मुकरा / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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"लूंगा लूंगा लूंगा, कम से कम पाँच सौ के ही लूंगा।" मुकरा

ने तो जैसे ज़िद ही पकड़ ली थी। सुबह से ही वह पाँच सौ रुपये की मांग कर

रहा था। रामरती परेशान थी, पाँच सौ रुपये मुकरा फटाकों में फूँके वह इसके

लिये बिल्कुल तैयार नहीं थी। खीच तान के मुश्किल से साढ़े चार पाँच हज़ार

रुपये ही तो घर में आ पाते हैं। उसका पति उमेसा और वह दिन भर जी तोड़ परिश्रम करते हैं तब कहीं गुज़ारे के लायक कमा पाते हैं और यह मुकरा...ऊँह कुछ समझता ही नहीं। । रामरती बड़बड़ा रही थी थी। इत‌नी-सी कमाई में मुकरा कि पढ़ाई, दूध पीती छोटी-सी बुधिया का ख़र्च और फिर खाने पीने, राशन पानी का खर्च। कैसे ज़िन्दगी की गाड़ी चल रही थी वही जानती थी। सुबह से शाम तक पाँच सात घरों में खटती रहती, झाड़ू पोंछा करती, बर्तन मांझती तब कहीं जाकर पहली तारीख को ढाई तीन हज़ार रुपये ही ला पाती। उमेसा का

क्या है, कभी डेढ़ हज़ार तो कभी दो हज़ार, इतना ही तो लाता है। ठेकेदार के पास मज़दूरी करता है। ईट गारे का काम है, रोज तो होता नहीं, मिल गया तो ठीक नहीं तो जय सियाराम। , कहीं भी बैठकर उमेसा बीड़ी धोंकने लगता है। उसका ख़ुद भी तो कोई ठिकाना नहीं होता। कभी कोई घर छूट जाता तो दूसरा देखना पड़ता। खैर गाड़ी तो चल ही रही थी।

आज वह दो घरों से कुछ रुपये दीवाली ख़र्च के लिये

एडवांस ले आई थी। कुछ लोग होते हैं जो दूसरों का दुख दर्द समझते हैं और यदा

कदा सहायता कर देते हैं। मिसेस चड्ढा और मिसेस गवली ने महिने की पगार,

महीना समाप्त होने के पाँच दिन पहले ही दे दी थी। दीवाली पच्चीस तारीख को पड़‌ गई थी। आठ सौ रुपये में पूजा का सामान प्रसाद मिठाई फल फूल लायें या कि मुकरा को फूँकने को दे दे।

मुकरा का असली नाम मुकुंदीलाल था। किंतु मुख सुख की

चाहत ने उसे मुकरा बना दिया था। अभावों में रहते हुये भी रामरती ने बच्चों

की परवरिश में कोई भी कमी नहीं आने दी थी। मुकरा सातवीं में हिन्दी माध्यम

के स्कूल में पढ़ रहा था। सरकार से किताबों और सायकिल की व्यवस्था हो जाने से वह बेफिक्र थी। मिड डे मील में उसे शाला में ही खाना मिल जाता था। चूंकि

मुकरा पढ़ने में भी होशियार था उसे सौ रुपये महिने की छात्रवृति भी मिल रही

थी। आज दीवाली होने के कारण उसकी और उमेसा दोनों की छुट्टी थी। वह

तो खैर घर मालिकिनों को बताकर आई थी कि वह दीवाली के दिन काम पर नहीं आयेगी। मालकिने नागा करने के कभी भी पैसे नहीं काटती थीं किंतु उमेसा...काम नहीं तो पैसा भी नहीं।

बाज़ार जाने का प्रोग्राम बन गया था। दीवाली का सामान तो लाना ही था। दिये,

तेल, बत्तियाँ केले, मिठाई, लक्ष्मी जी की फोटो और नारियल, फल फूलों में ही

पाँच छह सौ रुपये लग जायेंगे। पूजा का सामान तो आ ही जायेगा परंतु इस मुकरा का क्या करें सुबह से अड़ा है पाँच सौ ही लूंगा।

"बेटा पाँच सौ तो बहुत होतेहैं अपनी हेसियत नहीं है इतनी। फिर फटाके चलाने का मतलब रुपये फूँकना ही है।" रामरती उसे समझा रही थी।

" अम्मा पाँच सौ से बिल्कुल कम न‌हीं लूंगा। इतनी मंहगाई में पाँच सौ में

आता क्या है, दस अनार और दस रस्सी बम ही तीन सौ रुपये में आयेंगे। फिर चकरी फुल‌झड़ी दीवाल फोड़, पाँच सौ भी कम पड़ जायेंगे। "

"परंतु बेटे ..."

" मैं कुछ नहीं सुनूगा। सुन्नी एक हज़ार के लाया है। टंटू अपने बापू के साथ

बाजार जा रहा है कह रहा था अपने बापू से दो हज़ार के खरीदवाऊंगा। "

" पर बेटा वह लोग पैसे वाले हैं, सुन्नी का बाप तहसील आफिस में बाबू है

टंटू के बाप की दारू की दुकान है। ये लोग तो कितने भी रुपये ख़र्च क‌र सकते

हैं, फूंक सकते हैं पर..."

" नहीं-नहीं बिल्कुल भी नहीं, मुझे अभी पाँच सौ रुपये दे दो

मैं ख़ुद ही बाज़ार चला जाऊंगा और फटाके लूंगा अपनी मर्जी के, बिल्कुल सौ

टंच। " मुकरा के सिर पर‌ तो फटाकों का भूत सवार था।

"ठीक है" रामरती ने उसके सामने एक पाँच सौ का नोट फेक दिया था और

गुस्से में फनफनाती हुई भीतर किचिन में चली गई थी।

मुकरा ने वह नोट उठाया और बाज़ार चल दिया, विजयी मुद्रा में। जैसे माँ और

बेटे के बीच लड़े गये पानी पत के युद्ध में बेटा जीत गया हो। उसे अब कौन

समझाये कि ऐसी पानीपत की लड़ाईयों में माताओं को हारने में कितना आनंद आता है। अन्यथा माताओं को कौन हरा सकता है। मां तो माँ ही होती है। उसकी ममता बेटों की ज़िद के आगे अक्सर हथियार डाल देती है।

धीरे धीरे शाम धरती पर उतर आई। मां का गुस्सा कपूर की तरह थोड़ी देर में ही उड। गया। आख़िर बच्चा ही तो है, मन की उमंगें हिलोर लेती रहती

हैं। किसी मित्र को-को कुछ नया करते देखता है तो उसकी भी इच्छा वैसा ही करने

की हो उठती है।

माँ प्रतीक्षा में थी कि मुकरा आते ही कहेगा " देखो माँ इतने

सारे फटाके, अनार, चकरी फुलझड़ी, दीवाल फोड़...रामबाण...

पाँच सौ रुपये में इतने सारे। परंतु रात होने को आई और वह आया ही नहीं

तब रामरती को चिंता हुई कहाँ गया होगा। इतनी देर तो वह कहीं रुकता ही

नहीं। उमेसा भी परेशान हो गया जो अभी-अभी बाज़ार से पूजा का सामान लेकर आया था। । उसे बाज़ार में भी मुकरा कहीं नज़र नहीं आया था। हे भगवान क्या हुआ लड़के को, सोचते-सोचते उमेसा उल्टे पांव लौट गया। मुकरा के दोस्तों केघर जा-जा कर पूछने लगा। उसके एक दोस्त ने बताया कि उसे रामबाबू कक्का के साथ अस्पताल जाते देखा था।

"क्या अस्पताल, क्या हुआ था मुकरा को?" उमेसा बौखला-सा गया।

"उसे कुछ नहीं हुआ राम बाबू कक्का के सिर से ज़रूर खून बह रहा था।"

दोस्त के मुँह से यह सुनकर उमेसा कि जान में जान आई। दौड़ा-दौड़ा वह अस्पताल जा पहुँचा। ढूंड़ता खोजता वह उस कमरे में पहुँच ही गया जहाँ राम बाबू कक्का पलंग पर पड़े थे और मुकरा बगल में एक स्टूल पर बैठा था। राम‌ बाबू के सिर पर पट्टी बँधी थी और वह कराह रहे थे।

"क्या हुआ मुकरा? इनको क्या हुआ? तुम यहाँ कैसे आये?" उमेसा जैसे उस पर टूट पड़ा। इतने सारे प्रश्न एक साथ सुनकर मुकरा से तत्काल कोई जबाब देते नहीं बना। थोड़ी देर वह चुप रहा फिर उसने बताया कि कक्का रास्ते में चक्कर खाकर गिर पड़े थे। सिर एक पत्थर में टकराने से खून बह रहा था और वह उन्हें

अस्पताल ले आया था। राम बाबू कक्का फफककर रोने लगे थे और मुकरा के सिर अर हाथ फेरने लगे थे।

क्या हुआ राम बाबू, सब ठीक तो है, अब अच्छे हो न? उमेसा ने सहानुभुति

दर्शाते हुये पूँछा।

" बिल्कुल ठीक हूँ भैया, तुम्हारा बेटा तॊ साक्षात कृष्ण का अवतार है। यह

न होता तो आज मैं सड़क पर ही मर जाता। मुझे यह यहाँ तक ले आया और भरती कराया। सब दवाईयाँ अपने पैसे से ले आया। " राम बाबू अभी भी कराह रहे थे।

"तू तो फटाके लेने के लिये बाज़ार गया था, फटाके नहीं लिये क्या?" उमेसा

ने पूँछा।

"नहीं बापू नहीं लिये कक्का कि दवाई में..."

"तू तो ज़िद कर रहा था फटाकों की, अब क्या करेगा?"

" नहीं बापू मुझे नहीं चाहिए फटाके, कक्का ठीक हो गये, मुझे तो बहुत अच्छा

लगा। फटाके तो जलकर राख ही होने थे।

उमेसा को लगा कि मुकरा अपनी उम्र से बहुत जयादा बड़ा हो गया है। उसने बेटे को गले से लगा लिया। राम बाबू कक्का के आंसुओं

की धार और तेज हो गई थी।