मेंहदी / उमेश मोहन धवन

Gadya Kosh से
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"पापा देखो मेंहदीवाली। मुझे लगवानी है" पंद्रह साल की छुटकी बाज़ार में बैठी मेंहदी वाली को देख मचल गयी। "कैसे लगाती हो" विनय नें सवाल किया। "एक हाथ के पचास दो के सौ" मेंहदी वाली ने जवाब दिया। विनय को मालूम नहीं था मेंहदी लगवाना इतना मँहगा हो गया है। "नहीं भई एक हाथ के बीस लो वरना हमें नहीं लगवानी। " यह सुनकर छु्टकी नें मुँह फुला लिया। "अरे अब चलो भी ,नहीं लगवानी इतनी मँहगी मेंहदी " विनय के माथे पर लकीरें उभर आयीं । "अरे लगवाने दो ना साहब। अभी आपके घर है तो आपसे लाड़ भी कर सकती है। कल को पराये घर चली गयी तो पता नहीं ऐसे मचल पायेगी या नहीं। तब आप भी तरसोगे बिटिया की फरमाइश पूरी करने को। " मेंहदी वाली के शब्द थे तो चुभने वाले पर उन्हें सुनकर विनय को अपनी बड़ी बेटी की याद आ गयी जिसकी शादी उसने तीन साल पहले एक खाते -पीते पढ़े लिखे परिवार में की थी। उन्होंने पहले साल से ही उसे छोटी छोटी बातों पर सताना शुरू कर दिया था। दो साल तक वह मुट्ठी भर भर के रुपये उनके मुँह में ठूँसता रहा पर उनका पेट बढ़ता ही चला गया और अंत में एक दिन सीढियों से गिर कर बेटी की मौत की खबर ही मायके पहुँची। आज वह छटपटाता है कि उसकी वह बेटी फिर से उसके पास लौट आये और वह चुन चुन कर उसकी सारी अधूरी इच्छाएँ पूरी कर दे। पर वह अच्छी तरह जानता है कि अब यह असंभव है। "लगा दूँ बाबूजी, एक हाथ में ही सही " मेंहदीवाली की आवाज से विनय की तंद्रा टूटी। "हाँ हाँ लगा दो। एक हाथ में नहीं दोनों हाथों में। और हाँ, इससे भी अच्छी वाली हो तो वो लगाना।" विनय ने डबडबायी आँखें पोंछते हुए कहा और बिटिया को आगे कर दिया।