मूर्खता में ही होशियारी है / ज्ञान चतुर्वेदी

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मूर्खता बहुत चिंतन नहीं माँगती। थोड़ा-सा कर लो, यही बहुत है। न भी करो तो चलता है। तो फिर मैं क्यों कर रहा हूँ? यों ही मूर्खतावश तो करने नहीं बैठ गया? नहीं साहब। हमसे बाकायदा कहा गया है कि करके दीजिए। इसीलिए कर रहे हैं। संपादक ने तो यहाँ तक कहा कि यह काम आपसे बेहतर कोई नहीं कर सकता और मूर्खता की बात चलते ही सबसे पहले आपका ही ख़याल आया था। शायद ऐसा उन्होंने मेरी फोटो देखकर कहा हो। कुछ ऐसी मूर्खतापूर्ण कशिश है मेरे चेहरे में कि आप किसी भी कोण से फोटो खींच लें, चीज छुपती नहीं। मूर्ख लगने, न लगने के बीच का एक संदेहास्पद क्षण हमेशा के लिए ठहर गया है चेहरे पर। सो लगता तो हूँ। पर आप जान लें कि ऐसा हूँ नहीं। फोटो तो हमेशा धोखा देते हैं। कुछ जो हैं, बल्कि खासे हैं बज्र टाइप हैं, वे फोटो में ऐसे नज़र नहीं आते। कई बार तो ख़ासे होशियार नज़र आते हैं। कुछ मूर्ख तो समझदारीवश कुछ इस धज में फोटो खिंचवाते हैं कि होशियारी का भ्रम खड़ा हो जाए। ठुड्डी पर हाथ रखकर मुँदी-सी आँखें रखे। चिंतन में मग्न, बगल में चार किताबें धर के या किताबों की रैक के बगल में खड़े होकर, या चेहरे पर आधी रोशनी, आधी छाया डालकर यदि फोटो खिंचता हो तो आदमी बिना किसी और कारण के ही बुद्धिमान नज़र आने लगता है।

चिंतन में पहला पेंच यही आता है कि मूर्ख किसे कहें? परिभाषा क्या है? मूर्खता नापने का कोई यंत्र होता नहीं। इसकी नपती का फीता भी उपलब्ध नहीं। बस, अंदाज़ से पता करना होता है। मूर्खता हो सामने तो अंदाज़-सा होने लगता है। फिर थोड़ी देर बात करो तो वह प्रकट भी हो जाती है।

परंतु कई बार बातों से भी कुछ पता नहीं चल पाता। कठिन होता है, क्योंकि कई मूर्ख भी रटी-रटाई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें करते हैं। साहित्य तथा चिंतन में तो हम नित्य ही इस दुनिया से गुज़रा करते हैं कि भाषा की आड़ से मूर्खता बोल रही है या विद्वत्ता? इसे समझना आवश्यक है कि मूर्ख इतना भी मूर्ख नहीं होता है कि सीधे-सीधे पकड़ में आ जाए। मूर्ख हमेशा मूर्ख ही नहीं होता। वह विद्वान तक हो सकता है।

मूर्ख टाइप के भी विद्वान होते ही हैं या कहें कि विद्वान टाइप के मूर्ख। पर ऐसे मूर्ख तब ज़्यादा खतरनाक मूर्ख साबित होते हैं और उनसे बचकर निकलने में ही होशियारी कहाती है। ऐसे मूर्ख-विद्वान या विद्वत्-मूर्ख किसी ऊँची कुर्सी पर बिराजे भी मिल सकते हैं। अब यह मत पूछिएगा कि मूर्ख होते हुए भी वह ऊँची कुर्सी पर कैसे पहुँचा।

आपके मूर्खतापूर्ण प्रश्न का उत्तर यही है कि एक तो मूर्खता की वजह से ही उसे यहाँ बिठाया जाता है। फिर कई की मूर्खता कुर्सी पर बैठने पर ही प्रकट होती है। बैठने से पहले ठीक-ठाक लगते थे। बल्कि थे ही। कुर्सी की अपनी मूर्खताएँ होती हैं। उस पर मूर्ख भी बैठ जाते हैं।

फिर कुर्सी के लिए चालाकी की आवश्यकता होती है, होशियारी की नहीं और मूर्ख होने का मतलब यह कतई नहीं कि मूर्ख आदमी चालाक नहीं हो सकता। वह चालाक किस्म का मूर्ख हो सकता है, सो चालाकी से कुर्सी हथिया ले और मूर्खता के कारण कुर्सी पर सफल भी हो जाए। यह बात अवश्य है कि मूर्खता बहुत समय तक छिपकर नहीं रह पाती।

वह प्रकट होने के लिए कसमसाती रहती है। वह मौका ताड़ती रहती है। आदमी लाख विद्वत्ता, लेखन, बड़प्पन, पद, कवित्त, बयानों, भाषणों आदि से ढाँकने की कोशिश कर ले, मूर्खता कहीं न कहीं से झाँकने ही लगती है। यदि आप मूर्ख न हों या अंधे ही न हों तो झाँकती मूर्खता को पकड़ सकते हैं।

अब चिंतन में दूसरा पेंच यह है कि अंततः कितनी मूर्खता हो कि एक आदमी ठीक-ठाक-सा मूर्ख कहा जा सके? या यह भी कि कितनी होशियारी के रहते आप मूर्खता पर ध्यान न देंगे? याद रहे कि दुनिया के बाज़ार में मूर्खता भी मूल्य की तरह है- राजनीति से चलकर कवि सम्मेलन तक इसी मूल्य पर आधारित सिस्टम है।

कई मामलों में मूर्खता होशियारी से भी बड़ा मूल्य माना जाता है, क्योंकि होशियारी की एक सीमा होती है, जबकि मूर्खता सीमाहीन हो सकती है। आप जितना समझ रहे थे, सामने वाला उससे बड़ा निकल सकता है। उसे खुद पता नहीं होता कि उसमें मूर्खता की कितनी क्षमता भरी पड़ी है।

मूर्खता कुछ तो जन्मजात होती है, पर बहुत-सी अर्जित की जाती है। छोटे मूर्ख बाद में बड़े वाले होते देखे गए हैं। जैसे हमारे कुछ लेखक मित्र शुरू से थे, पर बाद में किसी 'संघ' या 'वाद' से जुड़कर मानो मूर्खता को ही समर्पित हो गए और लेखन में भले ही रह गए हों, पर मूर्खता में ऐसी ऊँचाइयों को छुआ कि लोग हमेशा भयभीत रहे कि वहाँ से हम पर ही न कूद पड़ें।

तीसरा पेंच यह कि क्या मूर्खता ऐसी ही बेकार की चीज़ है और होशियारी बहुत बड़ी बात? मूर्खता को छुपाना चाहिए या होशियारी को? हमारे पिता जी हमें डाँटते थे तो यही कहते थे कि हमारे सामने ज़्यादा होशियारी दिखाई तो ठीक कर देंगे। उनसे ही हमने जाना था कि होशियारी भी एक लानत हो सकती है और होशियारी प्रदर्शित करना भी कई जगह मूर्खता की बात हो सकती है। आगे के जीवन में भी मैंने ही सीखा कि इस देश में मूर्खता के प्रदर्शन पर तो कोई बुरा नहीं मानता, बल्कि अपने जैसा पाकर प्रायः लोग खुश ही होते हैं।

होशियार भी मूर्खता देखकर खुश होते हैं कि वे कितने होशियार हैं, जबकि सब कैसे मूरख हैं। मूर्खता को प्रश्रय, बढ़ावा और सम्मान तक मिलता है, क्योंकि मूर्ख आदमी किसी के लिए न तो खतरा बनता है, न ही उनसे प्रतियोगिता में रह पाता है। सो दुनिया मूर्खों से प्रसन्न है। वह तो होशियारों, समझदारों और बुद्धिमानों से भय खाती है। चिढ़ती भी है। परेशान भी रहती है। वह बुद्धिमान को बर्दाश्त नहीं कर पाती। खिलाफ़ हो जाती है। विरोध करती है। किताबें प्रतिबंधित करती हैं। किताबें, अखबार जला डालती हैं। पेंटिंग नष्ट कर डालती हैं। देश निकाला कर देती हैं। फ़तवे जारी करती हैं। गालियाँ देती हैं। प्रदर्शन करती हैं। दुनिया बुद्धिमानों के खिलाफ़ ही रहती रही है। जीसस से लगाकर ओशो तक दुनिया की इसी सामूहिक मूर्खता के शिकार हुए हैं।

तो सारे पेंचों से घूमकर चिंतन का निचोड़ यही निकल रहा है कि इस दुनिया में आमतौर पर, और इस देश में विशेषतौर पर मूर्ख बने रहने में ही भलाई है। यह तथ्य सभी बुद्धिमान जानते हैं। इसी कारण जब यहाँ किसी मूर्ख को देखो तो उसे मूर्ख ही मत मान बैठना। हो सकता है कि वह इतना होशियार हो कि दुनिया में मूर्ख बना पेश आ रहा हो। जब मूर्खता एक अप्रतिम मूल्य बन जाए तो मूर्ख बनने में ही होशियारी है।