मालवगढ़ की मालविका / भाग - 2 / संतोष श्रीवास्तव

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दादी का घर से बाहर जाना कोई मामूली बात न थी। माली, दरबान, महाराज, महाराजिन, नौकर-चाकर, दास-दासियाँ सब बार-बार बुलाए गए। मारिया को अलग ताकीद की गई कि वह एक मिनट को भी बड़ी दादी को अकेला न छोड़े। मारिया खुद अपने गाँव जाना चाहती थी पर दादी के लौटने के बाद ही उसे छुट्टी मिल सकती थी।

तारों की छाँव में ही जीपों का काफिला चल पड़ा स्टेशन की ओर। मैं और रजनी बुआ तो खुशी, उत्तेजना और जोश के सागर में गोते लगा रहे थे। तीसरे दिन हम सब मथुरा पहुँचे जहाँ गुरुजी के निर्देशन में यात्रा आरंभ होनी थी। मैं आँखें फाड़-फाड़कर देख रही थी उस भव्य इंतजाम को। ट्रकों में बड़े-बड़े बर्तन, चूल्हा, अँगीठी... कनस्तरों में खाने का सामान, बोरों में भरी सब्जियाँ रसोइयों के सुपुर्दकर दी गई थीं।बड़े-बड़े तंबू, गद्दे, चादर, तकिए, फोल्डिंग पलंग, जेनरेटर... सवा महीनों तक पाँच सौ यात्रियों के लिए रोजमर्रा का सारा सामान गुरुजी की देखरेख में जुटाया गया था। मेरे लिए तो मानो एक दूसरी ही दुनिया का हवाला था ये। गुरुजी चौकी पर बैठे थे। पैरों में खड़ाऊँ। दादी ने उनके पैरों में शीश नवाया - "कल्याणी भव। देवियों की नेता तुम हो। सभी देवियों का सारा भार तुम्हारे जिम्मे।"

दादी गदगद - "इतना बड़ा भार उठा पाऊँगी मैं?"

"तुम कल्याणी हो देवी मालविका, उठो, ठीक नौ बजे प्रस्थान मुहूर्त है।"

काफिला चल पड़ा। राजपथ के दोनों ओर घने जंगल। आम, आँवला, नीम, कटहल। कटहल के झाड़ पर बंदर बैठे थे। मैंने उनकी तस्वीर खींच ली। मैंने राजस्थानी हथकरघे का काँच जड़ा कपड़े का बैग कंधे सेलटकाया हुआ था जिसमें दूरबीन, कैमरा, नोटबुक, पेन रखे थे। ऐसा ही बैग रजनी बुआ के कंधे पर भी था लेकिन उसमें कैमरा न था। हम दोनों के बीच साझा कैमरा था... हर रील आधी उनकी, आधी मेरी। वेतरह-तरह के पोज में फोटो खिंचवातीं। मैं प्राकृतिक दृश्यों की तस्वीरें लेती - तो वे कहतीं - "रील बरबाद कर रही हो तुम।" उनके बैग में चिकनी सुपारियों की थैली भी थी। हर वक्त उनके मुँह में चिकनी सुपारी का टुकड़ा दबा रहता। शाम ढलने को थी। जंगल में ही तंबू गाड़े गए. गद्दे, चादरें बिछे... जेनरेटर से सभी तंबुओं में बिजली जल उठी। दूर अलग-थलग रसोइए ने चूल्हा जलाया और देखते ही देखते भोजन तैयार होने लगा। गुरुजी के तंबू में उन्होंने कुछ खास लोगों को बुलाया था। दादी और अम्मा भी थीं। मैं अम्मा के साथ ही बैठी लेकिन गुरुजी ज़रा भी नाराज नहीं हुए.प्रवचन शुरू हुआ जिसकी गूँज माइक के द्वारा अन्य तंबुओं तक भी पहुँची। मेरे जीवन की यह ऐसी रात थी जिसे भूल पाना कठिन था। चतुर्दशी का चाँद निरभ्र आकाश में इतना शुभ्र और निर्मल तो कभी दिखा नहीं। ओर-छोर जंगल ही जंगल। पेड़ों पर कभी-कभार पंख फड़फड़ाने की आवाज सुनाई पड़ जाती।

प्रवचन, भोजन और प्रार्थना के बाद सब गहरी नींद में सोए थे। लेकिन मैं जंगली सौंदर्य में पलकें भी नहीं झपका रही थी। कभी इस डाल से उस डाल तक मोर अपनी लंबी पूँछ लेकर उड़ता। कभी नीली चिड़ियाँ अदृश्य-सी अपने नन्हे-नन्हे पर फड़फड़ातीं। अचानक सियारों का रुदन सुन मैं अम्मा से लिपटकर सोने का प्रयास करने लगी। चाँदनी भी फीकी हो चली थी।

तड़के सुबह चुस्त-दुरुस्त हम पुनः यात्रा पर चल पड़े। मथुरा से एक पंडितजी भी आए थे जो उधर कॉलेज में संस्कृत पढ़ाते थे। बड़े फख्र से वे रास्ते भर अंग्रेज अफसर के किस्से सुनाते रहे जिनकी बेटियों को वे संस्कृत पढ़ाते थे। वृंदावन के बारे में उन्होंने बताया कि ब्रह्मवैवर्त पुराण में इसके विषय में बहुत विस्तार से लिखा है। प्राचीन काल में महाराजा केदार की पुत्री थी वृंदा। उसने श्रीकृष्ण के प्रेम में वशीभूत हो उन्हें पतिरूप में पाने की तपस्या इन्हीं जंगलों में की थी।तभी से इसका नाम वृंदावन पड़ा। वृंदा देवी यहाँ की अधिष्ठात्री देवी भी हैं। राधा कृष्ण की जुगल जोड़ी इन्हीं तमाल वृक्षों के नीचे ही तो प्रेम की अद्भुत क्रीड़ाएँ करती थी। रास्ते में चलते हुए जितने मंदिर मिलते थे सभी के दर्शनों के लिए हमें रुकना पड़ता था। मैं मंदिरों में भक्तिभाव से कभी नहीं गई बल्कि उसके स्थापत्य की बारीकियों को देखने-परखने ही जाती थी। जितना बन सका तस्वीरें लीं। अम्मा जब चढ़ाने को पैसे देतीं तो मैं चुपचाप रजनी बुआ की हथेली में सरका देती... न जाने कहाँ की विद्रोही अक्खड़ आत्मा थी मेरी। कुंड स्नान के लिए सारा काफिला रुका। दादी ने दान-दक्षिणा देने के लिए खासी रेजगारी, चाँदी के रुपए वगैरह बाँधकर अलग-अलग बटुओं में रखे थे। मछ कुंड से बिछिया दान करते हैं। लौह कुंड में लोहे से बनी वस्तुएँ... लव कुंड में भी दान-दक्षिणा का महत्त्व है। महाराजजी ने प्रथम रात्रि प्रवचन में ही संकेत दे दिया था, कि कोई भी तीर्थयात्री, बाल गोपाल जंगल की फूल-पत्तियाँ नहीं तोड़ेंगे, लड़ाई-झगड़ा नहीं करेंगे, साबुन तेल नहीं लगाएँगे। सो मैं तो खुश थी। इन सब चीजों से मुझे भी परहेज था। हाँ, साबुन का न लगाना अखर गया। दादी मुल्तानी मिट्टी लाई थीं। उसी को साबुन मान लिया था। कुंडों में स्नान तरोताजा कर देता था। फिर सूर्य को जल अंजलि चढ़ाई जाती और कीर्तन होता।

तमाम मंदिरों के दर्शन, परिक्रमा, कुंड स्नान आदि करते हुए, रात में जंगलों में विश्राम करते हुए हम डीग पहुँचे जो किसी समय भगवान कृष्ण की लीलाभूमि था। चौरासी कोस की ब्रजयात्रा के समापन का यह पूर्व पड़ाव था। गुरुजी ने सबको एकत्रित करके प्रवचन दिया और यात्रा समाप्ति की घोषणा की। दादी गुरुजी के चरणों पर गिर पड़ीं - "स्वामीजी, आपके आशीर्वाद से ब्रजयात्रा, गोबर्धन परिक्रमा निर्विघ्न निपट गई. दया बनाए रखें।"

"तुम तो कल्याणी हो देवी मालविका। मैं तुम्हारे हृदय में संपूर्ण मानवता का सागर लहराता देख रहा हूँ। स्वाति नक्षत्र की बूँद सीपी का मर्म बड़ी कठोरता से भेदकर मोती बनने को उसमें समा जाती है। यह संसार का नियम है साध्वी. किंतु तुम बड़ी कोमलता से मुक्ता बनी चली जाती हो... मुक्ता बनना कोई सहज कार्य नहीं है।" दादी की आँखों में मानो मुक्ता लड़ियाँ पिघल-पिघलकर टपकने लगीं। उन्होंने गुरुजी के चरण मानो आँसुओं से पखार डाले।

उस अंतिम रात्रि में गुरुजी ने अपने निजी कोष से हम सबको भोजन कराया। महाप्रसाद में मिले बेसन के लड्डुओं का वैसा स्वाद फिर दुबारा नहीं मिला।

मैं अपने आपको अक्खड़ और विद्रोही मानती हूँ। फिर क्या बात है कि सब कुछ करने का मन करता है। सारे तीज-त्यौहार, तीर्थयात्रा, दान यज्ञ... क्यों मोहते हैं इतना जबकि इनके समापन पर मैं हमेशा सोचती रही... नहीं, मैं आस्तिक नहीं हूँ... ईश्वर पर मेरा विश्वास नहीं। फिर कौन-सी शक्ति कराती है यह सब? मन की जिज्ञासा क्यों कुरेद-कुरेदकर अपना शमन चाहती हैं। शायद इसी कुरेद से मजबूर हो मैंने दादी से पूछा था -

"दादी, आपको गुरुजी ने पहले सागर कहा, फिर सीप और मोती। ये विरोधी उपमाएँ समझ में नहीं आईं।"

दादी मुस्कुराती रहीं। शायद इसका जवाब उनके पास न था। मेरी जिज्ञासा शांत की अम्मा ने - जानती हो पायल सागर में सीपियाँ होती हैं जो मोती पैदा करती हैं। अगर सागर न होतो सीपियों का जीवन भी असंभव है। तुम्हारी दादी का हृदय वह सीप है जो सारे सागर को अपने में समेटे है... है न अनहोनी बात... लेकिन गुरुजी का यही तात्पर्य था। अब साधू-संतों की बातें होती तो गूढ़ हैं। समझना मुश्किल।

मैं अम्मा के तर्क पर चकित थी। अगर अम्मा को मौका मिला होता तो वे एक काबिल प्रोफेसर, लैक्चरर तो ज़रूर हुई होतीं।

वृंदावन से विदाई लेते हुए जाने क्यों मन उदास था। क्या यह उदासी बरसाने की राधा की थी जो कृष्ण के द्वारिका जाने पर उदास, बेचैन थी? या कृष्ण की जो राधा से बिछुड़ते हुए स्वयं राधामय हो उठे थे।

मालवगढ़ लौटकर मारिया को बेचैन पाया। उसके बापू का खत था कि वे सख्त बीमार हैं। इधर बाबा अलग खौल रहे थे। उनके एक साथी को पुजारी के वेश में नदी किनारे अंग्रेजों ने पकड़ लिया था और जब उससे भेद नहीं उगलवा पाए थे तो चौराहे के बरगद पर उसे फाँसी दे दी थी। बाबा फूट-फूटकर रोए थे - "महीनों उस व्यक्ति ने जंगलों की खाक छानी थी। रातों की नींद हराम की थी। कई-कई बार बारूद से उसकी उँगलियाँ जली थी पर उसने उफ भी नहीं की। वह शहीद हो गया... देश को आजाद कराने का कण भर का प्रयास।"

दादी खामोश बैठी रही थीं। जब बाबा चुप हुए तो उन्हें ठंडे पानी का गिलास थमाया और चुपचाप अपने कमरे के बाजू में कृष्णजी के मंदिर में दिया जलाकर उसकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की... मन-ही-मन शिकायत भी की होगी कि मैं तो तुम्हारे दर्शनों के लिए द्वारका, ब्रज की गलियाँ मापती रही, गोवर्धन परिक्रमा करती रही और तुमने हमारे ही एक साथी के साथ ऐसा अन्याय किया। शायद जवाब भी पाया हो कि आजादी के दीवानों के साथ कौन अन्याय कर सकता है? उस रात बाबा के साथ-साथ दादी भी निराहार सोईं। मारिया की हिम्मत नहीं पड़ी छुट्टियाँ माँगने की। लेकिन अगले दिन भोर होते ही दादी ने रेलवे टिकट के लिए नौकर को भेज दिया और मारिया से तैयारी करने को कहा। बड़ी दादी की तबीयत में कुछ सुधार नजर आ रहा था। मारिया ने उनके बाल धो दिए थे और वे पलंग से टिकी वृंदावन के मंदिरों का प्रसाद खा रही थीं। दादी उन्हें मुख्तसर में यात्रा के किस्से सुना रही थीं।

मारिया के जाते ही बड़ी दादी का सारा काम दादी के जिम्मे आ गया। कंचन उनका काम करने में नाक-भौं सिकोड़ती थी। जसोदा तो कनबहरी लादे रहती। बुलाने पर'आती हूँ'ज़रूर कहती पर घंटों गायब रहती और पन्ना पंद्रह-सोलह साल की खिलंदड़ी किसी काम को गंभीरता से नहीं लेती थी। उषा बुआ बड़ी दादी को सुबह का नाश्ता और दोपहर का खाना खिला देतीं और संध्या बुआ रात का लेकिन दवाई के लिए, दर्द और तकलीफ में दादी के नाम की गुहार लगाती। अलबत्ता एक नौकरानी मारिया के एवज बुला ली गई थी पर दादी को उसका पहनावा भाता नहीं था। भड़कीले रंग का चोली घाघरा, ओढ़नी सिर परतो रहती पर पूरी की पूरी पीठ के ऊपर पड़ी रहती। दोनों छातियाँ आधी-आधी चोली के अंदर बाकी बाहर।