मुन्नाभाई : अब दिल्ली दूर नहीं / जयप्रकाश चौकसे

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मुन्नाभाई : अब दिल्ली दूर नहीं
प्रकाशन तिथि : 04 मार्च 2013


राजकुमार हिरानी और विधु विनोद चोपड़ा ने फैसला किया है कि 'फंस गए रे ओबामा' के लिए प्रसिद्ध सुभाष कपूर मुन्नाभाई शृंखला की तीसरी कड़ी निर्देशित करेंगे। पटकथा राजकुमार हिरानी, अभिजीत जोशी और विधु विनोद चोपड़ा की ही होगी। संजय दत्त और अरशद वारसी अभिनीत फिल्म की नई कड़ी में मुन्नाभाई दिल्ली के राजनीतिक अखाड़े में अपने करतब दिखाएंगे। फिल्म का प्रदर्शन २०१४ के चुनाव के समय होगा। ज्ञातव्य है कि सुभाष कपूर ने उत्तरप्रदेश और बिहार में चुनाव के समय पत्रकारिता हेतु सघन दौरा किया था और भारतीय चुनावों की उन्हें गहरी समझ है। इस खबर से मुझे ईरान में बनी 'लिजार्ड' नामक फिल्म की याद आई। नायक को अपराध की दुनिया में लिजार्ड अर्थात छिपकली इसलिए कहा जाता है कि वह दीवारों पर चढऩे में महारत रखता है। फिल्म के प्रारंभ में उसके पकड़े जाने और जेल में जीवन का विवरण है। वह किस तरह से रोगी बनकर अस्पताल भेजा जाता है और वहां से भागने में सफल होता है। रेलगाड़ी के डिब्बे में एक युवा विधवा और उसके अबोध बालक से उसकी मुलाकात होती है और उसे पकडऩे का प्रयास करने वालों को इस महिला के पति के रूप में वह स्वयं को प्रस्तुत करके बच निकलता है।

वह उस रेलगाड़ी के गंतव्य तक पहुंचता है, जो एक छोटा-सा कस्बा है। प्लेटफॉर्म पर वह उतरता है और वहां के लोग उसे मौलवी समझ लेते हैं, जो इमाम ने उनकी मस्जिद के लिए भेजा है। अब इस दूरदराज के कस्बे की मसजिद में वह महफूज है, परंतु कुरान से अनभिज्ञ होने के कारण संकट में है। उस मस्जिद के बूढ़े सफाई कर्मचारी को इल्म है और वह उसी की मदद से अपने भाषण तैयार करता है। नमाज के बाद वह अपनी चोरों वाले मुहावरों और भाषा में धर्म का मर्म समझाते हुए स्वयं अपने भीतर एक परिवर्तन महसूस करता है। आर्थिक संकट में फंसा एक परिवार सहायता मांगने आता है और नायक रात में अपनी चोरी की कला से एक अमीर आदमी का धन चुराकर उस परिवार की सहायता करता है। धीरे-धीरे एक मददगार धार्मिक व्यक्ति के रूप में उसकी ख्याति फैलने लगती है। वह मजहब की व्यावहारिक व्याख्या करता है। सारांश यह कि पूरा कस्बा परिवर्तन के दौर से गुजरता हुआ खुशहाली हासिल करने लगता है और नायक भी अपनी भूमिका में रम गया है, परंतु ख्याति फैलने के साथ कुछ आला अफसर भी वहां आने लगते हैं। अब पकड़े जाने के खौफ के कारण वह अपनी गुमशुदगी को एक अजूबा की तरह मंचित करता है, ताकि लोगों का ईमान में यकीन कायम रहे।

विजय आनंद की 'गाइड' में भी सजायाफ्ता देवआनंद को गांव वाले धर्मात्मा समझ लेते हैं और उनके यकीन की खातिर वह वर्षा की प्रार्थना हेतु लंबा उपवास करता है। दरअसल, कुछ पद ऐसे होते हैं, जो अपने अधिकारी को ही बदल देते हैं। कुर्सी बैठने वाले के चरित्र को बदल सकती है। कभी कोई दागदार कुर्सी पर बैठे तो कुर्सी का चरित्र बदल सकता है। इस तरह की कहानियों का सारांश यह है कि अच्छे आदमी की भूमिका करते-करते कुछ मूल्य व्यक्ति के चरित्र को बदल देते हैं। 'बिशप एंड कैंडल' भी इसी तरह की कहानी है, जिससे प्रेरित होकर सोहराब मोदी ने 'कुंदन' नामक फिल्म बनाई थी। इसी तरह इंग्लैंड के राजा हेनरी अपने बचपन के मित्र थॉमस को केंटरबरी चर्च का अधीक्षक बनाते हैं, परंतु वह 'ईश्वर का सेवक' होते ही अपने मित्र राजा की आज्ञा मानने से इनकार करता है। इस पर अंग्रेजी की महान फिल्म 'बैकेट' बनी थी, जिसमें पीटर ओ टूल और रिचर्ड बर्टन ने अविस्मरणीय अभिनय किया था। इसकी प्रेरणा से ऋषिकेश मुखर्जी ने राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन अभिनीत 'नमक हराम' बनाई थी।

पढ़े-लिखे विद्वान निर्देशक सुभाष कपूर, राजकुमार हिरानी तथा विधु विनोद चोपड़ा इन सब कहानियों की जानकारी रखते हैं। अत: मुन्नाभाई की दिल्ली यात्रा एक अद्भुत फिल्म हो सकती है। मुन्नाभाई अगर इत्तफाक से प्रधानमंत्री हो जाएं तो क्या होगा? हमारे यहां गुजराल और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री रहे हैं। यहां उनकी तुलना मुन्नाभाई से नहीं की जा रही है, वरन केवल राजनीति में घटने वाले अजूबों की बात की जा रही है। अगले चुनाव का समुद्र मंथन कुछ अजूबे घटित कर सकता है। यह भी संभव है कि कोई अनजान व्यक्ति सफेद घोड़े पर बैठकर दिल्ली पहुंचे। हमारी राजनीतिक विसंगतियां विगत कुछ वर्षों से अनाम अराजक तानाशाह को अदृश्य निमंत्रण देती रही हैं। तानाशाह हमेशा पाश्र्व में खड़े रहकर व्यवस्था के पूरी तरह टूटने की प्रतीक्षा करते हैं। इस तरह के भय आधारहीन नहीं हैं, परंतु हमारे संविधान को इस ख्रूबी से बनाया गयाहै कि देश तानाशाह से बचा रहे और फौज द्वारा सत्ता हरण भी हमारे यहां संभव नहीं है। संभवत: हिरानी ने 'मुन्नाभाई चले अमेरिका' इसीलिए रद्द की कि उनके क्लाइमैक्स में मुन्नाभाई प्रेसीडेंट से मिलते हैं और यह बात करण जौहर की 'माय नेम इज खान' में आ गई थी। मुन्नाभाई का दिल्ली आना अनेक संभावनाओं का संकेत देता है और इसका अगले वर्ष प्रदर्शन होना भी महज इत्तफाक नहीं है। अनेक मुन्नाभाइयों के मन में यह इच्छा अंगड़ाइयां ले रही है। अभी तक आडवाणी जी भी हताश नहीं हैं, उन्हें उम्मीद है कि मुट्ठी भर चेले कोई अजूबा करें।