मुरुगदास और अक्षय 'छुट्टी' के हकदार हैं / जयप्रकाश चौकसे

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मुरुगदास और अक्षय 'छुट्टी' के हकदार हैं /
प्रकाशन तिथि : 07 जून 2014


मुरुगदास ने दक्षिण में अनेक सफल फिल्मों की रचना की और हिंदी में 'गजनी' के बाद अक्षयकुमार, सोनाक्षी अभिनीत 'हालिडे...' भी सफल फिल्म है। जहां गजनी में अन्याय का प्रतिकार करने के लिए नायक जिस्म को मजबूत बनाता है, अपनी चंद सेकंड में जाने वाली स्मृति के बावजूद खलनायक को मारता है, वहां इस फिल्म में नायक और खलनायक दोनों ही शतरंज के खिलाडिय़ों की तरह बुद्धिमानी की चालें चलते हैं गोयाकि गजनी अगर 'ब्रान' 'शरीर' है तो सोल्जर 'ब्रेन' है।

पूरी फिल्म में एक्शन के दो दृश्य हैं परन्तु हिंसा सतह के नीचे सदैव प्रवाहित है। प्राय: फिल्मों के खलनायक वीभत्स लगते हैं। यहां उन्हें इस तरह का गेटअप दिया जाता है कि वे भय पैदा करते हैं और उनके संवाद भी कुछ अजीब होते हैं जैसे 'मोगेम्बो खुश हुआ' या गब्बर की गर्जना 'कितने आदमी थे' या ये 'हाथ मुझे दे दे ठाकुर' इस फिल्म का खलनायक एक सामान्य मनुष्य है, उसके पास कोई 'मसल्स' नहीं है, वह कड़कदार आवाज में दांत पीसते हुए नहीं बोलता है। इसमें जानकर या अनजाने ही फिल्मकार संकेत करता है कि आतंकवादी, अत्याचारी या तानाशाह सामान्य व्यक्ति ही लगते हैं और वे जनसाधारण के साथ ही रहते हैं। हमें यह भी नहीं मालूम कि हमारा पड़ोसी कहां किस एजेंडा के लिए काम करता है।

फिल्म में इस आशय का संवाद भी है कि सारा त्याग व साहस फौज या पुलिसवाला करे, हम तो केवल टेलीविजन पर धमाके देखकर सारी व्यवस्था को अपने एअरकंडीशन कमरे में पॉपकॉर्न चबाते हुए कोसें और गालियां दें। इस फिल्म में आतंकवादी की योजना है कि उनसे रिश्वत लेने वाला अफसर प्रगति करके और बड़ा अफसर बन जाए। इस तरह का जाल आर्थिक आतंकवाद के लिए भी बिछाया जाता है और हर किस्म के अतिवादियों की घुसपैठ सरकार के सारे महकमों में संभवत: हो चुकी है।

बहरहाल, यह फिल्म व्यावसायिक सिनेमा के दायरे में ही काम करती है परन्तु सुरुचिपूर्ण ढंग से और इसमें कानफोड़ू पाश्र्व संगीत भी नहीं है। सिनेमा विश्वास दिलाने की कला है। सिनेमा का एक स्कूल तर्क को ताक पर रखकर सनसनीखेज मनोरंजन गढ़ता है और यह मानता है कि तर्क एक अनावश्यक भार है। दूसरा स्कूल यह है कि विश्वसनीयता का भरम गढ़ा जाए और दर्शक को लगे कि यह सब मुमकिन है, ये संभव है। वह कठिन होकर भी संभव लगता है। मुरुगदास इसी स्कूल के फिल्मकार हैं, वे संभव है का यकीन दिलाते हैं। फिर तर्क के साथ छेडख़ानी खटकती नहीं है। इस फिल्म में एक छोटी भूमिका में गोविंदा ने संयत अभिनय किया है और वे गंभीर बने रहकर दर्शक को बरबस ठहाका लगाने को बाध्य करते हैं। भाव भंगिमा के जिस अतिरेक के कारण वे उद्योग से बाहर हुए थे, उस पर उन्होंने अंकुश लगाया।

वह काफी दुबले भी हो गए हैं। उनका चरित्र-चित्रण भी अत्यंत चतुराई से किया गया है। व्यावसायिक फिल्मों में हास्य भूमिकाएं प्राय: लाउड एवं फूहड़ होती हैं। मुरुगदास ने गोविंदा को आला अफसर बनाया है और नायक के परिचय वाले दृश्य ने ही गोविंदा के सहज हास्य को भी स्थापित कर दिया है। सोनाक्षी सिन्हा फिल्म दर फिल्म निखरती जा रहीं हैं। कुछ फिल्मों के कारण उनकी छवि 'घरेलू' हो गई थी और उन्हें फिल्मी जबान में 'बहनजी' की श्रेणी में डाला जा रहा था परन्तु वे इस फिल्म में अत्यंत सहज लगने के साथ बहुत ही इच्छाएं जगाने वाली महिला के रूप में उभरती हैं। मुरुगदास ने 'गजनी' की नायिका का भी चरित्र-चित्रण अत्यंत मनोरंजक ढंग से किया था और इसी कारण उस जीवन्त पात्र की हत्या के बदले के लिए नायक की योजना व परिश्रम जायज लगता है।

इस साल फिल्म के आतंकवाद का आधार उन्होंने अमेरिकन गुप्तचर सेवा के निष्कर्ष से रचा है कि आतंकवादी एक स्लीपर श्रेणी रचते हैं अर्थात् जीवन में किसी निराशा से ग्रस्त लोगों को चुना जाता है और उन्हें काम की पूरी जानकारी नहीं होती, वे पैसे की खातिर चाबी भरे खिलौने की तरह होते हैं। अत: स्लीपर श्रेणी को नष्ट करने से बात नहीं बनती, उसे नष्ट करना है जो उन्हें 'चाबी' भरता है। मुरुगदास ने अक्षयकुमार से उनके जीवन का श्रेष्ठ अभिनय कराया है। उनकी चाल-ढाल और छोटी से छोटी हरकत भी चरित्र के सार से संचालित है। उसने पूरी तरह रम के काम किया है और अपनी 'त्वरित फिल्मों' से यह सर्वथा अलग है और इस तरह के काम ही लंबी पारी को सार्थक करते हैं।