मालवगढ़ की मालविका / भाग - 40 / संतोष श्रीवास्तव

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बाबा की समाधि से सिमिट्री तक की सड़क छायादार वृक्षों का लंबा सिलसिला थी। करीब पैंतालिस मिनट का मौन सफर... रामू काका जड़ बन बैठे थे। जाने कौन-सा अपराध भाव उन्हें लीले जा रहा था। जानती थी अनिच्छा से चल रहे हैं वे और अनिच्छा का सबब है दादी का जिम से विवाह। रामू काका ही नहीं प्रताप भवन का हर इनसान इस मनःस्थिति का शिकार है।

काँटेदार बाड़ से घिरी सिमिट्री के गेट पर रामू काका ने जीप रुकवाई. दूर-दूर तक सन्नाटे का गहरा साम्राज्य था। हवा में पत्तों का मर-मर स्वर सिर धुनता-सा लगा। मैं बोझिल कदमों से सिमिट्री की ओर बढ़ी। तमाम कब्रों के चबूतरों पर सूखे भूरे, बादामी पत्ते झरे थे। एक मरियल-सा कुत्ता एक कब्र के चबूतरे से टिका अपने जख्मों को चाट रहा था - "या ही ह मालकिन की समाधि।"

रामू काका ने कहा और तुरंत पलटकर जीप की ओर बढ़ गए. चबूतरे पर काले सुनहरे अक्षरों में'मिसेज मालविका जिम वेल'लिखा था। उसी से लगी एक कब्र थी जिस पर मिस्टर जिम वेल लिखा था। मेरी संवेदना निःशब्द झर रही थी। मेरा मन हाहाकार कर उठा। दादी ने हमेशा जिन अंग्रेजों से नफरत की, जिनका कोठी के मेन हॉल के अतिरिक्त प्रवेश निषेध था, जिनके खाने-पीने के बर्तनों को वे चौके में नहीं घुसने देती थीं अंत में उसी कौम के व्यक्ति को उन्हें अपना पति स्वीकारना पड़ा। जो कभी बाबा को खिलाए बिना अन्न जल ग्रहण नहीं करती थीं, बाबा की मृत्यु के बाद उनकी चौखट में प्रवेश न करने की वर्जना भी उन्हें झेलनी पड़ी। और झेलना पड़ा उन तमाम लोगों का तिरस्कार जिनकी सुख-शांति के लिए उन्होंने भगवान कृष्ण के आगे हजारों बार माथा नवाया था। इन्हीं सबने मिलकर मेरी फूल-सी दादी को जिंदा जलाने का षड्यंत्र रचा था। इन्हीं सबने मिलकर थोथे आडंबर से पूर्ण धार्मिक कुरीति के निर्वाह का प्रयास किया था। इन्हीं सबके लिए दादी दीपशिखा-सी जलीं और अपना उजाला उन्हें सौंपती रहीं। क्यों भूल गए मालवगढ़ के लोग उनकी सेवा, दान, तप, यज्ञ को... और क्यों याद रखी मात्र यही एक घटना कि उन्होंने एक अंग्रेज से शादी करके अपना धर्म भ्रष्ट किया। इस मुकाम तक किसने पहुँचाया उन्हें? कौन है कसूरवार? दादी या प्रताप भवन?

मैं अपने ही आँसुओं में नहा रही हूँ। पूरी सिमिट्री अंधे कुएँ-सी मुझे लीलने को आतुर है। मैं अंधाधुंध दौड़ रही हूँ... दादी... दादी... तुम्हें तो ताबूत में लेटाकर मुर्दे को दफन करने की रीति से भय लगता था न? तुम कहती थीं न कि महामूर्छा में नाड़ी गुम हो जाती है... दादी, कहीं तुम महामूर्छा में तो न थीं?

"रामू काका... दादी को कब्र से निकालिए... हम उनका दाह संस्कार करेंगे। दादी की आत्मा ताबूत में बेचैन है। रामू काकाऽऽऽ"

और रामू काका ने दौड़कर मुझे बाँहों में सम्हाल लिया।

"अरे बेटी सा, क्यूं पगलावे है। अरे, मुर्दो भी कठ बेचैन होयो है? स कुछ तो खतम हो ग्यो।"

तभी तेज हवा चली और काका के बोल झरे पीले पत्तों के शोर में दब गए।