मार्गरिटा चली आसमान छूने / जयप्रकाश चौकसे

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मार्गरिटा चली आसमान छूने
प्रकाशन तिथि :11 अप्रैल 2015


डायरेक्टर शोनाली बोस की कल्कि कोचलिन अभिनीत 'मार्गरिटा, विद अ स्ट्रॉ' को प्रदर्शन पूर्व आयोजित शो में अनेक फिल्मकारों की प्रशंसा मिली है और आमिर खान ने यह सुझाव भी दिया कि इस फिल्म का नाम बदलकर 'छूने चली आसमान' रख दिया जाएं। स्पष्ट है कि आमिर खान के 'सत्यमेव जयते' कार्यक्रम में बालिकाओं के कष्ट वाले एपिसोड में किरकिरे का गीत 'नन्ही चिड़िया' बहुत सराहा गया था और आमिर के अवचेतन में दर्ज था तथा उसी तर्ज पर उन्होंने 'छूने चली आसमान' का सुझाव दिया था। विगत माह महेश भट्‌ट की कथा से प्रेरित सोनी पर 9.30 बजे दिखाएं जाने वाले सीरियल 'दिल की बातें' के लॉन्चिंग समारोह में खाकसार ने कहा था कि भारतीय साहित्य व सिनेमा में पिता-पुत्री पर कम लिखा गया है परंतु पिता-पुत्र संबंध पर अनेक कहानियां और फिल्में हैं, क्योंकि भारतीय समाज में पुत्रों को हाथ के हथियार की तरह पाला जाता है जबकि पुत्री को सिर पर लटकती तलवार माना जाता है तथा उसे 'पराया धन' भी कहा जाता है। प्राय: पुत्रियों को घर आंगन की चिड़िया माना जाता है कि एक दिन ये उड़ जाएंगी, परंतु पुत्रियां तो पिता के मन के आकाश में सदैव उड़ती रहती हैं। उनके बिदा होने या रुखसत होने को अंतिम सत्य नहीं माना जाना चाहिए।

बहरहाल, शोनाली बोस ने आमिर खान को फिल्म पसंद आने के लिए शुक्रिया कहां परंतु फिल्म का नाम बदलने से इनकार कर दिया। स्पष्ट है कि बोस अपना काम जानती हैं और अपनी रचना प्रक्रिया के प्रति समर्पित हैं। उनकी फिल्म शारीरिक कमतरी से पीड़ित बच्ची की कहानी है, जो युवा होने पर अपने स्वाभाविक अधिकार के लिए लड़ती है। उसकी मां के लिए यह समझना कठिन है कि कमतरी के बावजूद उसके मन में सामान्य इच्छाएं जागृत हो रहीं हैं, क्योंकि शारीरिक व मानसिक कमतरी का संबंध उसके मन से नहीं है, मन है तो इच्छाएं जागेंगी ही। अपनी कल्पना में तो वह पूरी औरत है। उसे आधी-अधूरी समझने की भूल अन्य लोग कर रहे हैं। यह स्थापित सत्य है कि इच्छाएं स्वाभाविक हैं। दरअसल समाज में विकलांग लोगों की सबसे बड़ी समस्या अन्य सामान्य लोगों की मानसिक अपंगता है। समाज तो इतना निर्मम है कि पैर से लाचार को लंगड़ा कहकर ही पुकारता है और आंख से लाचार को कहते हैं कि अंधा है क्या, देखकर नहीं चलता। सेल्समैन दुनिया के अंधों को चश्मा और गंजों को कंघा बेच देते है परंतु अपंग के लिए कोई संवेदना ही नहीं है।

फिल्म उद्योग में टाइटिल रजिस्ट्रेशन का दफ्तर है और कई बार टाइटिल लेकर भी लोग फिल्म नहीं बनाते और जरूरतमंद निर्माता को टाइटिल बेचे भी जाते हैं। 1946 में राज कपूर ने अपने पिता पृथ्वीराज की बहन के पति इंदरराज आनंद से 'ऑडेन' कविता से प्रेरित पटकथा 'घरौंदा' लिखवाई परंतु साधनों की कमी के कारण उस समय फिल्म नहीं बनाई। अठारह वर्ष पश्चात 'घरौंदा' को 'संगम' के नाम से बनाया तथा इंदरराज आनंद को नाम और दाम दोनों दिए। नर्गिस के सुझाव पर मेहबूब खान ने अपनी 1939 में बनी 'औरत' को 1956 में 'मदर इंडिया' के नाम से बनाया। फिल्म का टाइटिल कथा के अनुरुप होने के साथ ही फिल्मकार की अपनी अभिरुचि के अनुरुप तय होता है।