मुख़बिर / राजनारायण बोहरे

Gadya Kosh से
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सिर पर टीकाटीक दोपहरी, लेकिन पुलिस वालों की तरफ से ऐसे कोई संकेत नहीं कि भोजन-पानी की कोई व्यवस्था जल्दी ही करने वाले हों। भूख के मारे दोनों का बुरा हाल, घर होते तो अब तक दो बार खा चुके होते, लेकिन यहाँ तो भिनसारे से कलेऊ तक नहीं मिला।

"यार लल्ला, जे लोग तो सांचउ बड़े जालिम दीस रहे हैं, दौ बजि गये, दिन लौटि परौ, औरिन्ने अब तक रोटी-पानी कीऊ नईं पूछी। बेहड़ा में घिसट-घिसट के पांव में छाले अलग परि गये।" गिरराज ने फुसफुसाते हुए लल्ला से कहा।

"हाँ, इनते तो वे बागिउ ठीक हते, टेम टेबल से खायवे-पीवो को तो ध्यान रखत हते।" खुद लल्ला को भी इस वक्त भूख सता रही थी।

ठीक पीछे चल रहे बड़े दरोगा रघुबंशी ने गिरराज के कांधे पर अपना डण्डा रखा, "ये क्या खुसर-पुसर लगा रखी है! चुप्पचाप चलो। ...और तुम लोग वे जगह क्यों नहीं दिखा रहे हो, जहाँं डाकू लोग छिपे रहते हैं!"

"वे ही तो ढूढ़ रहे हैं दरोगा जी. अब बरसात को पानी हर साल बेहड़ को नक्शा बदल देतु, सो असली जगह पहचानवे में दिक्कित हो रई ये।" सहमते हुए गिरराज ने खीसंे निपोर दीं। पल-पल में मिज़ाज़ बदलने वाले इस दरोगा का असली स्वभाव वे तीन दिन में कतई नहीं समझ पाये थे।

इस वक्त वे लोग एक पहाड़ी की सीधी चढ़ाई पर चढ़ रहे थे। सबसे आगे वे दोनों थे, पीछे थे दो पुलिस डॉग और उनके पीछे चल रहे थे साजो-सामान से लदे पन्द्रह-बीस पुलिसिये और इस पूरे समूह को कवरेज देते हुए अपनी बन्दूकें तानें मुस्तैद होकर चारों ओर ताकते एस0 ए0एफ0 के पचास जवानों की एक सशस्त्र टुकड़ी साथ थी।

चारों ओर खतरा था। हर झाड़ी और हर ढूह में दुश्मन छिपा हो सकता था। पता नहीं कहाँ से सनसनाती हुयी गोली आये और कोई ढेर हो बैठे।

लेकिन सब लोग सुरक्षित पहंुच ही गये आखिर कार।

ऊपर जाकर पहाड़ी कुछ समतल हो गयी थी-वहाँ करीब पच्चीस-तीस हाथ चौड़ा एक छोटे छत जैसा मैदान बन गया था। सामने ही एक झोला पड़ा था और उस झोले में कोई चीज ठूंस-ठूंस के भरी दीख रही थी दूर से ही। चारों ओर गहरा सन्नाटा था।

रघुवंशी यकायक चीखा-"अपन लोग ठीक दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। कल रात वे लोग यहीं थे। देखो यहाँ पहाड़ी पर कितने सारे निशान हैं। ये टोकरी भर सिगरेट के ठूंठ, वो अधजली लकड़िया, औेर वह देखो कोई चटनी-फटनी भी पीसी थी उनने, पत्थर पर हरा-हरा कुछ चिपका है, उस झोले से भी कुछ सुराग मिलेगा हमे, है न सिन्हाँ" -"यस सर! ऐ हेतम ज़रा तुम देखो क्या है उस झोले में!" एसएएफ के डिप्टी कमाँण्डेंट सिन्हा ने हामी भरते हुए हैडकांस्टेबल हेतमसिंह को हुकुम दिया। -"तनिक संभाल के देखिये लाला, बागिन्न ने कोउ बम-फम न धरदओ होय।" बुजुर्ग सिपाही इमरतलाल ने हेतम को आगाह किया तो आगे बढ़ता हेतम यकायक पीछे हटा, "मैं न देख रहो दरोगा जी, इन सारेन्ह ने दिखाओ." उसने गिरराज और लल्ला को निशाना बनाया।

"चल रे मोटा लाला, तू देख! बता कि क्या रख गये हैं तुम्हारे दोस्त इस झोले में!" रघुवंशी ने गिरराज को आदेश झाड़ा।

"निस्फिकर रहो दरोगा जी, इसमें बम-फम कछू नहीं है। झोला में तो पुराने उन्ना चीथड़ा ठुंसे होंगे।" कहते हुए गिरराज ने वह झोला उठाया और हाथ ऊंचा करके उलट दिया।

...और, सचमुच उस झोले में से ढेर सारे फटे पुराने कपड़ा टपकने लगे, रेला-सा बंध गया और अंत में एक जोड़ी जूते भी धप से नीचे गिरे। -"धत्तेरे की! खोदा पहाड़ निकली चुहिया। देखो सिन्हा हमे इतनी कवायद के बाद, मिला भी तो ये फालतू सामान।" कहता रघुवंशी झुंझला रहा था और गिरराज एवम् लल्ला आँखों ही आँखों में मुस्करा रहे थे।

फिर वे जूते कुत्तों को सुंधाये गये और दल उनके पीछे चल पड़ा। याद आया ...ठीक ऐसे ही बागियों के संग घिसटते रहते थे वे लोग।

गिरराज तो रघ्ुावंशी साहब से कहना ही चाहता था 'काहे को ये बेकार की कवायद कर रहे हो रघुवंशी साहब! अब बागी कहाँ धरे होंगे इधर! वे तो जा छुपे होंगे किसी शुभचिंतक की कोठी में ़...या आराम फरमा रहे होंगे घोसियों के किसी गाँव में।' लेकिन उसकी बात सुनता कौन? सो हमेशा की तरह चुप बने चलते रहे, वे दोनों।

पहाड़ी की तलहटी में पहुंच कर कुत्ते रूक गये थे। दस कदम पर एक छोटी-सी पतली नदी का पानी चमक रहा था-बहने का भ्रम-सा पैदा करता हुआ।

पुलिस डॉग अपनी थूथनी उठाये चारों ओर कुछ सूंघने का उपक्रम करते हुये सदा की तरह भ्रम में फंस गये थे रघुवंशी अब निरूपाय-सा खड़ा था। कुछ देर पहले औचक ही बंध गयी आशा अब निराशा मंे तब्दील हो गयी थी।

छोटा दरोगा जाने किसको गालियाँ देने लगा था-"हरामी साले, कुत्ते की औलाद़़़़़़ ़-़ चोटटे हैे पूरे!"

गिरराज को याद आया, डकैत भी प्रायः ऐसे ही गालियाँ बकते थे-बिना कारण और बिना लक्ष्य के ही।

अकेली गालियाँ ही नहीं, शुरूआती पूछताछ का तरीका भी एक जैसा अनुभव किया है उनने।

पुलिस कप्तान का आग्रह मानकर इस टीम में शामिल होने वे पहली दफा जब रघुवंशी के सामने आये थे, तो दरोगा छूटते ही बोला था गिरराज से, "क्या नाम है रे तेरा?"

"साब मेयो नाम गिरराज है!"

"अबे भोशड़ी वाले, सीधे काहे नहीं बता रहा कि कौन बिरादरी है तू?"

"गिरराज ने दांत चियार दिये और बोला था-" मैं कायस्थ हूँ दरोगा जी! "

"और ये दूसरा हुड़कचुल्लू कौन जात है?"

"ये पंडित है!"

"हुं! ! !" लम्बा हुंकारा गुंजाते हुए रघुवंशी ने सिर हिलाया था, तो गिरराज इस उलटबांसी को बूझने लगा था कि इन खाकी वरदी वालों को बिरादरी से क्या मतलब? वरदी का मतलब ही ये माना जाता है कि पहनने वालों की व्यक्तिगत पहचान समाप्त हो जाये, सब एक से दिखें। लेकिन यहाँ तो प्रवेश करते ही जाति पूछी जा रही है। उसे लगा, इन सबकी वरदी का रंग भले ही एक हो गया हो, लेकिन इन सबके मन का रंग अभी भी अलग-अलग है ं

याद है कि डकैतों ने भी ऐसे ही पूछताछ शुरू की थी उनसे-"अब जल्दी करो सिग लोग। अपयीं-अपयीं बिरादरी बताओ सबते पहले।"

तब बस की भयभीत सवारियाँ अपना नाम न बताके जातियाँ बताने लगी थीं। बस में आदमी नहीं थे-सिर्फ जातियाँ थीं!

गिरराज ने अनुभव किया था कि अचानक प्रकट हुए बागियों के भय से कुछ देर पहले थर-थर काँपते हुए वे लोग निकट रिश्तेदार और एक परिवार की तरह लग रहे थे लेकिन बागी ने जाति पूछी तो क्षण भर में कितने बंटे हुए और अलग-अलग से लगने लगे थे।

अनूठी और अचंभे की बात ये थी कि बागी की जाति का पता लग जाने पर उन सबका जाति बताने का अंदाज बिलकुल बदल गया था।

उस वक्त बस का माहौल देख कर एकाएक उसे याद आया था कि जहाँ बरसों पहले, बाम्हन-ठाकुर जैसी विरादरी बताते वक्त हर आदमी अपनी छाती तान लेता था, वहीं उस दिन उलटा था, बस में जितने भी बड़ी जाति के लोग थे सबसे पहले वे ही भयभीत हो उठे थे। हरेक को लग रहा था कि इधर उसने जाति बताई, उधर बागी दन्न से उसके सीने में गोली उतार देगा। तब क्षण के उस छोटे से हिस्से में ही गिरराज को अपने दुधमुंहीे बच्ची, भोली पत्नी और बूढ़े बाप-महतारी के चेहरे नाच उठे थे। अगर अचानक वह यहाँ मर गया तो उन सबका क्या होगा!

इसके उलट वहाँ मौजूद छोटी जाति के लोगों के चेहरे चमक उठे थे-वे सीना तान कर अपनी जातियाँ बखान रहे थे। गिरराज ने निस्संकोच स्वीकार किया था कि लोग लाख कहें कि इन छोटी जातियों का बरसों कुछ नहीं होने वाला, क्यों कि इनकी समस्याओं पर राजनीति करने वाले इनके नेता सिर्फ़ अपनी गोटी लाल कर रहे हैं! पर असलियत तो सबके सामने दिख रही है। हर जगहये लोग निडर हो के बताने लगे हैं अपनी जाति! बदल रहा है जमाना, अब ज़्यादा दूर नहीं है दिल्ली!

पुलिस के जवान थक के चूर हो चुके थे, सो साफ-सुथरी जमीन देख एक-एक कर नीचे बैठने लगे। गिरराज और लल्ला तो बैठते ही पसर गये धरती पर! तीन बजने को थे, वे दोनों अपनी आंतों में उठती एक अजीब-सी ऐंठन से परेशान हो चले थे। बदन में खून की जगह थकान दौड़ती महसूस हो रही थी लग रहा था कि सो गये तो महीना भर तक नहीं जग पायेंगे।

गिरराज ने चिरौरी की-"साब, भूख लग रई है।"

"चिंता मत करो, आधा घंटा धीरज धरो। बस ये सामने की पहाड़ी पार करना है, उधर घाटी के गाँव में अपन को खाना मिलेगा" नक्शा फैला के बैठे बड़े दरोगा रघुवंशी ने फुसलाया फिर!

'आधा घण्टा! यानी कि तीस मिनट! और फिर घड़ी देखके कौन चलेगा, आधा घंटे का पौन घण्टा भी हो सकता है। लगता है आज तो कंडा डल जायेेगे।' सोचते लल्ला को फिर से रोना आ गया था।

उन लोगों को उदास होते देख रघुवंशी मुस्कराया। नक्शा समेटते हुए होंठ टेड़े कर उसने गिरराज पर व्यंग्य का चाबुक फटकारा-"तुम दोनों तो ऐसे नखरे करते हो यार, , जैसे किसी की बारात में आये होओ, ़-़ ़ ़ पहले नब्बै दिन बागियों की पकड़ में रह के ऐसे ही भटके होगे न! उन हरामियों को टेैम-टेबिल से कहाँ से खाना मिल पाता होगा! ़-़ ़ ़हाँ, ये तो बताओं कि कौन-कौन गाँव से खाना पहुंचता था उन्हे?" बोलते-बोलते उसका चेहरा पुलिस अफसर के क्रूर चेहरे में तब्दील हो आया।

...तो गिरराज ने तफ़सील से बताया कि बागी लोग तो सुबह-सुबह कचोंदा के लड्डू सटकार लेते थे, ...कचोंदा माने घी मिले आटे में शकर सान के बनाए गये लड्डू! बागी अभ्यस्त थे लेकिन उन लोगों को वे लड्डू पहले बड़े बुरे लगे, फिर धीरे-धीरे जुबान पर चढ़ गये तो महीनों तक वे कचोंदा खाते रहे।

दस मिनिट तक बिश्राम रहा, फिर एकाएक बड़ा दरोगा रघुवंशी उठ खड़ा हुआ और हमेशा की तरह उसके पीछे-पीछे उनकी पूरी टीम दक्खिनी बबूल से लदी उस पहाड़ी पर चढ़ने लगी, जिसके पीछे गिरराज और लल्ला को अपने पेट में दौड़ रहे चूहों से निपटने का जुगाढ़ दिख रहा था।

पहाड़ी की गोद में बसा था सहरिया आदिवासियों का गाँव जनपुरा। स्वभाव से गौ और शरीर से हªश्ट-पुश्ट इस गाँव सहरिया लोग पुलिस के दोस्त थे। रघुवंशी ने बताया था कि बीहड़ में दोस्त और दुश्मन भी जाति-बिरादरी देख के बनाये जाते हैं। पुलिस का दोस्त वही हो सकता है-जिसकी जाति का कोई डाकू बीहड़ में न घूम रहा हो। फिलहाल इस जाति का कोई बागी घाटी में नहीं था, इस कारण पुलिस वालों को इस गाँव से कोई खतरा न था।

पुलिस टीम जब जनपुरा पहुंची, पूरा गांॅव खाना बनाने में जुटा था। वे लोग बैठ गये। कुछ देर बाद पटेल ने आकर बताया कि खाना तैयार है। गिरराज ने कनखियों से देखा, अरहर की पतली दाल और टिकर तैयार हो चुके थे।

गाँव के सरकारी स्कूल के दो कमरों में पुलिस टीम ने अपने डेरे जमाये। कुछ देर बाद स्कूल की टाटपट्टियाँ बिछीं और टीम भोजन को बैठ गयी।

भोजन के बाद रघुवंशी ने वायरलैस वाले सिपाही से हैडफोन लेकर कंण्ट्रोल रूम से सम्पर्क किया। वहाँ से निर्देश था कि आज रात जनपुरा के इर्द-गिर्द डाकुओं का मूवमेंट होने का अंदेेसा है। सो पूरी रात सतर्क रहो। रघुवंशी बुदबुदाया-'मतलब आज की रात, जनपुरा में ही हाल्ट होगा।'

हाल्ट की खबर सुनकर पुलिस सिपाहियांे ने अपना बेल्ट ढीला किया। कंधे पर टंगे पिट्ठू उतारे जाने लगे, सारी बन्दूकें कोत-मास्टर के पास जमा होने लगीं।

सर्दियों में तो, शाम के पांच बजे से ही रात उतरने लगती है। अँधेरा हुआ तो लोगों ने अपने बिस्तरे लगाना शुरू किया। कुछ लोग अपने सामान में से अगरबत्ती निकालकर संझा-आरती करने लगे थे-ओम जय जगदीश हरे!

यादें गिरराज का पीछा नहीं छोड़तीं। उसे याद आया कि डाकू लोग भी हर सांझ बिना नागा देवी मैया की आरती ज़रूर करते थे।

आरती के बाद गिरराज और लल्ला ने अपने थैले टटोले और दो कम्बल निकाल लिये। सोने के लिए उनने कमरे का दूसरा कोना चुना और वे धीरे से उधर ही खिसक लिए. यकायक बडे़ दरोगा रघुवंशी ने उन्हे टोका-"तुम दोनों को अलग-थलग नहीं लेटना भाई! आप लोग बीच में आकर लेटिये! आप लोगों का तो खास ख्याल करना है हमे।"

बीच में लेटे सिपाही एक तरफ को सरक गये, तो उन दोनों ने बीच में अपना बिस्तरा लगाया।

अंधेरे से लड़ती लालटेन के मंद उजाले में आँखें मूदे लेटा गिरराज अपने भूतकाल में उतर गया।

...वोट गिरने में दो दिन बाकी थे। पटवारी होने के नाते गिरराज के माथे पर अनगिनत जिम्मेदारियाँ लदी थीं। हल्का में कल आ रहे चुनाव कर्मचारियों की पूरी व्यवस्था संभालनी थी, सो दिन ढले अपने गाँव से पैदल चल के बस के लिए रवाना हो गया था वह।

मोटर स्टेैण्ड पर उसे अपने बालसखा लल्ला पंडित दिखे।

बस आई तो सवारियों से उफनी पड़ रही थी।

गिरराज और लल्ला पंडित किसी तरह घुसे और एक ही सीट पर बैठ गए. लल्ला पंिण्डत इस तरहं बार-बार होने वाले चुनावों की वजह से गाँवों में दिनोंदिन बिगड़ रहे सौहार्द के माहौल पर अपनी भोली चिन्ता जताने लगे, गिरराज उनसे सहमत था।

ठसाठस भरी बस ने मुड़कट्टा की खतरनाक ढलान से उतरना शुरू किया था कि झटका-सा लगा, लोग आगे को झुक आए, कोई-कोई तो टकरा ही गया। ड्रायवर ने तेजी से ब्रेक लगा दिये थे। अगली कतार में बैठे लोग शीशे के पार झांकने लगे।

... रोड पर किसी ने भारी-भारी पत्थर इस तरह जमा दिये थे कि उन्हे बचा कर निकलना मुश्किल था। झुंझलाता कंडेक्टर फुर्ती से नीचे उतरा। मदद के लिए उसने आवाज देकर चार-पांच सवारियाँ भी नीचे बुला लीं।

मगर वे लोग पत्थरों के पास पहुंचे ही थे कि यकायक बड़ी-बड़ी जटायें लहराते, दो बंदूक धारी झाड़ियों के पीछे से प्रकट हो उन पत्थरों के पास आकर खड़े हो गये। कंडेक्टर समेत नीचे खड़े सब लोगों को अचानक संाप सूंघ गया, माजरा ये है!

गिरराज ने खिड़की से झांका, पुलिस की बरदी जैसे खाकी रंग के कपड़े डाटे वे लोग गंदे-चीकट और ऐसे धूल-धूसरित दिख रहे थे मानों किसी ने उन्हे धूल से नहला दिया हो। उन के मुंह से अजस्र गालियाँ फूट रही थीं। उनमें से एक की आवाज आयी, "रूक जा मादर... पथरा मत हटइये।"

गिरराज चुप था। डरता हुआ लल्ला फुसफुसाया-"बागी आइ गये!"

भय से उन दोनों का दिल बैठने लगा। भीतर-ही-भीतर डर का एक पतला डरावना सर्प अपनी रीढ़़ में सरसराते हुए महसूस कर उठे वे। ...

और तभी बस में बैठी सवारियों के बीच अब तक चुपचाप कम्बल लपेटे बैठा एक आदमी अचानक कम्बल फेेंक कर उठ खड़ा हुआ जिसके हाथ में एक दुनाली दिख रही थी। वह बागियों का र्ही साथी था, जो पहले से बस की निगरानी कर रहा था। एक-एक सवारी को घूरता हुआ वह बस में पीछे की ओर खिसकने लगा। उसे देखकर सवारियों की तो जैसे घिग्घी बंध गयी।

नीचे खड़े डाकू ने कंडेक्टर की गिरेबान पकड़ी और दांये हाथ का एक झन्नाटेदार रहपट उसके गाल में जड़ दिया था, दूसरे ने उसकी कमर पर एक लात जमाते हुए कहा, "भैन्चो हरामी, चुप रहिये! नहीं तो गां... में से धुंआ ..."

मौत सर पर थी। वह टूट गया, रूआंसा-सा बोला-"ठीक है ठाकुस्साब! जैसी आप कहो।"

"भोशई के ठाकुर होगो तेयो बाप!" बदतमीजी भरे लहजे में उस अधेड़ उम्र के डाकू ने कंडेक्टर को लताड़ा-"हम ठाकुर नाने, हम हैं किरपाराम घोसी! समझो कछू! हमाओ नाम सुनके अच्छे-अच्छेन्न को मूत छूट जातु ऐ. अब जल्दी कर। डिलाइवर से कह, कै मोटर गोला से उतार के हार में ले चले।"

कृपाराम का नाम सुनकर सब लोग काँप उठे थे।

गिरराज को लगा कि बस अब हुआ खेल खतम! अपनी जिन्दगानी शायद यहीं तक लिखी थी ऊपर वाले ने।

कंडेक्टर और सवारियों ने पत्थर हटाये और सब फिर से बस में चढ़ आये। ड्राइवर ने उसे स्टार्ट किया और बागी के इशारे पर एकदम काट के सड़क से नीचे उतारा और उस पगडंडी पर आगे बढ़ा दिया, जो जंगल में घुसती दिख रही थी।

ओंधी-नीची होती बस दो किलोमीटर के करीब बीहड़ में धंस गयी, तो बागी ने रूकने का इशारा किया। इधर बस रूकी उधर तेज स्वर में कृपाराम चिल्लाया-"नीचे उतरो सिग लोगऽऽऽ।"

बस के लोग इतने डर चुके थे कि उनको बस के नीचे साक्षात मौत खड़ी नजर आ रही थी, गिरिराज को महिला डकैत फूलनदेवी का बेहमई का हत्याकांड याद आ गया था, ... उसका भय कई गुना बढ़ गया।

हिम्मत बांधके सबसे आगे कंडेक्टर बस के नीचे उतरा, बाद में साहस करके दूसरे पुरूश भी। बस में केवल औरतें और बच्चे बैठे रह गये। बाहर एक भयावह सन्नाटा था। कृपाराम जल्दी-जल्दी निर्देश दे रहा था-"जल्दी करो तुम लोग! तलाशी लेउ सबकी! आनाकानी करे ताको बेहिचक गोली मार देउ। देर नई लगने चइये।"

कृपाराम के उस साथी ने अपने गले में लपेटा हुआ चादर फटकार के बस के दरवाजे के पास बिछा दिया और खुद भी सवारियों की तलाशी लेने बस में चढ़ गया। बस में से गाली-गुफ्तार की अवाजें आने लगी। एक महिला तलाशी नहीं दे रही थी, बागी ने उसके गले में पड़ी जंजीर अंगुली में फंसाके खींची, तो महिला ने उसका हाथ झटकार दिया। कुपित बागी ने उस औरत को एक थप्पड़ जड़ दिया। फिर क्या था महिला उस पर बिल्ली की तरह झपट पड़ी। ...तो डाकू ने उसको बेदर्दी से मारना शुरू कर दिया।

बस की पुरूश सवारियाँ एक-एक कर नीचे उतरने लगीं थीं। दरवाजे की बगल में बिछी चादर पर वे लोग रूपया-पैसा, जेवर वगैरह रखते जा रहे थे। पिटती युवती की मदद किसी ने नहीं की, सबको अपने प्राणों की पड़ी थी।

गिरराज चौंका, डाकू बस के दरवाजे से नीचे उतर रहा था, तलाशी न देने वाली औरत उसकी जकड़न में थी-रोने और गुस्सा होने के मिले-जुले स्वर में चीखती हुई.

गिरराज ने देखा कि बीसेक साल की उस युवती ने ढेर सारे जेवर पहन रखे हैं, सिंदूरी रंग की बनारसी साड़ी में उसका गोरा और स्वस्थ्य बदन खूब फब रहा था, लेकिन इस वकत वह अपने रौद्र रूप में थी। वह डाकू को झटकारती और नोंचती हुई, जाने क्या-क्या बड़बड़ा रही थी। उसके पीछे चलता पन्द्रह-सोलह साल का किशोर लड़का भी था जो बार-बार डाकू के पांव पड़ता हुआ गिड़गिड़ा रहा था।

उसे बस से नीचे घसीटता वह डाकू चिल्लाया, "मुखिया जि लुगाई ज़्यादा जोश दिखा रई ये।"

"बांध के डार दो सारी खों। चाहे संगे ले चलो। दो दिना में सिग जोश ठण्डो है जागो।" कृपाराम मूंछों में मुसकराया।

चुवती के साथ वाला किशोर लड़का अब कृपाराम के पांव छू रहा था, "मुखिया माफ करो मेरी बहन नासमझ है, हम माफी माँग रहे हैं।"

सहसा युवती के हाथ-पांव फूल गए. कृपाराम अडिग था, "तैं का माफी माँग रहा सारे अब तो फैसला है गओ. चल हट उते, नई तो तैं भी पकरो जाएगो!"

लोग अपनी जाति-बिरादरी और गाँव का नाम बताने लगे। गिरराज ने गौर किया कि सवारी जब अपनी जाति बताती तो घोसी, गड़रिया, कोरी, कड़ेरा, नरवरिया और रैकवार सुनकर कृपाराम चुप रह जाता था। लेकिन वामन-ठाकुर या कोई दूसरी जाति का आदमी पाता तो वह एक ही वाक्य बोलता था, "तू उतै बैठि मादर...!"

कुल मिला के छै आदमी छांटे गये, जिनमें गिरराज के अलावा उसके बालसखा लल्ला पंडित के अलावा वह युवती भी फंस गयी थीे।

बागी ऊबड़-खाबड़ रास्ते के अभ्यस्त थे, सो बंदूक के वजन के बावजूद वे सरपट चल रहे थे, लेकिन सामान लादे चल रहे पांचों आदमी जबरन घिसटती युवती में से कदम-कदम पर फिसल रहे थे। हर फिसलन पर पीछे चल रहे डाकुओं में से कोई न कोई उन्हे एक हूदा मार देता था। पहाड़ी के ऊपर पहुंचने पर पता चला कि एक बागी वहाँ कुछ पोटलियाँ रखे खड़ा हुआ है। वे पोटलियाँ बड़ी फुर्ती से शेश बागियों ने अपने माथे पर रख लीं। एक पोटली ज़्यादा थी, वह पोटली किसी बागी ने गिरराज के माथे पर अतिरिक्त भार बनाके लाद दी।

युवती की कलाई पकड़के घसीट रहे डाकू के बदन से एक अजीब-सी बदबू आ रही है-दही की सड़ांध जैसी, ऐसी बदबू कि पेट का सारा खाया-पिया बाहर आने को उछलने लगा।

गिरराज के बगल में सामान लादे चल रहा बड़ी मूंछों वाला एक अधेड़ व्यक्ति अचानक लड़खड़कर गिर पड़ा।

उसका गिरना था कि एक तगड़ा-सा बागी कटखने कुत्ते-सा टूट पड़ा। बंदूक के बट से वह उस मंूछो वाले आदमी के सीने पर इस निर्ममता से ठूंसे मारता चला गया कि वह बेचारा सीधा भी खड़ा नहीं हो पाया, जमीन पर गिर पड़ा और भेंाकार मारके रो उठा था।

उसकी ऐसी कुगति देख के बाकी लोगों का तो खून ही सूख गया। वे सब के सब नीची आँखे किये मन ही मन प्रार्थना कर रहे थे कि वे बचे रहें। यह मारपीट का सिलसिला संक्रमित होकर उन तक न आ पहुचे!

लेकिन उनकी प्रार्थनायें व्यर्थ गयीं। चारांे बागियों ने आपस में जाने क्या संकेत किया कि फिर तो मशीनगन-सी चली, चारों बागी एकदम से बाकी चारों लोगों पर टूट पड़े। चांटे, लातें, घूंसे और बंदूक के बटों से उन्हे बेहाल कर दिया।

लड़की का चेहरा भय से सफेद हो गया। उसे एक अज्ञात-सी आशंका खाने लगी थी कि जब आरंभ में ये हाल है तो आगे क्या होगा!

कृपाराम का इशारा मिला तो वे लोग झटपट ही चल पड़े।

रास्ता चलते ही बीच में कृपाराम ने रोटी वाली पोटली खोली और उसमें से चार-चार पूड़ी निकाल कर सबको पकड़ा दीं थी। भय और थकान के कारण, उन सबके मुंह का थूक तक सूख गया था और सूखे मुंह में आसानी से पूड़ी का कौर भी उनके गले के नीचे नहीं उतर रहा था, पर शायद भय के ही कारण चलते-चलते उन सबने किसी तरह रूखी पूड़ी निगली और बागियों के ही तरीके से एक नदी में ढोर की तरह झुक के मुंह लगा के पानी पिया था, फिर नाक की सीध में चलती धर दी थी। दर्द के मारे उनका बड़ा बुरा हाल था। लेकिन छहों लोग भीतर ही भीतर इतने भयभीत थे कि दर्द की सिसकारी दूर रही, वे मुंह से डकार, खांसी और अपान वायु तक नहीं छोड़ रहे थे। बस लल्ला पंडित की धीमी-सी सीताराम-सीताराम की ध्वनि और उस युवती के धीमे-धीमे रोने की आवाज गूंज रही थी।

आसमान में भोर का भुकभुका-सा उभर आया था। पांव के नीचे की मिटटी खरखराने लगी थी और इसी से गिरराज ने गुनताड़ा लगाया कि वे इस वक्त राजस्थान की सीमा में घुस आये होंगे। शायद, उधर पुलिस मध्यप्रदेश में ही उन्हे खोज रही होगी।

दूर पेड़ों का एक झुरमट दीख रहा था, उसी झुरमुट की तरफ चलने का इशारा पाकर अपहृतों ने अपने डग लम्बे कर दिये। मन में आशा बंधी कि शायद अब बैठने की मुहलत मिल जाये।

वह झुरमुट तब पचासेक कदम दूर रह गया था कि वे सब रूक गये। कृपाराम के इशारे पर उसका एक साथी मोर की-सी आवाज में कोंक उठा-" मेयो-मेयो मेयो: ः।

प्रतिउŸार में उस झुरमुट में से भी मोर कोंक उठी थी।

वे आगे बढे़ तो पता लगा कि पेड़ों का वह झुंड एक खिरक में छाये छतनार वृक्षों का समूह है। गिरराज को जानकारी है कि राजस्थान में इन्हे खिरकारी कहते हैं-इधर ऐेसी खिरकारियों का प्रचलन है, जो बस्ती से दूर जंगलों और भरकों में खूब बड़ा अहाता घेर कर बनायी जाती है और जिनमें अपनी भेढ़-बकरियों के संग रहके इधर के मारवाड़ी चरवाहे अपने जानवरों की देखभाल करते हैं।

खिड़क में से दो छायायें प्रकट हुयी जिनमें से एक के हाथ में लालटेन थी। शायद उनने कृपाराम गिरोह को पहचान लिया था सो आवाज गूंजी-"जै कारसदेव!" -"जै कारसदेव!"

कृपाराम का जवाब पाके निश्चिंत हुए खिरकवासी की पुनः आवाज गूंजी-"चले आओ मुखिया! सब ठीक है।"

कृपाराम के इशारे पर उसका एक साथी आगे बढ़ा। खिरक में पहुंच कर पहले उसने खिरक में खड़े देानों लोगों के चेहरे पर पैनी निगाह फंेंकी फिर भीतर की टोह लेने उनके साथ खिरकारी में चला गया। पल भर बाद वे लोग बाहर आ गये और जब उस बागी ने कृपाराम को चले आने का इशारा किया तो कृपाराम के नेतृत्व में वे लोग आगे बढ़ गये।

चार फुट ऊंची बाउंड्रीवाल से घिरे उस खिरक में आगे की तरफ दो झोंपड़िया बनी थीं। पीछे के लगभग सौ फुट चौड़े और दोसौ फुट लम्बे अहाते में असंख्य भेढ़ें दिख रही थीं।

वहाँ मौजूद दोनों जन मारवाड़ी चरवाहे दीख रहे थे और उनमें से एक पचपन साठ साल का अधेड़ उम्र का व्यक्ति था, जबकि दूसरा आदमी पच्चीस-तीस बरस का जवान व्यक्ति था। लगता था कि वे लोग मुखिया के गिरोह निकट सम्बंधी दिख रहे थे, क्योंकि वे लोग कृपाराम से गले लग के मिले। उन सबको नीचे बैठने का इशारा करके अधेड़ मारवाड़ी बोला-"बड़े दिन में हमारी सुध लयी मुखिया! कछू वारदात कर आये का?"

" हम तो चुपि बैठे बरसात काढ़ रहे थे, पै मोड़ी चो पुलस वालों को थेाड़ी चैन मिलतु है। हरामियों ने उंगरिया कर राखी थी। हमे हाजिर कराइवे के काजें सिगरे रिश्तेदारों को डरा धमका रहे थे सो हमने एलानिया बस लूटि लई और पांच पांडवन के संगे जा द्रोपदी पकरि ल्याये।

अधेड़ मारवाड़ी ने पहली दफा पकड़ के लोगों को भीतर तक बेध लेती गहरी नजर से देखा तो गिरराज ने भी अपने साथियों पर नजर डाली। भय से सहमे खड़े लगभग सभी सथियों के बदन पर फटे-चिथे से कपडे़ टंगे थे। लड़की की हालत पतझड़ के पेड़-सी हो गई थी, न कोई गहना बचा था न रौनक। ... पल्लू सिर पर नहीं था, साड़ी कीचड़ से लिथड़ रही थी। चप्पलें टूट गई थीं, पांव कांटों से लहूलुहान। उसे देख गिरराज को रोना आ गया, उसके सूजे हुए गाल और आँखें के मोटे पड़ गये पपोटे देखकर। ... चलते-चलते वह रात भर रोती ही रही थी, शायद! बाल लाश के बालों की तरह बिखर गये थे। ... उसका दिल बिफर उठा।

कृपाराम ने उन सबको डांटते हुए आदेश दिया, "का अब तक चोंपे से ठाड़े हो? धूर से लदे-लदे घिनाय नहीं रहे! धूर झारि के बेैठि जाओ सिग।"

सहमी-सी पकड़ें जमीन में बैठने लगीं।

"कछू रोटी पानी को इंतजाम है?" कृपाराम ने यकायक बूढ़े मारवाड़ी से पूछा तो उसने दांत काड़ दिये-"नहींे मुखिया, अबई हाल पुरी बनावेंगे।" -"तुम सारे रहे नौ खावे तेरह की भूख वाले। निकारो श्याम बाबू बर्तन भाड़ें।" कृपाराम ने पहली बार अपने एक साथी का नाम लिया।

...और एक दस्यु जमीन पर बैठकर पोटलिया खोलने लगा।

"ऐ री लड़की चल उठ और रसोई संभाल!" उस युवती को हुकम सुनाता कृपाराम दारू की खाली बोतल में पानी भरके खिरकारी की दांयी तरफ दिखती खाई की तरफ चला गया था।

बेवश युवती मरी-मरी-सी उठी और पोटली में रखे आटा सामान को संभाल कर रसोई की मिसल लगाने लगी थी। गिरराज का मन न माना तो वह उठा और लड़की की मदद करने लगा।

उस युवती के आंसू या तो खत्म हो गए थे या फिर उसने अपनी नियति स्वीकार कर ली थी, उस वक्त वह कसाईखाने ले जाई जा रही गाय की तरह सूनी आँखों से कभी बागियों को देखती तो कभी अपने साथियों पर नजर मार लेती थी। गिरराज कल से ही उसकी कुगति देख रहा था, ...उसके प्रति विवश करूणा उभर आई थी गिरराज के मन में। बागियों को आपस में बातचीत में मगन देख उसने युवती से पूछा, "कौन गाम की हो लली?"

"धीरपुरा की!" बहुत धीमे से लड़की की आवाज निकली।

"का नाम है त्याओ?"

"केतकी!"

"कौन बिरादरी?"

"जैनी बनिया..." कहते-कहते केतकी लगभग सिसकने लगी थी तो गिरराज ने अपने हाँेंठों पर उंगली रखकर उसे चुप रहने का संकेत दिया था।

केतकी ने होंठ कसकर अपनी रूलाई रोकी और स्त्री सुलभ दक्षता से आटा सानने लगी। ...सिर्फ चार महीने पहले ही ब्याह हुआ था उसका। यूं तो पति बिजनिस मैनेजमैण्ट में मास्टर डिग्री लिये था लेकिन था बिलकुल सीधा और भोला। ब्याह के बाद केतकी से उसका पहला मिलन हुआ था तो लड़कियों की तरह शरमा रहा था बेचारा। केतकी ने अन्जाने ही उसकी रोम से भरी बांह पर हाथ फेरा तो लगा था मानो मोटे से मखमल पर हाथ फेर रही हो, ...और एक अजीब से उन्माद से भर उठी थी वह। ...याद आई तो उसके चेहरे पर फिर से वही ललाई दौड़ गई. वह भूल गई कि कहाँ है और किस तरह लाई गई है यहाँ!

गिरराज ने यहाँ-वहाँ पड़ी छै-सात ईंट उठाकर चूल्हा बना बनाया और पतली सूखी लकड़ियों को उस चूल्हे में जमा कर आग जलाने लगा था।

केतकी अपने पति की यादों में डूबी हुई रसोई रचने में जुटी थी। बेध्यानी में उसका पल्लू जमीन में गिर गया था और सिंदूरी ब्लाउज का चौड़ा गला दिखने लगा था। धुंधुआते चूल्हे को फूंकते हुए वह बड़ी परेशान नजर आ रही थी और अपने बांये हाथ से बार-बार कभी अपनी आँखें पोंछती तो कभी माथे पर बिखर आई बालों की लट पीछे करती थी। सहसा उसे लगा कि किसी की चुभती नजरें उसे बेध रही हैं, उसने चौंक कर देखा कृपाराम ने जिस डाकू को श्यामबाबू के नाम से पुकारा था वह केतकी को ही घूरे जा रहा था।

श्यामबाबू ने हाथ की अंजलि में घी का एक लांेदा ले रखा था और अपनी लम्बी जीभ निकाल कर थोड़ा-थोड़ा-सा चाटते हुए अजीब तरीके से लपर-लपर खा रहा था। हेांठों की दोनों कोरों से घी की पतली-सी धार बह उठी थी जो उसकी शर्ट को भिगोने लगी थी, लेकिन श्यामबाबू को इसकी कोई परवाह न थी।

अचानक केतकी सजग हो गई और उसने नीचे गिरा पल्लू उठा कर माथे पर रख लिया।

"श्यामबाबू और अजै, तुम दोऊ आजि की कमाई गिन लेऊ। तनिक पतो तो लगै कि आजि वा बस से का मिल पायो?" कृपाराम ने अपने दो साथियों को हुकुम दिया और स्वयं नंगी जमीन में ही पांव फैला के चित्त लेट गया ं

पोटली खोल के श्यामबाबू और अजय ने सारा सामान निकाला। फिर नोट एक तरफ कर लिये और दीगर सामान दूसरी तरफ, फिर तीसरी तरफ जेवर का ढेर लगा लिया। गिरराज खाना बनाने के बीच उधर भी नजर मार लेता था, उसने अनुभव किया कि श्याम बाबू और अजय ज़्यादा पढ़े-लिखे नहीं है, वे बीस से ज़्यादा गिनती नहीं जानते थे। हर चीज एक बिसी-दो बिसी करके गिनते थे। इस कारण ठीक से गिनती नहीं कर पा रहे थे। उनने कई बार प्रयत्न कर देखा, लेकिन रूपये नहीं गिन पाये, तोे झल्ला कर उन्होने सारे रूपये ज्यों के त्यों पटक दिये और दूसरा सामान देखने लगे।

"मुखिया, रुपया तो पकड़ में से कोऊ गिनि लेवेगो, जे पांच कम एक बिसी चांदी की पायल, दस चैनंे और जे आठि हाथघड़ी है।"

कृपाराम ने फतवा जारी कर दिया, "तुम दोई उठ जाओ, सारो मोटा लाला गिनेगो रुपया पइसा।"

सौ, पचास, दस और पांच-पांच के नांेटों की अलग-अलग गड्डी बनाके गिरराज और लल्ला ने गिनती शुरू कर दी। ...और जब तक सब्जी बनी, तब तक नोेेट गिने जा चुके थे। गिरराज बोला-"मुखिया, जे नोट तो पन्द्रह हजार चार सौ अस्सी है, माने साड़े पन्द्रह हजार रुपया।"

कृपाराम आज की लूटी गई राशि से संतुश्ट नजर आयाा, जबकि श्यामबाबू की भवें तनी थीं, "दादा तिहारी मुखिया गिरी में सबसे बड़ो झंझट एकई है, कै तुम लुगाइयों को उनकी मरजी पर जेवर उतारवे के लाने छोड़ देतु! हम खुद लुगाइयन से गहने-गुरिया छुड़ाते तो आज पांच सेर चांदी मिलती कम से कम और दारी लुगाइयें सोनो तो बिलकुल छिपाय गयीं, ले लेते तो कम से कम किलो भर सोनो मिलतो!"

कृपाराम हँसा-"तैं बड़ों लालची है श्याम बाबू! अरे पगला जे पकड़ तो देख! जे है असली माल। दस लाख से ऊपर की गांरटी है।"

कृपाराम की बात पूरी होते-होते सारे के सारे बागी खौफनाक ढंग से हँस पड़े थे। जबकि छहों अपहृत व्यक्ति भीतर ही भीतर काँप उठे थे-बागियों की नजर में उन में से हरेक की कीमत डेढ़ लाख है! "

श्यामबाबू ने सबसे पहले केतकी को भोजन चखाया उसीने तो आज खाना बनाया था और बीहड़ की ज़िन्दगी की यह अनिवार्य शर्त थी कि जो खाना। फिर जो डकैतो ने भकोसना शुुरू किया तो गिराराज ने दांतो तले अंगुली दबा ली, वे दानवों की तरह चबर-चबर करके पूड़ी पर पूड़ी निगलते जा रहेे थे। उसने अंदाज लगाया कि एक-एक बागी ने पच्चीस-पच्चीस पूड़ी तो ज़रूर सटकाई होंगी।

रात भर के थके थे सब सो अपहृतों के खाने के बाद भीतर झोंपड़ी में ही सोने की तैयारी हुयी। अगल-बगल में बागी सोये और बीच में अपहृत व्यक्ति लेटे... जबकि केतकी एक कोने में जाकर घुटनों में सिर देकर बैठ गई थी।

बागी तो कुछ ही देर में चरखा की तरह घरर-घरर के स्वर में अपनी नाक बजाने लगे, लेकिन अपहृृत लोगों की आँखों में भला नीद कहाँ से आती! हरेक के चित्त में अपने घर में व्याप्त शोक के दर्शन हो रहे थे।

गिरराज को भी बन्द आँखों के आगे अपने घर के दृश्य दिखाई दनेे लगेे, जहाँ उसके बिना घर के लोग बुरी तरह दुखी और व्याकुल हो उठे होंगे।

पता नहीं कैसे पता लगा होगा, उसके अपहरण का!

...शायद पुलिस ने खबर भेजी होगी, या फिर किसी जान-पहचान वाले ने आकर घर कहा होगा।

शेश दिन सोते-सोते ही कटा। केतकी को नींद नहीं आई, उसे अपने घर की याद आ रही थी, ...पिता ने सुना होगा तो व्याकुल हो उठे होंगे और अम्माँ! अम्माँ तो बौरा ही गई होगी। जवान बेटी को हत्यारे डकैत उठा ले जायें, इससे बुरी बात किसी माँ के लिए और क्या होगी? छोटा भैया बस के पास ही बिलखता रह गया था, जब डकैत उसको घसीटते हुए वहाँ से चले थे। सबसे ज़्यादा उसी की हालत खराब होगी, कैसे उत्साह से आया था वह केतकी की विदा कराने! और उसी के सामने डाकू...

मैदानों में रात ज़रा देर से आती है जबकि सांझ लम्बी होती है। सब जागे तो

कृपाराम ने अगरबत्ती-माचिस निकाली और देवी मैया की आरती करने लगा। बाकी बागी उसके पास खिसक आये।

आरती के बाद बागी झोंपड़ी से बाहर निकले और जमीन पर आमने-सामने पालती मारके बैठने लगे तो अपहृतों का ध्यान उन पर केन्द्रित हो गया।

कृपाराम ने श्यामबाबू को उलाहना दिया, 'श्यामबाबू दारू नई प्याओगे? ...चलो बोतल निकारो! हार गये हम कल से दौर-दौर के.'

श्यामबाबू ने पोटली में ंसे शराब की एक बड़ी-सी बोतल निकाली तो मारवाड़ी युवक झोंपड़ी में ंसे स्टील के पांच-छै गिलास उठा लाया। अधेड़ मारवाड़ी ने जाने कहाँ से प्याज की पांच-छै गांठें निकाली और एक-एक करके अपने मुक्के से प्याज तोड़ने लगा।

आधा घण्टे में वे सब नशे में झूम उठे थे और इस बखत पुलिस को गालिया बक रहे थे।

अचानक कृपाराम उठा और सीधा केतकी के पास आकर खड़ा हो गया, 'चल री लोंडिया, तनिक तफरी करा ल्यांये तोखों!'

अचानक आये इस संकट से भयग्रस्त केतकी विस्फारित नेत्रों से उसे ताक रही थी जबकि गिरराज का दिल किसी अनहोनी की आशंका से धड़क उठा था।

कृपाराम की बात अनसुनी करके केतकी नीचा सिर किये बैठी रही तो बागी का धैर्य चुक गया। उसने केतकी की बांह पकड़ी और उसे जबरन उठाकर खड़ा करने का प्रयास करने लगा। केतकी फिर से बिसूर उठी थी और लाश की मानिन्द शिथिल हो कृपाराम के हाथों में लटक गई थी।

कुपित कृपाराम ने अपने सबल हाथों से उसको कमर से पकड़ कर उठाया ओर कंधे पर लाद लिया। केतकी अब अपने हाथ-पांव फेंकती हुई तेज स्वर में विलख उठी थी, तो यह दृश्य देख रहे सारे बागी मजा लेते हुए उंची आवाज में कहकहे लगाने लगे थे।

सौ एक कदम पर पेड़ों का झुरमुट था, कृपाराम केतकी को लादे उस झुरमुट में घुसा तो गिरराज को अपना दिल एक तीखे नश्तर से चिरता हुआ महसूस हुआ।

मिनट भर बाद ही केतकी के रोने-चीखने और कृपाराम के डांटने की आवाज आने लगी थीं।

सुबह होते ही खिरकारी छोड़कर वे लोग फुर्ती से चल पड़े।

चलते-चलते दोपहर हो गई. अपहृतों के चेहरे पर भूख और थकान के चिह्न दिखने लगे थे, लेकिन बागियों के चेहरे पर कोई शिकन न थी।

लल्ला ने हिचकते-डरते श्यामबाबू से पूछा-"दाऊ, नहायवे की नईं हो रई?"

"बेटी चो, तैं बड़ो पंडित है। जा इलाके में पीवे के लाने तो पानी तलक नाय मिल रहो, नहायवे कहाँ ते मिलेगो? चुप्पचाप चलो चल, नईं तो धुंआ निकाद्दंगों पीछे ते!"

लल्ला पंडित ने खुद को इस तरह बिना बात बेइज्जत होता देख म नहीं मन शायद बुरा लगातो वह सिसक उठा था। कृपाराम ने चलते-चलते बंदूक का बट ज़रा धीमे हाथ से लल्ला की पीठ में कोंचा और डांट कर बोला-"सारे लुगाइयन जैसो कहा रोय रहो है? ज़्यादा नखरे मत दिखा, अब सीधो चलो चलि!"

घण्टे भर बाद बागी अजय ने भूख का इज़हार किया तो चौथे बागी ने भी उसका समर्थन किया था "मुखिया, अब कहूँू छाव देखिके कछू खायवे की हो जाय!"

गिरराज की निगाह मुखिया पर थी कि अपने साथियों को यह किस अंदाज से डांटता है। लेकिन उसे ताज्जुब हुआ कि कृपाराम मुसकराते हुये रूक गया था। पास में एक खंडहर दिख रहा था, उसने उधर इशारा किया, तो सब उसी तरफ बढ़ लिये।

गिरराज ने श्याम बाबू का संकेत पाया तो सिर पर लदी पोटलियों में से एक खोली। किसम-किसम के रंग, डिजाइन और साइज की ढेर सारी पूरियाँ उस पोटली में भींच के रखी हुयी दिखीं उसे। कृपाराम ने दस-बारह पूरी उठाई और श्यामबाबू को दे दीं। फिर एक-एक कर उसने सबको पूरी बांटी. अन्त में खुद बांये हाथ पर एक पूड़ी रखके दांये हाथ से कौर तोड़ के उसने अपने मुंह में डाला, तो सब खाने लगे।

खंडहर के पास एक छोटे मुंह का कुंआ था। खाना हो चुका तो श्यामबाबू ने एक थैले में से लोटा-डोर निकाली थी। गिरराज ने आगे वढ़ कर डोर-लोटा अपने हाथ में ले लिया और कुंआ के पास पहुंच के डोर खोलके लोटा कुंये में उतार दिया और लम्बे-लम्बे हाथ पन्हार (फैला) कर डोर खींचने लगा। गिरराज की इस तरह आगे वढ़ कर काम करने की आदत से कृपाराम बड़ा खुश हुआ, बोला-"तेयो नाम का बतायो रे लाला तैंने?"

"मुखिया मैं गिरराज हों!"

"गिरराज तैं कल से ऊपरी काम करेगा और सेवा टहल को काम सारे जे ठाकुर करेंगे। जो सारो बमना जा लुगाइ्र के संग बैठ के रोटी बनायेगो।"

"जैसी तिहाई इच्छा होय मुखिया" बोलते हुये गिरराज पुलकित था।

"तुम सब सुनो, हम हुकम मानवे वारे को ठीक रखतु हैं। हमारे मन बड़े कर्रे हैं हम कसाई हैं पूरे।"

श्यामबाबू ने कृपाराम की बात को आगे बढ़ाया-"कसाई का, हम तो राक्षस हैं-राक्षस। जे बड़े-बड़े बाल, महिनन नो बिना नहाय-धोय के रहिबो, रात दिन देवी भवानी की पूजा और जा बंदूक भवानी को सदा को संग।"

लंबू ठाकुर ने देखा कि बागी लोग आज खुल के बात कर रहे हैं, तो हाथ जोड़ के बोला-"मुखिया, हमाये घर खबरि भेजि दो न, कै कित्ते रूपये भिजवाने हैं?"

"सबर करि प्यारे, हमे पतो है कै तू सबिसे ज़्यादा पैसे वारो है। पहले तो हम पुलस से बचके कछू दिन काउ गाँव में काड़ि लें फिर तुम्हाये घर से पैसा मंगायेंगे।" कृपाराम

डरावनी हँसी हँसके बोला था।

वे लोग खा पी कर वहीं लेट गये। लेकिन सांझ का भुकभुका फैला तो बड़ी फुर्ती से तुरंत ही उठे और वहाँ से चल पड़े। दो घंटा लगातार चलने के बाद वे लोग एक पहाड़ी के शिखर पर थे।

पोटली में रखा तह किया हुआ एक पुराना-सा तिरपाल निकाल कर बिछाया गया, फिर पहले तो सब अपहृतों को एक सांकल से आपस में बांधा गया फिर एक-एक बागी दोनों तरफ और पकड़ के लोगों को बीच में लिटाया, लेकिन केतकी अड़ गई कि वह आदमियों के बीच नहीं सोयेगी। कृपाराम ने उसे घुटनों में सिर दिये बैठा रहने दिया और श्यामबाब को बागी पहरे पर लगा दिया।

आधी रात तक अपहृतों को नींद नहीं आयी। जबकि कल की तरह बागी तुरंत ही खर्राटे भरने लगे थे।

नारी स्वर की हल्की-सी सिसकी की आवाज मिली तो गिरराज ने पट्ट से आँख खोल दी, देखा कि श्यामबाबू मौका देख कृपाराम को सोता पाकर केतकी के पास जा पहुंचा है, एक हाथ से उसने केतकी के बाल पकड़ रखे हैं जबकि दूसरे हाथ से उसने केतकी का मुंह दबा रखा है, अपना घुटना केतकी की पीठ में अड़ा कर वह उसे खडा़ करने का प्रयास कर रहा है। जब केतकी खड़ी नहीं हो सकी तो दानव से विशालकाय श्यामबाबू ने उसे खिलौने की तरह उठाया और पहाड़ी से नीचे का उतर गया। गिरराज की निगाहें उसी पर जमीं थी, वह ज़रा भी हिलता तो सांकल बज उठती सो पांव को ज्यों का त्यों छोड़ कर वह तनिक-सा उटंग हो आया। उसने अपनी संपूर्ण चेतना आँखों और कानों पर केन्द्रित कर ली। पहाड़ी की चोटी से तनिक-सा नीचे जाकर श्यामबाबू ने केतकी को जमीन पर पटक दियाथा ओर खुद अधनंगा-सा हो चुका था उसने केतकी की साड़ी खींचना शुरू किया तो केतकी फिर चीख उठी। गिरराज का खून खैाल गया, काले-बदसूरत चेचकरू चेहरे पर वाला श्यामबाबू केतकी को इस तरह दबोचे हुए था मानों किसी खूंखार बनैले सिंह के चंगुल में नन्ही-सी हिरणी फंस गई हो। ... और माहौल में केतकी की सिसकियाँ गूंज उठीं।

सुबह दातुन कुल्ला करके अजयराम ने गेंहू के कच्चे आटे में शक्कर और घी मिला के लड्डू बनाये। लल्ला ने पूछा तो श्यामबाबू ने बताया कि ये कचोंदा के लड्डू हैं।

ये थे कचोंदा के लड्डू। उन लोगों ने पहली बार देखे थे यह लड्डू। बागियो ंने पांच-पांच, सात-सात लड्डू फटकारे, फिर पकड़ के लोगों को खाने का हुकुम दिया। गिरराज और लल्ला को तो भला कच्चा आटा कहाँ से सुहाता? सो उन्होने कचोंदा खाने से मना कर दिया, ठाकुर भी नटने लगे।

उनकी देखा-देखी बाकी दोनों ने इन्कार किया तो श्यामबाबू और अजयराम बिगड़ पड़े। उन दोनों ने छहों लोगों को दो-दो लड्डू खाने को विवश किया। बाकी बचे कचोंदा को बागियों ने ही सटकाया औैैर हाथ झाड़ कर बैठ गये। अपहृतों नेे पोटलियाँ बांधी औैैैैैैर सिर पर लाद कर खड़े हो गये।

वे लोग पहाड़ी से उतरे। सामने की पंगडंडी से दूधवालों की चार-पांच साइकिलें आती दिखीं। बागी उन्हे देखकर रूके, तो दूधियों की तो हालत ही खराब हो गयी। डरते काँपते वे दूर ही रूक गये थे। श्यामबाबू ने आवाज देकर उन्हे आश्वस्त किया और हुकुम दिया कि पास में आयें और अपने केन में से दूध पिलादें, इतने में ही उनकी मुक्ति हो जायेगी।

गिरराज ने देखा कि दूध का केन खुलते ही चारो ंबागी भूखे बंगाली से टूट पड़े। कल से वे देख रहे थे कि दूध घी के लिये बागी लोग सदा ही भूखे रहते हैं।

उन सबने भी अघा के दूध पिया।

सुरपुरा घोसियों का गाँव था। गाँव में उनके आने की पहले से ही सूचना थी शायद, क्योंकि जब वे पहुंचे उनके लिये खाना बन रहा था। गाँव के स्कूल के अहाते में इकट्ठे हुए बैठे कई गाँवों के लोग उनका इंतजार कर रहे थे। कृपाराम के पहुंचने पर वे लोग बड़े खुश हुये और उनने पूरे गिरोह से भुजा भरके भेंट क्वारें की।

आराम से बैठे तो कृपाराम ने उन सबसे घर-परिवार और नाते-रिश्तेदारों की कुशल क्षेम पूछी। लग रहा था कि सुरपुरा के लोग बड़ी गहराई से जुड़े थे कृपाराम से। गाँव के पटेल ने जब कृपाराम से उसके हालचाल पूछे तो दर्प से उसका चेहरे से दर्प झलक उठा।

गर्व से उसने बताया कि बिरादरी भाइयो ंकी मदद की ही बदौलत वह आज जिन्दा और राजी-खुशी है, इस राजी-खुशी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि उसने इस बार मेन रोड पर भरी बस लूटी है। ...वह बड़ौआ जाति की छै पकड़ कर लाया है, जिनमें एक जैन समाज की औरत भी है, यह जान कर उपस्थित जन समुदाय में भारी हर्श व्याप्त हो गया, कइ्र लोग तो उठ-उठकर पकड़ के लोगों कोदेखने आने लगे जैसे वे कोई अजूबा हों।

श्यामबाबू ने हेकड़ी दिखाई, 'बिरादरी भाइयो, बड़ी लड़ाई के बाद अपना जमाना आया है, हम अब बड़ौआ जाति के साथ वह सब करेंगे, जो बरसों से उन्होने हमारे साथ किया। आगे देखना हम क्या-क्या करते हैं!'

सभा में तालियाँ बजीं। उपस्थित लोगों के चेहरे पर कृपाराम गिरोह के लिए सराहना भाव था। समाज का गौरव था उनके लिए कृपाराम।

वे लोग जब बिस्तरों पर पहुंचे, रात के तीन बज चुके थे। केतकी के चेहरे पर छाई कातरता और ज़्यादा गहरा गई थी। उस रात कालीचरण बैठा था पहरे पर, ...और उस रात भी नाजुक और कमसिन केतकी की दुर्गत हुई. पहली दूसरी रात की तरह उस रात भी उसका बदन रोंदा गया, नोंचा गया बल्कि कई जगह से दांतों से काटा भी गया। हर रात की तरह गिरराज ने कनखियो ंसे उस नरपशु की भोंडी और अश्लील हरकतें देख कर म नहीं मन थू-थू की।

भोर हुई और पंछी चह चहाने लगे तो पुलिस दारोगा रघुवंशी ने आवाज देकर सबको जगाया। गिरराज जो अभी-अभी सोया था मजबूरी में उठ कर बैठ गया। पुलिस बल के लोग जब कसरत कर रहे थे, तब पुलिस टुकड़ी के वास्ते चाय का बंदोबस्त करने गिरराज जनपुरा के पटेल के यहाँ बैठा था।

ए डी कंटोल रूम का निर्देश था कि अभी दो-दिन तक जनपुरा में ही हाल्ट करो, फिर नई सिचुयेसन बताई जायगी। यह संदेश सुनकर टुकड़ी के सब लोग खुश हुए, कम से कम से अब दो दिन तक खानाबदोशों जैसी ज़िन्दगी से मुक्त रहेंगे वे।

दिन में रघुवंशी ने अपना नक्शा फैलाया और गिरराज को बुलाकर नक्शे में वे स्थान चिन्हित करने को कहा, जहाँ डाकू छिपे हो सकते हैं। गिरराज ने चार दिन पहले जब डाकुओं का साथ छोड़ा था, मारबाड़ी की खिरक में थे, वे इतने दमदार हैं कि इन चार दिनों में तो डेढ़ सौ किलोमीटर तक निकल सकते हैं। वह शशोपंज में था कि कौन-सी जगह बता दे।

अटकल पच्चू उसने पुराना मढ़, ठाकुर बाबा वाला बरगद और पुराने पुल में डाकुओं के छिपे होने की शंका व्यक्त की। रघुवंशी ने वे जगहें नक्शे में लाल स्याही से प्वाइन्टेड कर लीं।

शाम को गांव के पटेल ने गम्मत का आयोजन कर लिया। गाने-बजाने में रूचि रखने वाले आठ-दस लोगों का समूह ढोलक-हारमोनियम लेकर आ गया था फिर सूने पड़े स्कूल के कैम्पस में लोकगीतों का ऐसा मादक स्वर गंूजना आरंभ हुआ कि सब लोग मस्त हो गये। अपनीे मन की मस्ती हर आदमी अलग तरह से प्रकट करने लगा तमाम पुलिसिए अपनी बन्दूक हाथ में लिए-लिए ही ठुमके लगाने लगे।

अपने बिस्तर पर लेटे गिरराज को याद आया कि डकैत भी लोकगीतों, खासकर आल्हखंड के शौकीन थे... लेकिन उस दिन उन्हे फ़िल्मी गानों का शौक चर्राया था। अपना कैसिट प्लेयर निकाल कर श्यामबाबू ने उंची आवाज में गाना बजारा चालू कर दिया था, तो मारवाडी की खिरकारी के सूने माहौल में "मेरी बेरी के बेर मत तोड़ो, नहीं ंतो कंाटा..." वाला फ़िल्मी गीत गूंज उठा था।

जान क्यों जश्न के मूड में थे उस दिन बागी, सो पूरी चार बोतल शराब मंगाई

थी और से सब के सब सुबह से ही पीने लगे थे। खिरक वाले दोनों मारवाड़ियों को मुफत की मिली सो वे भी गिलास पर गिलास गटकते जा रहे थे।

धीरे-धीरे दारू ने अपना रंग दिखाया तो वे सब बहकने लगे। तेज स्वर में चलते संगीत ने उनकी मस्ती और ज़्यादा बढ़ा दी। चारों बोतलें निपटें, तब तक वे सब नशे के शिखर पर थे। संगीत का शोर और गीत की गति लगातार गति पकड़ रही थी।

श्याम बाबू की मस्ती बढ़ी तो वह फ़िल्मी गीत की धुन पर खड़े-खड़े ही थिरकने लगा। उसे थिरकते देख अजयराम को भी मस्ती चढ़ी तो बंदूक का बट एक हाथ में और नाल दूसरे हाथ में पकड़ कर हाथ उंचे करे वह दोनों पांव पर थिरकता बीच जगह में आ खड़ा हुआ। फिर तो होड़ लग गई, चारों डाकू संगीत से एकलय होकर नाचने लगे। उधर दोनों मारवाड़ी तो इतने गाफिल थे िक वे अपनी जगह बैठे रहके आँख मंूदे-मूंदे ही दांत काड़ कर हँसते हुए अपने कंधे मटका कर अजीब-अजीब मुद्रायें बना रहे थे।

कालीचरण डांस करते-करते रूका और तीर कीसी तेजी से पकड़ के लोगों की तरफ लपका। पुरूशों की ओट में अपने मटमैले बालों का जूड़ा बांधती, मर्दाना कपड़े पहने बैठी केतकी के पास आकर वह बोला, ' आ जा रानी डांस कर ले! "

केतकी की आँखों में गहरा शून्य पसरा था, उसने एक बार कालीचरण को फिर गिरराज को देखा। गिरराज ने संकेत किया कि इनकी बात नहीं मानोगी तो और ज़्यादा जलील करेंगे ये, इसलिए उठ जाओ चुपचाप।

कालीचरण ने केतकी को नाचते डाकुओं के बीच में ले जाकर खड़ा तो कर दिया, लेकिन केतकी को तो डांस ही करना नहीं आता था, वह किस तरह नच पाती सो स्थिर खड़ी रही। यह देख श्यामबाबू चीखा-नचती काहे नई है री लोंडिया़?

बेवश निगाहों से केतकी ने उसकी ओर ताका और स्थिर ही खड़ी रही। फिर क्या था, श्यामबाबू का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहु्रचा। उसने एक जोरदार रहपट केतकी के गाल पर जड़ दिया जिसकी वजह से केतकी भहराकर जमीन पर गिर पड़ी। शुरू से ही गिरराज देख रहा था कि केतकी न खाना खाती है, न पानी पीती है, रात-दिन जाने क्या सोचती रहती है और उसका बदन लगातार कमजोर हो कर पीला पड़ता जा रहा हैं, वह श्यामबाबू जैसे आदमी क भारी भरकम थप्पड़ खाकर भला कैसे स्थिर रह सकती थी।

कृपाराम को यू ंतो ज़्यादा गुस्सा नहीं आता था, लेकिन दारू उस वक्त उसके मगज पर चढ़ चुकी थी सो उसने मटकते-मटकते ही केतकी का हाथ पकड़ और उसे उठाकर खड़ा कर दिया फिर उसके हाथ अपने हाथों मंें लेकर उसे नचाने का यत्न करने लगा। लेकिन केतकी तो अब भी एक लाश की मानिंद खड़ी थी। श्यामबाबू को फिर गुस्सा आ गया, 'बहुत दिमाग सड़ गये हैं इस हराम जादी के! चलो जा द्रोपदी को चीर हरण कर डारो। ...फार डार ने कालीचरण, जा के सिग कपड़ा, फिर देखें जा नचत कै नहीं!'

केतकी स्तब्ध थी। उसे काटो तो खून नहीं।

नचना बंद कर उसने केतकी की कमीज का गिरेबान पकड़ा और खीचने लगा, केतकी अपना गिरेबान छुड़ाते हुए हाथ-पांव फेंकने लगी, लेकिन अजय ने आकर उसे पीछे से पकड़ लिया तो वह शिथिल हो गई. उसे शिथिल देख अजय ने उसे छोड़ दिया लेकिन अट्टहास करते कालीचरण ने चिर्रर से उसकी कमीज का अगला हिस्सा नोंच डाला था जिससे केतकी गले से नीचे तक नग्न होती चली गई थी और उसका गोरे बदन की झलक पा नशे में झूमते डाकू उन्माद से भर के उत्तेजक ढंग से चीत्कार कर उठे थे। गिरराज और उसके साथियो ंकी लाज के मारे नजरें ही झुक गईं।

पता नहीं केतकी को कैसे मौका मिला तो उसने उसी दशा में बागियो ंके बीच से जगह बनाकर तेज गति से दौड़ लगा दी, ... डाकू जब तक संभलें, वह खिरक की दीवार लांघ चुकी थी। उसने पेड़ों के झुरमुट की तरफ जाती पगडंडी पकड़ ली थी।

वे छहों लोग चेते और चीतों के झुण्ड की-सी फुर्ती से वे सब केतकी के पीछे लपक लिए. झुरमुट में गुम होने से पहले ही उन नरपशुओं ने केतकी को पकड़ लिया था और छहोें उस पर झु क गए थे। लातों और घूंसों से पिटती केतकी की लम्बी चीखें जिबह होते बकरे की तरह माहौल में गूंजने लगी थीं तो गिरराज का मन फड़फड़ा उठा था।

मंूछ वाले ठाकुर ने सहसा गिरराज को चेताया, 'ये ई मौका है लाला, अब भाग निकलो।'

स्तब्ध गिरराज ने पाया कि पकड़ के चारों लोग दबे पांव दौड़ पड़े हैं, तब वह भी अपने दिल पर भारी बोझ लिए अपनी जान बचाने की गरज से असमंजस की हालत में दौड़ता चला गया।

मगर केतकी का वह दर्दनाक स्वर उसके कानों में देर तक गूंजता रहा... और आज भी वे कराहें उसका पीछा कर रही हैं।

लौट कर गिरराज और लल्ला अपने गाँव आये तो चारों ओर हल्ला हो गया था। पुलिस कप्तान ने उन दोनों को अगले ही दिन अपने पास बुला भेजा था। वे चाहते थे कि दोनों जन पुलिस की मदद करें, कृपाराम घोसी की तलाश में बीहड़ों में उतारी जा रही सोलह टीमों में से किसी एक में गाइड बन कर वे सम्मिलित हो जायें।

उन निर्मम डाकुओं को कड़ी से कड़ी सजा देना चाहते थे वे और यह मौका अनायास हाथ आ गया था सो बिना सोचे वे तत्काल इस टीम नम्बर सोलह में सम्मिलित हो गये थे और केतकी के प्रति किए गये अपराध के प्रायश्चित के वास्ते ही खिरक के आसपास के इलाके में अपनी टीम के साथ सर्च कर रहे हैं।

रात एक बजा था जब वायरलेस सेट पर बीप आने लगी।

दारोगा रघुवंशी समेत सब लोगों की नींद टूट गई. रघुवंशी ने हैड-फोन उठा कर कंटोल रूम से संपर्क किया। पता चला कि टीम नम्बर पन्द्रह ने खिरक से आधा किलोमीटर दूर बने पुराने मठ के खंडहरों में कृपाराम घोसी गिराह को घेर रखा है और मुठभेड़ जारी है। रघुवंशी समेत आस पास की सब टीमों का हुक्म था िकवे बिना देर किये मुठभेड़ वाली जगह पहुंचें।

रघुवंशी बौखला गया, हम ताकते रह गये और टीम नम्बर पन्द्रह ने टारगेट को घेर तक लिया। वह चीखा, 'सब लोग तैयार हो जाओ, जल्दी!'

गिरराज को औचक ही आशा बंधी कि अब केतकी छूट जायेगी।

किन्तु वे लोग जब पुराने मठ पर पहुंचे वहाँ सन्नाटा पसरा था। वे सब असमंजस में रह गये। रघुवंशी ने वायरलेस पर टीम नम्बर पन्द्रह के इंजार्ज से बात की तो पता लगा कि मठ के तीन ओर जंगल हैं और चौथी तरफ है गहरी नदी। उनकी टीम ने सौ मीटर दूर से मठ को तीन ओर से घेर रखा है और अभी आधा घण्टा पहले गोलीबारी बंद हुई है भीतर खंण्डहरो से, डाकुओं के पास या तो कारतूस खत्म हो गये हैं या फिर वे सब के सब मारे गये हैं। रघुवंशी ने और देर करने के बजाय सीधे अटैक के लिए मठ को घेरते हुए आगे बढ़ने का आदेशात्मक प्रस्ताव रखा।

रोशनी फैलाने वाले कारतूस चला कर उसके उजाले में टीम नम्बर पन्द्रह और सोलह के जवान जमीन पर लेट कर कोहनियों और घुटनों के बल क्रोलिंग करते हुए आगे बढ़ने लगे।

दूर से पुराना मठ निर्जन दिख रहा था फिर भी यदा-कदा गोली चला कर पुलिस बल अपनी उपस्थिति जताने के साथ-साथ असलियत का जायजा ले रहा था।

अब वे मठ के बिलकुल करीब थे-बस दस मीटर दूर।

काफी देर तक वे इंतजार करते हुए लेटे रहे, रघुवंशी ने एक हथगोला लिया और भीतर मठ में उछाल दिया। एक जोरदार धमाका हुआ तो खण्डहर की दीवारों का मलबा उछलकर जवानों तक आकर गिरा। लेकिन भीतर से कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। वे लोग बड़े इंतजार के बाद सतर्क होकर उठे और ट्रिगर पर उंगलियाँ थामें अपनी गन सामने किये एक-एक करके आहिस्ता से मठ में दाखिल हो कर चप्पे-चप्पे पर छा गये और इंच-इंच जगह की तलाशी लेने लगे। अखीर मेें अंदर पहुंचे गिरराज ने पाया कि छत हीन मठ की दीवारें लगभग गिर चुकी हैं वहाँ सिर्फ़ एक बड़े से हाल के अवशेश सामने हैं और मठ पूरी तरह सूना पड़ा है। गिरराज को लगा कि कृपाराम केतकी को लेकर फिर भाग निकला, यकवयक उसे अपने अवचेतन मन में बसी सहायता के लिए पुकारती केतकी की बेवश चीखें फिर सुनाई देने लगीं, वह घबरा उठा।

एकाएक रघुवंशी चीखा, 'वहाँ देखो सब, पेड़ के नीचे! उधर कोई पड़ा है शायद!'

एक साथ कई टॉर्च की रोशनी उधर फिंकी तो सचमुच पेड़ के नीचे खाकी वरदी पहने एक मानव देह लेटी हुई दिखी।

वे सतर्क हो कर सधे कदमों से आगे बढ़े, मगर उस मानव देह में कोई हरकत शेश नहीं थी।

दुस्साहसी रघुवंशी दांये हाथ में पिस्तौल ताने उसके बिलकुल निकट पहुंच गया तो गिरराज का कलेजा काँप उठा। पीछे से बाकी सब हिचकते से आगे बढ़े। धूल से सने बड़े बाल छितराये उल्टे लेटे उस मानव शरीर की पूरी पीठ खून से लथपथ थी, जिससे उसकी कमीज और पैन्ट लाल हो चुकी थी। लग रहा था कि प्राण बाकी नहीं है उस देह में।

रघुवंशी ने बूट के जोर से उस देह को सीधा किया। ...

गिरराज गश खा गया-वह केतकी थी।

डाकू फिर हाथ से निकल गये थे। रघुवंशी ने चैन की सांस ली-अभी पंच लाख का ईनाम हाथ से निकला नहीं है।

किन्तु अचेत गिरराज के लिए तो मुहिम खत्म हो चुकी थी।