मृत्यु और जीवन / ओशो

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प्रवचनमाला

भोर का आखिरी तारा डूब रहा है। कुहासे में ढंकी सुबह का जन्म होने को है। पूरब पर प्रसव की लाली फैल गयी है।

मित्र ने अपने किसी प्रियजन की मृत्यु की खबर दी है। रात्रि ही देह से उनका संबंध टूटा है। फिर थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वे मृत्यु पर बात करने लगे हैं। बहुत सी बातें और अंत में उन्होंने पूछा : 'रोज मृत्यु होती है, फिर भी प्रत्येक ऐसे जीता है कि जैसे उसे मरना नहीं है! यह समझ में ही नहीं आता है कि मैं भी मर सकता हूं। इतनी मृत्यु के बीच, यह अमृत्व का विश्वास क्यों?'

यह विश्वास बहुत अर्थपूर्ण है। यह इसलिए है कि म‌र्त्य देह में जो बैठा है, वह म‌र्त्य नहीं है। मृत्यु की परिधि है, पर केंद्र पर मृत्यु नहीं है। वह जो देख रहा है- देह-मन का दृष्टा है- वह जानता है कि मैं देह और मन से पृथक हूं। वह म‌र्त्य का दृष्टा, म‌र्त्य नहीं है। वह जान रहा है : सब मृत्युओं को पार करके भी मैं अमृत शेष रह जाता हूं।'

पर यह बोध अचेतन है, इसे चेतन बना लेना ही मुक्त हो जाना है। मृत्यु प्रत्यक्ष दीखती है, अमृत का बोध परोक्ष है- उसे भी जो प्रत्यक्ष बना लेता है, वह जान लेता है उसे- जिसका न जन्म है, न मृत्यु है।

वह जीवन-जो जीवन और मृत्यु के अतीत है- पा लेना ही मोक्ष है। वह प्रत्येक के भीतर है, उसे केवल जानना भर है।

एक साधु से किसी ने पूछा था, 'मृत्यु क्या है और जीवन क्या है? यह जानने मैं आपके पास आया हूं।' उस साधु ने प्रत्युत्तर में जो कहा, वह अद्भुत है। उसने कहा था, 'तब कहीं और जाओ। मैं जहां हूं, वहां न मृत्यु है, न जीवन है।'

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)