मुट्ठी भर उजियारा / उषा राजे सक्सेना

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुबह की सफेदी में अभी भी रात की श्यामलता थी। धुंध की हल्की सी परत वातावरण को बोझिल बना रही थी। बस अभी सुबह होने वाली थी। पूर्व की ओर आसमान में लाल रंग धीरे धीरे फैल रहा था। शन्नो ने जाली का पर्दा हटा कर देखा। सूरज निकलेगा उसने सोचा।

तभी उसकी आँख सडक़ पार फैन्स पर बैठी लंबी पूंछ वाली काली टैबी कैट पर जा कर अटक गई। टेबी कैट किसी मुग्धा की भांति उगते सूरज को निहार रही थी, बिलकुल शांत, ध्यान मग्न मानो सूर्य देवता की आराधना कर रही हो। उसकी लम्बी काली पूंछ दीवार की इस तरफ लटक रही थी। सुबह की सफेदी और सूरज की फैलती लालिमा के बीच, सिलुएट बनी बिल्ली उसे रहस्यमयी लगी। तभी ग्रे यूनिफार्म पहने एक स्मार्ट लडक़ा कंधे पर बैग टांगे आया। सुख से बैठी बिल्ली की पूंछ बिलावजह झटके से खींच दी। बिल्ली एक दर्द भरे म्याऊँ के साथ पेवमेन्ट पर गिरी। बिल्ली भयभीत, बदहवास सडक़ पर भागने की कोशिश में तेजी से आती लॉरी के नीचे से जान बचा बेतहाशा भाग रही है।

भाग तो शन्नो भी रही है और बेतहाशा भाग रही है।

शन्नो के अंग अंग में वेदना की लहरें मरोड लेने लगीं। जख्मों पर पडे ख़ुरंट उखडने लगे। विधवा, बीमार सास और दो बच्चों के साथ उसे छोड सुभाष एक दिन चुपचाप भाग गया। पाँच साल उसने उनकी कोई खोज खबर नहीं ली। तीन महीने बाद बच्चों की सालाना फीस जमा करने जब बैंक से रूपये निकालने गई तो पाया सुभाष खाता झाड पौंछ गया था। इस बीच सास उसे खूब जली कटी सुनाती रही। हमेशा अपने भगोडे बेटे को बेकसूर और उसे कसूरवार ठहराया। हालांकि वह जानती थी कि उसका बेटा हद दर्जे का खुदगर्ज़ रहा है। पहले भी उसने उन्हें कम दुख नहीं दिये। किशोरावस्था में एक बार देशाटन के लिये उनके कंगन ले उडा था। न चिट्ठी न पत्री रोते रोते उनकी आँखोंमें रोहे उभर आए थे। दो साल बाद आया तो जैसे कुछ हुआ ही नहीं। चाँद से बेटे को सही सलामत देख, सारे दु:ख दर्द भूल गई। फटाफट रामकली की सुन्दरी भतीजी शन्नो से ब्याह दिया। सोचा नकेल पडते ही लडक़ा सुधर जायेगा।

सुभाष सुधरने के लिये इस धरती पर नहीं आया था। काम धाम कुछ नहीं दुश्मन अनाज का। जल्दी ही दो जुडवां बच्चों को बीवी की कोख में डाल दिया। मन वही का वही बनजारा। वह कब रुकने लगा। कपडों की आलमारी में एक नोट छोड ग़या विदेश जा रहा हूँ बस। शन्नो को काठ मार गया। अडोस पडोस वालों ने शन्नो के सामने सुभाष की जन्म पत्री बांच दी। शन्नो ने माथा पीट लिया। शन्नो की सास ने बेटे को तो दोष नहीं दिया उलटे बहू को ही कोसने लगी, मरी अगर उसको खुश रखती तो भला वह छोड क़र ही क्यों जाता? दान दहेज का मोह छोड,ख़ूबसूरती देख सिर्फ दो जोडे में ब्याह लाई थी। पास पडौसमें घर की बेइज्ज़ती न हो इसलिये शन्नो चुप लगा जाती। बुढिया बेटे के इंतजार में एक दिन सुबह सुबह सूर्य को अर्ध्य देते देते छत से जो गिरी तो फिर उठ ही नहीं पाई।

सास के क्रिया कर्म में काफी रुपया पैसा खर्च हो गया। हाथ खाली पा शन्नो बौखला गई। किरायेदार ने किराया बढाने से साफ इनकार कर दिया। बचत के नाम पर बैंक में दस हजार की एफ डी आर बस। इन पैसों में अब काम चलने वाला नहीं, शन्नो ने सोचा। घर से जरा दूर आर्य समाज कन्या पाठशाला थी। उसी में नौकरी पाने के लिये एक दिन वह स्कूल के संस्थापक आनन्द बाबू के घर गई।

गोरी चिकनी शन्नो की लम्बी काठी, सुगठित देह और लाचारगी आनन्द बाबू से देखी न गई। उसके अस्तव्यस्त जीवन को संवारने के लिये उन्होंने उसके घर आना जाना शुरु कर दिया। व्यवहार कुशल आनन्द बाबू जब भी घर आते बच्चों के लिये अच्छी अच्छी मिठाई और नये नये उपहार ले आते। जनम के भूखे प्यासे सोनू और मोनू के जीवन में हरियाली आ गई। आनन्द बाबू बिना किसी टेन्ट्रम के टीन एजर बच्चों के चहेते अंकल आनन्द बन गये। सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था। सोनू मोनू इंग्लिश और मैथ्स की टयूशन लेने आज़ादनगर गये हुए थे। आनन्द बाबू भी अपना काम निबटा घर जा चुके थे। शन्नो बचा हुआ खाना फ्रिज में रख कर बिस्तर की चादर बदल रही थी। तभी दरवाजे क़ी घण्टी बजी।

तकिया हाथ में लिये लिये उसने दरवाजा खोला। कोट पैन्ट पहने, कन्धे पर बैग लटकाये, सिर पर बोला हैट लगाये,मुंह में चुरुट दबाये, चमाचम जूता पहने, गोरा चिट्टा सुभाष का रूप धरे कोई अंग्रेज साहब..थोडी देर संज्ञा शून्य खडी,वह सामने खडे फ़िल्मी अदा से मुस्कुराते सुभाष को देखती रही फिर हकलाती हुई, घबराई सी बोली,”क...कौन सुभाष तुम!”

“हाँ हाँ मैं ही हूँ....मेरा भूत नहीं, छूकर देख ले। ”सुभाष ने उसके लम्बे बालों को दोनों हाथों में फंसा कर जोर से उसे अपनी ओर खींचा। फिर चेहरे, गले और गले के नीचे गदराये उभार को होंठों से रगडते हुए उसे बांहों में भर कर यहाँ वहाँ इस तरह सहलाया दबाया कि उसकी नस नस में बिजली तडक़ उठी। शन्नो को लगा कि सुभाष पहले से कहीं और गोरा, लम्बा, तंदुरुस्त और रंगीला हो गया है।

“है...है क्या करता है...बच्चे तेरह साल के हो गये हैं। तुझे शर्म नहीं आती। ”उसने उलाहना देने की कोशिश की। पर सुभाष की गर्म सांसे, चुलबुलाते हाथ, उसके बदन के हर हिस्से में घुंघरु बजाने लगे। ”तेरह साल के हो गये तो शर्म काहे की। उन्हें नहीं पता क्या कि मैं उनका बाप हूँ। साले आये कहाँ से हैं, यहीं से न!”उसने उंगली कोंचते हुए कहा। ”बाप के कौनसे फर्ज निभाए हैं तूने सुभाष”सुभाष उसको बोलने दे तब न। वह तो उसके बदन में इस तरह बिजलियां भरता चला जा रहा था कि वह अपनी लालची देह और उसकी चुगलियों के आगे लाचार हाती चली गयी।

मीठी मीठी बातों और इंग्लैण्ड से लाये ढेर सारे कीमती उपहारों से उसे सोनू मोनू और शन्नो को अपने बस में करने में देर नहीं लगी। सुभाष रात भर बैठा शन्नो और बच्चों से तरह तरह की अच्छी बातें करता रहा। किसी को कोई गिला शिकवा करने का मौका ही नहीं दिया। सुभाष ने मां के मरने का कोई दुख नहीं किया। दो महीने के अन्दर सब कुछ बेच बाच कर सोनू मोनू और शन्नो को लेकर लन्दन चलने की प्लानिंग करने लगा।

शन्नो का मन सशोपंज में था। पर उसके पास कोई चारा भी न था। सुभाष की ब्याहता थी। सुभाष के लापता होने के कारण वैसे ही लोगों के मन में उसके प्रति कोई इज्ज़त हमदर्दी नहीं थी। यहाँ वहाँ आनन्द बाबू को लेकर पीठ पीछे होते भद्दे इशारों से वह पहले ही लहूलुहान पडी थी। यहाँ रहने पर सोनू मोनू के पढाई लिखाई और शादी ब्याह में आने वाली समस्याओं और खर्चों के बारे में सोच कर वह जाने के लिये राजी हो गई। औरत और फिर हाई स्कूल में आर्ट टीचर! उसकी इज्ज़त और तनखाह ही कितनी थी?क्या कर लेगी वह अपने बूते पर? उसने अपने बौनेपन को कोसा।

जाते समय भी आनन्द बाबू ने बहुत मदद की। इंदिरा गांधी एयरपोर्ट तक उसे छोडने गये। सोनू मोनू बहुत एक्साईटेड थे। शन्नो जरूर दुखी थी। अन्दर अन्दर आनन्द बाबू भी खाली खाली और उदास महसूस कर रहे थे। इतने दिनों का साथ था। जैसे जैसे जाने का दिन करीब आता। शन्नो का संशय गहराता जाता था। सुभाष का क्या भरोसा? इतने सपने दिखा कर ले जा रहा है। एक पल नहीं लगेगा उसे तोडने में। पर उसके हाथ में क्या है? वह कर भी क्या सकती है? आगे पीछे सहारा देने वाला कोई नहीं है। चाची ने शादी के बाद मुडक़र देखा भी नहीं। जाने कौनसे तीरथ गई कि फिर लौटी ही नहीं। आनन्द बाबू ने कई बार गीली आंखों से उसे और सोनू मोनू को देखा। क्या पता कैसा भविष्य उसका इंतजार कर रहा है। न मालूम सुभाष कौन सा गुल खिलाए। परदेस में आनन्द बाबू जैसा दोस्त और रहनुमा कहाँ मिलेगा। वह आनन्द बाबू से अच्छी तरह विदा भी तो नहीं ले पाई। सारे टाईम पासपोर्ट,वीसा टिकट और एन्ट्री क्लियरेन्स के लिये चक्कर लगते रहे।

जब भी बातचीत का मौका मिलता सुभाष बस लंदन के गीत गाता। वहाँ की सडक़ें शीशे सी चमकती हैं। रोशनी इतनी तेज होती है। सब कुछ ऐसा साफ सुथरा कि कुछ पूछो मत। सारे दिन घूमते रहो। मन करे तो खाना बनाओ,न मन करे टेक अवे ले लो। न झाडू लगाना, न कपडे धोना। सब काम मशीनों से होता है। वह सोचती सब कुछ मशीन से होता है तो एक दिन हम भी मशीन हो जाएंगे।

“यहाँ जैसा सूखा वहाँ कहीं नहीं मिलेगा। ”सडक़ के दोनों ओर लगे मरघिल्ले पेडों की ओर देखते हुए उसने कहा।

“ऐसी हरियाली, ऐसी खूबसूरती कि बस देखते रह जाओ। पैसा भी खूब है। बच्चों की पढाई फोकट में, मकान फोकट में, दवा फोकट में, नौकरी नहीं तो सरकार पैसे देगी। आराम ही आराम है वहाँ। वहाँ तो भिखमंगे भी कोट पहनते हैं। ”

शन्नो को आधी बातें समझ में आती आधी नहीं। बच्चे जरूर अंग्रेजी फिल्मों, गानों और कपडों के बारे में पूछते रहते। रह रह कर शन्नो के हाथ पैर ठण्डे हो रहे थे। काश! आस पास कोई ऐसा होता जिससे वह कोई सलाह मशविरा ले सकती।

लंदन आने पर उसे बहुत बुरा नहीं लगा। सब चीजे साफ सुथरी। रोज बासमती राइस और चिकन खाओ। सफेद झकाझक आटे की रोटी। दूध दही इफरात। सुभाष डोल पर था। पर उससे क्या? हर हफ्ते मिनीस्ट्री ऑफ सोशल सिक्यूरिटी जाकर पैसे ले आता। बीवी बच्चों के आने से अलाउंस बढ ग़या था। बिजली, पानी, गैस सब सरकारी खाते में। दो तीन महीने में सजा सजाया काऊंसिल फ्लैट भी मिल गया। जिन्दगी आसान हो गई।

सोनू मोनू को वांडस्वर्थ के अर्नेस्ट बेवन स्कूल में बिना हील हुज्जत के दाखिला मिल गया। दोनों पढने में होशियार थे। बोलने चालने में थोडी दिक्कत हुई पर चार पांच महीने में सब ठीक ठाक हो गया। जल्दी ही नये परिवेश में घुलमिल गये। शुरु के दिनों में स्कूल के बच्चे उन दोनों को पाकी, डमडम और स्मैली माऊस कह कर चिढाते थे। टीचर मिस एलिस अच्छी और सहृदय थीं। एक बार पंजाब व गुजरात भी हो आईं थीं। उसने दोनों को बाईलिंगुएल हैल्प लगा दी। मेहनती बच्चे थोडे ही दिन में टॉप लिस्ट में आ गये। सोनू और मोनू की रुचियां आपस में मिलती तो थीं पर दोनों की प्रवृत्तियां बिलकुल भिन्न थीं। सोनू को एक्टिंग और लिटरेचर पसन्द था। वह तेज तर्रार थी। तो लैडबैक मोनू सैलानी तबियत का, किताबी कीडा, फिलॉसफर और कम बोलने वाला।

सुभाष की चाल वही बेढंगी। हनीमून बस साल दो साल ही चला। उसने रात को मिनी कैब चलाने का धंधा अपना लिया। कभी घर आया, कभी नहीं आया। जब भी वह घर आता शन्नो उससे झगडा करते हुए जवाब तलब किया करती। सुभाष बगैर झगडा किये बिना हील हुज्जत के कहता -

“डोल के पैसे पूरे नहीं पडते। बच्चों की जरूरतों में कोई कमी नहीं होनी चाहिये इसलिये रात को मून लाइटिंग करता हूँ। ”

“ये मूनलाइटिंग क्या होता है? मुझे चलाने की कोशिश मत करो। मैं तुम्हारी नस नस पहचानती हूँ। ”शन्नो हाथ पांव पटकती शेरनी सी गुर्राती। ”अरे! बीवी हो तो नस नस क्या रेशा रेशा पहचानोगी। ”वह उसे चिढाने के अन्दाज से व्यंग्य करता,”रही मूनलाईटिंग की बात, वह है टैक्स से हेराफेरी यानि मैं मिनी कैब की कमाई पर टैक्स नहीं देता। और डोल पर भी रहता हूँ। ”शन्नो फुफकारती हुई उसके हाथों से पे पैकेट उठा लेती। पैसे बचते नहीं तो कम भी नहीं पडते। सुभाष जितना भी कमाता बिना किसी हील हुज्जत के उसे दे देता था। बच्चे भी पढाई लिखाई के साथ वीकेण्ड पर काम कर थोडा बहुत कमा कर अपने शौक पूरे कर लेते। शन्नो ने भी कई बार सोचा कि वह भी कुछ काम कर ले खाली बैठना उसे अच्छा नहीं लगता था। कई जगह उसने पूछताछ की। स्कूलों में मैथ्स और साईन्स की वेकेन्सी तो अकसर होती पर आर्ट टीचर की वेकेन्सी उसने आज तक नहीं देखी। फैक्टरी और सुपर मार्केट में काम करना उसे पसन्द नहीं था। वैसे भी सुभाष ने उसे काम करने के लिये कभी बढावा नहीं दिया सो या तो वह घर के काम करती या लाईब्रेरी से किताबें लाकर पढती। बाहर आने जाने की आदत छूटती जा रही थी।

सोनू मोनू पढाई के साथ साथ लन्दन की तेज और उनमुक्त हवा से खूब प्रभावित हो रहे थे। कुछ अजीबोगरीब लडक़े लडक़ियां उनके दोस्त बन गये थे। वीकेण्ड पर टेस्को और मार्क एण्ड स्पेन्सर में काम मिल गया। हाथ में पैसा आया तो हिम्मत भी बढी । बाहर घूमना फिरना, छुट्टियों में बैक पैक लाद कर हिचहाइकिंग करते हुए पर्यटन करना शुरु हो गया। दोनों जब भी कहीं जाते शन्नो के लिये कोई न कोई अच्छा सा गिफ्ट जरूर लाते। पर शन्नो को यह सब बेमानी लगता। वह बच्चों की असाधारण बहुमुखी प्रतिभा से अनजान उनसे, तालमेल नहीं बैठा पा रही थी।

सुभाष ज्यादातर बाहर ही रहता। अब जबसे सोनू मोनू यूनी गए हैं तो अकसर दोनों की शामें रैफरेन्स लाईब्रेरी में गुजरती। कई बार वो लोग टेम्पिंग भी कर लेते। अकसर खाना भी वहीं कैन्टीन में खा लेते। शन्नो दिनों दिन अकेली होती जा रही थी। उसे लगता वह एक दम फालतू हो गयी है। किसी को उसकी जरूरत नहीं है। शायद वह एक डोर मैट है जिसे जो चाहे पैरों तले रौंद दे।

इधर कुछ दिनों से शन्नो देख रही थी, सोनू की जीन्स कमर से नीचे सरकती जा रही है, टी शर्ट ऊंची होती जा रही है। एक दिन कॉलेज से लौटते हुए उसने नाक और नाभि में नथ पहन लिये। फेदर कट बालों को सुनहरे और लाल रंग में रंगवा लिया। कई दिनों की भरी बैठी शन्नो ने आव देखा न ताव तड तड चार चांटे उसके गालों पर जड दिये। सोनू थोडी देर भौंचक्की खडी रही, फिर मम्मी का हाथ पकड क़र कडक़ी,”देख मम्मी आज तो मार लिया, दुबारा फिर कभी हाथ मत उठाना। यहां अठारह साल की लडक़ी बालिग होती है। कई लडक़े मेरे दोस्त हैं। चाहूं तो आज ही घर छोड दूं या पुलिस को बुला लूं। रोकना चाहती हो तो पापा को रोको जो तुम्हें घर में बिठा कर खुद दिन रात गोरियों के साथ घूमते हैं। मोनू को रोको जो लडक़ों से यारी करता है। जब तब मेरे कपडे पहन कर गे पार्टीज में जाता है। मैं ने कोई ऐसा वैसा काम नहीं किया है। फैशन करना कोई क्राईम नहीं है हाँ। ”शन्नो को काटो तो खून नहीं। क्या कह रही है यह बित्ते भर की लडक़ी?

“भाई और पापा पर इल्जाम लगाते तुझे शर्म नहीं आती है, कमीनी! उसी दिन के लिये तुझे पाल पोस कर बडा किया है? शन्नो कुछ न कर सकने की हालत में जितना जोर से चिल्ला सकती थी चिल्लाई और फिर बुक्का फाड क़र रोने के साथ साथ दीवार से सर मारने लगी।

“ओह शिट! ये इण्डियन औरतें सच्चाई तो फेस कर ही नहीं सकती। न जाने किस डोडो लैण्ड में रहती हैं। ”कहती हुई सोनू ने गरदन को एक झटका दिया और पैर पटकती हुई अपने छोटे बैडरूम में आकर दरवाजा बन्द कर लिया। कमरे के अन्दर कानों में वाकमैन के इयरप्लग लगा स्टैच्यू की मुद्रा में खडे रहने की कोशिश करने लगी। आजकल सोनू की एक स्ट्रीट आर्टिस्ट स्टूडेन्ट से खूब छन रही है। पिछले दो तीन रविवार से वह कान्वेन्ट गार्डन में उसके साथ आस्कर वाइल्ड के द गोल्डन प्रिंस के स्टैच्यू का नाटक खेल रही है। सोनू को अच्छा खासा थ्रिल मिलता है। कई दिलदार लोग तो उसकी टोकरी में बीस पाऊंड के नोट तक डाल जाते हैं।

शन्नो लडक़ी का साहस देख कर मन ही मन डर गई। लगा सोनू की इस धमकी में जरूर कोई न कोई सच्चाई है। इधर वह बहुत दिनों से महसूस कर रही थी कि उसके चारों ओर जैसे कोई षडयन्त्र सा हो रहा हो। उसका कुछ बहुत कीमती कोई धीरे धीरे चुराता जा रहा है। कोशिश करने के बावजूद वह अपना वह कीमती कुछ सहेज नहीं पा रही है। घर के बाहर जो वातावरण है उसका जो असर परिवार पर पडता जा रहा है, उस पर उसका कोई कंट्रोल नहीं रहा है। रोना छोड वह सोचने बैठ गई।

सुभाष से कुछ कहना बेकार है। वह तो कोतल घोडा है। घर में रहता ही कितना? और फिर उसके लिये तो कोई बात गलत है ही नहीं। कुछ कहो तो दार्शनिक की तरह कहेगा,

“नथिंग इज ग़ुड और बैड, जस्ट थिंकिंग मेक्स इट सो। सो अपने आप को बदलो। भागवत गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है जो कुछ हो रहा है अच्छा हो रहा है। बेकार परेशान होने से कोई फायदा नहीं है। लिव इन रोम, एज रोमन्स डू। खाओ पियो और मस्त रहो। लिव एण्ड लेट लिव। क्यों बेकार हर समय सबको टोकती रहती हो। खुद भी रोती हो दूसरों को भी रुलाती हो। अठारह साल की औलाद एडल्ट होती है। उन्हें पता है कि उन्हें क्या करना है। उन्हें अपनी जिन्दगी आप जीने दो। टोका टाकी से तुम्हारा ही नुकसान होगा। ”

दिनों दिन अकेली होती जा रही शन्नो की उलझनें बढती जा रही थीं। उसे लगता उसके चारों ओर एक खंदक सी खुद गई है। तभी एक दिन सुभाष पच्चीस छब्बीस साल की एक गोरी को घर ले आया, कहने लगा,

“यह जूलिया है। कैब ऑफिस में मेरे साथ काम करती है। इसके पास रहने की कोई जगह नहीं है। ऊपर एटिक वाला कमरा खाली है न, उसी में रहेगी। ”

“नहीं नहीं, सुभाष मुझे कोई टेनेन्ट वैनेन्ट नहीं रखना है। इससे कहो कहीं और, कोई और घर देखे। ”

“टेनेन्ट नहीं भई, ये तुम्हारी छोटी बहन की तरह रहेगी। ”उसने गोरी को बांहों के घेरे में लेते हुए कहा।

“मेरी छोटी बहन? तुम्हारी मंशा क्या है सुभाष? खुल कर कहो। रखैल घर लाये हो। सारी शरम घोल कर पी गये क्या? घर में जवान बच्चे हैं। ”

“घर में जवान बच्चे हैं तो क्या? युनिवर्सटी में पढते हैं। उन्हें फैक्ट्स ऑफ लाईफ नहीं मालूम क्या? जूलिया मेरी गर्लफ्रेण्ड है। नीचे वाले बैडरूम में तुम रहना, ऊपर यह रहेगी। मैं तुम दोनों का पूरा खयाल रखूंगा। ”

“सुभाष!”वह चीखी। ”तुम कमीने हो यह तो मालूम था पर इतने कमीने हो यह मालूम नहीं था। अभी इसे लेकर यहां से निकल जाओ, नहीं तो मैं इसकी आंखें फोड दूंगी और तुम्हारा सर हथोडे से कूट डालूंगी। ”कह कर वह तेजी से फायरप्लेस पर रखे हथोडे क़ो उठाने लपकी। उसका यह रौद्र रूप देख कर जूलिया डर के मारे सुभाष का हाथ पकड क़र दरवाजे के बाहर भागी और कांपते हुए सुभाष से बोली,”शी इज मैड, शी इज रियली मैड। हाऊ डू यू लिव विद हर?”सुभाष ने उसका कंधा थपथपाते हुए उसे सहज करते हुए कहा,”नो नो शी इज नॉट मैड, शी इज ऑनली एंग्री। शी डजन्ट बिलीव इन कम्यूनल लिविंग लाईक यू। एवरी थिंग विल बी आलराईट इन अ फ्यू डेज। ”

दो तीन दिन सुभाष घर नहीं आया, चौथे दिन शाम को आया। सोनू मोनू में से कोई घर पर नहीं था। बडी देर तक शन्नो की खुशामदें करता रहा। शन्नो बैडरूम बन्द किये बैठी रही वह बाहर खडा उसकी मिन्नतें करता रहा।

“देख शन्नो तू मुझे जानती है। मैं कोई नया काम तो कर नहीं रहा। हमारे यहां कई लोगों की दो पत्नियां थीं। मेरे ताऊ ने ही दो रखी थी। मेरे मामा के दो बीवियाँ थीं। राजा दशरथ के तो तीन औरतें थीं। सब आपस में सुख से रहती थीं। तू उनकी तरह क्यों नहीं रह सकती?”

“जा चला जा यहां से, अगर यहाँ से नहीं गया तो मैं तेरा खून कर दूंगी। बता रही हूँ, मैं हर समय अपने पास छुरी रखती हूँ। ”वह दहाडी और दरवाजे क़ी झिर्री में से चाकू के तेज नोक को घुसेड दिया।

“ठीक है शन्नो जैसा तू चाहे कर। मुझे दोष मत देना। मैं जा रहा हूँ और फिर मैं वापस नहीं आऊंगा, हाँ। ”

“जा, चला जा, जहन्नुम में जा, मर उस गन्दी गोरी के साथ। पाल ले हर्बी और एड्स। ”

अपने कपडे लत्ते समेट कर जब सुभाष चला गया तो वह बाहर आई। रात भर वह सोचती रही सोनू मोनू को वह क्या और कितना बताये। जब उसे कुछ समझ नहीं आया तो धीरे धीरे खुद को दण्ड देने लगी। ढेरों व्रत उपवास रखे। गीता रामायण पढी। ज़ब उनसे भी उसकी समस्याओं का कोई अंत नहीं हुआ, तो वह सबसे झगडा करने लगी। मोनू शांत प्रकृति का था।

गे होने के कारण वही शन्नो के मानसिक कष्टों को ज्यादा समझता था। उसे शन्नो से सहानुभूति थी। पर सम्वेदनशील होने के कारण रोज रोज के झगडे झंझट वह बरदाश्त नहीं कर पा रहा था। इन्हीं दिनों उसको ह्यूएट पैकार्ट की फ्रेन्च ब्रान्च में प्रोग्राम राइटर की नौकरी मिल गई और वह फ्रान्स चला गया। हर हफ्ते मां को फोन कर अपनी राजी खुशी बता देता। शन्नो मोनू से बहुत गुस्सा थी। उसे समझ नहीं आता कि उसने उसके पालन पोषण में ऐसी क्या कमी बरती के वह होमोसैक्सुअल हो गया।

फोन आने पर वह उससे ज्यादा बातचीत नहीं करती। बस हां हूं में जवाब देती। पर किसी हफ्ते अगर मोनू का फोन नहीं आता तो वह बेचैन हो उठती। सोनू से मिन्नतें कर उसे फोन कराती। शन्नो के दुखों का कोई अंत नहीं था। जो कुछ जिस तरह हो रहा था वह सब शन्नो को झेलना नहीं आ रहा था।

धीरे धीरे शन्नो का मानसिक सन्तुलन बिगडने लगा। उसे समझ नहीं आता कि आखिर उसका परिवार इतना एबनॉर्मल क्यों है? थोडे ही दिनों में उसे पैनिक अटैक्स होने लगे। गरदन, सिर और रीढ क़ी हड्डी के साथ पेट में भी दर्द रहने लगा। दवाइयों से कोई फर्क नहीं पडा तो डॉक्टर ने उसे गरदन में पहनने के लिये नैक सर्पोट का कॉलर दे दिया। इससे उसका रहा सहा कॉन्फिडेन्स भी जाता रहा। मानसिक बीमारियों का इलाज दवा दारु तो होता नहीं। उधर शर्म के मारे शन्नो डॉक्टर को असली समस्या कभी बताती ही नहीं। इस बीच उसे आनन्द बाबू और अपना भारत बहुत याद आए। पता नहीं क्या मति मारी गई जो सुभाष के साथ यहां चली आई।

पूरे एक महीने बाद सुभाष घर आया। शन्नो कुछ बोली नहीं। वह दो तीन घण्टे रहा फिर चला गया। सुभाष अपनी आदत से बाज नहीं आता और शन्नो मुखौटा लगा नहीं सकती। सारी समस्याएं ज्यों की त्यों। सुलझने का कोई नाम नहीं। अस्थिर शन्नो जब तब मौका मिलते ही सुभाष या सोनू पर झपट पडती। अच्छा खासा महाभारत छिड ज़ाता। सुभाष ज्यादा बोलता नहीं। कम बोलने में ही उसे अपनी सलामती नजर आती। कभी वह ऊपर ऐटिक वाले कमरे में दरवाजा बन्द करके सो जाता तो कभी नहा धो कपडे बदल बाहर चला जाता या फिर रात भर बाहर रहता। शन्नो कुछ कर तो पाती नहीं। कभी रोती, कभी किस्मत को कोसती, कभी सुभाष या औलाद को कोसती। सोनू मां बाप के झगडे देख देख कर तंग आ गई थी। बाप से कभी कोई आंतरिक सम्बन्ध तो बना ही नहीं सो उससे कहती भी क्या? अगर कभी कुछ कहती तो वह उसकी पीठ थपथपाते हुए कहता,”देख सोनू, तू एडल्ट है। तुझे जो अच्छा लगे कर। बस खुश रहा कर। बेकार की बहस से दिमाग मत खराब किया कर। तेरी मां से मेरा कोई झगडा नहीं। उसे मेरी आदतें नहीं पसन्द सो उसकी मर्जी। शी कैन लिव द वे शी वान्ट्स टू लिव। ”

रोज रोज की खिचखिच से तंग आकर सोनू ने एक दिन मां को आडे हाथों लिया,”मम्मी तुम पापा के आते ही इतना शोर शराबा क्यों मचाती हो? अगर तुम्हारी आपस में नहीं पटती है तो तुम अलग क्यों नहीं हो जाती हो?”

“क्या कहती है हरामजादी! अलग हो जाऊं? अरे अलग हो जाऊंगी तो तुम लोगों के शादी ब्याह का क्या होगा?”

“शादी ब्याह....किसके शादी ब्याह की बात कर रही हो?मेरे या मोनू के। मोनू की शादी क्या करोगी, वह तो गे है। रही मैं, मैं तो शादी कभी करुंगी ही नहीं। सच बात तो यह है कि शादी वादी हमारी कुण्डली में है ही नहीं। और क्या पाया है तुमने शादी करके? जो कुछ सुख तुम्हें मिला वह शादी से नहीं, आनन्द अंकल”अभी सोनू बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि शन्नो जोरों से चीखते हुए सोनू पर झपटी तो डायनिंग टेबल का कोना उसके पेट में ऐसा धंसा कि वह गिरते ही बेहोश हो गई। घबडाई सोनू ने ट्रिपल नाईन पर फोन करके एंबुलेन्स मंगवाया, मोनू को फ्रांस फोन किया। पापा का कहीं पता नहीं था। दोनों भाई बहन रात भर सेण्ट जॉर्जेज अस्पताल में बैठे रहे।

नर्स ने कहा,”यहां बैठने से कोई फायदा नहीं। घर जाओ थोडा आराम करो। कल शाम आना। तब तक तुम्हारी मां होश में आ जाएगी। ”

दो दिन आई सी यू में रहने के बाद जब शन्नो जनरल वार्ड में लाई गई तो दाहिने तरफ वाला पेशेन्ट जो तकिये के सहारे उठंग बैठा हुआ था, उसे देख कर मुस्कुराया। शन्नो को अच्छा लगा। चलो इस दुनिया में कोई तो है जो उसे देख मुस्कुरा सकता है। आपरेशन के कारण शन्नो दर्द से बेहाल थी पर फिर भी जवाब में मुस्कुराते हुए उसने हलो कहा।

उस दिन एनेस्थेटिक प्रभाव में शन्नो सारे दिन जागती और सोती रही। दूसरे दिन सुबह जब वह उठी तो देखा दाहिनी तरफ वाला पेशेन्ट कुर्सी पर बैठा अखबार पढ रहा है। उस पेशेन्ट के चेहरे पर छोटी सी फ्रेन्च कट दाढी थी जो उसके खूबसूरत चेहरे को गरिमा प्रदान कर रही थी। शन्नो को उठा देख उसने अपनी कुर्सी के रुख को उसकी तरफ मोडते हुए कहा,

“हलो शान, मेरा नाम राबर्टो है। आज तुम्हारी तबियत कैसी है? कल तो तुम दर्द से कराह रहीं थीं। ”उसने मुस्कुराते हुए कहा तो उसकी आंखों के कोरों पर पडी लाफिंग लाईन्स उसे और आकर्षक बना रही थीं। शन्नो को अपना नया नामकरण शान अच्छा लगा। शान उसने मन ही मन दोहराया।

“थैंक यू, आज मैं कल से बेहतर हूँ। तुम कैसे हो रॉबर्टो। ”

“बिलकुल फिट, घोडे क़ी तरह तन्दुरुस्त। चार पांच दिन में मुझे घर जाने की छुट्टी मिल जायेगी। ”उसने हंसते हुए कहा।

“ओ हो! नो, इतनी जल्दी अभी तो हमारा परिचय ही हुआ है राबर्टो। ”शन्नो ने कमर में उठ रही जानलेवा दर्द के बीच मुस्कुराते हुए मजाक कहा।

राबर्टो हल्के से हंसते हुए बोला,”अरे, अभी तो पूरे पांच दिन बाकी हैं। तुम्हें भी अगले हफ्ते छुट्टी मिल जायेगी। ”

“हाँ, सो तो है। ”वह कुछ उदास स्वर में बोली।

शन्नो को घर की याद से वितृष्णा सी हुई। धोडी देर वह कमरे में पडे फ़ूलदार पर्दे और लेटे हुए अन्य पेशेन्ट्स को देखती रही, फिर उसकी आंखे झप गईं। जब आंख खुली तो उसने देखा, राबर्टो खिडक़ी के पास खडा, फूलों से लदे चेरी और सेब के पेड पर खिले नन्हे नन्हे गुलाबी और सफेद पंखुडियों को देख रहा है। शन्नो को प्यास लगी। उसने बैड के पास रखे लॉकर पर से ग्लास उठाने की कोशिश की तो पेट में लगे टांकों ने जोरों की टीस मारी। उसने नर्स को पुकारा। नर्स कमरे में नहीं थी।

शन्नो की आवाज सुन कर राबर्टो ने पूछा,”पानी चाहिये क्या?”

शन्नो मुस्कुराई और बोली,”यस प्लीज राबर्टो। थैंक्स।”

पानी देते हुए राबर्टो ने शन्नो की गोल सुडोल और लम्बी उंगलियों को प्रशंसात्मक दृष्टि से देखा।

“शान,”उसने शन्नो की आंखों में देखते हुए कहा,”तुम्हारी उंगलियां बहुत सुन्दर और आर्टिस्टिक हैं। मेरा मन कहता है तुम स्वभाव से आर्टिस्ट हो। ”

शन्नो के चेहरे पर बहुत प्यारी सी मुस्कुराहट आई। राबर्टो को लगा कि वह मेडोना सी खूबसूरत है। आज काफी दिन बाद शन्नो को लगा, उसके नकारे व्यक्तित्व को आज किसी ने पुचकारा है। शन्नो के अन्दर की परतों में कम्पित हिलोर सी उठी, वह जिन्दा है।

“मुझे नहीं मालूम राबर्टो कि मैं आर्टिस्ट हूँ या नही। अपने देश के स्कूल में आर्ट पढाया करती थी। पिछले पंद्र्रह साल से रंग और ब्रश देखे ही नहीं। केवल दुख के काले भूरे रंग घुलते मिलते देखती रही हूं। कहते हुए उसने गालों पर लुढक़ आये गर्म आंसुओं को टिशू से पौंछना चाहा, पर पौंछा नहीं।

“ओह! कलाकार को कभी रंग और ब्रश अपने से दूर नहीं रखना चाहिये। रही दुख की बात वह तो कलाकार की ऊर्जा है। मैं कैनिनजारो हाउस, विम्बलडन में आर्ट रेस्टोरेशन का काम करता हूँ। एक बार कैनिनजारो हाऊस आओ। देखो तो चारों ओर कैसा सौन्दर्य बिखरा है। ”राबर्टो उसकी खूबसूरत कलात्मक उंगलियां थपथपाते हुए बोला।

मैं आऊँगी, जरूर आऊँगी राबर्टो, तुम्हारे साथ बैठ कर मैं भी उस अमित सौन्दर्य को अपने अन्दर समेटूंगी। खुद से प्रॉमिस करती हुई वह मन ही मन बोली। दर्द की लहरों ने एनस्थेटिक प्रभाव को और बढा दिया। शन्नो राबर्टो की संवेदनशील निगाहों की ऊष्मा को अपने अन्दर समोती,गहरी नींद सो गई। राबर्टो उसके सोते हुए चेहरे पर बिखरी करुणा को बहुत देर तक देखता रहा। सरल सहज राबर्टो का हृदय शन्नो के दर्द को आत्मसात कर गया। राबर्टो को एक साथी असिस्टेन्ट की जरूरत थी। अगर शान उसके साथ काम करने राजी हो जाये तो कैसा हो। राबर्टो ने सोचा। उसे शन्नो की दर्द से सुलगती आंखें बहुत सुन्दर लगीं। शन्नो की जब आंख खुली तो उसने सोनू मोनू को अपने बिस्तर के पास विवर्ण और दुखी चेहरे के साथ खडा पाया। उसके हृदय में वात्सल्य का आवेग उमडा तो उसने दोनों के हाथ पकड क़र सीने पर रख लिये।

सोनू मोनू कुछ देर तक बुत बने मां को देखते रहे, फिर उसके गालों को चूमते हुए बोले,”मां तुम्हारा ऑपरेशन सफल रहा। तुम्हारे पेट में टयूमर था जिसे समय से डॉक्टर ने निकाल दिया। अब तुम्हें जिन्दगी की नई लीज मिली है। अब तुम खतरे से बाहर हो। हम तुम्हें खोना नहीं चाहते। हमें तुम्हारी बहुत चिन्ता है। तुम्हारा होना हमारे लिये बहुत जरूरी है।”

राबर्टो परिवार का मिलन बहुत ध्यान से देखता रहा। सोनू मोनू का शन्नो के प्रति लगाव देख कर उसे अपनी पत्नी एमीलिया की याद आ जाती। एमीलिया की ओवरी में कैन्सर के बीज पनप रहे थे। भरी जवानी में उसके दोनों फैलोपियन टयूब निकाल दिये गये। जिसके कारण वह कभी मां न बन सकी। आहत पत्नी की याद से उसकी आंखें अचानक तरल हो उठीं।

सोनू मोनू जब भी शन्नो से मिलने आते तो राबर्टो से भी बातचीत करते। राबर्टो को जीवन का गहन अनुभव था। वह सोनू मोनू के अन्दर की खलिश को पहचान गया। अत: वह उनसे समकालीन राजनीति, ग्लोबलाईजेशन और इकॉनोमी के साथ साथ उसके कारण बदलती जीवन पध्दति और उससे उभरती जटिल समस्याओं पर भी बात करता। राबर्टो को सोनू मोनू असाधारण प्रतिभा सम्पन्न लगे। उसने शन्नो को बताया। एक दिन उसने सोनू मोनू के जाने के बाद उनके लाये डेफोडिल्स को शन्नो के लिये अस्पताल के बडे से गुलदान में सजाते हुए कहा,

“वाकई शान तुम बहुत बडी आर्टिस्ट हो। इतने खूबसूरत,नेकदिल और इंटेलिजेन्ट औलाद एक नैचुरल आर्टिस्ट ही पैदा कर सकता है। ”

“सच! राबर्टो, तुम्हारा हर वाक्य मेरे अन्दर एक नया इंकलाब भर जाता है। ”शन्नो ने अपनी लम्बी सुडोल उंगलियों को देखते हुए कहा।

“दैट्स लाईक अ गुड गर्ल। हाऊ अबाउट हैविंग डिनर ऑन द डायनिंग टेबल टु नाईट। नर्स सेड, यू कैन वाक विद हैल्प। हाऊ अबाउट होल्डिंग माय हैण्ड!”

“ओह! दैट्स द ग्रेट प्लेजर राबर्टो, आई विल लव इट। ”

शन्नो की आंखों में मुट्ठी भर धूप का उजियारा जगमगा उठा