मुकाबला / मिगुएल डि सर्वाण्टीज़

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पिकारेस्क नॉबेल का जनक और स्पेन का सर्वाधिक प्रतिभाशाली कथाकार सर्वाण्टीज़ (1547-1616) जिन्दगी भर गरीबी और गुमनामी से जूझता रहा। अपने जमाने को समझने में सर्वाण्टीज़ किस कदर सफल रहा, इसका अनुमान यहाँ प्रस्तुत अंश से लग सकता है, जो आज के भाषणवादी राजनीतिज्ञों पर भी करारे व्यंग्य का काम करता है।

एक बार ऐसा हुआ कि यहाँ से कोई साढ़े चार योजन दूर एक महाशय का गधा पेड़ों के एक झुण्ड में खो गया। लोग कहते हैं कि यह उनकी एक नौकरानी की कारस्तानी थी - लेकिन सच्चाई क्या है, किसी को पता नहीं। इतना जरूर निश्चित था कि गधा खो गया था और मिल नहीं रहा था - न जमीन पर, न उसके नीचे, न उसके ऊपर।

अब इस गधे को खोये हुए कोई एक पखवाड़ा बीता था। कुछ लोग कहते हैं कि ज्यादा दिन बीते थे, कि इसी कस्बे के एक और महाशय उन महाशय से बाजार में मिल गये, जिनका गधा खोया था और “भाई”, वह बोले, “मुझे आप खासा इनाम दें, तो मैं आपको आपके गधे के बारे में सूचना दे सकता हूँ।”

“सच!” दूसरे महाशय ने उत्तर दिया, “वह तो मैं दूँगा ही! पर मुझे बताइए तो सही कि वह बेचारा जानवर है कहाँ?”

“अरे,” उन महाशय ने कहा, “आज सुबह ही सामनेवाली पहाड़ी पर तो मैंने उसे देखा है - बिना काटी बोरे और फर्नीचर के! और वह इतना दुबला हो चुका है कि देखकर मेरे दिल को कष्ट हुआ... पर साथ ही इतना जंगली बन गया है कि जबकि उसे मैं अपने आगे-आगे घर ले गया होता, वह तो ऐसे भागा, जैसे उसके भीतर शैतान बैठा हुआ हो। और वह घने जंगल में घुस गया। अब अगर आप चाहें, तो हम दोनों इकट्ठे जाएँ और उसे ढूँढ़ निकालें। मैं जरा घर जाऊँगा और अपने इस गधे को वहाँ छोड़ूँगा। फिर वापस आपके पास आऊँगा। तब हम तुरन्त चलेंगे।”

“ठीक, है भाई,” दूसरे ने कहा, “मैं आपका बड़ा आभारी हूँ और कभी-न-कभी आपके इस नेक काम का बदला जरूर चुका दूँगा।”

कहानी इससे ज्यादा या कम नहीं थी। जो इसे जानते हैं, वे भी इसे लफ्ज-ब-लफ्ज यों ही सुनाते हैं। थोड़े में कहें, तो वे दोनों महाशय, हाथ-में-हाथ डाले पहाड़ी पर चढ़ गये और सब ओर गधे को ढूँढ़ने लगे। लेकिन बहुत ढूँढ़ने पर भी गधा नहीं मिला। तब जिन महाशय ने उसे देखा था, वह बोले, “मेरी बात सुनिए, भाई, आपके इस गधे को ढूँढ़ निकालने की एक तरकीब मेरी खोपड़ी में आयी है। वह जरूर मिल जाएगा। चाहे वह धरती में ही क्यों न समा गया हो। आपको पता होना चाहिए, मैं बड़ी अच्छी तरह रेंक सकता हूँ, बस, अगर आप भी उसी तरह रेंक सकें, तो काम बन जाएगा।”

दूसरे महाशय बोले, “अरे, उसमें तो मेरा कोई मुकाबला ही नहीं कर सकता!”

“तो ठीक है। मेरी योजना यह है कि आप पहाड़ी के एक ओर जाइए और मैं दूसरी ओर जाता हूँ। एक बार आप रेंकें, एक बार मैं रेंकूँगा। मेरा खयाल है कि अगर आपका गधा आसपास कहीं होगा, तो वह अपने ‘भाई’ की आवाज सुनकर जरूर जवाब देगा।’

“ईश्वर की सौगन्ध भाई,” दूसरे महाशय ने कहा, “दुर्लभ योजना है आपकी भी!”

अब योजना के मुताबिक वे एक-दूसरे से अलग हो गये। और जब वे काफी दूर-दूर हो गये, तो उन्होंने इतना अच्छा रेंकना शुरू कर दिया कि एक-दूसरे को धोखे में डाल दिया। और गधे के मिलने की उम्मीद में जब वे एक-दूसरे को मिल गये, तो “क्या यह मुमकिन है, भाई,” गधे के मालिक ने कहा, “कि जो रेंका, वह मेरा गधा नहीं था?”

“वाकई, भाई, वह नहीं, मैं ही रेंक रहा था,” दूसरे महाशय ने जवाब दिया।

“अच्छा, भाई,” मालिक महाशय चिल्लाये, “तब तो आप में और गधे में फर्क कर पाना ही कठिन है! मैंने तो इतनी स्वाभाविक आवाज कभी जिन्दगी में सुनी नहीं थी!”

“अजी छोड़िए, साहब,” दूसरे महाशय बोले, “मैं तो आपके सामने कुछ भी नहीं हूँ। आप तो पूरे साम्राज्य में किसी भी रेंकने वाले से दोगुना अच्छे हैं और मैं आपसे आधा ही! आपकी आवाज बड़ी बुलन्द है और दूर तक पहुँचनेवाली भी! आपकी लय भी शानदार है, आप कुछ भी छोड़ते नहीं और आपकी तान पूर्ण और मार्मिक है! थोड़े में कहूँ, श्रीमन्, तो मैं आपके आगे पानी भरता हूँ!”

“अच्छा तो, भाई,” गधे के मालिक ने कहा, “आइन्दा मैं अपने इस गुण के बारे में हमेशा ध्यान रखूँगा, क्योंकि यद्यपि मैं जानता था कि मैं अच्छा रेंक लेता हूँ, पर उससे पहले मैंने अपने आपको इतना अच्छा रेंकनेवाला नहीं समझा था!”

“तो देखा,” दूसरे महाशय बोले, “अज्ञान के कारण कई बार दुर्लभ गुण भी नष्ट हो जाते हैं! कोई भी आदमी अपनी ताकत और गुणों को तब तक नहीं जानता, जब तक वह उनकी परीक्षा नहीं कर लेता।”

“सही है, भाई,” मालिक महाशय बोले, “अगर यह काम, जिसे हम कर रहे हैं, हमारे हाथ में नहीं आया होता, तो मुझे इस चमत्कारी गुण का कभी पता ही नहीं चलता, तो आओ, फिर इसमें जुट जाएँ।”

इस पारस्परिक प्रशंसा के बाद वे फिर अलग-अलग चल दिये। फिर से वे रेंकने लगे-यह पहाड़ी के इस ओर और वह पहाड़ी के उस ओर। लेकिन फायदा कुछ नहीं हुआ, क्योंकि इस बार भी रेंकने से वे धोखा खा गये और फिर-एक दूसरे के सामने जा पहुँचे।

अन्त में उन्होंने यह निश्चय किया कि वे एक बार नहीं, दो-दो बार रेंकेंगे, ताकि यह पता चल सके कि वे ही रेंक रहे हैं, गधा नहीं।

पर इससे भी कोई फायदा नहीं हुआ - रेंक-रेंक उनकी जान निकल गयी, लेकिन गधे ने कोई उत्तर नहीं दिया। और दरअसल वह उत्तर देता भी तो कैसे, जबकि वह बेचारा - बाद में जब वह उन्हें दिखाई दिया, तो मर चुका था, और भेड़ियों द्वारा लगभग आधा खाया जा चुका था!

“हाय रे यह दिन! बेचारा घास खाने वाला जीव!” मालिक महाशय चिल्लाये। “अब इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है कि उसने अपने प्यारे मालिक की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। अगर वह जिंदा होता, तो वह अवश्य रेंका होता! पर अब जाने दो : भाई, मुझे इतनी सन्तुष्टि जरूर है कि यद्यपि मैंने उसे खो दिया है, फिर भी मैंने आपकी उस दुर्लभ प्रतिभा की खोज कर ली है - उसी ने मुझे इस भारी कष्ट में सहारा दिया है और ईश्वर करे सबको ऐसा मौका मिलता रहे!”

“महाशय, शीशा सही हाथों में है,” दूसरे महाशय ने कहा, “और अगर मठाधीश अच्छा गाते हैं, तो युवा भिक्षु भी उनसे ज्यादा पीछे नहीं हैं।”

इसके साथ ही, वे दोनों महाशय, मुँह झुकाये, रुँधे और बैठे गले सहित घर लौट आये, फिर अपने पड़ोसियों को उन्होंने पूरी कहानी लफ्ज-ब-लफ्ज सुना दी और साथ ही एक-दूसरे के रेंकने की प्रशंसा भी की।

संक्षेप में कहें, तो एक ने एक सिरे को पकड़ा और दूसरे ने दूसरे सिरे को। फिर छोकरों ने कहानी को पकड़ा, फिर निकम्मे जाहिलों ने... और फिर हमारे कस्बे में इतनी हा-हू और ढेंचू-ढेंचू हुई कि कोई सोच सकता है कि दोजख हमारे बीच ही आ फैला था!

पर यह दिखाने के लिए कि शैतान खाई में मुर्दा नहीं बना पड़ा रहता, और हर बेवकूफ चीज पर सवार हो जाता है और लोगों के कान उमेठने लगता है, हमारे पड़ोसी कस्बों ने भी इसे अपना लिया... उससे उनके-हमारे बीच दुश्मनी हो गयी... और अब कल या किसी अगले रोज कस्बे वालों से हमारा मुकाबला भी होनेवाला है...