मी टू का किरदार / शम्भु पी सिंह

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"कब तक ऑफिस से आज आएंगे?" उषा का फोन आया तो लगा कुछ जरूरी बात होगी।

"क्यों क्या बात है? रोज की तरह दस बजे तक ही आ पाऊंगा। शाम का शिफ्ट है। कुछ खास है क्या? ऐसे तो तुम फोन नहीं करती हो।" सामान्यतया कार्यालय समय में उषा फोन नहीं करती है, तो थोड़ा आश्चर्य भी हो रहा था।

"अरे, खास क्या, मेरी सहेली की छोटी बहन शहर में ही है। मिलने आना चाहती है। अभी स्टेशन से फोन की थी। उसकी कुछ समस्या है, वह तुमसे ही बात करना चाहती है।"

"समस्या क्या है, फोन पर तो सॉल्व नहीं हो सकता है न? तुम्हारी किस सहेली की बहन है जी। आज तक तो कभी मिलवायी नहीं। कहां-कहाँ छुपाकर रखी हो अपनी सहेलियों को। किस सहेली की बहन। बात समझ से परे है जी।" मुझे थोड़ी अठखेली की सूझी।

"तुम कभी नहीं सुधरोगे। जब भी लड़कियों की बात हो दिमाग कहीं और चला जाता है। सुधार जाओ चालीस से आगे जा चुके हो। अब भी समय है। अरे! अभी मुझे भी बहुत कुछ नहीं पता। वह स्टेशन पर मेरा इंतजार कर रही है। अगर सवेरे आते तो उसे लेते आते।" उषा ने सच्चाई बता दी।

"अरे नहीं, पहले तो नहीं निकल सकता। जरूरी है तो तुम जाओ मिल लो। वहाँ पहुँच कर बताओ तो एक घंटे के लिए मैं भी ऑफिस से वहीं आ जाता हूँ,।" कहते हुए मैंने फोन काट दिया॥

कुछ देर बाद उषा ने मैसेज किया कि उसे मुझसे ही काम है। अपने साथी को काम समझा, एक घंटे की छुट्टी ले सीधे स्टेशन पहुँचा। उषा को कॉल लगाया तो जानकारी मिली कि स्टेशन के बाहर एक रेस्टोरेंट में बैठी हुई है। अंदर जाते ही उषा की आवाज आयी-

"आइए! इधर हूँ मैं। यही है मेरी सहेली की छोटी बहन दीपिका। ये दो दिनों से पटना में है, एक सहेली के साथ होस्टल में। अभी इसके पति आने वाले हैं, यहाँ अपने पति का इंतजार कर रही है। स्टेशन से ही इसने फोन किया। बचपन में ही इसे देखा था। तब छोटी थी। इसका छोटा भाई भी गाँव से आने वाला है। अभी रास्ते में है। ट्रैन लेट है। इसकी कुछ समस्या है, मैंने आपके बारे में बताया कि आप इस समय फ्री नहीं हैं, तो आपको मैंने यहीं बुला लिया।" उषा की बातें और दीपिका के चेहरे का हाव-भाव ही गंभीरता का एहसास कराने को काफी था। दोनों शायद कॉफी समाप्त कर चुके थे। मेरे लिए भी उषा ने कॉफी मंगवाई।

"हाँ दीपिका जी बताइए प्रॉब्लम क्या है?" कॉफी पीते हुए मैं दीपिका से मुखातिब था।

"जी! ।जी! ...ऐसा कुछ खास नहीं, दीदी कुछ बढ़ा-चढ़ाकर बता रही है। कुछ भी तो नहीं।" मैंने एक नजर उषा को देखा। मेरी अजीब स्थिति हो गई। मेरी समझ में नहीं आ रहा था, फिर इतना परेशान होने की कौन-सी बात थी।

"जी! ये नहीं बता पा रही है, मैं बताती हूं" उषा ने बीच में इंटरफेयर किया।

"ठीक है आप दोनों बातें करें, मैं कुछ स्नेक्स आर्डर देकर आती हूँ।" कहते हुए दीपिका उठ खड़ी हुई। शायद वह इस वक्त हमारे सामने नहीं रहना चाहती थी, यह तो स्पष्ट था।

"किसी बात को लेकर इसका पति इसे टार्चर कर रहा है। मियां-बीवी में बन नहीं रही है। अब ये नहीं पता कि तुम्हारी इसमें क्या भूमिका हो सकती है, लेकिन इसका कहना है कि जीजा जी लगेंगे, तो कुछ हल निकल सकता है। संभवतः तुम्हारे ऑफिस से कुछ सम्बंध है।"

"अभी कैसे मुलाकात हुई तुम्हारी। फोन किया था इसने?" मैंने उषा से सीधा और सपाट सवाल किया।

"हाँ जी! आज शाम पांच बजे इसका फोन आया था। आपसे बात करना चाहती थी। मैंने पहले तो इसे पहचाना ही नहीं। जब इसने अपनी बहन लतिका का हवाला दिया, तब इसे रिकोगनॉइज कर पायी। तुम्हें तुरत फोन करना अच्छा नहीं लगा। पहले तो मुझे ही समझ में बात नहीं आई। अब इससे बहुत कुछ जानकारी मिल चुकी है। अगर तुम्हारे ऑफिस का मसला है तो बात कर लो। जो हो सके, कर दो।"

"अरे यार! पहले मसला क्या है अभी तो मुझे यही नहीं पता। साल्व कैसे कर दूं। पहले समझ तो लूं प्रॉब्लम क्या है। ये मियां-बीवी के बीच का प्रॉब्लम भगवान नहीं सलटा पाए, तो मैं किस खेत की मूली हूँ। ये पूरी तरह व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक मसला होता है। बाहरी व्यक्ति की भूमिका नहीं के बराबर होती है। इनदोनों की समस्या इन्हें ही निबटानी है, अब मेरे ऑफिस की क्या भूमिका है, ये तो बात करने पर ही पता चलेगा।" तब तक दीपिका आ गई, चिप्स के साथ कोल्ड ड्रिंक्स लेकर।

"हाँ बोलिये दीपिका जी। मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ। आपकी आधी-अधूरी बात तो उषा ने बताई है। आप पति-पत्नी का मसला है, तो निराकरण तो आप दोनों को ही निकलना होगा। इस कॉमन प्लेस पर बहुत सारी बातें तो हो नहीं सकती। जहाँ तक मेरे ऑफिस की बात है, तो कुछ जानकारी हो जाए, तो हमें आगे बढ़ने में आसानी होगी।" मुझे लगा पहले उसकी बात सुनी जाए, फिर रास्ता निकालने पर सोचा जाएगा।

"नहीं जीजा जी! दीदी भी अभी मेरी पूरी कहानी नहीं बता पाई होगी। चूंकि इन्हें खुद भी बहुत कुछ नहीं पता है। बहुत दिन बाद हमलोग आज मिले हैं। इस बीच गंगा में काफी पानी बह चुका है। मेरी जिंदगी में कई उतार-चढ़ाव आ चुके हैं। अभी मैं जिस मुकाम पर आकर खड़ी हो गई हूँ, अब वापस लौटना संभव नहीं है। अब मेरे सामने आगे घाटी, पीछे कुआं है। आगे बढ़ती हूँ, तो दुनिया नहीं जीने देगी। पीछे लौटती हूँ, तो पति नहीं जीने देंगे। आगे जाने का कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा। सारा रास्ता बंद दिख रहा। करूं तो मैं क्या करूं। समझ में नहीं आ रहा।"

"क्यों, पति आपके साथ ही हैं न?। थोड़ी बहुत आपस में कहा-सुनी होती रहती है। उनसे आपको क्या खतरा है?" दीपिका की बात पहेली-सी लग रही थी।

"दरअसल मेरी शादी के कुछ दिनों बाद से ही हमदोनों में एक दरार बन गई है। अभीतक परिवार वालों की कोई खास भूमिका नहीं है।" मुझे लगा दीपिका मियां-बीवी की बातें खुलकर नहीं बोल पा रही थी। कॉमन प्लेस होने के कारण या कहने में कोई हिचक होगी।

"मुझे लगता है कि शायद बात करने की ये सही जगह नहीं है। दीपिका तुम मेरे साथ मेरे घर चलो, आराम से वहीं बात करेंगे। जो भी रास्ता निकाला जा सकता है, देखेंगे।" उषा ने उसकी मनःस्थिति को भांप सलाह लिया।

"बिल्कुल सही। मेरा भी यही मत है। आप जबतक मुझे यह नहीं बताएंगी कि मुझसे आप क्या चाहती हैं, तब तक हम आपकी क्या मदद कर सकते हैं?"

"देखिये जीजा जी! बात ये है कि तीन साल पहले घर वालों ने मेरी शादी कर दी। हालांकि मैं उस शादी के न तो समर्थन में थी, न ही विरोध में। मेरी एक छोटी-सी भूल के कारण शादी के बाद जो कुछ मेरे साथ हुआ, उसने मेरी जिंदगी में तूफान ला दिया। नरक से भी बदतर जिंदगी हो गई मेरी। दिन-रात रोने के अलावा मैं कुछ नहीं कर सकती हूँ। मेरा पति ।" बोलते-बोलते रो पड़ी दीपिका। हम दोनों अवाक। दीपिका की स्थिति देख ही लग रहा था कि मसला गम्भीर है। वैसा नहीं जो उषा की समझ में आया था।

"दीपिका पहले तुम चुप हो जाओ। ये कॉमन प्लेस है। कोई तुम्हें रोते हुए देखेगा, तो क्या कहेगा। बात हमलोग बाद में करेंगे, पहले चुप हो जाओ।" उषा के ढ़ाढस ने उसे थोड़ी राहत प्रदान की। कुछ देर तक पिन ड्रॉप साइलेन्स रहा। अँधेरा भी होने को था। चुप्पी मैंने ही तोड़ी।

"उषा एक काम करते हैं, आज दीपिका को अपने घर ले चलो। पहले इनसे पूरी बात समझ लो, फिर देखते हैं, क्या किया जा सकता है।" मैंने अपनी बात रख दी।

"नहीं जीजा जी! अभी मैं छोटे भाई और पति का यहीं इंतजार कर रही हूँ, वह दोनों आने वाले हैं। ट्रेन एक घंटा लेट है। आप लोग जाना चाहें तो जाएँ। कल मैं मिलती हूँ।" दीपिका काफी अपसेट लग रही थी।

"आज कहाँ रहना है। यहाँ ठहरने का कोई ठिकाना है तो ठीक, नहीं तो उषा के साथ हमारे घर चलें। ट्रेन आने तक उषा भी रुकेगी। बाद में मैं भी मिलता हूँ, घर पर। सारी बातें होंगी।"

उषा ने भी मेरी हाँ में हाँ मिलाया।

"नहीं जीजा जी! आप दीदी को लेकर जाएँ। भाई के आने पर हम सोचेंगे कि आज रात कहाँ बितानी है। किसी होटल में रुकना है या रिश्तेदार के यहाँ। हो सकता है मेरे और भी लोग उसके साथ में हों। यह अभी स्पष्ट नहीं है और कौन उसके साथ है, मेरी ननद और मेरा देवर भी साथ हो सकते हैं। वैसे अभी किसी रिश्तेदार के यहाँ जाने की संभावना नहीं है। इतने लोगों के साथ किसी के यहाँ जाना ठीक नहीं। उन लोगों से बात कर बताऊंगी आगे क्या करना है। आपसे तो मुझे जरूरी बात करनी है। अब देखती हूँ आज या कल, यह उन लोगों के आने पर ही स्पष्ट हो पाएगा।" मसला थोड़ा कॉम्प्लिकेटेड लगा॥हम मियां-बीवी ने आंखों-आंखों में बातें की।

"ठीक है तो आप उनका इंतजार करें। मुझे तो ऑफिस जाना ही होगा। शाम का वक्त हमारे लिए क्रूशियल होता है। मैं निकलता हूँ। उषा तुम दीपिका के पति के आने का इंतजार करो, नहीं तो घर जाओ। अगर जाना चाहे तो अपने घर लेती जाओ। मैं ऑफिस जा रहा हूँ। बहुत देर नहीं रुक सकता। बाय दीपिका।" मैंने इजाजत ले ली।

"तो मैं भी साथ चल रही हूँ। मुझे ऑटो पर बिठा दो। मैं घर जाऊंगी। जैसा भी ये निर्णय करेगी। बता देना दीपिका।" श्रीमती जी भी मेरे साथ हो ली।

"ठीक है चलो।" हम दोनों ने हाथ हिलाकर उसे बॉय किया। उषा को रास्ते में एक ऑटो में बिठा, मैं ऑफिस आ गया। एक अधूरी कहानी का कंकाल मेरे दिलो-दिमाग पर छा गया था। न आगे, न पीछे कुछ नहीं पता। किसी फिल्मों की कहानी जैसा प्लॉट, कहानी की दिशा किस ओर जाएगी, तब तक दर्शक की क्यूरियोसिटी बनी रहेगी। दफ्तर के चंद मिनट का फासला तय करना भी भारी लग रहा था। वह मुझसे कुछ कहना भी चाहती थी, लेकिन कह नहीं पा रही थी। अभी तो मैं गया ही था बात करने, लेकिन उसने कुछ भी नहीं बताया। फिर मुझे बुलाने का मतलब क्या था। दफ्तर पहुँच कर भी ध्यान स्टेशन पर ही टिका था। पता नहीं क्यों दीपिका की आवाज जानी-पहचानी-सी लग रही थी। चेहरा भी देखा हुआ-सा लग रहा था। दीपिका की कहानी में दिलचस्पी बढ़ गई। कहीं ऐसा तो नहीं कि पति-पत्नी के बीच कोई ऐसा मसला है, जो वह अकेले में मेरे से शेयर करना चाहती है। मेरी श्रीमती जी के सामने वह नहीं बोलना चाहती। फिर सोचता, ऐसा भी हो सकता है, शादी से पूर्व ही दीपिका का बॉय फ्रेंड हो और उसी रिश्ते को इसने पुनर्जीवन प्रदान किया हो। जिससे दोनों के बीच दरार बढ़ गई हो। क्योंकि आजकल मध्यवर्गीय बच्चों में शादी के बाद कुछ दिनों तक खुफियागिरी अधिक होती है। बाद में रोटी-दाल के चक्कर में सारी सेंटिमेंटल बातें हवा-हवाई हो जाती है। ढेर सारे किन्तु-परन्तु का जवाब तलाशना इतना आसान नहीं था। किसी तरह दफ्तर के शेष कार्य का निबटारा कर घर जाने के लिए निकल पड़ा, घड़ी पर नजर डाली, तो रात के साढ़े दस बज चुके थे। इस समय तक उन लोगों के स्टेशन पर होने का सवाल ही नहीं था। दीपिका का पति भी तो आ ही गया होगा। दीपिका कहाँ रुकी है, ये भी नहीं पता, मेरे घर तो नहीं ही गई होगी, अन्यथा उषा का फोन आ गया होता। दीपिका कहीं होटल में ठहरी या फिर अपनी सहेली के हॉस्टल में। दीपिका का मोबाइल नम्बर तो नहीं ले पाया था, शायद ठीक भी नहीं होता, पहली मुलाकात में किसी महिला से मोबाइल नम्बर मांगना वह भी श्रीमती जी के सामने, सही नहीं माना जाता। हालांकि यहाँ की स्थिति थोड़ी भिन्न थी। मांगा जा सकता था, लेकिन चलते वक्त याद भी नहीं रहा। मन किया उषा को ही फोन लगाता हूँ, शायद उसे फोन किया हो, कम से कम जानकारी तो हो जाएगी, वे लोग कहाँ ठहरे हैं। कहीं पास के किसी होटल में रुके हों, तो अभी भी जाकर बात की जा सकती है। दाल में कुछ काला तो लग ही रहा था। कहीं किसी चीज की मदद की दरकार भी हो सकती है। फिर लगता बिना मांगे सलाह देना भी आ बैल मुझे मार भी हो सकता है। पत्नी उषा को फोन लगाना भी मुसीबत को निमंत्रण देने जैसा ही था। पता नहीं उसे क्या समझ में आये। रिएक्ट कर सकती है-'तुम इतना इंटरेस्ट क्यों ले रहे हो। उसे जरूरत होगी, तो खुद ही आएगी या बात करेगी। मियां-बीवी के बीच ढेर सारी कही-अनकही बातें होती रहती है। क्या-क्या सॉल्व करोगे। बेमतलब के पचड़े में मत पड़ो। जब यहाँ आएगी, तो देखा जाएगा।'

कभी-कभी जब हम किसी कारण से असमंजस की स्थिति में होते हैं तो रास्ता भी अपने-आप और बिना किसी सोच समझ के निकल जाता है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ। मोबाइल की घण्टी बजी। जिसका इंतजार था, कॉल उषा का था।

"कहाँ हो अभी?"

"अभी तो मैं दफ्तर से निकला हूँ। घर जाने के लिए। बोलो कुछ खास तो नहीं?"

"नहीं खास तो नहीं। दीपिका का फोन आया था। मैंने दीपिका को कह दिया है, अपने घर आने को। उसका पति यहाँ छोड़ जाएगा। उसका पति और भाई अपने किसी रिश्तेदार के घर रुकेगा। यह अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ नहीं जाना चाहती है। इसे तुमसे बात करनी है। हालांकि यह होटल जाना चाहती थी, लेकिन मैंने जाने देना उचित नहीं समझा। फोन पर उसके पति से भी बात हुई। इसका पति तो बिल्कुल बच्चों जैसी बात करता है, मैच्योर नहीं लगा मुझे। पता नहीं क्यों बार-बार वह पुलिस की बात कर रहा था। अभी बहुत बात नहीं हो पाई है। घर आओ, रात में बात होगी। आज पूरा किस्सा जानती हूँ।" उषा ने कॉल डिस्कनेक्ट कर दिया। कहानी में ऐसा टर्न होगा, सोचा ही नहीं था। दीपिका तो पूरी तरह मिस्ट्री गर्ल लग रही थी। ऐसे मोड़ तो फिल्मों में ही देखने को मिलते हैं, रियल लाइफ में संभव नहीं होता। घर तो आना ही था। आ गया। दीपिका मेरे घर आ चुकी थी। दोनों बातें करने में तल्लीन थी। उषा भी बड़े गौर से उसकी कहानी सुन रही थी। मेरे लिए तो सबकुछ अबूझ पहेली जैसा लग रहा था। मुझे सबसे अधिक परेशानी इस बात से थी कि दीपिका की आवाज, उसका चेहरा जाना-पहचाना-सा लग रहा था। लेकिन कोई ऐसा सुराग नजर नहीं आ रहा था, जिस रास्ते हम वहाँ तक पहुँच पाएँ, जहाँ जाने को मेरा मन उद्वेलित हो रहा था। "उषा पहले मुझे खाना दो। मुझे भूख लगी है।"

"तू ही क्यों। भूख तो हमें भी लगी है। साथ खा लेते हैं।" हम तीनों ने साथ भोजन किया। मेरे साथ होने से शांति बनी रही। दीपिका ने मेरे सामने चुप्पी साध ली। मेरी क्यूरियोसिटी बढ़ गई। कुछ बात तो है। लेकिन पूछने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी। खाना खाकर मैं अपने कमरे में सोने चला गया। मुझे उम्मीद थी कि दीपिका बात करने आएगी ही। लेकिन न तो उषा ने मुझसे कुछ कहा, न दीपिका ने। बात समझ के बाहर थी। दूसरे कमरे में दीपिका के सोने की व्यवस्था कर श्रीमती जी कमरे में आईं तो रहा नहीं गया।

"क्या हुआ दीपिका का?"

"अरे! इसका मसला उलझ गया है। इधर जब से 'मी टू' का मामला चला है। बात-ही-बात में इसने भी अपने साथ हुए एक घटना का जिक्र अपने पति से कर दिया। अब इसका पति उसी बात को लेकर बैठ गया है। कौन है, कहाँ का है? ये सब अब फिजूल की बातें हैं। लड़की भी बेबकूफ है। पति से अपनी बीती जिंदगी की बात बता दी। पांच साल पहले एक दफ्तर में इंटर्नशिप करने गई थी, वहाँ के बॉस और उसके एक मित्र ने इसके साथ सेक्सुअल एसॉल्ट किया था। जब से यह बात इसने अपने पति को बता दी है, तब से इसका पति इसे टॉर्चर करने लगा। उसका कहना है कि तुम भी 'मी टू' के तहत इस बात को बाहर लाओ। इसके पति को यह जानकारी नहीं है कि वह व्यक्ति कौन है? वह बार-बार उसका नाम जानना चाहता है। अब ये बताना नहीं चाहती। इसी कारण दोनों के बीच तनाव हो गया है। इसके पति को शक है कि इसके साथ जो कुछ भी हुआ है, उसमें इसकी सहमति थी। वह इसे टॉर्चर कर रहा है। बात मार-पीट तक आ गई। लेकिन अब भी यह मुहं खोलने को तैयार नहीं है। इसके पति को इसके चरित्र को लेकर भी संदेह है। उसने दीपिका को घर से निकालने की धमकी तक दे डाली है। शादी के कुछ दिनों बाद से ही यह नौटंकी चल रही है। यह बीती बातों को भूल जाना चाहती है, लेकिन इसका पति उस घटना को बाहर लाने पर जोर दे रहा है। मैं बहुत अधिक नहीं पूछ पाई। बात-बात में रोने लगती है। रात में चैन से सोने दो। सुबह बात करते हैं। मामला पेचीदा तो है ही। चलो अब सो जाओ।" अब मेरे लिए मसला पेचीदा ही नहीं, पूरी तरह उलझा हुआ लगा। नींद तो मेरे से कोसों दूर जा चुकी थी। आने का नाम ही न ले। बड़ी मुश्किल से दो बजे के बाद कब नींद आयी, पता भी नहीं चला।

'वो शाम कुछ अजीब थी, ये शाम भी अजीब है, वह कल भी पास-पास थी, वह आज भी करीब है'। 'खामोशी' फ़िल्म के लिए किशोर कुमार द्वारा गाए गीत की आवाज से मेरी नींद खुली। सुबह के नौ बज चुके थे। पड़ोस में कहीं बज रहा यह खूबसूरत गीत, भारतीय सिनेमा के गोल्डेन पीरिएड की याद दिला रहा था। इतनी देर तक श्रीमती जी ने सोने दिया, यह भी आश्चर्य से कम नहीं था। बाथरुम से निकलते ही चाय आ गई। चाय पीते-पीते दीपिका की कहानी याद आई। आज भी शाम की पाली में दफ्तर जाना था, तो तैयार होने की बहुत जल्दबाजी नहीं थी। सोचा एक बार दीपिका से बात कर देखूं, रियल मसला क्या है। तब तक उषा अपने चाय कप के साथ बेड पर आ गई।

"दीपिका नहीं जगी है क्या?" मेरी जिज्ञासा स्वाभाविक थी।

"सो रही है अभी। सोने देते हैं। अपने जगेगी।"

"क्या सोची है। क्या करना है। हम तो अभी भी ठीक से नहीं समझ पाए हैं। मुझे क्या करना है।"

"रात में जब मैं कमरे में आई, वह जगी हुई थी, इसलिए मैंने तुमसे बहुत बात नहीं की। तुम भी कुछ दिनों तक अमृतसर में रहे हो, ट्रेनिंग के दौरान, सात साल पहले। उसी समय यह भी तुम्हारे ही ऑफिस में इंटर्न थी। उसी दौरान उस समय के तुम्हारे बॉस ने इसके साथ बदतमीजी की थी। इसी के सम्बंध में यह तुमसे बात करना चाहती है। पति को घटना की जानकारी है, लेकिन किस दफ्तर की बात है और वह व्यक्ति कौन है यह अभी तक इसने नहीं बताया है। शायद मुझे लगता है तुमसे कानूनी जानकारी चाहती होगी। बात बतानी चाहिए या नहीं। इसके कंप्लीकेशन्स क्या हो सकते हैं। यही सब। इसने यह भी बताया कि इसका पति लोभी है। वह इसके उस व्यक्ति को ब्लैकमेल करने कह रहा है। इसे तुम्हारे बारे में जानकारी नहीं थी। इसे इसकी बहन ने बताया कि तुम भी उसी दफ्तर में काम करते हो और कभी अमृतसर भी रह चुके हो। अब तुमसे क्या जानना चाहती है, जगने दो, खुद ही बताएगी। लाओ, चाय का कप खाली हो गया हो तो दो।" उषा मेरे हाथ से तो कप लेकर चली गयी। मैं पल भर के लिए सन्न रह गया। बेड से उठा। दफ्तर जाने का बहाना ढूँढने लगा। पैंट-शर्ट निकाला। तभी उषा

कमरे में आ गई।

"उषा एक जरुरी काम याद आ गया। ऑफिस की चाभी मेरे पास रह गई है। देने जा रहा हूँ। लौटने में देर भी हो सकती है। खाना कैंटीन में ही खा लूंगा।"

"अरे अचानक क्या हो गया। तुम तो आज देर से जाने वाले थे। कौन-सी चाभी रह गयी है। तो फोन कर दो, कोई पिउन आकर ले जाएगा।" मेरे अचानक के व्यवहार से उषा भी अचंभित थी। "अरे नहीं। इम्पोर्टेन्ट आलमारी की चाभी है। मुझे ही जाना होगा। बॉय।"

"अरे! वह जगेगी और तुम्हारे बारे में पूछेगी। तुम्हीं से बात करने आई है। मैं क्या कहूंगी?"

"कह देना! तुमने इस सम्बंध में मुझसे बात की। मैं वहाँ के किसी बॉस को नहीं जानता।" कहते हुए मैं घर से बाहर निकल गया॥ दीपिका देर रात जगने के कारण अभी देर तक सोयी हुई थी। उसे क्या पता उसने भेड़िया की मांद में शरण लिया हुआ है। जिंदगी बर्बाद करने वाले से जिंदगी का पता पूछने आई है। मैं उसका सामना नहीं करना चाहता था। उसके अमृतसर वाले बॉस का मित्र मैं ही था। मी टू का एक किरदार।