मेघना-चौथोॅ दृश्य / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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स्थान-जंगल

(दोपहर के बाद रोॅ समय। भीषण गरमी छै। यत्र-तत्र कटलोॅ गाछ गिरलोॅ छै। नजर भर जहाँ-तहाँ दू-चार वृक्ष देखाय छै। जैं ठिंया मेघना गाछ काटी रहलोॅ छै, वैं ठिंया सिरिफ एक ठो गाछ आमोॅ केॅ छै। दस बारह गाछ सीसम के काटलोॅ गिरलोॅ छै। आमोॅ के एक गाछ आधा सें जादा काटलोॅ छै। दू-चार कुल्हाड़ी लागथैं गिरी जैते। मेघना ताबड़तोड़ वै गाछी के काटी केॅ गिराय लेॅ भिड़लोॅ छै)

मेघना : (घामें घमजोर छै) गाछ लै में सुसुत बरै छै लोगोॅ केॅ। दाम दै में नाकुर-नाकुर, देखोॅ तेॅ, दस गाछ सीसम आरो दू गाछ आमोॅ के काटै में आय आठ रोज लागी गेलै। हेनै केॅ पैसा नै होय छै। आबेॅ ई अंतिमें गाछ छेकै। धूप बढ़ी रैल्होॅ छै। सुस्तैला सें काम नै चलतै। ऐकरा काटी के ही घोॅर जैबेॅ खाय लेली (कुल्हाड़ी लैकेॅ बचलोॅ आमोॅ के गाछ काटै लेॅ भिड़ी जाय छै)

(नेपथ्य से आवाज आवै छै, वृक्ष बोलै छै)

(नेपथ्य स्वर)

वृक्ष : (काँपतें हुअें) थरथर कांपी रहलोॅ छीं हम्में, तोरा तनियो टा दया नै आवै छौं। हमरा नै काट, ओह! हमरा नै काट। (आवाज गूँजै छै)

मेघना : (चारोॅ तरफ हियाय के देखै छै) एैं! के बोलै छै रे। भूत-प्रेत जे छैं सामना में आव। (पसीना पोछतें हुअें गाछी के छाहुर में बैठै छै।) वृक्ष: हमरै छाहुर में बैठलोॅ छै, सुस्ताय रहलोॅ छै आरो हमरै, सुस्तैला के बाद उठतै आरो काटै लागतै। कत्तेॅ बेशरम आरो निरबुद्धि होय छै आदमी।

मेघना : (चारोॅ तरफ निरयासी केॅ) देखाय तेॅ कोय नै छै मतुर बोलै तेॅ कोय छै ज़रूर। (सोची केॅ) भ्रम भी हूवें पारै छै।

(तीन-चार वृक्ष के संयुक्त आवाज)

वृक्ष : प्राणवायु छै हमरै छाहुर में, अमृत छेकै हमरोॅ छाया। हमरा छाया में बैठतें शीतल होय जाय छै, प्राणीमात्र के काया, हमरा कैन्हें काटी रैलहोॅ छैं भाय।

मेघना : (अचरज सें सोचतें हुअें) ज़रूर भ्रम छेकै। अत्तेॅ दिनोॅ सें जंगल में गाछ काटी रेल्होॅ छियै। ऐन्होॅ कुछु तेॅ नै होलोॅ छै। चलें! बहुत बेर होय गेलै। जल्दी सें ई गाछी के निबटाय केॅ घोॅर जाना चाहियो। भूख भी लागलोॅ छै। साथ में लानलौ पानी भी खतम होय गेलेॅ छै।

(उठी केॅ गाछ काटै छै। दू-चार चोट लगथैं गाछ

भरभरा के गिरै छै। जंगल के शांत वातावरण एक

जोरदार आवाज के गंूज सें गुंजायमान होय जाय छै।

(ओह! ओह! के दर्द भरलोॅ आवाज)

वृक्ष : आह! ओह! ...आ...आ, आ, आ, आ, ह।

मेघना : (विचारतें हुअें) दर्द सें भरलोॅ ई आवाज सच्चेॅ में गाछियै के छेकै की? (पसीना माथा केॅ पोछै छै) छाहुर वाला गाछ भी तेॅ, यें ठियां ई अंतिमे छेकै। अरे! धूप कत्तेॅ लागै छै। प्यास सें भी ठोर, मूँह आरो कंठ सुखेॅ लागलै।

(थक्की के चूर मेघना धूप सें व्याकुल होय केॅ हिन्नें-हुन्नें

दौड़े छै। छाहुर खोजे छै। मगर कांही छाहुर नै मिलै छै।)

मेघना : (हाँफतें हुऐं) छाहुर वाला गाछ काटी के बड़का गलती करी देलियै। बाप रे बाप, धूप बरसै लागलै। (काटी के गिरैला गाछी के पत्ता में नुकाबै छै आरो धूप में छटपट करी केॅ मरी जाय छै।)

(नेपथ्य सें आवाज आबै छै)

जें गाछोॅ केॅ काटै छै
मेघनै रंग कानै, कलटै छै।
छाया बिन तड़पी-तड़पी केॅ
छाहुर लेली हलफी-हलफी केॅ
कानै-कलपै लोटेॅ छै
जें गाछोॅ के काटै छै।
नै सोचलकै मरी गेलै
केनां कहियौं तरी गेलै
अभियोॅ चेतोॅ, मानवता के तरान दिलाबोॅ।
वृक्ष बचावोॅ, वृक्ष बचावोॅ, वृक्ष बचावोॅ॥