मुड़ी तुड़ी कागज़ की पर्ची / गीता पंडित

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मुड़ी तुड़ी कागज़ की पर्ची-गीता पंडित

स्टेयर्स पर मुड़ी-तुड़ी कागच की पर्ची देखकर वह चौंकी। उसने बड़ी उत्सुकता से उसे खोला जिसमें लिखा था

'तुमसे बात करना चाहता हूँ'

नीचे नाम भी नहीं लिखा था। उसने चारों तरफ देखा कोई नहीं था। छत पर जाकर चेक किया वहाँ भी कोई नहीं दिखाई दिया।

कौन किससे बात करना चाहता है?

हो सकता है कि हवा तेज चलने के कारण शायद कहीं से पर्ची उड़कर आ गयी होगी लेकिन कहाँ से?

आख़िर किसी ने तो किसी को लिखी है लेकिन किसे और किसने?

जब उसे कुछ समझ नहीं आया तो उसने उस पर्ची को फाड़कर डस्टबिन में डाल दिया और नीचे आकर नाश्ता करने लगी।

आज रविवार था और नाश्ता भी उसकी पसंद का था आलू प्याज के परांठे और उस पर घर पर बना सफेद मक्खन जिसे खाने के लिए अक्सर हरियाणा में सुखदेव के ढाबे पर जाते थे लेकिन जब से वहाँ पर आरक्षण के नाम पर स्त्रियों के साथ दुर्घटनाएँ घटी तब से अब वहाँ नहीं जा पाते तो आज वही ब्रेकफास्ट सामने था।

आहा! उसके मुंह में पानी आ गया और वह खाने में जुट गयी। मगर पर्ची में लिखे वे पांच अक्षर

'तुमसे बात करना चाहता हूँ'

एक एक कर उसकी आँखों के सामने नाचते रहे।

कभी मम्मी ने कहा था कि जब भी जहाँ भी होना पूरे मन से होना। आधे मन से किया गया कोई भी कार्य सम्पूर्णता नहीं पाता।

लेकिन आज वह नाश्ता करते हुए मन से अपने को बंटा हुआ पा रही थी।

स्वादिष्ट नाश्ता होते हुए भी वह बस उस पर्ची के विषय में ही सोच रही थी।

आख़िर कौन है जो यहाँ इस घर में या आस-पास किसी से मिलना चाहता है?

आजकल तो फोन से लेकर मेसेज और ईमेल तक की सुविधा लोगों के पास है

फिर इस पर्ची के मतलब?

हो सकता है उसके पास लेपटोप या मोबाइल भी न हो।

छोटे शहरों में ऐसा होना संभव है।

अब समझी वह जो भी है छुपकर मिलना चाहता है।

उसने अपने ही सर पर एक साइड में हाथ मारकर स्वयं से कहा–

" धत्त,

इत्ती-सी बात समझ नहीं आयी तुझे ...

पागल कहीं की..."

बस यही छुपकर मिलने वाली बात उसके साथ चिपकी रह गयी।

वह हर बात मम्मी को बताती थी लेकिन मम्मी को पर्ची वाली बात नहीं बता पाई और जाकर अपनी स्टडीज़ में लग गयी। कल मंथली टेस्ट है और उसे 'एंटनी और क्ल्योपेट्रा' पढ़ना है ' वर्ना प्रोफेसर शर्मा सबके सामने उसकी अच्छे से खबर लेंगे।

उसे याद आया कि एक टेस्ट में एक शब्द की स्पेलिंग गलत हो गयी थी तो उन्होंने पूरी कक्षा के सामने किस तरह से उसका नाम लेकर उससे पूछा था

"जरा 'ऑप्टिमिज्म' की स्पेलिंग बताओ?"

उसने सही बतायी तो कहने लगे

" तुमने यहाँ सही नहीं लिखी इसलिए तुम्हारा आधा नम्बर काट लिया है

वरना तुम्हारे सबसे ज़्यादा मार्क्स होते।

नेवर डू सच सिली मिस्टेक्स इन फ्यूचर,

बी अटेंटिव नेक्स्ट टाइम"

यह कहकर वह चले गए और वह कई दिन तक परेशान रही

कि ऐसी सिली मिस्टेक उससे कैसे हो गयी मगर आगे के लिए उसने स्वयं को सावधान कर लिया था जिससे ऐसी ग़लती वह दोबारा न करे।

अब वह पूरी तरह एकाग्रचित्त होकर पढ़ना चाहती थी इसलिए नोट्स बनाने में लग गयी और पता ही नहीं चला नोट्स बनाने के बाद वहीं उसे कब नींद आ गयी।

शाम को कॉलिज से आकर मूवी देखी और रात को बाहर डिनर करके वापस लौटी तो स्टेयर्स से होती हुई छत पर जाने लगी, जहाँ उसे तारे देखना और उसमें भी सप्त ऋषि मंडल को देखना शुरू से भाता था।

पहली बार पापा ने छत पर लेजाकर उसे सप्त ऋषि मंडल दिखाया था और सातों ऋषियों के विषय में देर तक बताते रहे थे।

साथ में यह भी कहा था कि मृत्यु के बाद हमारे अपने स्टार्स बन जाते हैं। जब कभी भी उनसे मिलने का मन करे तो आकर स्टार्स को देखना।

पहले वह अपने दोस्त दादा जी को वहाँ खोजती थी लेकिन अब जबकि उसके पापा भी स्टार बन गये हैं वह दादा जी के साथ अपने पापा से भी मिलने छत पर आती है।

लेकिन छत पर पाँव रखते ही कुछ उसे अपनी चप्पल के नीचे महसूस हुआ।

उसने देखा कि फिर कोई पर्ची उसी मुड़ी-तुड़ी अदा में स्टेयर्स की जगह छत पर पड़ी है। नीचे झुककर उसने उसे धीमे से खोला

'तुम किसी दिन मुझसे बात करो ना'

पढ़कर वह सकते में आ गयी। परिवार के साथ अच्छी मूवी और अच्छे डिनर का सारा नशा जाने कहाँ गायब हो गया।

वह असमंजस में पड़ गयी लेकिन रात बहुत हो चुकी थी और सुबह कॉलिज जाना था इसलिए चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट गयी।

जाने कैसे-कैसे ख़याल आते रहे

और कब नींद आयी पता नहीं लेकिन जब सुबह उठी तो सर भारी था।

सुबह-सुबह केवल कॉलिज याद रहता है। यही हुआ लेकिन कॉलिज से आकर जैसे ही वह स्टेयर्स पर चढ़ी फिर वही पर्ची वाले शब्द उसे याद आने लगे।

लंच करके वह थोड़ी देर आराम करती थी इसलिए कमरा अंदर से बंद करके वह कमरे की खिड़की खोलकर करवट लेकर लेट गयी। हल्की-सी झपकी ही लगी होगी कि किसी के गाने की आवाज़ उसके कान में पड़ी।

' तेरा मेरा प्यार अमर

फिर क्यूँ तुझको लगता है डर

तेरा मेरा ...'

उसने समझा सपने में कोई गा रहा है लेकिन वह तो जागी हुई थी और वास्तविकता यह थी कि वास्तव में ही कोई गा रहा था उसे अहसास हुआ।

आवाज़ ऊपर की तरफ से आ रही थी।

उसने बिना हिले-डुले आवाज़ पहचानने की कोशिश की।

असलमें छोटे शहरों और कस्बों में आमने-सामने के घर बहुत सटे हुए से लगते हैं। पतली-सी गलियाँ जो कभी चौड़ी हुआ करती थीं, लोगों ने उन्हें काटकर अपने घर में मिला लिया और वे अब एक दूसरे के घर को गलबहियाँ देती हुई प्रतीत होती हैं।

इसलिए जो गा रहा था वह सामने वाले घर की छत की बालकनी पर खड़ा हुआ थोड़ा धीमे स्वर में गाते हुए भी बराबर सुना जा सकता था।

उसे लगा वह इस आवाज़ को पहचानती है।

इससे पहले कि वह कुछ सोच पाती दरवाज़े पर थपथपाहट हुई और वह बिना खिड़की से ऊपर देखे उठकर नीचे आ गयी।

यह प्रतिदिन का नियम था कि मम्मी उसे नियत समय पर जगाने आती थीं। मम्मी जिनके पास केवल यही काम थे कि कब खाना है, कब पढ़ना है, कब कॉलिज जाना है। कब सोना है, कब जागना है।

चौबीस घंटे का पूरा शिड्यूल रेलवे की समय सारिणी की तरह मम्मी के पास होता था।

ट्रेन लेट हो सकती थी लेकिन मम्मी कदापि नहीं।

अब उसे शक-सा होने लगा था

लेकिन सबूत अभी सामने नहीं था इसलिए कुछ भी कहने में वह अपने आपको असमर्थ पा रही थी। फिर भी एक प्रश्न उसे सालने लगा।

वह उसकी खिड़की के सामने ही क्यों गा रहा था?

कहीं उसके लिए ही तो ...

नहीं नहीं ...

ऐसा कैसे हो सकता है?

सारा मौहल्ला जानता है कि वह लड़कों को क्या किसी को भी आँख उठाकर देखती तक नहीं। बस अपने काम से काम रखती है।

फिर क्या?

बहरहाल, अब उसकी उत्सुकता व्यग्रता में परिवर्तित होने लगी।

वह चाहती थी मम्मी से कहे लेकिन मम्मी कहीं जाने की तैयारी में थीं इसलिए सोचा बाद में कहूंगी।

बाद में यानी अब एक हफ्ते के बाद अवसर मिलेगा क्योंकि अपने मित्रो के साथ वह एक हफ्ते के टूर पर जा रही थी।

मम्मी उसकी सबसे अच्छी मित्र थीं।

उसे कभी आवश्यकता नहीं पड़ी उनसे कुछ भी छिपाने की।

काश! यह बात उसने तभी कह दी होती तो मन पर इतना बड़ा बोझ न होता।

मगर अब कुछ नहीं कहा जा सकता था।

यूँ तो फोन पर भी बता सकती थी लेकिन फोन पर बताना उसे उचित नहीं लगा इसलिए भ्रमण के दौरान भी गाहे-बगाहे उसे पर्चियाँ और गाना याद आता रहा।

जसे-तैसे एक हफ्ता व्यतीत हुआ तो वह घर पहुँची मगर उसे गैलरी में ही रुक जाना पड़ा क्योंकि वहाँ तो हंगामा मचा हुआ था।

मम्मी किसी से कह रही थीं कि हो न हो ये पर्चियाँ फेंकने वाले वही लड़के हैं जो सामने वाले घर की ऊपरी मंजिल पर बने कमरों में रह रहे हैं।

ओह!

तो पर्ची वाली बात मम्मी को भी मालूम हो गयी।

भैया, हमारे यहाँ जवान लडकी है। वह इन सब बेकार की बातों में नहीं पड़ती मैं उसे अच्छी तरह जानती हूँ लेकिन यह बात अच्छी नहीं है कि कोई इस तरह से पर्चियाँ फेंके।

आखिर किसकी इतनी हिम्मत हो गयी जिसने बिना जाने हमारे परिवार से भिड़ने की कोशिश की। ज़रूर कोई बाहर का आदमी है।

उसे अच्छा लगा कि मम्मी उसके ऊपर इतना विशवास करती हैं कि उसके पीछे भी उसकी बढ़ाई कर रही थीं लेकिन यहाँ टार्गेट उसे ही समझा जा रहा है यानी किसी ने ये पर्चियाँ उसे लिखी हैं

"अरे! मुझे ही क्यों"

तभी दूसरी आवाज़ आयी

" आप चिंता ना करें अगर उन लड़कों ने यह किया है तो सज़ा भुगतेंगे।

मैं आज ही उनसे कमरे खाली करवा लेता हूँ। "

" ठीक है।

इज्ज़त की बात है। चुपचाप यह काम करना।

किसी को भनक भी नहीं मिलनी चाहिए कि कमरे खाली कराने का कारण ये पर्चियाँ हैं।

व्यर्थ में हमारी लड़की की बदनामी होगी। "

"आप निश्चिन्त रहें।"

उसे लगा कि बात समाप्त हो गयी है तो अब उसने घर में प्रवेश किया। उसे देखते ही सबके चेहरों पर मुर्दनी की जगह अब मुस्कराहट आ गयी।

खैर, लड़के उसी दिन कमरे खाली करके चले गए और सब शांत हो गया। मगर उसका मन उद्विग्न था। उसे लग रहा था कि ज़रूर कोई गलतफ़हमी हुई है क्योंकि वह गाने वाली आवाज़ और पर्चियों में अगर कुछ समता है तो उस आवाज़ को तो वह पहचानती है।

सुनी-सुनी-सी लग रही है लेकिन याद नहीं आ रहा कि किसकी हो सकती है।

अगले दिन जब कॉलेज से लौटी तो देखा घर में ठहाके गूँज रहे हैं और मामा जी बैठे हुए हैं जिन्हें पहली बार घर पर देखा।

उसने देखते ही मामा जी से नमस्ते कहा और अपने कमरे में जाने के लिए स्टेयर्स की और बढ़ी तभी मम्मी ने आवाज़ दी

" बेटा दो मिनिट को यहाँ बैठकर जाओ।

देखो मामा जी गाँव से खरबूजे लाये हैं जो शरबत के साथ खाने के लिए कह रहे हैं। "

"ओके मम्मी"

वह यह कहकर डाइनिंग चेयर पर बैठ गयी।

वे भी वहीं चुपचाप बैठे हुए थे।

वह मन ही मन मम्मी की इस बात से चिढ रही थी कि मम्मी जानती हैं उसे खरबूजा पसंद नहीं फिर भी खाने के लिए कह रही हैं।

बहरहाल, उसने एक टुकड़ा लेकर कहा

"मम्मी चेंज करके आती हूँ और ऊपर अपने कमरे में आ गयी।"

तभी नीचे से आती हुई जानी-पहचानी आवाज़ सुनाई दी।

यह तो वही आवाज़ थी जो उस दिन गाते हुए सुनी थी।

अच्छा ...

तो उस दिन खिड़की के सामने वाली बिल्डिंग के ऊपर वाली मंजिल से मामा जी गा रहे थे।

वह विशवास नहीं कर पायी।

मगर झुठला भी तो नहीं सकती थी।

हू-ब-हू वही आवाज़ अब शक की गुन्ज़ाइश नहीं थी।

लेकिन ...

अब असमंजस और भी बढ़ गया।

ये तो मामा जी हैं,

और मामा जी ऐसा कैसे कर सकते हैं?

हुआ यूँ कि सामने वाली बिल्डिंग में नीचे बैठक में कोई सज्जन किराए पर आये तो मम्मी ने उनका परिचय कराते हुए कहा कि ये उनके गाँव से आये हैं इसलिए आपके मामा जी हुए। इनकी इनकम टैक्स विभाग में यहाँ पोस्टिंग हुई है और कुछ समय के लिए सामने वाली बिल्डिंग में किराए पर रहेंगे।

एक दो बार कभी सामना हुआ तो मामा जी कहकर नमस्ते हो गयी बस इतना ही परिचय था।

अब मम्मी से क्या और कैसे कहा जाए? यही सोचते हुए शाम हो गयी।

सच बात तो यह थी कि उसका पढ़ाई में भी पूरी तरह से मन नहीं लग रहा था। पुस्तक सामने थी और वह कहीं और। अंत में जब प्रयास करने के बावजूद वह अपने को केन्द्रित नहीं कर पायी तो छत पर आ गयी।

आकाश पर बादल कविता लिख रहे थे और चित्रकारी भी कर रहे थे।

उसे याद आया कि जब पापा थे वे सब छत पर मच्छरदानी लगाकर सोया करते थे।

आकाश गंगा भी तो पापा ने ही दिखाई थी।

धुव तारे की तरफ इशारा करके ध्रुव की सारी कहानी भी सुनाई थी।

एकटक बादलों में तरह-तरह की आकृतियाँ खोजते-खोजते कब नींद आ जाती पता भी नहीं चलता था।

अब ऐसा नहीं है। सब अलग-अलग कमरों में ए.सी. में सोते हैं और अब तो फ्लैट्स में छत ही नहीं होती तो आकाश कहाँ से दिखाई देगा।

आज भी उसने बादलों को उसी तरह देखना शुरू किया लेकिन तभी उसकी निगाह छत के एक कौने पर पड़ी।

वहाँ पर वैसी ही मुड़ी-तुड़ी एक पर्ची पड़ी हुई थी।

फिर से ...

अरे!

उसके आश्चर्य की सीमा न रही। उसने झुककर उसे उठाया जिस पर लिखा था।

'आई लव यू'

नाम फिर से गायब था।

अब वह घबरा गयी।

कुछ पल तक जैसे जड़ हो गयी।

उसे समझ आ गया कि यह कौन कर रहा है।

इसके भी कारण थे।

क्योंकि केवल सामने वाली बिल्डिंग ही इतनी ऊची थी जिससे कागज़ जैसा कुछ अगर फेंका जाए तो छत पर आ गिरे।

और एक बात और अब सामने वाली बिल्डिंग में केवल बैठक में ही एक किरायेदार था मामा जी के रूप में। मकान मालिक अमेरिका गए हुए थे।

सारी बिल्डिंग खाली थी। मामा जी ही इसकी देखभाल कर रहे थे।

ओह!

तब तो वे बेचारे लड़के जिनसे कमरे खाली करवाए गए थे, सभी निर्दोष थे। वे सब व्यर्थ में बली के बकरे बना दिए गए। बहुत गलत हुआ उनके साथ मगर अब कुछ नहीं किया जा सकता।

उसे तो पहले से ही संदेह हो रहा था। लेकिन संदेह के आधार पर आप किसी को आरोपित नहीं कर सकते।

प्रमाण चाहिए। अब तो प्रमाण भी सामने था मगर समस्या तो यह थी कि मम्मी से किस तरह कहा जाए?

वह जानती थी कि मम्मी मामा जी को बहुत स्नेह करती हैं। उन्हें अपना गाँव बहुत प्रिय है। शहर में अपने गाँव को हमेशा मिस करती हैं।

बता रही थीं कि मम्मी केवल छ: महीने की थीं जब नानी का देहांत हो गया था। उनकी बुआ जी ने उन्हें पाल पोसकर बड़ा किया।

सारे गाँव वाले उन्हें अपनी बिटिया की तरह बहुत प्यार करते थे और विवाह के समय मम्मी की विदाई पर सभी की आँखें गीली थीं इसलिए वह भी अपने गाँव वालों को बहुत चाहती हैं।

अगर वह इस घटना को मम्मी को बताती है तो उनका दिल टूट जाएगा। यूँ तो वह किसी से कुछ नहीं कहेंगी किन्तु वह भीतर से टूट जायेंगी।

उनकी स्मृतियों का एक मात्र सहारा भी छिन जाएगा।

रिश्तों पर से विशवास ख़त्म हो जाएगा जो उसे मंज़ूर नहीं था।

अभी से वह कितनी समझदार हो गयी है उसे आज मालूम चला।

सच, ज़िम्मेदारी का अहसास बड़ा होने के लिए काफी होता है।

अब वह खिड़की नहीं खोलती।

पर्चियाँ अब भी आती हैं।

उससे पहले कि कोई पढ़े वह उन्हें उठाकर बिना पढ़े फाड़कर डस्टबिन में फ़ेंक देती है।

मम्मी खुश हैं। कह रही हैं कि मामा जी अपनी पत्नी को गाँव से ले आये हैं। उन्हें बड़ा-सा बँगला मिला है। आज ही बैठक खाली कर रहे हैं।

चलो उन्हें जाते समय बाय तो कह दो।

वह सुनकर भी जैसे नहीं सुन रही है।

फिर भी मम्मी का मन रखने के लिए कह उठती है

" मम्मी आप चलिए।

कुछ नोट्स तैयार कर रही हूँ। इन्हें पूरे करके आती हूँ। "

" अच्छा, ठीक है।

जल्दी आना। "

मम्मी चली जाती हैं।

वह चैन की साँस लेती है।

लगता है जैसे एक बड़ा बोझ सर से उतर रहा है।

मम्मी काम वाली बाई से कह रही हैं देखो कब से अकेला रह रहा था। आज जब घर मिल गया अब जाकर पत्नी को लाया है। यह अपने बाप की अकेली संतान है। सुना है इसके नाम सौ बीघा जमीन है।

" वो तो ठीक है मालकिन (वह इसी तरह बोलती है) मतलब पैसे से शादी की।

लडकी तो खपच्ची है। "

वह निर्विकार भाव से सब सुन रही है।

लेकिन अब खिड़की फिर से खुली है। ठंडी हवा का झोंका आकर उसकी लट से अठखेलियाँ कर रहा है।

अपनी गली को प्यार से निहारती है।

फिर छत पर आती है।

रात होने लगी है।

सप्त ऋषि मंडल बात करने के लिए फिर से बेताब है।

ध्रुव तारा उसे देखकर हँस रहा है।

आकाश-गंगा उसे उजला रही है।

दादा जी और पापा भी साथ मुस्करा रहे हैं।

उसने इत्मिनान से एक बड़ी-सी अंगड़ाई ली।

जी भरकर ऊपर की और देखा जैसे शुक्रिया कह रही हो और फिर अपने कमरे में आकर किताबों में खो गयी।