मिथिला यात्रा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पढ़ने के ही सिलसिले में मुझे दरभंगा जाना पड़ा सन 1915 ई. में। सत्प्रतिपक्ष और बाध आदि नव्यन्याय के ग्रंथों के पढ़ने का ठीक अवसर काशी में न लगा। ये ग्रंथ बड़ी कठिनाई से दक्षिण-भारत की कांचीपुरी से हमें मिल सके। कुछ मीमांसा संबंधी जिज्ञासा भी थी जो काशी में पूरी न हो सकी थी। इसीलिए दरभंगा आ कर श्री रामेश्वर लता विद्यालय में ठहरा। वहीं कई मास रह के श्री पं. बालकृष्ण मिश्र से न्यास के ग्रंथ और काव्य प्रकाश पढ़ा। मैं उनकी कुशाग्रबुद्धि का कायल था। मुझे जितने पंडित मिले उसमें सबसे तीक्ष्ण बुद्धि यही दीखे। मगर केवल पच्चीस रुपए मासिक पाते थे! यह थी महाराजा दरभंगा की विद्वत्प्रतिष्ठा। मेरे ही आग्रह से उन्होंने धर्म समाज संस्कृत काँलेज, मुजफ्फ़रपुर में प्रार्थना-पत्र भेजा। स्वीकृत होने पर वहाँ सभवत: पचास रुपए के मासिक पर गए। पच्चीस रुपए मासिक तो उनके खाने-पीने को ही चाहिए था। वे दिन-रात पठन-पाठन में मस्तिष्क खपाते रहते थे। काव्यरचना भी अच्छी करते थे। बिहारी की सतसई को संस्कृत दोहों में उनने लिखा था। मगर छपवा न सके। कहते थे कि जब उन्हें पता लगा कि किसी और ने भी संस्कृत दोहों में उसे लिखा है तो मैंने छपवाने का इरादा ही छोड़ दिया। जब मैं दरभंगे से चलने लगा तो अपनी एक पुस्तक के ऊपर अपने हाथों यह श्लोक लिख कर वह पुस्तक उन्होंने मुझे दी। वह न्याय की है।

प्रेमैव मास्तु यदि स्यात्सुजनेन नैव , तेनापि चेद् गुणवता न समं कदाचित। तेनापि चेद् भवतु नैव कदापि भंगो , भंगोऽपि चेद् भवतु वश्यमवश्यमायु:॥

वहीं पर महामहोपाध्याय पं. चित्रधार मिश्र मीमांसक से मेरा परिचय हुआ। उनके साथ मीमांसा पर कथनोपकथन होता रहता। वर्ष के दिनों में मैंने उनके पास से हस्तलिखित तंत्ररत्न-नामक बड़ी सी पुस्तक ले कर अपने हाथों उसकी नकल की। पीछे सुंदर जिल्द बनवा कर उसे पास रखा। दो मास के लगातार परिश्रम के बाद उतनी बड़ी पुस्तक लिखी जा चुकी। यह तो असंभव सा काम था। कोई भी उसका आकार देख कर कह सकता है। वहीं पर मैंने पं. रघुनाथ शिरोमणि की पुस्तक 'पदार्थ खंडन' की भी प्रतिलिपि हाथों लिखी। असल में ये दोनों पुस्तकें छपी न थीं।

पं. बालकृष्ण मिश्र हिंदू विश्वविद्यालय में अब अच्छी जगह पर हैं। उनने खूब उन्नति की है। दरभंगे की एक घटना है। उन दिनों मेरा भोजन बनाने के लिए एक मैथिल ब्राह्मण रखा गया था। वही बाजार से सामान भी खरीद लाता था। मुझे एक दिन शक हुआ कि वह चोरी करता है। इसलिए मैं इसका पता लगाने में सतर्क हुआ। असल में चोरी से मुझे सख्त नफरत है। आखिर एक दिन एक पैसे की चोरी पकड़ी। फिर, तो उसे अपने पास से हटा ही दिया। मैंने उससे कहा कि तूने मुझसे पैसे माँग क्यों न लिए? एक-दो पैसे की क्या बात थी कि चोरी की?वहाँ पढ़ने के समय मेरा खर्च मुजफ्फ़रपुर के वकील बाबू योगेश्वर प्रसाद सिंह और दरभंगे के वकील बाबू धारणीधार जी देते थे। दोनों से मेरी उस समय घनिष्ठता थी। वे लोग मेरे सामाजिक और धार्मिक व्याख्यानों पर मुग्ध थे।