मिस जून / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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दो बज रहे थे।आज हाफ डे का बैंक है।निकलते निकलते तीन बज गए.दोपहर को पार्क में बहुत कम लोग होते है।फिर और दिनों की तरह आज वापस काम पर नहीं जाना है।आज देर तक रुका जा सकता है।परन्तु वह जरुर मिलेगी। आज वीक डे के कारण पार्क में कुछ ज्यादा ही बच्चे थे।मै उसे ढूढ रहा था।एक बंजर सपाट कोने पर कुछ लडके जींस की गेंद से क्रिकेट खेल रहे थे।मगर उनमे वह नहीं थी।

मै एक सुनसान पेड़ के नीचे पड़े बेंच पर बैठ गया। मुझे किसी का इंतज़ार था।अनिश्चित निगाहों से कभी फाटक को देखता, कभी सड़क को और फिर लौट कर पार्क को देखने लगता।कभी यह ख्याल भी आता कि शायद वह न भी आए.अभी तक घर में बैठी हो? या फिर देर से आये।

बहुत दिनों में मैं एक लड़की को जानने लगा था।वह दिन भर पार्क में खेलती मिलती थी।उस पार्क में बहुत पेड़ थे।वे कई तरह के पेड थे जिनमे मैं बहुत कम को पहचानता था। उबड़-खाबड़ जमीन में भी हरियाली बिछी रहती थी।बीच में कुछ दूरी तक कृत्रिम तालाब बना था।जिसके आर पार जाने के लिए लकड़ी के पुल बने थे।तालाब में पानी कम इतना कम की आराम से पैदल आर-पार हुआ जा सकता था।परन्तु बरसात के दिनों में यह काफी भर जाता था इतना कि ओवरफ्लो होने लगे।

बहुत दिनों से हम एक दूसरे से नहीं बोले थे।वह सामने खेलती कूदती रहती थी और चोर निगाहों से देखती भी रहती थी।जब वह-वह आ जाती तो एकटक उसे देखता रहता था।उसे देखना अच्छा लगता था।ऐसा लगता था कि मैं उसे पहचानता हूँ।पर ऐसा था नहीं।

मै लखनऊ के इस इलाके में अभी-अभी आया था।पोस्टिंग के कारण मैं एक शहर से दूसरे शहर और एक ही शहर में एक जगह से दूसरी जगह बदलती रहती थी।यह मेरे बस में नहीं था एक जगह टिक कर रहना।अपने शहर कानपुर में पोस्टिंग कभी नहीं मिली।क्यों...? अपने बचपन के घर का आकषर्ण ताउम्र नहीं जाता।परन्तु अपना शहर हर समय स्मृतियों, यादों, ख्यालों और निगाहों में बसा रहता।जब तक माता पिता रहते है, घर-घर लगता है वरना सराय।

मै लंच के समय ही पार्क में आता था, परन्तु वह किसी भी समय हो सकती थी।मुझे वह पार्क कम उजड़ा हुआ खँडहर स्थान अधिक लगता था क्योंकि उसमे एक पुरानी ईमारत बहुत छोटे से स्पेस तीन मंजिला खड़ी थी। जिसमे जाने के लिए बाहर से सीढ़ीनुमा रास्ता लगा था।उस रास्ते को भी झाड़ झखड़ि डाल कर बंद करने की कोशिश की गयी थी, परन्तु कुछ बच्चे उसे पार कर ऊपर पहुँच जाते थे।मै पार्क का ऐसा कोना चुनता था कि वह दिखाई पड़ती रहे।लेकिन उस पेड़ के नीचे पड़ी वह बेंच मुझे सबसे मुफीद लगती थी।यही से पार्क का वह फाटक दीखता था जिससे की वह अक्सर आती दिखती थी जब वह मुझसे बाद में आती थी तब।वैसे तो पार्क में एक गेट और था, दूसरी तरफ किन्तु वह बंद रहता था।शायद सुबह खुलता हो।

वह काफी उदासी भरे दिन थे।

वह लड़की कुछ समय के लिए मेरी उदासी दूर कर देती थी।वह सदैव अच्छे कपड़ो में होती थी।वह पांच साल की सुंदर सलीकेदार लड़की थी।वह अपने में मस्त जिंदादिल लड़की थी।हमेशा अकेले खेलते नज़र आती थी।ऐसा लगता था कि वह जल्दी किसी से मित्रता नहीं गांठती।

एक ऐसी ही दोपहर वह सी-सॉ के पास खड़ी थी, एक तरफ उसका हैंडल पकड़े।वह उससे खेलना चाहती थी, किन्तु उसके लिए दो लोगों की जरुरत होती है।और पार्क में उसके अलावा सिर्फ मैं था।मै चोर निगाहों से उसकी उलझन देख रहा था।वह बेहद संकोची थी।

"ठहरिये-मैं आता हूँ।" यह कहकर मैं उसके पास चला आया।कुछ देर तक हम चुपचाप आमने सामने खड़े रहे।उसके आंखें बराबर मुझ पर टिकी थीं-इच्छुक और आशावान।मैंने सी-साँ के दूसरी तरफ इशारा किया।उसने सिर हिलाकर सहमति दी।उसे बहुत अच्छा लगा।

आने वाले दिनों में हम पक्के दोस्त बन गए थे।वह मेरी सहायता से फिसलने वाले झूले पर फिसली।उसने मुझे झूले झुलाने पर मजबूर किया।वह लम्बे-लम्बे पैग भरती थी नहीं तो मेरी हेल्प लेती थी।और किलकारियाँ मार कर हंसती थी।हँसती ही चली जाती थी।झूला झूलते समय वह अनवरत हंसती थी।मै अपने उम्र के संकोच में था, परन्तु उसके साथ बचपन लौट आता था।

लड़की को कोई आवाज सुनाई पड़ी।उसकी निगाहें पीछे मुड़ गयी।मैंने देखने की कोशिश की कौन है? मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ा।वह आवाज सुनकर भागने लगी, फाटक पार करते कहाँ विलोप हो गयी पता न चला? उस आवाज के सुनते ही बच्ची मुझे भूल गयी थी।

इरी...इरिना फ्रांसिस।यह उसका पूरा नाम था।एक बार मेरे पूछने पर उसने बताया था।अक्सर मेरे आने के पहले वह आ चुकी होती।कभी दिखाई न देती तो मैं उसी बेंच पर बैठ जाता, वह यही कही छुपी होंगी, चुप्पे से-से दुबकी हुई फिर अचानक मेरे सामने आती और मुझे चौका देती...मै अवाक् उसे देखता रहता और वह खिलखिलाकर हंस पड़ती।

एक चीखती हुई आवाज मेरे पास आ रही है।मै इधर उधर देखता हूँ...कौन कौन...? शायद उस बच्ची की आवाज है...नहीं, शायद बहुत पहले ऐसी ही चीखती आवाज में उलझ जाता हूँ।या शायद भ्रम है।कभी कभी आदमी किसी शै... की गिरफ्त में आ जाता है तो खुद अपने को बुलाने लगता है।

लेकिन क्या यह वास्तव में बुलावा था...शायद, नहीं... पार्क की अजीब अदृष्य आवाजें मुझे घेर रही थी।मै इस दुनिया से निकल कर दूसरी दुनिया में चला गया था।मुझे लगा इरी का चेहरा पहले से पहचाना है।बहुत कोशिश करने के बाद भी पकड़ में आ नहीं रहा था।इरी जैसा पहले कहाँ देखा है...?

मै हांथों का सिरहाना बनाकर बेंच पर लेट जाता हूँ।आज हाफ डे है, मै आराम से इरी का इंतज़ार कर सकता हूँ।

ऐसे ही जब मैं बेंच पर लेटा था, मुझे एक अजीब-सी खड़खड़ाहट सुनाई दी।शायद मैं सपने में था या ख्यालों में या अधनींदा मुझे लगा कि मैं मिस जून मेकफ़िल को देख रहा हूँ।वह मेरे पास-बिलकुल पास है, जैसे बीस साल पहले, एकदम सटी साथ-साथ बैठी।एकदम मौन...बिलकुल मौन, एकदम शांत मुद्रा में जैसे पहले बैठते थे।ऐसा लगा कि वह मुझे पुकार रही है।

मै हड़बड़ाकर उठ बैठा।

सामने इरी और उसकी माँ खड़ी थीं।उन्होंने इरी का हाँथ पकड़ रखा था, नहीं बल्कि बच्ची ने उनकी उंगली पकड़ रखी थी।वे असमंजस में मुझे निहार रही थी।बच्ची अब भी अपने पैरों से पत्ते खड़खड़ा रही थी और मुस्करा रही थी।

' माफ़ कीजियेगा..."उन्होंने सकुचाते हुए कहा," आप शायद...? "

मै कपड़े झाड़ते उठ खड़ा हुआ।पता नहीं ऐसा क्यों प्रतीत हो रहा था कि यह चेहरा पहचाना-सा है? एक बहुत धुधली तश्वीर जो जेहन में थी वह अठखेलियाँ करने लगीं।

"आप ...आप...इरी की मम्मी हैं...?" वह ईसाईयों की टिपिकल ड्रेस में थीं-स्कर्ट-ब्लाउज, जुते-मोज़े और गर्दन तक लहराते बाल।इरी का बड़ा प्रतिरूप।

"हाँ..." वे मुस्कराने लगी, "इरी ने आज जिद की उसे अपने बेस्ट फ्रेंड से मिलवाना है।इरी ने कहा कि आज वह ज्यादा देर तक रुकेगा ऐसा उसने वादा किया है" ।यह कहकर वह एकटक अपलक मुझे देखने लगी, जैसे कुछ पहचानने की असफल कोशिश कर रही हो।

"चलिए... " बच्ची ने कहा। अपनी मम्मी की अंगुली छोड़कर मेरी अंगुली पकड़ कर खीचने लगी।

"मै आपसे कहने आई थी, आज आप हमारे साथ चाय पीजिएगा? ...हम लोग एकदम पास में रहते है।" उनके स्वर में कोई संकोच या दिखावा नहीं था।जैसे वह मुझे मुद्दत से जानती हों।

मै तैयार हो गया।मै वर्षों से अपने घर छोड़ कर किसी और के घर नहीं गया था।एकांत निवास करते-करते मैं दूसरों को क्या अपने को भी भूल गया था कि मैं क्या हूँ?

वह आगे-आगे चल रही थीं साथ में लड़की भी।वह कभी-कभी पीछे मुड़कर भी देख लेती थी।मुझे बड़ा अजीब लग रहा था कि मैं उनके घर जा रहा हूँ जिन्हें मैं ठीक से जानता भी नहीं।शायद उन्हें भी ऐसा कुछ लग रहा होगा।

"आप पास ही कही रहते हैं?" उन्होंने पूछा।

"हाँ, सेक्टर-के में...बैंक में प्रवन्धक हूँ।"

" आप, शायद हाल में ही आये हैं? उन्होंने मुस्कराते हुए कहा।

"जी... मुश्किल से टू मंथ।"

उन्होंने मुझे एक बड़े से ड्राइंग रूम में बैठा दिया।यह शायद उनका किराये का पोर्शन था।मेरे साथ बच्ची थी।मै उससे खेल में उलझ गया।थोड़ी देर वह हम दोनों को देखती रही।

" आप बैठिये, मै अभी चाय बनाकर लाती हूँ।' यह कहकर वह उठी।

"यदि, आप माइंड न करें तो क्या मैं एक बात पूंछ सकता हूँ...कहीं आप मिस जून मेकफिल तो नहीं?" अपने भीतर द्वन्द मचाते शक को मैंने बाहर करने की सोची।

उन्होंने तनिक विस्मय से मुझे देखा और मुस्कराते हुए बोली, " हाँ...रघु-राघव शर्मा! बड़ी देर लगा दी मुझे पहचानने में।और हाँ...अब मैं मिस जून मेकफ़िल नहीं रही, मिसेस पीटर फ्रांसिस हूँ...नहीं ...नहि अब वह भी नहीं सिर्फ जून फ्रांसिस रह गयी हूँ।वह मुस्कराने लगी फिर हँसने लगी और देर तक हंसती रही।मै भौचक, अपने पर हंस भी ना सका।मै अनुमान नहीं लगा पाया कि वह मेरे न पहचानने पर हँस रही है या अपने सर नेम के बदलने पर।मुझे याद आया अक्सर मैं उससे हर मामले पर पिछड़ जाया करता था।

थोड़ी देर में वह ढेर सारा नास्ता और चाय लेकर आ गयीं।

" चाय पिला रही हो या दावत दे रही हो? ' मैं एक क्षण के लिए सकुचाया।

"अरे, यह कुछ भी नहीं! डिनर बिफोर ब्रेकफास्ट में इतना तो होना ही चाहिए.मैंने वाल क्लॉक पर देखा शाम के पांच बजने वाले थे।फिर जैसे कि कुछ याद् आया," मिलिट्री कैंटीन में सब चीजे सस्ते में मिल जाया करती हैं।"

"तो आपके हसबैंड मिलिट्री में है?"

"अब कहाँ, विली-विलियम फ्रांसिस?" उसकी डेथ हुए भी चार साल से ज्यादा हो गए.वह सिर पकड़ कर बैठ गयीं, दुखी और परेशान दिखने लगीं।जैसे कि उसे याद करना अपने में एक रोना है।फिर जैसे कि उन्हें याद आया कि मैं हूँ।वह चुप चाय सर्व करने लगी।इरी चुप थी और वह खाते-खाते नींद में आ रही थी।

वे उसे सुलाने बेडरूम में चली गयीं।

जब उन्हें गए देर हो गयीं तो मैं उठकर जाने लगा।फिर यह सोचकर ठिठक गया कि यह अहमन्यता होगी।मैंने बेडरूम में झाँका हाँलाकि यह गलत था।वह अपने पति की यादों की अनंत गहरायिओं में खोई मेरी उपस्थिति से अनजान थीं।

मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा।उस स्पर्श में पुरानी पहचान और आश्वासन था।उसने हाथ नहीं हटाया सिर्फ अनजान नज़रों से देखा भर था और मैं ढय गया।

"कुछ बतायोंगी भी?" मैं वापस आज लौट आया, परन्तु उत्सुकता समाप्त नहीं थी।

"चलते है, बाहर चलते है।यहाँ इरी जग जाएगी।" व उठकर ड्राइंग रूम में आ गयी मैं भी।हम एक ही सोफे में बैठे निकट एकदम निकट।वह अत्यंत धीमे स्वर में बोल रही थी जैसे बुदबुदा रही हो।मुझे कोफ़्त हो आयी।वह समझ गयीं-

"दोस्त! वह एक मृत्यु थी जिसने मेरे जीवन को निरर्थक कर के छोड़ दिया।विली की मौत ने सब तहस नहस करके रख दिया।वह मेरी मनपसंद मैरिज थी।शुरू से आर्मीमेन मेरे हीरो रहे है, दिलेर, जांबाज, फिट।परन्तु गॉड को कुछ और ही मंजूर था वह लड़ाई में मारा गया..." संतोष मिला कि वह मुझे अब भी अपना दोस्त मानती है... " उसके डेथ के बाद जो सारा पैसा मिला उसे मेरे इन-लॉज ने बहला फुसला कर हड़प लिया।घर का खर्च भी मेरी पेंशन से चलने लगा...वह हिचकिचाई आगे कुछ बोलने के लिए.मै उसे देखता रहा।मेरे भीतर जो कुछ था वह ठहर गया।उसने अपना सिर झुका लिया।भीगी आँखे और हलके से कांपती आवाज, ठहर गयी थी।वह थकी और निढाल लग रही थी।मै प्रतीक्षा कर रहा था।

"ओह... फिर यहाँ कैसे?" मैंने पूछा।

वे मेरी शादी, विलियम के बड़े भाई विधुर, नाकारा, बगड्दम से करवाना चाहते थे।कहते थे दोनों का घर बस जायेगा।मै इनकार करती रही वे दबाव बनाते रहे।जब दबाव असहनीय हो गया तो एक दिन इरी के साथ आगरा छोड़ दिया, बिना कुछ सामान लिए.

"कब की बात है?"

"आज से तीन साल पहले...आप नहीं जानते है कि किस कठनाई दिक्कत परेशानी मैं यहाँ रहती हूँ।अकेली... ...हाँ, अपनी पेंशन यहाँ ट्रान्सफर करवा ली है।"

"आप, घर-कानपुर नहीं गयी?"

"गयी थी।जब आगरा छोड़ा था तो पहले वही गयी थी।परन्तु माँ-बाप के न रहने से घर अपना घर नहीं रहता है।भाई और भाभी का रवैया भी ठीक नहीं था।वे हर समय मेरी दूसरी शादी के लिए प्रस्ताव लाते रहते थे।मै नकारती रहती थी।कोई भी ढंग का रिश्ता अपने रिलिजन में नहीं था।मै अपने इरी को एक दोस्त पिता देना चाहती थी और वे किसी से भी मेरी शादी करवाना चाहते थे।वे मुझसे छुटकारा पाना चाहते थे...इसलिए मैं यहाँ आ गयी, अपनो से अलग, एकांत में।"

"ओह...! आप यहाँ अकेली रहती हैं?"

"नहीं... इरी है न मेरे साथ।' ... और आप?"

मै धीरे से हंस देता हूँ...उसे मेरे विषय में जिज्ञाषा थी, शायद...फिर मुझे अपने भीतर वह आवाज सुनाई देती है, जो अक्सर मुझे अकेले एकांत में सुनाई देती है...और मैं उस आवाज को सुनने से मना कर देता हूँ क्योंकि मुझे पता है कि मेरी उस आवाज से वह पहले की तरह मुंह मोड़ लेगी।यह मेरे भीतर का सन्नाटा था जिसके बीच उसकी स्वीकृत की अंतहीन दूरी थी।कभी कभी घोर हैरानी होती है अपनी विचित्र स्थिति पर।अपने लिए कोई उम्मीद नहीं। वह रोने लगी थी।उसका सफ़ेद चेहरा पीला पड़ता जा रहा था। एक खीज, तनाव और उलझन से चेहरा विकृत हो गया था।मैंने उसे रोने दिया।उसका दुख निकल गया तो वह भीतर मुंह धोने चली गयी।जब वह लौटी ती साथ में इरी थी।

काफी समय हो गया था। अब मुझे चलना चाहिए था।जब विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो उसने दोनों हाँथो से उसे थाम लिया।कुछ पल उन्हें देखती फिर कुछ सकुचाते हुए कहा, "आप कल खाली है?"

"कल इतवार है।" मैंने कहा। "कितने बजे आना होगा?"

"कभी भी, किसी समय।साथ साथ बैठते ही पुरानी बातें यादें आपस में साँझा करते हैं।इतने दिनों आप बाद मिले हो मैं आपके विषय में कुछ जान ही नहीं पायी। आएंगे न आप?" वह एक धुली हुई साफ आवाज थी जिसमे न कोई रंग नहीं था, न प्यार का।न स्नेह का, न नाराजगी का, एक शांत और तठस्थ आवाज।

मैंने हामी भरी और बाहर निकल आया।उसके घर से अपने घर की ओर चलते हुए मैं एक अनजानी ख़ुशी मुझ पर तारी थी।उसके घर से अपने घर आते हुए मुझे शायद वही खुशी महसूस हो रही थी जो कभी कानपुर में मीरपुर कैंट से कैनाल रोड आने पर होती थी।यह अकल्पनीय था कि हम दुबारा मिलेगे...इस तरह...अब मैं सिर्फ इरी से ही नहीं बल्कि जून से मिलने लगा था।इरी और जून में अद्भुत समानत थी।इरी को देखकर जून से मिल जाना हुआ और जून से मिलकर इरी से मिल जाना हुआ।मै जबतक उनसे किसी से मिलने का एक चक्कर पूरा न हो जाता दिन पूरा नहीं होता था।उनसे अपने को मिलने से रोकना बेमानी-सा होता था।उनके घर में इरी सदैव मुझसे सट कर बैठती थी।और जून कुछ फासले से।

हम स्कूल के दिनों के सहपाठी थे-सेंट् एलासिस हाई स्कूल, कैंट, कानपुर।शुरू के दिनों में हम आपस में बात नहीं करते थे सिर्फ एक दुसरे को देखकर स्माईल का आदान-प्रदान किया करते थे यद्दपि हम एक ही क्लास में थे।वह पढ़ने में काफी जहीन थी, विशेष रूप से इंग्लिश में।वह फर्राटे से इंग्लिश बोलती थी और उसे हैरानी होती थी।उससे ईर्षाजनित भय भी होता था।स्कूल परिसर में इंग्लिश के अलावा कुछ भी बोलना प्रतिबंधित था।क्लास छै पूरा निकल गया और हम दोनों में कोई सम्वाद नहीं हुआ।सातवी में हाय...हेलो से अधिक नहीं।हाँ आठवी में छुट-पुट बातचीत के अलावा कुछ भी नहीं, वह भी सिर्फ पढाई से सम्बन्धित। उससे बातचीत प्रारंभ करने में दुविधा रहती थी। उसने भी कभी पहल नहीं की।वह तेज तर्रार खूबसूरत लड़की थी।उसके पास दोस्तों की कमी नहीं थी।बस हम लोगों में जान पहचान का अभाव न रहा था।

एक दिन स्कूल कि छुट्टी के दिनों में ऍम।इ.एस. फील्ड में वह दिखाई पड़ी।वह दो तीन लडको से घिरी थी।वे सब आपस में बात कर रहे थे, कुछ तेज आवाज में।मुझे आश्चर्य हुआ।मै उसी दिशा में उसके पास पहुँच रहा था।वह लगातार उलझी थी उनसे।उसकी पीठ मेरी तरफ थी।भी पास पहुँच ही न पाया था कि उसकी चीखते बोल सुनाई पड़े, "हिन्दू का बच्चा कभी न सच्चा, जब सच्चा तब गधे का बच्चा।" मैं हतप्रभ रह गया।वे लड़के हंसते हुए... अलग हट गए.मै समझा वह मुझे देखकेर हट गए है।उनके दूर हटते ही एकायक वह पलटी और मुझे देखकर आश्चर्यचकित रह गयी।वह बुरी तरह झेप गयी थी और माफ़ी मांगने लगी-

"यह मैंने उनके लिए कहा था।वे लड़के मुझे छेड़ रहे थे...इसलिए बोला था ऐसा...सॉरी...आपको बुरा लगा होगा? माफ़ कर दीजियेगा।आप कब आ गए? बाई-गॉड, पता नहीं चला...सॉरी...सॉरी...सॉरी..." उसने अपने कान पकड़कर कहा।जून ने मेरे हाथ को अपने हाथ में लेकर मुझसे प्रॉमिस लिया कि मैं नाराज नहीं हूँ।वे चाहना के दिन थे।मुझे उसके वाक्यों को दरकिनार करना पड़ा।यद्दपि मेरी उससे अचानक मिलने की ख़ुशी कमतर होकर थोड़ी-सी उदासी में तब्दील हो गयी थी।

"सुनो," उसने कहा। "मेरा घर यही पास में है।घर चलते हैं...कुछ देर के लिए, प्लीज!" वह आमंत्रण नहीं था, एक मूक प्रार्थना थी जो उसकी आँखों में दिखाई पड़ रही थी।

मै ठिठका-सा खड़ा रहा।भूल गया कि उसने अभी क्या कहा था? मैं तनिक विष्मय में था कि वह स्वाभाविक आमंत्रण है या परिस्थितिजन्य पछतावा प्रस्ताव। मैंने जून की तरफ उत्सुक नजरों से देखा मुझे कुछ समझ में नहीं आया।

मै असमंजस में था।

"चलें...?" उसने पूछा।मै झिझका। "डरो नहीं...! मेरी मम्मी आपको देखकर खुश होंगी।" वह मुझे ले जाने के लिए काफी उत्साहित थी।मेरी झिझक काफूर हो गयी।

उसके घर से निकलते हुए शाम हो गयी थी।जो समय मुझे अपने दोस्तों के साथ फील्ड में क्रिकेट खेलते गुजारनी थी वह जून के घर व्यतीत हो गयी थी...समय का यह अंत सुखदायक था।

मै अक्सर छुट्टी में उसके घर चला जाता था, जहाँ हम मिलकर स्टडी किया करते, बाते किया करते।उसके घर में मेरी छवि एक अच्छे, सीधे और शरीफ लड़के के रूप में स्थापित हो गयी थी।

वे दिन कुछ अलग से थे जब हम कुछ दिनों के लिए आपस में देख रहे थे और समझ रहे थे। उन दिनों हम बहुत निकट आये थे और फिर दूर भी हो गए थे।बहुत कुछ घटा था।जिसने हम दोनों को हिला कर रख दिया था।सीखने समझने और पहचानने के दिन। हम दोनों दसवी क्लास में थे।गर्मी की छुट्टियाँ हो गयी थी।छोटे बच्चों का एक टूर नैनीताल जा रहा था।क्लास छै से आठ तक, बीस बच्चे।कुछ बच्चे कम पड़ रहे थे।हम सभी ने फाइनल एग्जाम दे दिया था और खाली थे।स्पोर्ट टीचर राय साहेब ने जान पहचान के छै सात बड़े बच्चे ले लिए.उनमे मैं और जून भी थे।रॉय साहेब जून के पडोसी थे और जून के कहने पर मुझे भी शामिल कर लिया गया।हम लोगों के साथ र्रॉय साहेब उनकी पत्नी थी।उनकी पत्नी यानी कि सुनीता रॉय...जूनियर सेक्शन की इंचार्ज।एक दो लोग और थे जिनके विषय में बाद में पता चला वे रसोईये, हेल्पर और लेबर थें।

हम सब कानपुर सेंट्रल स्टेशन में मिले थे स्कूल और घर की बंदिशों से मुक्त।बड़ा उन्मुक्त वातावरण था परन्तु सीमित दायरे में।रॉय साहेब का अनुशासन सख्त था हांलाकि उनकी पत्नी साथ होने की वजह से छोटे बच्चों पर उतना कठोर नहीं था।वे निःसंतान दम्पति थे।

काठगोदाम पहुचने पर रेल छोड़नी पड़ी थी।फिर चार घंटे चक्कर खाते हँसते-गाते बस से हम सब तल्लीताल बस स्टैंड आ गए.वहाँ से हम सब पैदल मार्च करते हुए एक पहाड़ी पर स्थित प्राथमिक पाठशाला में टिक गएँ।वहीँ हम लोगों का पंद्रह दिवसीय प्रवास निर्धारित था।

वह एक लकड़ी का बना दो मंजिला घर था ।आगे के कमरों में हम सब बड़े टिकाये गए और पीछे बड़े से हाल में छोटी क्लास के बच्चें।हाल कमरे से ऊँपर जाने के लिए जीना लगा था जहाँ पर रॉय साहेब आंटी जी और एक सहायिका।मिस जून उन्ही के साथ थी।रसोइया और लेबर छोटे बच्चो के देखभाल के लिए हॉल कमरे में थे।हॉल कमरे के साथ ही जुड़ी रसोई थी। रसोई बड़ी थी हम सब अक्सर रसोई में ही खाना खाते या हॉल कमरे में। सुबह का खाना दस बजे करके हम सारे निकलते थे, ऐसे जैसे दड़बे से भेड़ छोड़ी जाती है, गडरिया की देखभाल में।हम प्रतिदिन एक पिकनिक स्पॉट देखते और घुमते थे।मुझे आज भी याद है-नैनादेवी मंदिर, चाइना पीक, स्नो व्यू, टिफिन टॉप, हनुमान गढ़ी, भीमताल, सप्तताल, नौकुचिया ताल, ।सबसे ज्यादा मस्ती हम लोगों ने नैनीताल झील में की।बोट राइडिंग करते हुए हम सब एक दुसरे पर झील का पानी उछाल रहे थे।इस बात पर रॉय साहेब ने हम सबको झिड़का और डांटा।उनसे हम सभी डरते थे वे सख्त सजा देते थे।एक दिन हम सब ने हॉर्स राइडिंग भी की।बाज़ार तो हम लोग करीब-करीब रोज ही घुमते चहलकदमी करते थे विशेष रूप से बड़े लडके.

दस दिन हो गए थे हम सब ऊब और उकता गए थे।हम सब बड़े देर शाम तक घूमना पिक्चर देखना चाहते थे जिसके लिए बड़ी मुश्किल से परमिशन मिलती थी। परन्तु हम सब बड़े लड़को के साथ मिस जून को नहीं भेजा जाता था।क्योंकि सिर्फ वही एक लड़की थी।वह आंटी के सख्त निरीक्षण और आरक्षण में थी।वह ऐसा ही वादा करके उसकी मम्मी से करके लायीं थीं।परन्तु जहाँ हम सब रुके थे वहाँ मिलने जुलने में कोई पावंदी नहीं थी।लडकों से मेलमिलाप के सम्बन्ध में उसे आंटी के दिशा निर्देश मिलते रहते थे।

मिस जून से इन दिनों मेरी काफी अच्छी दोस्ती हो गयी थी।और उसने मुझे अपना बेस्ट फ्रेंड घोषित कर दिया था।अक्सर अकेले में हम दोनों बैठकर दुनिया जहाँ की बाते करते जिसमे ज्यादातर मैं श्रोता होता था। वह दूसरों के विषय में बातें शेयर करती थी।

मै निश्चल लेटा था, कि कुछ देर तक मुझे आभास ही न रहा कि मैं जाग रहा हूँ कि सो रहा हूँ।सहसा मुझे लगा कि इस दुनिया में कुछ भी बुरा नहीं है।इरी का एकटक मुझे देखना जब जून मुझसे बात करने में निमग्न थी।

हम पंद्रह साल बाद मिले थे।इस बीच उसे कोई फर्क नहीं पड़ा होगा कि मैं कहाँ हूँ, कैसे हूँ, जीवित हूँ या नहीं? जून के स्वर में एक उदास निसंगता थी।वह एक धुली हुई आवाज थी, जिसमे कोई रंग नहीं था, न प्यार का, न स्नेह का और न नराजगी का।

मैंने अपने भीतर टटोला किन्तु कुछ हाँथ नहीं आया-न तकलीफ न खुसी न नाराजगी।सिर्फ एक उदासी घर कर गयी थी और अवसाद मेरे भीतर समा-सा गया था।मै जनता था कि मैं उसकी पसंद नहीं था-अब क्या, क्या पिछले वर्षों के अकेलेपन में उसने मेरे प्रति कुछ सोच अर्जित की है?

लेकिन वर्षों पहले की चोट मेरे भीतर सब भटकावों को भेदकर सिर उठाने लगी थी।रात देर तक जगता रहा।उलझता रहा उस गूढ़ रहस्य की तरफ जिसका नाम मिस जून मेक्फेल था।

"चलो..." जून अधीर और उतावली दिख रही थी।

"कहाँ?" मैंने कुछ सशंकित होकर पूछा।

"आप चलिए तो!" उसने मुझे लगभग घसीटते हुए कहा। मैं उसके साथ हो लिया।वह मुझे पास में स्थिति टीले पर ले आई थी।जहाँ से स्कूल जहाँ हम टिके थे नज़र आ रहा था।हम वही पर बैठे।

"जानते हो?" वह फुसफुसाई.उसकी आवाज एक भुतैली-सी रहस्यमय थी।

' क्या? " एक अजीब से भय ने मुझे जकड़ लिया।

"आज सुबह सर, नंदू रसोईये को बुरी तरह पीट रहे थे और वह बेआवाज पिट रहा था।जैसे कोई गूंगी फिल्म का टेलर हो।वह सिर्फ हाथ जोड़कर माफ़ी मांग रहा था...कभी वह सर के पैर पकड़ता कभी आंटी के.वह कभी हाथ से मारते कभी डंडे से।" उसके स्वर में सहानुभूति का अभाव था।

"क्यों?" मैं नंदू के प्रति द्रवित हो आया था।वह अच्छा खाना बनाता था और सबको प्यार से खिलाता था।

' उसने कल रात में श्रवण के साथ गन्दा काम किया।" उसके शब्दों में छि...छि... की बू आ रही थी।

' कैसे पता? " मैंने जिरह की।

"श्रवण ने आंटी को बताया, जब उन्होंने उसकी निकर में खून लगा देखा था।"

"तब तो ठीक मार-मार पड़ी।उसे तो पुलिस में दे देना चाहिए था।" मैं गुस्से में आ गया था।

' सही, यही आंटी भी कह रही थी।मगर सर ने कहाँ स्कूल की बदनामी होगी।फिर नंदू अपना रिश्तेदार भी है।"

"तुम्हे कैसे पता?"

"आप, बहस बहुत करते हो?"

"मैंने बहस कहाँ की? मैं तो सिर्फ पूंछ रहा हूँ।" मैंने प्रतिवाद किया।

"उस वाकया से सम्बंधित मारपीट, बातचीत मेरे सामने घटित हुई थी।आंटी और अंकल ने मुझे चुप रहने और किसी को भी बताने के लिए मना किया था।किसी से भी नहीं।"

"मुझे तो बता दिया?"

"हाँ, तुम्हारी बात और है।तुम मेरे बेस्ट फ्रेंड हो।मगर तुम, किसी और को मत बताना।"

"ठीक है।" मैंने उसे आश्वस्त किया।

"यह लड़कों के साथ गन्दा काम कैसे होता है?" उसने बड़ी मासूमियत से पूछा।

"मुझे नहीं पता?" मैंने कंधे उचका दिए और उठ गया।कही वह जिद में न आ जाये।

वह नाराज हो गयी।वह मुझे अपने बहुत पास और निकट का समझती थी।जिससे राज की बात शेयर की जा सकती है।वह समझती थी मुझे पता है किन्तु मैं उसे बता नहीं रहा हूँ।जून के चेहरे से नाराजगी साफ परिलक्षित हो रही थी।अजबनीयति ने हम दोनों को जकड़ लिया था।

वह अनमनी-सी बिना कुछ कहे चल दी।

मै नीद में था और मोबाइल की रिंग पर रिंग बजती जा रही थी।अनवरत मुधुर आवाज गूंज रही थी और मैं नींद में ब्यस्त था।अचानक मैं उठ गया कि बैंक के लिए देर हो गयी? रिंग अब भी आ रही थी। "ओह! अरे! आज तो सन्डे है।तो...? कही उसकी कॉल तो नहीं? शायद उसी की होगी, हेलो, यह मैं हूँ।" दूसरी तरफ सन्नाटा था।कुछ देर इंतजार करने के बाद मैंने फिर, "हेलो" कहा।

"मैंने आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया।" एक हलकी-सी सहमी आवाज।

" नहीं, तो! मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मुझे आज उसके पास जाना है।और यह बात याद दिलाने के लिए वह कॉल करेंगी।

"रघु, आ रहे हो न? बारह बजे तक आ जाओगे...?"

" निश्चय ही।मै समय होने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ।उधर से वह हंसी.

"नौ बजे तक नींद में हो और..." उसने कॉल बंद कर दी।

विश्वास नहीं होता है कि वह वही लड़की है-"जिससे ना जाने किस तरह का इश्क कर रहे है हम, जिसके कभी हो नहीं सकते उसी के हो रहे है हम..." मैं वही हूँ जो बीस साल पहले था।उसने ऐसा कहा भी था जब अभी हम मिले थे। "तुम वही हो-सच में।तुम वही हो और बिलकुल नहीं बदले हो! तुम वर्षों बाद मिले हो और एकदम से पहचान लिए जाते हो।अब भी शर्म झिझक और नासमझी पूर्ववत विद्दमान है" ।

मै घड़ी देखता हूँ।नौ पार हो चुके है।मै जल्दी से उठता हूँ।नित्यकर्म निपटा कर बाल काढ़ने के लिए शीशे के सामने आ खड़ा होता हूँ।सहसा लगता है क्या फायदा? मै उन दिनों में लौट जाता हूँ...

मै उसे जाते हुए देखता हूँ, उसी टीले पर जहाँ हम गुप्त मंत्रणा करते थे।वह अकेली जा रही थी।उसने मुझे साथ नहीं लिया।मेरा मन उसके पास के लिए भागने लगता है।

वह बैठी है, उदास, असम्पृक्त और खोखली सी.उसके भीतर उथल पुथल मची है, जिसके बीच उसकी रुंधी सांसे थी और उन्हें मैं अंतहीन दूरी से सुन सकता था।दुःख से उसका चेहरा मलिन है।अब उसकी गर्दन झुकी हुई है और आँखें जमींन में कुछ खोज रही थीं। जैसे वह जमींन कुरेद रही थी ऐसा लगता था कि उसके कुरदने से उसकी समस्या का हल मिलने वाला है। धीरे-धीरे वह सुबकने लगी, सिसकने लगी।अब वह धीमे-धीमे रोने लगी है, बिना आवाज के रुलाई फूट पड़ी थी।मै उसे देखता रहा।भापता रहा।झिझकता रहा।फिर मुझसे रहा न गया।

मै उसके सामने खड़ा था।मै उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था।उसे मेरी उपस्थिति का भान नहीं था।वह अच्छी तरह जानती थी रघु बिना बुलाये, साथ लिए, आयेंगा नहीं।वह अपने असीम दुःख में व्यस्त थी।हम दोनों संग होते हुए भी अकेले थे, वह रो रही थी और मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करूँ?

अचानक मुझे ख्याल आया कि मुझे उसे सांत्वना देनी चाहिए उसके रोने का कारण पूछना चाहिए.मुझे जानना चाहिए कि उसने अपना दुःख मुझसे साँझा करने में परहेज क्यों किया? ...क्या मैं उसका बेस्ट फ्रेंड नहीं रहा?

मैंने उसके सिर को हलके से छुवां, "मिस जून!"

उसने चौककर मेरी तरफ देखा और जल्दी से बह आये आसुओं को पोछा।वह एकायक उठ खड़ी हुई.

' क्या बात है? मुझे नहीं बतायोगी? " मैंने उसे कंधे से पकड़कर बिठाया और खुद उसके साथ बैठ गया।

वह चुप रही। शायद वह अंतर्संघर्ष में थी।उस चुप्पी में बोझिल तनाव था।

"कुछ नहीं, कोई बात नहीं?"

"डोंट बि सिली।" मैंने कहा। "क्या अब तुम मुझमे विश्वास नहीं करती?"

अचानक वह फट पड़ी।

"कुत्ते, कमीने, बुड्ढे राय ने मेरे साथ रात में गन्दा काम किया।मै उसका मुंह नोच लूँगी।" उसने अपना चेहरा अपने दोनों घुटने मोड़कर उसमें छुपाकर अपने हाथों से लपेट लिया था।उसकी आँखे बंद थी परन्तु उनमे से आंसू निकल रहे थे जमीन पर गिर रहे थे।मै अचरज में था। यह कैसे हो सकता है? क्यों हुआ? कैसे हुआ?

"जून, सुनो!" मैंने उसकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर कहा। वह कांप रही थी। वह कभी घायल शेरनी बन जाती कभी घायल हिरनी।

"रात के अँधेरे में, जब मैं गहरी नींद में थी, सब सो रहे थे।" उसका सुबकना जारी था।

"तुमने प्रतिरोध नहीं किया?" उसकी तेज-तर्रार छवि का पराभव देखकर मुझे अचरज हुआ था।

' उन्होंने मुझे जकड़ रखा था...और...मै विश्वास नहीं कर पा रही थी कि वह फादर लाइक पर्सन ऐसा सब कर रहा है।मै शर्म और संकोच में बेहोश थी।" अब वह तेजी से रोने लगी थी।

"क्या कह रही हो? ...तुम्हे उसे अलग ठेल देना चाहिए था।बवाल काट देना चाहिए था।"

" होश में आने के बाद मैंने वही किया।चीखी, चिल्लाई और उसे ठेला।फिर बवाल भी काटा।किन्तु...? आंटी हड़बड़ाकर उठी और उन्होंने उसको कई चांटे मारे थे।फिर उसे कमरे के बाहर ठेल दिया।

"फिर?" मैंने दबे स्वर में पूछा।

"फिर क्या...? ...आंटी का इमोशनल सेंटीमेंटल ड्रामा शुरू हो गया।दोनों की बदनामी का डर दिखाया।उन्होंने चुप रहने की सलाह दी।किसी को बताने के लिए मना किया।यहा तक मम्मी-डैडी को भी।परन्तु मैं मम्मी को जरुर बताउंगी, कितना कमीना इन्सान है यह रॉय? मैं क्रोध और गुस्से से उबल रही थी।आंटी ने मुझे शांत किया।मेरा उपचार किया।अँधेरे की बात अँधेरे में गुम हो गयी।" उसके आंसू सूख गए थे।आँखों में नफ़रत उतर आई थी।

वह उजाड़ पड़ी थी।

"मै कुछ करूँ?"

" तुम क्या कर सकते हो? डेढ़ पसरी के आदमी...! ' मैं उसके गवई उद्बोधन से हिल गया था।

"तुम मेरा विश्वास नहीं करती...तुम समझती हो...?" मैं उत्तेजना में खड़ा हो गया और गुस्से में कांप रहा था।जून ने मुझे हाँथ पकड़कर अपने पास फिर बैठाया।

"देखो, सबसे उचित तरीका तो यही था कि मैं पुलिस में शिकायत कर दू।परन्तु बदनामी तो मेरी ही होगी।उसको तो जो दंड मिलेगा, मिलेगा मेरा क्या होगा? ...और मेरा भविष्य क्या होगा...? ऐसा ही आंटी ने समझाया था।" यह कहकर वह सोच में पड़ गयी...गमगीन हो गयी।उसने कुछ पल बाद मेरी तरफ देखा और बोली,

"देखो! मैं अपने दोनों प्रेमियों, दीपक परासर और सुनील कपूर से कहकर उसकी धज्जियाँ उड़वा सकती हूँ परन्तु नहीं...आखिर में हर हाल में बदनामी लड़की की ही होती है और ऐसी बदनाम लड़की से शादी कौन करेंगा?" उसने मुझे ऐसे समझाया जैसे यह प्रकरण उसका न होकर किसी और का हो।

"प्रेमी तो मैं भी हूँ!" मैं दबे स्वर में फुसफुसा रहा था।उसने सुन लिया।

' नहीं, तुम दोस्त ही ठीक हो।यही काफी है।दोस्त को प्रेमी नहीं बनाना चाहिए और शादी तो बिलकुल नहीं...शादी के बाद वह न दोस्त रहता है न प्रेमी, सिर्फ चु-चु का मुरब्बा।" यह कहकर वह फिस्स-सी हंस दी।

उस दिन मैं उससे बहुत कुछ कहना चाहता था किन्तु वह बहुत ही भयानक त्रासद अनुभव से गुजरी थी, और उससे भी भयंकर यह चीज थी कि उसे मेरी क्षमता पर गहरा अविश्वास था।उसे लगा कि मैं उसे बचा नहीं सकता था।इस गुजरते क्षण के निपट अकेलेपन में साथ नहीं दे सकता था।उसका सांझी नहीं हो सकता था।

बाकि के बचे दिनों में ग्रुप की सत्ता आंटी इंचार्ज के हाथ में आ गयी थी।हम बड़े लडको को अपने आप घुमने फिरने की छूट मिल गयी थी–साथ में मिस जून के. धीरे-धीरे वह पूर्ववत हो गयी थी। अब सभी बड़े उनके निकट दोस्त बन गए थे।

टूर से आने के बाद, सब कुछ बदल गया।हमारा स्कूल सिर्फ टेंथ तक था।मैंने क्राइस्ट चर्च में एडमिशन लिया और उसे भी वही आने को कहा।परन्तु उसके पिता की डेथ हो गयी थी।उसकी और उसके भाई की पढाई समाप्त हो गयी।भाई किसी प्राइवेट फर्म में नौकरी करने लगा और जून ने प्राइवेट कान्वेंट स्कूल में इंग्लिश की टीचर।मै अक्सर छुट्टियों में उससे मिलने जाता, कभी मिलती, कभी नहीं। उन दिनों वह अनिच्छुक दिखी।जब कभी मिल भी जाती तो मुझे छोड़कर चल देती।उसके बॉय फ्रेंड्स बढ़ गए थे।मै बेस्ट फ्रेंड क्या फ्रेंड भी नहीं रह गया था। मेरे अनुसार वह बिगड़ गयी थी।इंटर के बाद मेरा भी जाना कम से कमतर हो गया।मैंने भी उसे उस दुविधा से मुक्त कर दिया जो मेरे मिलने से होती थी।मेरी बीएससी, एमएससी, और फिर पी.ओ सिलेक्शन की जानकारी से वह महरूम थी।हम कब, कहाँ, कैसे और क्यों है? पूर्णतया एक दुसरे से अनजान अपरचित होते चले गए. हाँ।अलबत्ता उसकी शादी का कार्ड जरुर घर आया था, परन्तु उस समय मैं ऑफिसर्स ट्रेनिंग में हैदराबाद में था।

दोपहर के एक बज रहे थे और मैं दस बजे से पूर्णतया तैयार होकर बैठा था, परन्तु पुरानी स्मृतियों मुझे अपने मकड़-जाल में कसे बैठी थीं, उलझाये थी कि मैं बाहर निकल नहीं पा रहा था। सहसा मुझे मोबाइल की आवाज सुनाई पड़ी।

जून की आवाज आ रही थी-एक उदास नाराजगी से भरी।

मैंने जल्दी-जल्दी अपने पोर्शन को लॉक किया और उसके घर की और चल पड़ा।फिर ठिठक गया।मुझे लगा कि उसके घर खाली हाँथ जाना ठीक नहीं होगा? आखिर में इरी भी है जो उसकी सबसे नयी दोस्त है।पास में खाजना मार्किट है।मैंने छोटी बड़ी जून के लिए कई गिफ्ट लिए, टॉयज और स्वीट्स के साथ।अब मैं संतुष्ट था।

दरवाजे की घंटी बजाई... वह देर तक बजती रही।बेध्यानी में अंगुली बेल पर ही थी।वे दोनों चौक गयी, "कौन?-इतनी देर से! मैं समझी अब न आओगे!"

मै हँसने लगा, "सच...!"

जून और इरी मेरे सच के विस्मयकारी उच्चारण से हँसे।

वह भीतर चली आयी।उसने तीन सीटर सोफे में मुझे बैठाया और खुद भी साथ में बैठी।इरी अपने गिफ्ट के पैकेट्स खोलने और चाकलेट खाने में ब्यस्त हो गयी।हाँ, उसके पहले वह थैंक्स कहना नहीं भूली।फिर वह नए खिलौने में उलझ गयी।हम दोनों पुरानी यादों और जानकारियों में विचरने लगे। परन्तु नैनीताल ट्रिप का जिक्र किसी ने नहीं किया।

एकांत-वह मुझे देखना चाहती थी।मिलना चाहती थी।निश्चय ही मैं भी।कुछ क्षण हम एक दुसरे को सिर्फ निहारते रहे।फिर उसने मेरा हाँथ अपने कोमल हाथों में सरका लिया, सहलाने लगी।सफ़ेद, खुबसूरत, नाजुक स्त्री का स्पर्श।मेरे भीतर कही गहरे में उसकी चाहत की एक चिंगारी धंसी, दबी पड़ी थी।चिंगारी आग बन रही थी।मेरा चेहरा क्या बदन भी गरमाई से तप रहा था।उसने हैरत से मुझे देखा और अजीब नज़रों से निहारने लगी।जैसे पूंछ रही हो-क्या हाल है जनाब का?

"क्या आप असंतुष्ट हो?" उसकी आवाज इतनी धीमी थी कि मुझे भ्रम हुआ कि उसने जो कहा है वास्तव में वह वही पूँछ रही है?

"आपने कुछ कहा?"

"क्या आप उसके साथ असंतुष्ट हो?"

' किसके साथ? "

"अपनी वाइफ के साथ?"

मैंने अपना सिर उठाया, धीरे से अपने हाथ को अलग किया और कहा, "मैंने अभी तक मैरिज नहीं की है।" एक स्वर लहरी गुन्ज रही थी-"तुम्हे अपना कहने की चाह में नहीं हो सके किसी के हम।"

"क्या?" मिस जून ने मेरी तरफ विष्मय से देखा, जहाँ मेरे चेहरे पर, वही पुरानी यादों के थके बोझिल और पीले पड़ गए पन्ने। तब उसे बेहद हैरानी हुई-"मै कैसा आदमी हूँ?"

वह खिलखिला उठी।फिर यकायक एक अनजानी पीड़ा से वह आतंकित हो गयी।मै उसके झुके सिर को देख रहा था-जिस पर गर्दन तक लहराते भूरे बाल हिल रहे थे।परन्तु वह अकेली, निर्लिप्त और एक अजीब से सुकून से ग्रस्त स्थिर थी।

मै लौट आया, सदैव की तरह असंतुष्ट।अँधेरा होने लगा था परन्तु मैंने लाइट नहीं जलाई.वैसे ही बिस्तर पर गिर पड़ा।जून की पहेली हल नहीं कर पा रहा था।मिस जून-मिसेस जून-जून+इरी=?

मिस जून का कीड़ा दिल दिमाग को कुतर-कुतर कर खा रहा था।आजकल इस उम्र में लडकियाँ कुंवारी होती है और वह विवाह, बच्चे और विधवा भी हो गयी है।नींद...नींद...नींद। और नींद कही नहीं थी सिर्फ एक विचार कुलबुला रहा था, क्या वह छोटी जून और बड़ी जून को अपना सकता है? क्या वह मानेगी? दोस्ती से प्यार और प्यार से विवाह को वह मानेगी? फिर इतना लम्बा विलगाव, भटकाव और अकेलापन क्या उसी शिद्दत से चाहना में तब्दील हो पायेगा? कीड़ा एक जगह रूक गया था और अंतिम विमर्श पर गोदने लगा था।