसी सिलसिले में एक ऐसे पहलू को उठाया है जिस पर आम तौर पर ध्यान नहीं दिया जाता। उनका कहना है कि परिस्थितियों और व्यक्ति की भूमिकाओं में द्वंद्वात्मक रिश्ता होता है लेकिन मार्क्सवादी आम तौर पर इसे परिस्थितियों की प्रमुखता में बदल देते हैं। क्रांति के बाद उस प्रक्रिया में शामिल रहे नेताओं की उपस्थिति भी समस्याओं पर काबू पाने में बहुत मदद करती है। रूस के संदर्भ में बोल्शेविक क्रांति के दौरान और बाद में चले गृह युद्ध में नेताओं की पहली खेप का तकरीबन सफाया हो गया था इसलिए स्तालिन तक तो नौकरशाही के विरुद्ध संघर्ष दिखाई देता है लेकिन उनकी मृत्यु के बाद इन्हीं नौकरशाहों का सरकार पर पूरी तरह से कब्जा हो गया। चीन के प्रसंग में भी यही परिघटना सामने आई।

इस किताब की खासियत यह थी कि इसने प्रतिबद्ध वामपंथी कार्यकर्ताओं को वाहियात किस्म की बातों को परे हटा कर सही मुद्दे को पहचानने में मदद की जो घटनाओं की तीव्रता और दुश्मनों के ताबड़तोड़ हमलों के समक्ष कुछ हद तक किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे। उस समय तो अनेक लोग यही कहने को महान आविष्कार समझ रहे थे कि मार्क्सवाद में लोकतंत्र की गुंजाइश नहीं है इसलिए विपक्ष न होने से कम्युनिस्ट पार्टी को अपनी गलतियों का पता नहीं चला। रणधीर सिंह ने ठीक ही मजाक उड़ाते हुए लिखा कि क्या इस कमी को दूर करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी अपने को ही विभाजित कर के विपक्ष बनाती! इसी तरह जो लोग कह रहे थे कि पिछड़े देश में क्रांति होने से अथवा एक ही देश में समाजवाद के निर्माण का निर्णय होने से विकृतियों का जन्म हुआ। उनके तर्कों को खारिज करते हुए वे कहते हैं कि यह सब विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों के प्रति रूसी कम्युनिस्टों का उत्तर था जिसमें कोई बुनियादी खामी नहीं थी।