मेज पर टिकी हुई कुहनियाँ / रमेश बक्शी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुहानियाँ मेज पर टिकी थीं और दोनों हाथ सिर पर इस तरह रखे हुए थे, जैसे सिर ही दोनों हाथों पर रखा हुआ हो। आँसू कुछ इस तरह बहे थे कि उनकी लकीर के गीलेपन से दोनों कलाइयों पर सूखी-गीली सिलवट-सी बन गई थी। यह हालत सवेरे से है, सवेरे से तो क्या, सच बात तो यह है कि यहाँ आया तब से ही है। सुबह पहाड़, दोपहर पहाड़, साँझ पहाड़ में ऐसा भटका हूँ, इस नए शहर में आ कर कि चेहरे पर उदासी का जैसे आयल स्प्रे हो गया हो, बारहों महीने बना रहेगा, इस पेंटिंग पर जलवायु का कोई असर भी तो नहीं होता। लगता है जैसे हँसी और मुसकान को देश निकाला दे दिया गया हो।

सोच ही रहा था कि कभी मूड ठीक होगा भी यहाँ, कभी समझौता भी होगा यहाँ की धूल से कि दरवाजा बजा। कौन होगा? डॉक्टर ही होगा, चला आता है बोर करने। या फिर जहाज ओर उड़ते पंछियों वाली छपाई की हैंडलूम-स्कर्ट पहने वही लड़की होगी। ...मुँह पोंछा, जरा स्वस्थ हुआ, 'रो नहीं रहा था', ऐसा पोज बनाया ओर दरवाजा खोला।

'तुम भी खूब हो प्रोफेसर, दरवाजा क्यों बंद किए रहते हो भाई?' डॉक्टर ही था। हाथ में बेग लिए। शायद अस्पताल से लौटा है।

'आइए' मैं ठीक उसी तालाब के पानी-सा ठंडा स्वागत किया, जिसका पानी ऊपर से जम गया हो और जिसमें पत्थर फेंकने से एक क्या, आधी लहर भी न उठ पा रही हो।

डॉक्टर आ जमा कुरसी पर। बोला, 'दो वर्ष में रिसर्च पूरी हो जाएगी। संक्रामक रोगों पर इतने विस्तार से किसी ने खोज नहीं की है अब तक। मैंने सोचा है कि टी.बी., लेप्रॉसी, कॉलरा, फ्लू सभी पर काम कर डालूँ।' वह जेब से सिगरेट निकालने, फिर माचिस ढूँढ़ने और फिर सिगरेट को ओठों के बीच दबा कर उसे सुलगाने में व्यस्त हो गया।

'हाँ' मैं बोला तो, पर मन बोलने को नहीं हो रहा था। किस डॉक्टर का पड़ोसी बन बैठा कि हर क्षण सिर पर सवार रहता है। आएगा और कर देगा शुरू, 'इन संक्रामक रोगों के कीड़े बड़े खतरनाक होते हैं। बड़ी तेजी से फैलते हैं। लाखों की संख्या में पैदा होते हैं ये। मैंने तो खुर्दबीन से इनके छोटे-से-छोटे प्रकार भी देखे हैं। प्रोफेसर, किसी दिन आओ न अस्पताल में, तो दिखाऊँ मैं तुमको ये कीड़े। अजीब होता है इन सालों का फैलने का तरीका। टी.बी. वाले कीड़े माँ के शरीर से बेटे के शरीर में, बेटे के शरीर से उसके बेटे के शरीर में, उसके बेटे के शरीर से उसके बेटे के शरीर में...।' उसकी बात सुनते-सुनते मुझे कई बार ऐसा लगता रहा है कि विभिन्न तरह के कुछ कीड़ों का संक्रमण उस डॉक्टर के दिमाग में से मेरे दिमाग में हो रहा हैं डॉक्टर सिगरेट पीते-पीते बोला, 'यार, जरा हँसा-बोला भी करो। क्या रखा है जिंदगी में! मेरे घर देखो न, सब खुश हैं। मिसेज किस्म-किस्म के आमलेट बनाने में लगी रहती हैं, लड़की है तो वह भी सदा हँसती ही रहती है। एक हजार रुपया दूँ प्रोफेसर किसी दिन अगर उदास बता दो उसे पाँच मिनट के लिए भी। और भैया, मैं तो लगा हूँ इन्फेक्शंस डिजीज की खोज-पड़ताल में। है मजेदार सब्जेक्ट।'

मैं अपने सदमे में घुटा जा रहा था, सो चिढ़ कर बोला, 'कभी इस रोग को छोड़ और भी कोई बात करोगे?' वह हँस कर बोला, अच्छा अब तुम्हारे बारे में करता हूँ बातें। तुम्हें कैसी लगती हैं इस संक्रामक रोग की बातें?' वह हँसा और जाने को उठ गया। चला गया तो यूँ लगा जैसे कुछ कीड़े मेरे कमरे में छोड़ता गया है।

थोड़ी देर बाद मुझे अपने-आप अहसास हुआ कि कुहनियाँ मेज पर टिकी हैं और दोनों हाथ सिर पर इस तरह रखे हुए हैं जैसे किसी ने फूल बनी मेरी हथेलियाँ पर सिर ला कर रख दिया हो। मैं सोच रहा था कि जगह कितनी सड़ी है। कोई है नहीं जिसके घर दो घड़ी जा सकें, कुछ देर को समय काट सकें। न कोई पार्क है न नदी-किनारा। न कोई फूल-पौधों की झाड़ी कि दो प्यारे से फूल तोड़ लाएँ और आईने के सामने खड़े हों तो बटन-होल में लगा लें। और कुछ नहीं तो भीनी-भनी महक की गागरें ही भर लें और साँसों की पनिहारिन के पैर उस वजन से डगमगा जाने दें। मेरी आँखें अपने-आप भीग गईं। तरबतर पलकों से मैं अपनी पुततियों के सामने पानी के दो दर्पणों को काँपता हुआ महसूस करने लगा। जी चाहता था कि सिसक लूँ। अपने बाएँ हाथ से आँसू पोछूँ और दाएँ हाथ से अपनी ही पीठ सहलाऊँ कि जैसे किसी दूसरे का हाथ हमदर्दी दे रहा हो। तभी मस्ती में झूमती हुई, जहाज और उड़ते पंछियों वाली छपाई की हैंडलूम-स्कर्ट पहने डॉक्टर की लड़की हाथ में खिलौना की टोकरी लिए आ गई।

'देखो न चाचाजी, जे तेज चलने वाला टरक हेगा। जे हवाई जहाज, इधर से चाबी भरे तो उधर को तीन चक्कर काटेगा...' वह कहती जा रही थी और मैं बेहद उदास उसकी तरफ देख-भर रहा था। उसका हँसता हुआ फूल जैसा चेहरा खिला-का-खिला था, पर मेरे दर्पण-मन को क्या हो गया कि उस पर मुसकान की परछाईं बन ही नहीं रही थी? डॉक्टर की शर्त याद आ रही थी कि एक हजार रुपया दूँ प्रोफेसर, किसी दिन अगर उदास बता तो उसे पाँच मिनट के लिए भी।

'देखो न चाचाजी। जे रेल की पटरी और जे रेल, जे रहा इसका पुल, जे हेगा सिर हिलाने वाला डाकू...।' मैं चुप-का-चुप बना रहा तो उसने पूछा, 'क्या हुआ चाचा जी?'

इतना ही कहा मैंने, 'मूड ठीक नहीं है। तुम जाओ। जाओ।' कुछ देर वह हँसती रही फिर आप-तन्मया चली गई। हवा में उसके स्कर्ट के दो हिस्से कुछ इस तरह मिल गए कि सारे पंछी जहाज के ऊपर ही उड़ रहे से दिखने लगे।

परदेश में डाक एक आसरा है। किसी दूर-पास के दोस्त का खत आ जाए तो पल-दो-पल को मन जरा ठीक हो जाता है। आज सुबह की, शाम की दोनों डाक देख चुका, पर किसी का कोई खत नहीं। उफ रे अकेलापन! स्विच ऑन किया तो उजेला चुभने लगा, ऑफ कर दिया तो मारे अँधेरे के दम घुटने लगा। हवा तीखी थी, सो सिर तक अपने-आप को ढँक लिया, पर शाल की ऊनी गंध सहन न हुई। लगता रहा जैसे किसी बीमार भेड़ के नजदीक बैठा होऊँ और उसके कीड़े, डॉक्टर के अनुसार, रेंग-रेंगकर मेरी नाक में घुसे जा रहे हों। मैं उठ गया। जी हुआ कि जैसे भी बने एक झटके से इस एक-जैसे अकेलेपन की रुखाई को तोड़ फेंकूँ। मेरी उदासी मुझे गरम कोट पर जमी गर्द के समान लगी। मन होता रहा कि ब्रश से साफ कर दूँ, इस जमी धूल को।

गया तो सिनेमा देखने चला गया। बालकनी में केवल एक अकेला - मैं - केवल मैं। इंडियन न्यूज भी आधी ही देख पाया, उठा और घर लौटा, इतने धीमे-धीमे जैसे किसी की शव-यात्रा में कंधा दिए चल रहा होऊँ। दरवाजे पर ही बैठी थी वही जहाज और उड़ते पंछियों वाली छपाई की हैंडलूम-स्कर्ट पहने डॉक्टर की लड़की। उसके हाथों में एक कॉपी थी।

'देक्खो न चाचाजी! जे मेरी बनाई तसवीरें हेंगी। जे अमरूद, जे मोटर, जे सामने वाली गाड़ी। जे हेगा खरगोश, पर बाबूजी कहते हेंगे कि उसके सींग नहीं होते। एक सींग तो मैंने ब्रश से मिटा दिया, दूसरा भी मिटा दूँ क्या चाचाजी?' वह मेरी तरफ देख रही थी और मैं खोया हुआ था।

जहाज और उड़ते पंछियों वाली छपाई की हैंडलूम-स्कर्ट पहने वह लड़की हँसे जा रही थी। बोली, 'चाचाजी, जे आदमी बनाया हेगा मैंने, पर इसकी नाक नहीं बनी ठीक से। नाक किसी की लंबी हो चाचाजी तो कैसे बनाएँगे?'

मैंने इस प्रश्न को भी अनसुना कर दिया। वह कॉपी अलग रख मुझसे झूम गई। मुझे लगा कि मुझे जीवन का वह हिस्सा खींच रहा है, जो मुझे मिल नहीं सकता। मैंने अपने शरीर से उसके हाथ छुड़ा दिए और बोला, 'फिर कभी ये चित्र दिखाना। अभी तो मूड ठीक नहीं है।'

तभी उसकी किसी सहेली ने सड़क पर से पुकार लिया और वह चलती बनी। मैंने घूम कर देखा, तो डॉक्टर को सामने पाया। बोले, 'मैं कुछ फोटो लाया हूँ तुमको दिखाने के लिए।

मैं कुछ कहूँ, इसके पहले ही डॉक्टर ने तीन एक्स-रे फोटो मेरे सामने कर दिए और लाइट के सामने घूम कर दिखाने लगा, 'ये है बाप की छाती का फोटो, देखो इस जगह निशान दिख रहे हैं, और ये उसके बेटे का फोटो, और ये उसके बेटे के बेटे का फोटो। तीनों में एक ही जगह खराबी है। बड़ी मुश्किल से तीनों फोटो मिले हैं। लगता है इन साले कीड़ों को छाती का ये वाला हिस्सा ही', उस फोटो के एक खास हिस्से पर उँगली घुमाते वे बोले, 'पसंद है। पर अब ज्यादा दिन नहीं चलेगा इन कीड़ों का अंधेर।' मेरे चेहरे को पत्थर-सा जड़ देख डॉक्टर बोला, 'कहो तो एक दिन तुम्हारी जाँच कर दूँ प्रोफेसर?' फिर हँसा, 'जाने किस संक्रामक रोग के कीड़े हैं तुम्हारे शरीर में। कहीं यहाँ मत फैला जाना।'

डॉक्टर खड़ा ही था, पर मैंने कुहनियाँ मेज पर टिका लीं और दोनों हाथ सिर पर इस तरह रख लिए, जैसे मेरे मन के अंदर अभी-अभी किसी की मृत्यु हो गई हो।

यहाँ आ कर समय की परिभाषा बदल गईं है, जो कट जाए उसे ही समय कहता हूँ और जो न कटे, वह दिन हो चाहे रात, है तो बोर्डम ही। एक दिन इस बोर्डम का हिंदी शब्द ढूँढ़ने लगा पर चार और चार आठ मिनट में ही इतना बोर हो गया कि डिक्शनरी एक कोने में जोर से फेंक दी। जी चाह रहा था कुछ करूँ। पर करूँ तो क्या करूँ? सौ बार मैंने एक उपन्यास पढ़ने का प्रयत्न किया, हजार बार मन लगाया कि कुछ नहीं तो उर्दू के कुछ शेर ही गाऊँ और लोखों कोशिशें की कि और कुछ नहीं तो सो ही लूँ - कुछ समय तो वैसे में कटता ही है - नींद टूटती है और जाग कर घड़ी में समय देखने पर जब यह मालूम होता है कि दो से चार तक, यानी दो घंटे सो लिए तो चुटकी बजाते सतपुड़ा के एक पहाड़ को पार कर लेने के सुख-अनुभव में, एक घंटा और यूँ ही कट जाता है... पर न नींद आती है और न ही जागते रहने में चैन ही मिलता है, फिर करें तो क्या करें? कोई काम नहीं, कोई भी काम नहीं, कोई काम है ही नहीं। चहलकदमी करता बाहर आया तो देखा कि जहाज और पंछियों वाली छपाई की हैंडलूम-स्कर्ट पहने वह लड़की रस्सी कूद रही थी।

मैं उठ खड़ा हुआ। जैसे कोई हड्डी-हड्डी पर चढ़ जाए, फिर अनायास ही झटके से उतर कर ठीक हो जाए ऐसा ही कुछ मुझे लगा। मेरे चेहरे पर मुसकान का गोल वृत्त बना - ठीक घूमती हुई रस्सी की तरह और मेरी प्रसन्नता की लड़की - जैसे उछल-उछल कर कूदने लगी, 'एक्दो, तीन्चार, पाँच्छे, सात्ताठ, नोदस्स, ग्यारे-बारे...।' यह जगह जैसी है, है। मुझे इससे क्या? मैं ठीक से रहूँ - चार गमले खरीद लूँ और गुलाब के पौधे रोप दूँ उनमें। कोई प्यारा-सा उपन्यास पढ़ूँ और फिर अगले दस दिनों तक साँस-साँसों में उसे जिऊँ। अरे, अकेला रहना ही क्या बुरा? खूब खाओ, कूद-कूद कर बेडमिंटन खेलो, टेबिल-टेनिस खेलो, दो-तीन मील तक घूम आओ और रात को अपनी प्रेमिका के सपने देखो...। इससे मीठा और क्या होगा...?

जहाज और उड़ते पंछियों की छपाई वाली हैंडलूम-स्कर्ट पहने वह लड़की कई बार 'नब्बे सौ' तक पहुँच गई और फिर, 'एक्दो' पर आ गई थी। जी हुआ कि जाऊँ और इस लड़की से इसका नाम पूछूँ, कहूँ कि तेरी रिबिन का रंग तो लाल है। वह झगड़ेगी - कहेगी, 'नहीं पीला है।' मैं कहूँगा, 'नहीं, ये तो लाल है।' वह मुझे मारने दौड़ेगी, मैं भागूँगा। वह हँसेगी तो मैं खिलखिला कर हँस पडूँगा... और मजा आ जाएगा। मैं उठा। मैंने जेब में पर्स रख लिया। सोचा, इसे बाजार ले जाऊँगा और ढेरों स्वीट्स खरीदवा दूँगा। इसकी बात-बात को तरह दूँगा, मेरा हर क्षण खुशी का होगा, हर क्षण।

मैं उसकी तरफ बढ़ा पर मुझे ही किसी ने पुकारा। घूम कर देखा तो डॉक्टर था। मैंने (शायद पहली बार) खुश हो डॉक्टर का स्वागत किया, 'हल्लो डॉक्टर' कहाँ तक आई रिसर्च?'

'अरे!' वह मेरे इस प्यार-मनुहार वाले स्वागत से चौंक गया।

'क्यों, ऐसे चौंक क्यों गए?' मैंने हँस कर पूछा।

'एक हजार पक गए भाई।' वह जहाज और उड़ते पंछियों की छपाई वाली हैंडलूम-स्कर्ट पहने अपनी लड़की की तरफ मुँह किए बोला, 'उसने शर्त बदी थी कि चाचाजी को कभी हँसते दिखा दो तो एक हजार रुपए दूँगी और आज तुम हँस रहे हो, सच, ऐसे में खूब अच्छे लगते हो।'

हम एक-दूसरे के कंधों पर हाथ रखे थे। जहाज और उड़ते पंछियों की छपाई वाली हैंडलूम-स्कर्ट पहने रस्सी कूदती लड़की की तरफ बढ़े तो डॉक्टर बोला, 'रिसर्च में एक अजीब उदाहरण मिला है प्रोफेसर?'

मैंने पूछा, 'कौन-सा?'

'कॉलरा का एक मरीज अस्पताल में भरती हुआ था। जो नर्स अटेंड कर रही थी उसे फ्लू हो रहा था। अजीब नर्स है, किसी को बताया तक नहीं, फ्लू में ही काम करती रही', डॉक्टर कुछ रुककर बोला, 'और, कॉलरा और फ्लू दोनों ही संक्रामक रोग हैं।'

'सो तो मालूम है पर हुआ क्या, असल बात तो बताओ।' मैंने उसकी बात को मोड़ देते हुए पूछा।

बड़ा इंपोर्टेंट केस है। जब रोगी कॉलरा से स्वस्थ हुआ तो उसे फ्लू हो गया और जब नर्स को फ्लू से छुट्टी मिली तो उसे कॉलरा हो गया। डॉक्टर ने रिसर्च की खुशी में कहा 'साले कीड़ों ने घर बदल लिया।'

मैं हँसता-सा बोला, 'और यही रोग मुझे भी लग गया।'

कौन-सा रोग' डॉक्टर रोग के लिए हमेशा तैयार ही बैठा रहता है - मछुए की तरह, मछली के ओठों ने काँटे को छुआ नहीं कि झटका।

मैंने उसकी उत्सुकता का मजा लेते हुए कहा, 'उस जहाज और पंछियों की छपाई वाली हैंडलूम-स्कर्ट पहनी तुम्हारी बेबी को जो हँसने-मुसकराने का संक्रामक रोग है न, वह लग गया है मुझे।'

अच्छा।' डॉक्टर ने मेरी पीठ थपथपाई और अपनी भाषा में बोला, 'तो मुसकान के कीटाणु बेबी के शरीर से तुम्हारे शरीर में संक्रमित हो गए हैं!'

'हाँ यही हुआ।' मैंने कहा - और हम दोनों तेजी से उसके पास पहुँचे। उसने कूदना बंद कर दिया। मैं कहने को था कि बेबी, मेरी उदासी सदा को चली गई है, मेरा मूड अब कभी खराब नहीं होगा। जहाज और उड़ते पंछियों वाली छपाई की हैंडलूम-स्कर्ट पहने वह बेबी अंदर भाग कर टेबिल के सामने कुरसी पर बैठ गई।

इसका चेहरा जर्द हुआ जा रहा था। जैसे चमेली की बेल से सब फूल चुन लेने पर वह खाली-खाली लगती है। ठीक वैसी ही वह बेबी लग रही थी।

मन ने प्रश्न किया, कहाँ गया इसका हँसना-मुसकराना? मैं आगे बढ़ा। मैंने मुसकरा कर प्यार से उसे अपनी बाँहों में उठा लिया तो उसने गंभीर मन अपने-आप को मुझसे छुड़ा लिया। बोली, 'ना, बोलो मत चाचाजी! मूड ठीक नहीं हेगा।' वह ठीक मुझ-जैसी ही उदास थी। उसने कुहनियाँ मेज पर टिका लीं और दोनों हाथ सिर पर इस तरह रख लिए जैसे मेरे उदास मूड के सर्प ने उसकी मुसकान के मृगछौने को डस लिया हो!