मालवगढ़ की मालविका / भाग - 20 / संतोष श्रीवास्तव

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बाबा की मौत से कहीं अधिक बड़ा सदमा था बड़ी दादी का दादी के प्रति लिया निर्णय। प्रताप भवन के हर शख्स की आँखों में सन्नाटा था लेकिन वह सन्नाटा चीखकर कह रहा था कि ये अन्याय है... अत्यंत दयालु, सब पर प्रेम की वर्षा करने वाली, सबकी मददगार मेरी दादी के लिए ये लोमहर्षक निर्णय सबको झँझोड़े डाल रहा था। बाबा का गम तो सब भूल गए... अब सीने में सिसकियाँ थीं तो दादी के लिए. मेरे शरीर में चिन्गारियों का तूफान उठ रहा था जिसे आग बनने से मैं रोके थी... क्योंकि मेरा अस्तित्व अभी छोटा था और मेरी बात में वजन नहीं था कि मैं बड़ी दादी के निर्णय पर युद्ध छेड़ सकूँ।

पूरे इलाके में खबर फैल गई कि दादी सती हो रही हैं। दादी तब अड़तालीस वर्ष की थीं... लेकिन पैंतीस से ज़्यादा की नहीं लगती थीं। ईश्वर ने उन पर दोनों हाथों से रूप का खजाना लुटाया था। दादी के महान कल्याणकारी कार्यों ने इस सौंदर्य में और इजाफा कर दिया था। अब तक उन्होंने बाबा की मौत के हादसे को स्वीकार कर लिया था। आँसुओं की लकीरें और होंठ पपड़ा गए थे... हिम्मत करके वे बड़ी दादी के कदमों पर गिर पड़ीं - "नहीं जीजी... इतनी कठोर न बनो... मैं सती होना नहीं चाहती।"

अभी उनके मुख से शब्द पूरी तरह निकले भी न थे कि बड़ी दादी का भरपूर हाथ उनके होठों पर आ गया। घुट गए उनके शब्द। बड़ी दादी ने घोट डाला दादी को जीते जी... दुश्मन थीं वे पिछले जन्म की... सारी उम्र कोसती-काटती बिस्तर पर पड़ी-पड़ी सेवा कराती रहीं। नौ वर्ष की थीं दादी जब बालिका वधू बनकर इस कोठी में आई थीं। शादी का अर्थ तक नहीं जानती थीं तब वे और बड़ी दादी पहले से ही कोठी की चाबियाँ समेटे राजरानी बनी बैठी थीं। बीमार, जिद्दी, चिड़चिड़ी बदमिजाज।...पलंग पर ही हगना, मूतना, स्पंज, दवादारू... दादी ने कभी घिन न जताई... नौकर-चाकर समय पर नहीं आ पाते तो खुद ही कर देतीं उनका काम, कलेजे से लगाकर रखा उनको और वक्त का मजाक कि आज वही उनको जिंदा जलाने को चिता सजाए बैठी हैं।

दोपहर तक प्रताप भवन सगे-संबंधियों, नाते-रिश्तेदारों से खचाखच भर गया। खानदान की तमाम ममेरी, फुफेरी मामियों, चाचियों, चाचा, फूफा, ताऊ और जाने कौन-कौन से देखे अनदेखे रिश्तों की भीड़ ने दादी को सती होने को उकसाया।

"मालविका को सती हो जाना चाहिए... ये पुण्य का काम है। सीधे मोक्ष मिलेगा। यही तो हम राजपूतों की आन-बान-शान का प्रतीक है।"

"हाँ... हाँ... हमारे शेखावाटी के झुँझुनू नगर में नारायणी देवी का मंदिर भी इसी बात की गवाही देता है।"

"अरे महासती नारायणी देवी के सत का तो कहना ही क्या... खुद ही बैठ गई थीं वह तो चबूतरे पर अपने पति का सिर गोद में रखकर और किसी ने चिता को अग्नि नहीं दी थी बल्कि खुद ही अपने सत् के बल पर अपने हाथ के चुड़े से अग्नि प्रगट कर देवसर की पहाड़ी पर महासती हो गई थीं।"

जितने मुँह उतनी बातें। सुन-सुनकर मेरा दिमाग भन्नाने लगा। मन में आया कि कहूँ कि खुद अपनी मर्जी से सती होने और जबरदस्ती सती कराने में जमीन-आसमान का फर्क है... हत्या है हत्या... पर... होंठ बंद थे मेरे... कुछ भी कहना छोटा मुँह बड़ी बात होती। मुझे तो ताज्जुब था अम्मा बाबूजी पे... वे क्यों नहीं कहते कुछ?

"क्यों आप सब चाहते हैं कि मैं सती हो जाऊँ? मेरे बाद इस कोठी का क्या होगा? कौन देखभाल करेगा इसकी? उनके अधूरे कामों को कौन पूरा करेगा?"

दादी उन लोगों के सामने गिड़गिड़ा रही थीं जिनके दुखों में दादी एक फौजी की तरह डटी रहती थीं... लेकिन उन लोगों पर क्या असर होना था जो स्वयं ठंडे पायदानों पर खड़े आग में जलने का तमाशा देखने को उतावले थे। बड़ी दादी ने दादी को कृष्ण के मंदिर में बैठा दिया।

रजनी बुआ और संध्या बुआ रो-रोकर बेहोश-सी हो गई थीं। संध्या बुआ को तो बुखार चढ़ने लगा था... सिर दर्द से फटा जा रहा था और वे रह-रहकर उल्टियाँ कर रही थीं। उषा बुआ अपने डेढ़ महीने के बबुआ को दूध तक नहीं पिला पा रही थीं। वह चिंघाड़-चिंघाड़कर कोठी सिर पर उठाए ले रहा था। अम्मा और बाबूजी का कमरा अंदर से बंद था... शायद अपने भीरुपन की ग्लानिवश... शायद हम सबसे नजरें न मिला सकने की अपनी मजबूरीवश।

मैं जसोदा के आँचल में दुबकी बैठी लगातार सिसक रही थी... बाबा की मृत्यु का समाचार सुनकर मारिया और थॉमस आए थे... मगर यहाँ तो नजारा ही दूसरा था। मारिया ने जो कुछ देखा, सुना... उससे वह घृणा से भर उठी बड़ी दादी के प्रति। वह निडर, साहसी लड़की सीधी बड़ी दादी के पास गई - "आप हत्यारी हैं... छोटी आंटी की सबसे बड़ी दुश्मन... मनुष्यता और दयालुता से कोसों दूर... इसीलिए आप बीमार हैं... आप कभी अच्छी हो ही नहीं सकतीं। छोटी आंटी की हत्या तो आप बाद में करेंगी पहले मेरे सिर फूटने का तमाशा देखकर तो खुश हो जाइए..."

और मारिया दीवार पर जोर-जोर से अपना सिर पटकने लगी। खून उबाल खाकर माथा, चेहरा भिगोने लगा... उषा बुआ चीखीं - "अरे, कोई बचाओ."

चीख सुनकर दासियाँ दौड़ी आईं... मारिया ने किसी को हाथ भी नहीं लगाने दिया। वह तेजी से यह कहती हुई प्रताप भवन के गेट से बाहर निकल गई कि अब वह कभी इस कोठी में कदम नहीं रखेगी। उसे छोटी आंटी की शपथ है।

आकाश जब खून से रंग उठा, भुतहा अँधेरा धीरे-धीरे मनहूस कोठी को लीलने लगा। हवा सहमी-सी बहने लगी और सड़क के उस पार ठूँठ आम की जड़ों पर जब सियार सिर पटक-पटककर रोने लगे तब मंदिर की कोठरी से दादी को बाहर निकाला गया। दादी पीपल के पत्ते-सी थर-थर काँप रही थीं। कैसा क्रूर समाज है ये जो पतिव्रत धर्म के नाम जिंदा इनसानों को जला देता है और स्वयं रोम के नीरो बादशाह की तरह विनाश का उत्सव देख-देखकर रोमांचित होता है।

दादी का सोलहों शृंगार किया गया। बीच-बीच में जो वे रो-रोकर गिड़गिड़ाती जा रही थीं उसे बंद कराने के लिए बड़ी दादी ने उन्हें नशा करा दिया था।

"कुकर्मी... अगला जनम भी खटिया पर ही बीतेगा।"

बड़ी दादी को कोसती कंचन दाँत पीसती जा रही थी और सुबकती जा रही थी।

अब तक दादी पत्थर हो उठी थीं। उनकी आँखें नशे के कारण लाल हो गईं। कोठी के आगे लोगों की विशाल भीड़ खड़ी थी। ढोल, नगाड़े, ताशे बज रहे थे। बैलगाड़ियों पर घी के कनस्तर लादे जा रहे थे। चंदन की लकड़ियाँ लादी जा रही थीं। हर आगंतुक के हाथ में फूलों की माला और नारियल थे। बाबा का शव शानदार राजसी ठाठ से सजाया गया था। शव कोठी के बाहर चबूतरे पर रखा था। जो भी दर्शन करने आता मुट्ठी भर फूल चढ़ाकर परिक्रमा करता। पूरा मालवगढ़ उलट पड़ा था। कोठी के सामने दरबान, कोदू, माली, महाराज, बंसीमल और रामू फूट-फूटकर रो रहे थे। अब न उनके मालिक रहे न मालकिन। अनाथ हो गए वे सब। अब कौन उनके आँसू पोंछेगा? कौन उनकी मुसीबतों में दौड़ा आएगा? मालकिन के सती होने के निर्णय पर वे विरोध करें भी तो कैसे? धर्म ने उनके पैरों में बेड़ियाँ डाल रखी थीं? और बाबूजी? अपनी जन्मदात्री के जिंदा दाह के लिए होंठ सिए शव के पास खड़े थे... न विरोध... न बगावत... एक मौन स्वीकृति... मैं उनकी इस लिजलिजी हार से टूटकर बिखर चुकी थी और... और जुलूस चल पड़ा। सहसा मैं पागलों की तरह दौड़ी - "मत ले जाओ मेरी दादी को... बाबूजी... ताऊजी... अरे बुआ... रोको इन्हें... बचा लो दादी को..."

और चीखते-सिसकते दहशत और डर से मेरी पेशाब निकल गई. मेरी सलवार पूरी भीग गई. लेकिन भीड़ पर कुछ असर नहीं हुआ और मेरे घिग्घी बँधे शब्द हवा में टूटे पत्ते की तरह भटकते रहे। लावारिस...

दादी को ढकेल-ढकेलकर शवयात्रा के साथ सब ले जाने लगे। कोठी से जब शवयात्रा शुरू हुई, समवेत स्वरों में गगनभेदी नारा गूँज उठा - "सती माता की जै... जै सती भवानी की... छोटी मालकिन जैसी तपस्विनी कौन होगी? शुद्ध पवित्र सती आत्मा है, हमारी तारनहार... पूरे मालवगढ़ को तार दिया सती मैया ने... जय हो..." कहते लोग शवयात्रा में शरीक हो रहे थे। मुझे और रजनी बुआ को अम्मा अपने गले से लगाए रो-रोकर पागल हुई जा रही थीं। क्या बाबा को कंधा देकर ले जाते हुए बाबूजी का दिमाग, आत्मा, सोच सब सुन्न हो गई थी? क्या नाते-रिश्तेदारों ने उनके पैरों में बेड़ियाँ डाल दी थीं... क्या जल्लाद ने उनकी जबान खींच ली थी... क्या उन्हें मालूम नहीं था कि यह हत्या है... कोई उत्सव नहीं? ...नहीं, मैं बाबूजी को कभी माफ नहीं करूँगी और इस काल कोठरी में अब साँस लेना मेरे लिए पाप है।

लगभग चार-पाँच घंटों में अकेला कोदू दौड़ता आया... हाँफता हुआ अम्मा के चरणों में गिर पड़ा।

"गजब हो गया हुकुम।"

अम्मा ने कुछ नहीं कहा... वे उस वेदना से उबर नहीं पा रही थीं... मेरी आँखों के आगे तो दादी को भस्म करती लपटें तांडव कर रही थीं।

"सब लोग लौटकर आ रहे हैं। मालिक का दाह संस्कार हो गया। लेकिन..."

"लेकिन क्या?"

"लेकिन... छोटी मालकिन सती होने से बच गईं।"

"क्याऽऽऽ..."

अब सबके शरीर में चेतना आई. मैं खुशी से उतावली हो चीख-सी पड़ी - "विस्तार से बताइए न कोदू काका।"