मालवगढ़ की मालविका / भाग - 13 / संतोष श्रीवास्तव

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दादी संध्या बुआ को अपने कमरे में ले गईं। मैं भी व्यकुलतावश बाहर बगीचे में निकल आई थी। नहीं जानती मन किन कगारों, पठारों से टकरा कर अपना सिर धुन रहा था। अगर प्यार करने का यही अंजाम है तो फिर कोई नफरत ही क्यों नहीं करता? क्या नफरत करने से बुजुर्ग खुश होंगे? क्या नफरत करने से मान-सम्मान बढ़ेगा? पन्ना ने आकर बताया कि मुझे दादी बुला रही हैं। मेरे पैरों में पंख लग गए थे। उड़ती हुई पल में दादी के सामने - "जी दादी?"

"बैठो पायल।"

सोफे पर बैठते-बैठते मैंने देखा संध्या बुआ के आँसू तो थम चुके थे लेकिन सूखी सिसकियाँ रह-रहकर अब भी उठ रही थीं।

"पायल... मैंने तुम्हारे अंदर एक हिम्मती, शक्तिवान नारी के छुपे रूप को देख लिया है, परख लिया है। तुममें दकियानूसी सोच और रीति-रिवाजों से लड़ने की ताकत है। चुनौती स्वीकार करना और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाना भी तुममें बखूबी भरा हुआ है। तुम जानती हो जब अकबर तेरह वर्ष का था तो उसने अपने पिता के शत्रु से बदला लिया था और राजपाट के कामों को सम्हालने भी लगा था। तुम भी उसी उम्र से गुजर रही हो। यह संध्या जुनून की हद तक पार कर चुकी है। बताओ मैं क्या करूँ?"

"जी दादी?" मैं हकला गई थी। दादी ने मुझे कहाँ लाकर खड़ा कर दिया? अपने इस रूप से तो मैं भी परिचित न थी।

"मैं मर जाऊँगी चाची। मैं अजय के बिना नहीं रह सकती, आप मुझे जहर दे दो, मार डालो लेकिन अजय से जुदा न करो।"

संध्या बुआ ने फिर रोना शुरू कर दिया था। दादी ने उनका सिर सहलाया।

"देखो संध्या... तुमने अपनी बात कह दी न? अब हमें सोचने दो। जानती हो न प्रताप भवन में प्यार-मुहब्बत की बात सोचना तलवार की धार पर चलने के समान है। लेकिन देखो, नट वह भी करके दिखा देता है... तलवार की धार पर ऐसे चलता है ज्यों फूल बिछे हों वहाँ। इसलिए हौसला रखो, हमें वक्त दो। तुम्हारे इम्तिहान सिर पर हैं। साल भर की मेहनत का सवाल है।"

कहती दादी मेरी ओर मुखातिब हुईं - "तुम्हें यहाँ बुलाने का मकसद यही था कि तुम संध्या की पढ़ाई का ध्यान रखोगी। रजनी में ज़रा भी गंभीरता नहीं। उसे बनाव सिंगार, मेहँदी बूटे से फुरसत ही नहीं मिलती। केवल तुम ही विश्वास करने योग्य हो।"

मैं हुलसकर दादी से लिपट गई - "दादी, आपने मुझे कई बरस बड़ा कर दिया।"

"तुम हो ही कई बरस बड़ी। पिछले जनम में मेरी माँ... तुम्हारे जन्म से तीन महीने पहले उनका स्वर्गवास हुआ था और जब तुम पैदा हुई तो तुम्हारे माथे पर वैसी ही लाल बिंदिया थी जैसी वे लगाती थीं। जानती हो पायल... मेरी माँ ने मेरे बाबा की रियासत पर शासन भी किया था। दरबार में पिता की गद्दी की बगल में माँ की गद्दी भी लगती थी।"

"तो आज से आप मेरी बेटी... मैं आपकी माँ।" कहती हुई मैं हँस पड़ी। संध्या बुआ भी हँसी. माहौल हल्का हो गया।

लेकिन भ्रम था मेरा, माहौल हल्का नहीं हुआ था बल्कि आने वाली आँधी के पहले की निस्तब्धता थी जिसे सब शांति समझ बैठे थे। दूसरे दिन संध्या बुआ ने कॉलेज जाने की जिद की तो प्रताप भवन में तूफान आ गया।

"हरगिज नहीं... पढ़-लिखकर कौन से झंडे फहराने हैं, अब सांयसूती घर बैठो और पढ़ो। पर्चा देने जाने का इंतजाम करवा दिया जाएगा। बंसीमल साथ जाएगा, उधरी खड़ा रहेगा जब तक पर्चा चलेगा।" बड़ी दादी ने फैसला सुना दिया।

"तो पहरा लगेगा मुझ पर।" संध्या बुआ ने तमककर पूछा।

बड़ी दादी देर तक बड़बड़ाती रहीं। नौकरानियों, दाइयों में फिर खुसर-पुसर शुरू हो गई... शाम होते-होते प्रताप भवन में जलजला-सा आ गया। दादी ने कोदू को दौड़ाया -"जाओ, डॉक्टर लिवा लाओ. संध्या की तबीयत बिगड़ गई है।"

सबको यही बताया गया कि तबीयत बिगड़ गई है। लेकिन हकीकत कुछ और थी संध्या बुआ ने शायद इसी दिन के लिए नीला थोथा की पुड़िया सँजोकर रखी थी सो चाट ली लेकिन गले के नीचे उतरने से पहले रजनी बुआ ने देख लिया और उनके मुँह में उँगली डालकर चीख-चीखकर रोने लगीं। मारिया ने सम्हाला।

अस्पताल ले जाना पड़ा उन्हें। चौबीस घंटे अस्पताल में रहीं वे... इधर बड़ी दादी कोसती जाती थीं, रोती जाती थीं... बड़े बाबा किंकर्तव्यविमूढ़ से रात भर सहन में चहलकदमी करते रहे। अस्पताल में दादी बाबा थे। जब संध्या बुआ घर लौटीं तो किसी ने कुछ नहीं कहा। वे अपने कमरे में बिस्तर पर लेटी थीं तभी बड़े बाबा आए और सिरहाने बैठकर निःशब्द उनके बाल सहलाते रहे। उनकी आँखों से झरकर न जाने कितने आँसू संध्या बुआ के बालों विलीन होते रहे... बहुत गहराई से महसूसा इसे बुआ ने और उतनी ही शिद्दत से बड़े बाबा का हाथ अपनी आँखों पर रख खुद भी रो पड़ीं वे।

अब मेरा ध्यान संध्या बुआ की ओर अधिक लगने लगा। उस दिन की घटना के बाद से उनका घर से निकलना बंद-सा हो गया था। वे लगातार अपने को कमरे में कैद रखने लगी थीं। सब समझते वे पढ़ रही हैं पर अक्सर उनकी आँखें दीवार पर टिकी होतीं... शून्य भेदन कर उसमें से नई राह बनाती संध्या बुआ... बुआ, ये राह तुम्हें कहाँ ले जाएगी? किस काल में तुमने प्यार की कँटीली राह चुनी... चैन खोया, शांति खोई? क्या यह वही काल था जब रानी सुंदरा ने पूरन जोगी की मुहब्बत में अपने आपको भुला दिया था, जब रांझा हीर की मुहब्बत में जोगी हो गया था और हीर जोगन... घर समाज छोड़कर! क्या यह वही काल था जब लैला की मुहब्बत में दीवाने मजनूँ को रेत के मरु ने अपने आगोश में ले लिया था और सोहनी को चनाब दरिया ने अपनी लहरों में पनाह दे दी थी... तुम कहाँ जाओगी बुआ? इस काल दंश से कितना बचोगी?

मारिया का सेवा केंद्र लगभग तैयार हो गया। केवल दरवाजे-खिड़कियाँ जड़नी बाकी थीं। अठारह कमरों, गलियारों और बड़े से अहाते वाला यह सेवा केंद्र लाल ईंटों से बना था, बहुत कुछ गुप्तकालीन टच देता। बगीचे की रूपरेखा थॉमस ने तैयार की थी। मुख्य फाटक के दोनों ओर बोगनबेलिया की रोपी जाएँगी। अहाते की दीवार से लगे आम, अशोक, नीम और पीपल के झाड़ होंगे। माता मरियम की मूर्ति सेवा केंद्र की मुख्य इमारत की दीवार पर काँच के शो केस में रखी जाएगी। नरम लचीली घास के लॉन पर लोगों के बैठने के लिए पत्थर की बेंचें, फूलों की क्यारियाँ और फव्वारे होंगे। बाबा कुछ महीनों के लिए बनारस जा रहे हैं इसलिए मारिया बिना खिड़की दरवाजे जड़े सेवा केंद्र का उद्घाटन करा लेने को उतावली हो रही है। उसने तो थॉमस और बापू को भी बुला लिया है।

"छोटी आंटी आप और छोटे साहब के हाथों ही उद्घाटन होगा सेवा केंद्र का।"

मारिया की आस्था से दादी अभिभूत थीं। वे खुद उद्घाटन की तैयारियों में जुट गईं। निमंत्रण पत्र की रूपरेखा संध्या बुआ ने तैयार की। उद्घाटन के बाद जलपान का भी आयोजन है, निमंत्रण पत्र के साथ मारिया का विजिटिंग कार्ड भी रखा गया। मारिया का उत्साह तो देखने लायक था। चम्पा के फूल-सी खिली पड़ रही थी वह, साथ में उसकी श्रद्धा, सेवा और आस्था की महक थी। दादी खुद जाकर उसके लिए कोसे की सफेद साड़ी लाई थीं जिस पर पतली सुनहरी किनार थी। मारिया सचमुच आकर्षक लग रही थी उस दिन। उसके बापू भी गाँव से आ गए थे। दुबले-पतले, साँवले से... लेकिन जिजीविषा से पूर्ण। मारिया का सेवा केंद्र देख उन्होंने कई बार अपनी आँखें पोछीं। मारिया ने दादी-बाबा से उनका परिचय कराया तो वे गद्गद हो नतमस्तक हो गए.

"आप तो जाने-पहचाने लगते हैं। मारिया ने अजनबियत रहने ही कहाँ दी। गाँव आती तो केवल आपके किस्से।"

मारिया हाथ पकड़कर मुझे भी उनके सामने ले गई - "बापू... पायल।"

मारिया के शब्द अधूरे रह गए. वे तपाक से बोले - "पायल बाई..."

और मारिया की ओर देख हँस दिए.

उद्घाटन समारोह में मानो पूरा शहर ही उलट पड़ा था। अंग्रेजों की बग्घियाँ भी कतार से खड़ी हुई थीं। बड़ी दादी को छोड़कर कोठी का हर व्यक्ति मौजूद था। गेट पर बँधे लाल रिबन दादी-बाबा ने मिलकर एक साथ काटा। कंचन, जसोदा और पन्ना ने फूल बरसाए. तालियों की देर तक गूँजती गड़गड़ाहट थमी तो एक अकेली ताली ने सबको चौंका दिया। सबकी नजरें आवाज की दिशा में उठीं और पलभर को अनझिप रह गईं। कोदू और बंसीमल बड़ी दादी को व्हील चेयर पर बैठाए हुए थे और बड़ी दादी के दोनों हाथ धीरे-धीरे ताली बजा रहे थे।

अचानक मारिया ने लोगों को संबोधित किया - "हुजूर... मेरे पूज्य मेहमान, यह जो करिश्मा आप देख रहे हैं, यह प्रभु यीशु की मर्जी है। आज वर्षों बाद जनाब अमरसिंह की धर्मपत्नी चंद्रकांता देवी घर से निकली हैं, प्रताप भवन धन्य हुआ है।