मूर्खों के बीच / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(अनुवाद :सुकेश साहनी)

नदी के किनारे तैरते लकड़ी के लट्ठे पर चार मेंढक बैठे हुए थे। तभी लट्ठा नदी के एक तेज धारा की चपेट में आ गया और बहने लगा। मेढक लट्ठे पर मंत्र मुग्ध से बैठे थे क्योंकि उनके लिए इस तरह की जल यात्रा का अनुभव बिल्कुल नया था।

पहला मेंढक बोला, "यह तो बहुत चमत्कारी लट्ठा है। ऐसे चल रहा है मानो जिन्दा हो। ऐसा तो कभी नहीं देखा।"

तब दूसरा मेंढक बोला, "अमाँ नहीं यार, यह भी आम लकड़ी के लट्ठों जैसा है। यह नहीं चल रहा, यह तो नदी है जो बहती हुई हमें और लट्ठे को समुद्र की ओर ले जा रही है।"

तीसरा मेंढक बोला, "न तो लट्ठा चल रहा है और न ही नदी। यह तो हमारी सोच है जो गतिशील है, सोचे बिना कोई चीज नहीं चलती।"

तीनों मेंढक आपस में इस बात को लेकर तकरार करने लगे कि कौन-सी चीज वास्तव में चल रही है। झगड़ा बढ़ता ही गया पर वे आपस में सहमत नहीं हो सके.

तब वे चौथे मेंढक की ओर मुखातिब हुए जो बड़े ध्यान से उनकी बातचीत सुन रहा था, पर अब तक चुप था। उन्होंने उसकी राय माँगी।

चौथे मेंढक ने कहा, "तुम सब सही हो, कोई ग़लत नहीं है। गति लट्ठे में है, पानी में भी है और हमारी सोच में भी।"

यह सुनकर तीनों मेंढक क्रुद्ध हो गए. उनमें से कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था कि उसकी बात सौ फीसदी सही नहीं है और बाकी दोनों शत प्रतिशत ग़लत नहीं है।

तभी अनोखी घटना हुई. तीनों मेंढकों ने मिलकर चौथे को लट्ठे से नदी में धकेल दिया।