मुखौटा / सुधांशु गुप्त

Gadya Kosh से
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यह नवंबर का एक उदास-सा दिन है। आसमान एकदम शांत है। सड़क पर धूप और छाया का खेल-सा चल रहा है। कहीं धूप दिखाई पड़ती है तो कहीं छाया। धूप ना अच्छी लग रही है ना बुरी। कुछ फुटकर दुकानें खुली हैं। दुकानों पर ना सामान बेचने वाले नज़र आ रहे हैं, ना खरीदने वाले। लगता है मानो सारे लोग किसी यातना शिविर में चले गये हैं। लेकिन वह है। यातना शिविर से बाहर! परिधि पर। वह सड़क पर चल रहा है, एकदम अकेला। इतनी खाली सड़क उसने पहले कभी नहीं देखी। कोई इक्का- दुक्का आदमी ही काफी-काफी देर बाद दिखाई दे जाता है। वह कुछ सोचता हुआ जा रहा है। कहां? पता नहीं।

लेकिन वह सोच रहा है कि शायद कोई जान-पहचान का व्यक्ति उसे मिल जाएगा। बल्कि उसकी दिली इच्छा है कि कोई जान पहचान का आदमी मिल ही जाए। आज किसी जान-पहचान के व्यक्ति से मिलने का बड़ा मन हो रहा है। लेकिन दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं पड़ रहा। वह और भी पता नहीं क्या-क्या सोच रहा है। सोच में ही पता नहीं वह कहां पहुंच गया। वह यह भी भूल गया कि वह सड़क पर है। लेकिन वह सड़क पर ही है। उसकी आंखें सड़क पर हैं। उसे लग रहा है कि इसी सड़क से कोई आदमी निकलेगा। जान-पहचान का आदमी। उससे वह देर तक बातें करेगा। आज किसी से बात करने का बड़ा मन है। लेकिन सड़क से कोई आदमी नहीं निकल रहा। हां, दूसरी तरफ़ से आकर एक व्यक्ति अचानक उसके सामने खड़ा हो गया है। शायद जान-पहचान का आदमी हो! इसीलिए उसके पास आकर रुका है। वह उसकी तरफ ध्यान से देखता है।

उसे वह कुछ अजीब-सा लग रहा है। उसने चेहरे पर एक मुखौटा लगा रखा है। चश्मे की तरह यह मुखौटा कानों के पीछे दो डोरियों की मदद से चेहरे पर टिका है। सफेद रंग के इस मुखौटे के बीच में कुछ काली धारियां हैं। मुंह वाले हिस्से पर एक फूल बना है। लाल रंग का। फूल से ही अंदाजा लग रहा है कि यहां इसका मुंह होना चाहिए। मुंह तो अपनी जगह पर ही होगा। मुखौटा मुंह की लोकेशन थोड़ी बदल देगा। उसने मुखौटे के पीछे छिपे उसके होंठों, गाल और ठोढ़ी को पहचानने की कोशिश की है। लेकिन कुछ समय नहीं आ रहा। मुखौटा चेहरे, नाक और गालों को पूरी तरह ढंके हुए है। केवल आंखें दिखाई दे रही हैं।

उसने ध्यान से देखा, मुखौटे की नाक काफी आगे को निकली हुई है। ठीक वैसे ही जैसे प्लेग के समय डॉक्टरों के मुखौटों की नाक काफी आगे निकली होती थी। तो क्या यह डॉक्टर है! नहीं, यह डॉक्टर नहीं हो सकता! उसने फिर से उसे देखा। उसका मन किया कि वह उसके चेहरे पर लगे मुखौटे को खींच कर नीचे गिरा दे। उसका असली चेहरा देख ले। वह उसकी असली शक्ल देखना चाहता है। शक्ल देखे बिना यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि यह कौन है। उसने सोचा, कोई ना कोई दोस्त ही होगा, अन्यथा इस तरह उसके सामने आकर खड़ा नहीं होता। वह सोचने लगा कि यह कौन हो सकता है। उसे कुछ याद नहीं आया। कई दोस्तों के नाम उसके ज़हन में आए। लेकिन वे नाम उसने मन में ही रखे। मुखौटे वाले के सामने कोई नाम नहीं लिया। वह अपनी ही सोच में डूबा था। पता नहीं किस सोच में।

अचानक मुखौटे वाले ने उससे पूछा, ‘क्या हाल हैं।’

उसने मुखौटे वाला का सवाल शायद सुना ही नहीं। वह अपने में ही डूबा रहा। मुखौटे को देखता रहा।

फिर पूछा, ‘तुमने मुखौटा क्यों लगा रखा है...’

‘मैं जीना चाहता हूं..’

‘मुखौटे के बिना नहीं जी सकते...’

‘मुखौटे के बिना जीना संभव नहीं है...’

‘क्यों...’

वह मुखौटे के पीछे से शायद हंसा। कहा, ‘मेरी शक्ल बहुत डरावनी है...देखोगे तो डर जाओगे...इसलिए मुखौटा लगा रखा है...जीने का यही तरीका रास आ रहा है...कोई पहचान भी नहीं पाता...’

उसे पता नहीं चला कि मुखौटे वाला कौन है और उससे क्यों बात कर रहा है। तो क्या उसने इसलिए मुखौटा लगा रखा है कि वह उसे ना पहचान सके। सचमुच वह उसे नहीं पहचान पाया। बस, उसने मान लिया कि वह कोई जान-पहचान का ही होगा, अन्यथा कौन किससे बात करता है। उसने पाया कि जान-पहचान के किसी आदमी से मिलने की उसकी इच्छा लगभग खत्म हो गई है। उसका मन हुआ कि पूछे तुम कौन हो।

लेकिन इससे पहले ही मुखौटा वाला बोल पड़ा, ‘तुमने मुखौटा क्यों नहीं लगा रखा...’

‘मैं जीना नहीं चाहता...’

इसके बाद मुखौटा वाला एक पल भी नहीं रुका। तेज कदमों से आगे बढ़ गया। वह उसे जाते हुए देखता रहा। पीछे से उसका मुखौटा दिखाई नहीं दे रहा था। उसे लगा वह नाराज़ होकर चला गया है। लेकिन अजनबी लोगों से कैसी नाराज़गी! वह तो उसे पहचान ही नहीं पाया। हो सकता है मुखौटे वाला उसे पहचान गया हो। लेकिन मुखौटे वाला अचानक चला क्यों गया? क्या उसने कुछ ग़लत बात कह दी। वह जीना चाहता है, इसलिए उसने मुखौटा पहन रखा है, लेकिन जो जीना नहीं चाहता....!

उसका अब कहीं जाने का मन नहीं किया। वह वापस लौटने लगा। घर की तरफ़। रास्ते में उसे बहुत से मुखौटे दिखाई दिए। काले रंग का, जिसपर सफेद चकत्ते-से बने हुए थे, मुंह की जगह लाल रंग से मुंह बनाया गया था....एक मुखौटा सफेद था, उस पर जयिमितीय आकृतियां बनी थीं...कई मुखौटे ऐसे थे जिनसे डर-सा लग रहा था...एक मुखौटा मिला...यह मेहरून रंग का था, इस पर अलग- अलग रंगों से धारियां बनी हुई थीं, नाक वाला हिस्सा थोड़ा आगे को निकला हुआ था, ये आंखों के बिल्कुल नीचे तक पहुंच रहा था, पहनने वाले की सिर्फ आँखें ही दिखाई दे रही थीं...एक मुखौटे वाले ने सिर के ऊपर मंकी कैप पहन रखी थी, कैप और मुखौटा एक-दूसरे से मिल गए थे...लड़कियां मुखौटे के साथ सिर पर दुपट्टा ढंके थीं, उनके मुखौटे पुरुषों के मुखौटों से ज्यादा आकर्षक थे...शायद डिजाइनर मुखौटे होंगे...सड़क पर कुछ बच्चे भी दिखाई दिए...आश्चर्य की बात यह थी कि बच्चों ने भी मुखौटे पहन रखे थे...मासूम चेहरों पर मुखौटे अजीब लग रहे थे...लेकिन अच्छी बात यह थी कि ये मुखौटे उनकी मासूमियत को ढंक नहीं पा रहे थे...मां बाप शायद बच्चों को अभी से मुखौटों का अभ्यास कर रहे हैं...आखिर जीना तो सबको है...बच्चों को भी...। वह घर आ गया। सोचने लगा। कब पहली बार उसने किसी को मुखौटा पहने देखा था....।

उस समय वह दस बारह साल का रहा होगा। खुले मैदान में रामलीला होती थी। सब बच्चे दरी लेकर रामलीला शुरू होने से पहले ही आगे की जगह घेर लेते थे, ताकि करीब से रामलीला देखी जा सके। अन्य बच्चों के साथ वह भी यही करता था। उस दिन कुंभकरण को जगाए जाने का दृश्य होना था। मंच पर कुम्भकरण को जगाने के लिए काफी बच्चे इकट्ठे हुए थे। सबने मुखौटे पहन रखे थे। ऐसे मुखौटे जिनसे लगे कि वे रावण की सेना के हैं। पता नहीं ये मुखौटे किस चीज के बने थे। लेकिन इनके ऊपर बड़ी-बड़ी मूछें थीं, रंगों का भरपूर इस्तेमाल किया गया था। खासतौर पर काले रंग का। ये मुखौटे डर पैदा नहीं कर रहे थे, बल्कि हास्य पैदा कर रहे थे। एक अच्छी बात यह थी कि मुखौटों के बावजूद बच्चों को पहचाना जा सकता था। मंच से बाहर बैठे हम बच्चे उन्हें पहचान रहे थे...उनका नाम ले लेकर पुकार रहे थे....बंटी...बिट्टू...राजू...बच्चे बेशक मंच पर अभिनय कर रहे थे। लेकिन वह दर्शकों की आवाजों को पहचान लेते थे। अभिनय भी उनकी वास्तविक पहचान को छिपा नहीं पाता था। हनुमान की सेना में भी कई लोग ऐसे थे जो मुखौटे पहने हुए थे, ये मुखौटे उन्हें वानर का रूप दे रहे थे। रावण की सेना में भी अनेक योद्धाओं ने मुखौटे लगा रखे थे। ये मुखौटे उन्हें राक्षस घोषित कर रहे थे। लेकिन देखने वाले सभी जानते थे कि ये मुखौटे लगाए कॉलोनी के ही बच्चे, किशोर या युवा हैं। ये वास्तव में राक्षस नहीं हैं। यह वह समय था जब मुखौटे महज मनोरंजन का काम किया करते थे।

मनोरंजन का वह समय ख़त्म हो गया। वह बच्चा नहीं रहा। अब रामलीला देखने में भी रुचि ख़त्म हो गई। लेकिन मुखौटों से उसका वास्ता पड़ता रहा। रंगमंच में उसकी रुचि थी। वह कई नाटक देखा करता था। कई बार नाटक में किसी किरदार को रूप बदलने के लिए मुखौटा पहनना पड़ता था। उसे याद है एक बार ऐसा भी हुआ था कि वह कोई नाटक देख रहा था। शायद गिरीश कर्नाड का लिखा नाटक था। उसमें एक अभिनेता को किसी और का किरदार निभाने के लिए उसका मुखौटा पहनना पड़ा। बाद में वह यह भूल गया कि वह मुखौटा पहन कर किसी और का किरदार निभा रहा है। उसे अपने मूल स्वरूप में लौटने में काफी वक्त लगा। धीरे-धीरे वह समझ गया था कि मुखौटे रूप बदलने के काम आते हैं। कभी रूप बदल कर दर्शकों का मनोरंजन किया जाता है, कभी उन्हें डराया जाता है। कई बार स्वयं को कोई और रूप देने के लिए मुखौटा इस्तेमाल किया जाता है।

उसकी पत्नी को इस तरह के खेल बहुत पसंद आते हैं। उसकी नयी-नयी शादी हुई थी। छोटे से घर में सिर्फ पति-पत्नी रहते थे। एक शाम वह घर लौटा। घर खुला हुआ था। उसने देखा पत्नी कहीं नज़र नहीं आई। वह हर कमरे में पत्नी को तलाश करता रहा। लेकिन पत्नी कहीं दिखाई नहीं दी। उसने सोचा, घर खुला छोड़कर पत्नी कहां जा सकती है? वह फिर इधर-उधर देखने लगा। लेकिन पत्नी कहीं नहीं थी। उसके मन में अजीब-सा डर भी पैदा हुआ। फिर उसने सोचा कहां जाएगी, आसपास कहीं गई होगी, आ जाएगी अभी। वह डबलबेड पर बैठ गया। अचानक पत्नी लोहे की अलमारी के पास बनी थोड़ी-सी जगह से बाहर आ गई। पत्नी ने चेहरे को अलग-अलग रंगों से रंग रखा था। माथे पर तीन रेखाएं थीं। गालों पर सितारे बने हुए थे। सब कुछ मिलकर उसके चेहरे पर एक मुखौटा बना रहे थे। एकबारगी उसे लगा कि यह उसकी पत्नी नहीं है, नहीं हो सकती, वह बुरी तरह डर गया। लेकिन पत्नी खिलखिलाकर हंस पड़ी। पत्नी ने कहा, ‘डर गए ना...।’

उसने कहा, ‘हां डर तो सचमुच गया था...लेकिन तुम्हें ये क्या सूझी...’

पत्नी एकदम सहज थी। उसने कहा, ‘मैं रोज़-रोज़ के अपने ही चेहरे से थक गई थी, तो मैंने अपने चेहरे पर मैक अप से एक और चेहरा बना लिया....’

वह अब भी पत्नी के चेहरे को देख रहा था। पत्नी ने अपने मूल चेहरे को रंगों से पूरी तरह ढँक लिया था। कहीं लाल रंग पुता था तो कहीं नीला। लाल रंग पर उसने कुछ सितारे से बना रखे थे। वह कहीं से भी इस लोक की स्त्री नहीं लग रही थी। उसने कहा, ‘आज तो यह मज़ाक कर लिया लेकिन दोबारा ऐसा मज़ाक मत करना...’

पत्नी ने उसी शरारत से कहा, ‘नहीं करूँगी, लेकिन सच बताना आप डर गए थे ना...’

‘हाँ, डर तो गया था, लेकिन मैं तुम्हारे साथ डरकर नहीं जीना चाहता...’

इसके बाद पत्नी ने कभी इस मज़ाक को नहीं दोहराया ।

लेकिन अब...अब कोई विकल्प नहीं है !

वह अपने कमरे में बैठा है। अचानक पत्नी अन्दर आई । उसने काले रंग का गाउन पहन रखा है । चेहरे पर मुखौटा है । काले रंग का। काफ़ी बड़ा । बाल खुले हुए हैं । रात के समय कोई बच्चा देख ले तो डर सकता है । लेकिन वह डरा नहीं । अब वह मुखौटे में भी पत्नी को पहचानने लगा है । शायद अब वह दूसरे लोगों को भी मुखौटों में पहचान पाए ।

‘नीचे जाना है क्या?’ पत्नी ने पूछा ।

‘कुछ काम है?’

‘अगर जाओ तो ये दो दवाएँ ले आना...’ पत्नी ने उसके हाथ में डॉक्टर का लिखा एक पर्चा पकड़ा दिया।

उसने पर्चे को देखा और घर से बाहर निकल गया।

सड़क पर अब भी लोग कम थे। जितने थे वे सब मुखौटे पहने हुए थे। उसे अजीब-सा लगा। अब उसे मुखौटे वाले लोगों को देखकर डर नहीं लगा। उसे लगा कि वह भी मुखौटे देखने का अभयस्त हो चुका है। हो रहा है। यह भी सम्भव है कि अगर अब कोई मुखौटा वाला उसे मिल जाए तो वह उसे पहचान ले। वह ख़रामा-ख़रामा केमिस्ट की दुकान पर पहुँच गया। दुकान पर इक्का-दुक्का आदमी ही दवाइयाँ खरीद रहा था। अधिकांश लोग मुखौटे ख़रीद रहे थे। कैमिस्ट ने दुकान पर एक और लड़का रख लिया था। वह ग्राहकों को मुखौटे दिखा रहा था। वह अलग-अलग रंगों और डिजाइन के मुखौटे निकालता और ग्राहकों को दिखाता जाता। आश्चर्य की बात यह थी कि मुखौटे दिखाने वाले इस लड़के ने भी मुखौटा पहन रखा था। मुखौटा देखने वालों में अधिकांश महिलाएँ थीं। प्रौढ़ महिलाएँ। महिलाएँ कई मुखौटे देखने के बाद एक या दो मुखौटे चुन रही थीं। ऐसा लग रहा था कि महिलाएँ घर के अन्य सदस्यों के लिए भी मुखौटे खरीद रही हैं। वह भी मुखौटों को ही देख रहा है। अचानक उसकी नज़र एक मुखौटे पर पड़ी। वह आसमानी रंग का था। बिल्कुल सादा-सा। लग ही नहीं रहा था कि वह मुखौटा है। पूरे मुखौटे पर कोई चित्रकारी नहीं थी। ना ही उस पर किसी अन्य रंग का प्रयोग किया गया था। पता नहीं उसे क्या हुआ। उसने इस मुखौटे के दाम पूछे। मुखौटे बेच रहे लड़के ने कहा, पचास रुपए।

उसने एक पल भी नहीं गँवाया। उसे लगा कि कहीं इसे भी कोई और ना ख़रीद ले। उसने मुखौटा अपने लिए चुन लिया। दवाई देने वाले लड़के को पर्चा दिया और दवाई देने के लिए कहा। लड़के ने दवा दे दी और पैसे काट कर वापस कर दिए। दवाई उसने एक पॉलीथिन में डाल दी। उसे ख़ुशी हुई कि उसे मनपसन्द मुखौटा मिल गया है। उसने दुकान से थोड़ा आगे बढ़कर मुखौटा पहन लिया। भीतर से उसे अच्छा लगा। यह भी अच्छा लगा कि अब उसे कोई नहीं पहचान पाएगा। उसने पाया कि मुखौटा पहनने के बाद उसकी चाल में आत्मविश्वास आ गया है। वह सधे हुए क़दमों से चलने लगा। आसपास के सभी लोग मुखौटे पहने हुए थे। अच्छी बात यह थी कि वह कई लोगों को पहचान भी पा रहा था। उसने बिल्कुल पड़ोस में रहने वाली जैन साहब की पत्नी को देखा। उसने भी मुखौटा पहन रखा था। लेकिन वह उन्हें फौरन पहचान गया। घर में आने वाली ‘मेड’ भी उसे दिखाई दी। वह उसे भी पहचान गया। उसने सोचा चलो, ‘पहचान का संकट’ तो खत्म हुआ। अब वह हर व्यक्ति को पहचान लेगा। कितना अच्छा हो उस दिन मिला अजनबी (जो शायद दोस्त भी हो सकता है) दोबारा मिल जाए। वह सोचने लगा कि वह घर पर जाकर पत्नी को डरा सकता है। पत्नी भी चौंक जाएगी उसे मुखौटे में देखकर। लेकिन यदि पत्नी ही उसे नहीं पहचान पाई तो! नहीं...नहीं पत्नी उसे ज़रूर पहचान लेगी। स्त्रियाँ इस मामले में ज़्यादा समझदार होती हैं। पहचान को लेकर वे कभी भ्रमित नहीं होतीं। उसे यह देखकर भी ख़ुशी होगी कि अब वह भी जाना चाहता है। वह तेज़ क़दमों से घर की तरफ़ चलने लगा।

कुछ ही क़दम चला होगा कि सामने से आता उसे एक मुखौटा दिखाई दिया। उसने ग़ौर से देखा। हाँ, बिल्कुल वही मुखौटा है। उस दिन भी इसने यही मुखौटा पहन रखा था। सफ़ेद रंग का मुखौटा, काली धारियाँ और मुंह वाले हिस्से पर बना एक फूल। वह इसे देखते ही पहचान गया। ये तो रमेश है। कॉलोनी में ही रहता है। अक्सर मिलता रहता है। उसने रमेश को आवाज़ दी...रमेश ओ रमेश। मुखौटे ने उसकी ओर देखा। वह क़रीब आ गया।

उसने पूछा, ‘कहाँ घूम रहे हो ...।’

उसने जवाब दिया, ‘बस ऐसे ही टहल रहा हूँ...।’ लेकिन उसकी आँखों में पहचान का कोई चिह्न दिखाई नहीं दिया ।

दोनों कुछ पल चुपचाप खड़े रहे। उसे बड़ा अजीब लगा कि उस दिन वह रमेश को नहीं पहचान पाया था और आज, रमेश उसे नहीं पहचान रहा ।

उसने ही पहल की, ‘अरे मैं राहुल, पहचाना नहीं क्या, उस दिन मिले थे ना तुम ...। ’

उसकी आंखों में आश्वस्ति के भाव उतरे। उसने कहा, ‘उस दिन तुमने मुखौटा नहीं पहन रखा था ना...तुमने तो कहा था कि तुम जीना नहीं चाहते ...।’

उसने मुखौटे के भीतर से ही हंसने की कोशिश की। कहा, ‘अब मैं जीना चाहता हूं...चाहता हूं कि मैं भी दूसरों की तरह ही मुखौटे में रहूँ और लोग मुझे पहचान ना पाएँ ....। ’

रमेश चला गया और वह घर आ गया ।