मेमोरी कार्ड / कुबेर

Gadya Kosh से
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यह कहानी उच्चवर्गीय अति संभ्रांत लोगों की एक कालोनी से संबंधित है, जिसे अत्याधुनिक ढंग से शहर की परिधि में सुरम्य और प्रदूषण रहित वातावरण में बसाया गया है। आधुनिक जीवन की हर सुख-सुविधा और दैनिक जरूरतों को ध्यान में रख कर विकसित किया गया यह कालोनी आधुनिक वास्तुशास्त्र का अनुपम उदाहरण है। सममित आकृति के होने के कारण यहाँ की सड़कंे, स्ट्रीट्स, बंगले और फ्लैट्स केवल नंबरो के द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं। इन बंगलांे और फ्लैट्स में रहने वाले साहब लोग भी अमूमन इन्हीं नंबरो से ही जाने-पहचाने जाते हैं - जैसे अमेरिका और भारत में हुए आतंकी हमलों को हम नाइन इलेवन और छब्बीस ग्यारह के नाम से जानते हैं।

विज्ञान की नवीनतम तकनिकी युक्त सुख-सुविधाओं और आधुनिक जीवन-शैली जीने वालों की पहचान अलग तो होनी ही चहिये।

यहाँ की दुनिया आम लोगों की दुनिया से दूर बसी हुई एक अलग ही दुनिया है। जरूरी काम से बुलाये गये कारीगरों और कामगारों के सिवाय यहाँ कोई भी आसानी से प्रवेश नहीं कर सकता।

इस कालोनी के वेस्ट विंग के नाइन इलेवन बंगले में किसी साहब का परिवार रहता है। इस परिवार में पति-पत्नी के अलावा एक पुत्री है जो अभी स्कूल में पढ़ रही है, नाम है श्रुति। नाइन इलेवन दंपति अर्थात श्रुति के मॉम एण्ड डैड, अलग-अलग मल्टी नेशनल कंपनियों में उच्च पदों पर आसीन हैं और सप्ताह के पूरे दिन अपने-अपने काम में व्यस्त रहते हैं। अपनी व्यस्तता में से कभी-कभी थोडा़ बहुत समय वे पुत्री के लिये भी निकाल लेते हैं, पूछ लेते हैं कि पढ़ाई कैसे चल रही है, किसी चीज की कमी तो नहीं है? आदि, आदि ....।

श्रुति इस तरह के औपचारिक वार्तालापों का अभ्यस्त हो चुकी है और यह औपचारिकता अब उसके अनुभव की सहजता भी बन गई है। श्रुति के मॉम-डैड श्रुति की हर सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं। श्रुति को माँ-बाप से वे सभी सुख सुविधाएँ बिन मांगे मिलती हैं, जो उन्हें चाहिये; पर वह प्यार, वह परवरिश और वह देखभाल कभी नहीं मिली, जो जवान होती किसी किशोरी के लिये बहुत जरूरी होती है। कभी-कभी माँ-बाप जब अनौपचारिक होने का प्रयास करते हैं, श्रुति असहज हो जाती है और तब माँ-बाप का यह अनौपचारिक रूप उसे बिलकुल किसी अजनबी के समान लगने लगता है।

इसके विपरीत जे. डी. साहब के परिवार से उनका रिश्ता अधिक अनौपचारिक हो गया है। जे. डी. साहब की पत्नी, जो हाउस-वाइफ है, से वह काफी घुली-मिली है और उसके घर उनका रोज आना-जाना लगा रहता है। श्रुति के मॉम-डैड इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं, और इसमें शायद उनकी मौन सहमति भी है, क्योकि जे.डी. दंपति श्रुति का होमवर्क करने में मदद जो करती है।

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जे. डी. साहब का परिवार इसी स्ट्रीट पर, नाइन इलेवन के एकदम अपोजिट साइड पर, बंगला नंबर छब्बीस अपॉन ग्यारह में रहती है। जे.डी. साहब विज्ञान के अध्यापक हैं। परिवार में पत्नी के अलावा जवान होता हुआ एक पुत्र है। माँ-बाप अपने इस इकलौते पुत्र को हर कीमत पर आई. ए. एस. में देखना चाहते हैं। पिछले लगभग एक साल से वह इसी का कोचिंग लेने बाहर गया हुआ है और इसी वजह से जे.डी. साहब को एक बार फिर नव विवाहित दंपति की तरह का सुख भोगने का मौका मिला हुआ है। आधी उम्र में भी जे. डी. साहब जवान ही लगते हैं। अभी दो दिनों के लिये पत्नी मायके गई हुई है और पत्नी बिछोह के गम में जे. डी. साहब पागल हुए जा रहे हैं।

आज रविवार है, पता नहीं दिन कैसे बीतेगा? वह कंप्यूटर में व्यस्त होने का प्रयास कर रहा है, पर उद्देश्य कुछ भी नहीं है। एकाकीपन और मन की व्यग्रता ने उसे और अधिक उद्देश्यहीन बना दिया है।

जे. डी. साहब को अपने उस मेमोरी कार्ड का ध्यान हो आया जिसमें मनोरंजन की बहुत सारी सामग्रियाँ रिकार्ड करके रखी गई है पर बदकिस्मती ही कहिये, हर संभावित जगह पऱ़, पिछले आधे घंटे से लगातार तलाश जारी है, और फिर भी वह मिल नहीं रहा है।

कंप्यूटर के स्क्रीन सेवर पर इस समय बहुत ही सुंदर और बहुत ही मासूम एक किशोरी का चित्र बार-बार उभर रहा है। यह श्रुति की तस्वीर है जिसे श्रुति ने ही सवयं कुछ दिन पहले लोड किया था।

उस दिन जे. डी. साहब ड्यूटी के लिये निकल ही रहे थे कि आती हुई श्रुति से गेट पर मुलाकात हो गई। देखकर जे. डी. साहब ठिठक गये। श्रुति ने नया ड्रेस पहना हुआ था, सफेद रंग का, बिलकुल परियों वाला, और इस ड्रेस में वह परियों की ही तरह गजब की सुंदर दिख भी रही थी। जे. डी. साहब की जबान से अनायास ही निकल पडा़ - “ओह! श्रुति मेडम? आज तो आप बिलकुल राज कपूर की हिरोइन लग रही हो। काश, वे जिंदा होते।”

जे.डी. साहब का यह कमेंट बिलकुल ही अनायास और निष्प्रयोजन था; शायद इसीलिये वह श्रुति की प्रतिक्रिया देखे बगैर ही अपने काम पर तेजी से निकल गया। देखे होते तो पता चलता कि हृदय का सारा रक्त श्रुति के चेहरे पर किस तरह एकाएक दौड़ने लगा है और अनायास ही वे सब भाव भी आ गये हैं, जो एक योद्धा के चेहरे पर आ जाता है, दुश्मन को परास्त करने के बाद; उत्साह और गर्व के। क्यों न हो; पहली बार उसने किसी मर्द को अपनी ओर आकर्षित जो किया था; या यह कि पहली बार किसी मर्द से अपनी सुंदरता की तारीफ जो सुनी थी, या फिर यह कि पहली बार उसके हुस्न ने किसी मर्द को परास्त जो किया था?

श्रुति का वही चेहरा और चेहरे पर वही, विजेताओं वाला भाव आज कंप्यूटर मॉनिटर के स्क्रीन सेवर पर देख कर जे. डी. साहब चमत्कृत हुए जा रहे हैं। श्रुति के इस शरारत पर उन्हें प्यार भी आ रहा है।

कमरे की हवा में अलग ही परफ्यूम की महक से जे.डी. साहब को लगा, शायद कोई आया हो? पलट कर दरवाजे की ओर देखा। दरवाजे की चैखट पर श्रुति खड़ी हुई थी; जिसे देख कर वह एकबारगी झेप-सा गया, मानो चोरी करते हुए पकड़ लिया गया हो। पता नही ये लड़की कब से यहाँ खड़ी है? सीने पर दोनों हाथों से किसी किताब को दबाये; ठीक उस दिन वाले सफेद ड्रेस में, जिस दिन उन्होंने उसे राजकपूर की हिरोइन कहा था, और जिसमें वह किसी परी से कम नहीं लग रही थी, और अपनी जिस छवि को उन्होंने कंप्यूटर पर लोड कर रखा है, जो अभी भी कंप्यूटर मॉनिटर के स्क्रीन पर आ रहा है।

जे.डी. साहब से कुछ कहते नहीं बना। पर उनकी निगाहें पूछ रही थी - “कैसे?”

जवाब में श्रुति ने भी कुछ नहीं कहा, पर निगाहों ने ही, निगाहों से शायद पूछ लिया था - “क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?” और इजाजत की प्रतीक्षा में वह निगाहें झुकाकर दाएँ पैर की अंगूठे की नाखून से फर्स को कुरेंदने लगी।

जे.डी. साहब को श्रुति के चेहरे पर आज किसी किशोरी की मासूमियत नजर नहीं आ रहा था, बल्कि वहाँ उसे किसी नव-यौवना की उमड़ती हुई जवानी दिख रही थी; बिलकुल अषाड़ की उस नदी की तरह की जवानी, जो बाढ़ से उमड़ रही हो, उफन रही हो, और जो किसी भी मर्यादा को मानने से इन्कार कर रही हो।

जे.डी. साहब इस स्थिति के लिये तैयार नहीं थे, और शायद इसी कारण वे एकदम असहज हो गये थे; पर दूसरे ही पल उन्होंने अपने आप को किसी तरह संयत करते हुए कहा - “श्रुति मैम, तुम्हें पता है, तुम्हारी आंटी आज घर पर नहीं है?”

जे.डी. साहब की इस सूचना का; जिसका आशय शायद यह भी था कि आज वह लौट जाय और तब आये जब आंटी घर पर मौजूद हो; श्रुति के चेहरे पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। अपनी जगह पर वह उसी दृढ़ भाव से खड़ी रही। उनकी दृढ़ता शायद कह रही थी - “हाँ! मुझे पता है कि घर पर आज दिन भर आप अकेले हैं।” और लौटने के बजाय यह कहते हुए कि - “अंकल प्लीज! जरूरी होम वकर््स हैं, करा दीजिये न ... “आकर जे.डी. साहब के बगल में बैठ गई, जो अब तक कंप्यूटर टेबल से उठ कर सोफे पर बैठ चुके थे।

श्रुति की निगाहें अपलक जे.डी. साहब के चेहरे पर जमी हुई थी ऐसी निगाहें जिसके अंदर वासना की वह भयंकर आग सुलग रही थी जिसे भभकने के लिये बस एक चिंगारी की जरूरत थी; और इसीलिये उसे श्रुति की इस ढिठाई पर आश्चर्य भी नहीं हुआ। जे.डी. साहब नहीं चाहते थे कि कहीं से कोई चिंगारी फूटे और वासना की वह आग भड़क उठे, जिसकी लपटों से नैतिकता और मर्यादा के सारे बंधन जल कर खाक हो जाते हैं।

जे.डी. साहब ने समझाते हुए कहा - “बेबी! तुम्हें पता है? शास्त्रों में लिखा है कि रिश्तों की पवित्रता और मर्यादाओं की रक्षा के लिये जवान स्त्री और जवान पुरूष को एकांत से हमेशा बचना चाहिये, चाहे रिश्ता बाप-बेटी का हो, माँ-बेटे का हो या भाई-बहन का हो। एकांत में रिश्तों की सारी पवित्रता और मर्यादाओं के सारे बंधन टूटने लगते हैं और तब मर्द सिर्फ मर्द रह जाता है और औरत सिर्फ औरत, विपरीत आवेश से आवेशित किसी भौतिक वस्तु की तरह, जिसे मिलने से फिर कोई नहीं रोक सकता। इसीलिये कहता हॅँू कि अभी तुम चली जाओ।”

श्रुति न तो कुछ सुन रही थी और न ही कुछ सुनना चाहती थी। कटे वृक्ष की तरह वह जे.डी. साहब की गोद में लुड़क गई। वह होश में नहीं थी।

जे.डी. साहब ने फिर कहा - “बेबी! जानती हो, जो हो रहा है वह न तो नैतिकता की दृष्टि से सही है और न ही कानून की दृष्टि से, इसीलिये कहता हूँ, गो टु योर रियल ड्वेल, घर चली जाओ।”

जवाब में वह जे.डी. साहब से और लिपटती चली गई, बस लिपटती ही चली गई।

अब वह जी खोलकर, रह रह कर, अपने कौमार्य का धन जे.डी. साहब पर न्यौछावर किये जा रही थी, और अब जिसे जे.डी. साहब भी दिल खोलकर अपने दोनों हाथों से लूटे जा रहे थे, बस लूटे जा रहे थे। अपनी चढ़ती जवानी की उद्दाम वासना की तेज लपटों से रह- रह कर वह जे.डी. साहब को झुलसाए जा रही थी और जे.डी. साहब भी जिसे अपने अनुभवी पुरूषत्व की शक्तिशाली झोकों से लगातार भड़काये भी जा रहा था और बुझाये भी जा रहा था, बस बुझाये जा रहा था।

और धीरे-धीरे वह क्षण भी आया जब आग पूरी तरह से बुझ गया, और फिर न तो वहाँ कोई लपट ही बची और न ही कोई धुआँ ही।

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कमरे को व्यवस्थित करके और खुद भी व्यवस्थित होकर जब श्रुति बाथरूम से बाहर आई तो उसके सौम्य चेहरे पर संतुष्टि की अथाह गहराई झलक रही थी, जिसमें सिर्फ सुख की छोटी-छोटी असंख्य लहरें ही हिलोरें मार रही थी।

जे.डी. साहब अभी भी इस बात पर कायम थे कि जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ। अपराध बोध से वह दबे जा रहा था। उन्होंने कहा - “सॉरी श्रुति मेम, तुम्हारे साथ अच्छा नहीं हुआ।”

जवाब में श्रुति मुस्कुराई, उसके कदमों पर झुकी, पैरों की धूल माथे पर लगाई और चली गई। जाते-जाते जैसे कह रही हो - “आप नहीं जानते अंकल, आपने मुझे कितनी बड़ी खुशी दी है। ऐसी खुशी, जिसे भूल पाना मेरे लिए जीवन भर संभव नहीं है।”

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जी.टी. साहब भी सरकारी मुलाजिम है और जे.डी. साहब के घनिष्ठ मित्र हैं। वे बाहर रहते हैं और इस समय मित्र से मिलने आये हुए हैं। शाम होने को है, और दोनों मित्र बिलकुल ही अनौपचारिक ढंग से हँसी-मजाक में व्यस्त हैं।

कल ही की बात है, जी.टी. साहब किसीं काम से बाहर गये हुए थे, और ट्रेन से लौट रहे थे। डिब्बा शहर के किसी पब्लिक स्कूल की छा़त्राओं से भरा हुआ था, जो शायद एजुकेशनल ट्रिप से लौट रही थी। सामने वाली सीट पर निहायत ही खूबसूरत एक छात्रा बैठी हुई थी जो अपनी हम उम्र सहेलियों से कुछ बड़ी और मैच्योर लग रही थी। जाहिर है, अपने दल की वह नेता थी और सारी सहेलियाँ उनका आदेश मान रही थी। इस समय वह सहेलियांे से घिरी हुई थी। उस सुंदर लड़की के हाथ में सुंदर सा एक मोबाइल था और सभी लड़कियाँ उसमें चल रहे किसी रिकार्डिंग को देखने में व्यस्त थी।

दूर दूसरे सीट पर बैठी टीचर को इन छात्राओं की यह अनुशासन हीनता बर्दास्त नहीं हो रहा था और वहीं से वह कई बार इन लड़कियों को डाट चुकी थी। उसे इन लड़कियों की हरकतों पर रह-रह कर गुस्सा आ रहा था। आदेश का पालन नहीं होता देखकर अंततः वह तमतमाये हुए आ धमकी। डाटते हुए उन्होंने कहा - “क्या है? क्यों भीड़ लगाये हो? मोबाइल में क्या देख रही हो? लाओ इधर।”

टीचर ने सभी लड़कियों की तलाशी ली लेकिन मोबाइल किसी के पास नहीं था। थक-हार कर वह अपने सीट पर लौट गई।

उस लड़की ने बड़ी चतुराई से टीचर की निगाहें बचा कर सीट के नीचे से मोबाइल उठाया, तब जिसे टीचर की निगाहों से बचाने के लिये बड़ी सफाई से उसने वहाँ सरका दिया था, मेमोरी कार्ड निकाला और छोटे से एक लिफाफे में उसे रख लिया। स्टेशन नजदीक आ रहा था और उन लोगों को शायद यहीं उतरना था।

उतरते वक्त वह लिफाफा सीट पर ही छूट रहा था।

जी.टी. साहब को लड़कियों की तमाम शरारतें बड़ी प्यारी और मासूम लग रही थी, और पूरे समय वह मन ही मन मुस्कुराये भी जा रहा था। उस छोटे से लिफाफे को सीट पर छूटता देख जी.टी. साहब ने कहा - “बेबी, लिफाफा छोड़े जा रही हो?”

और उतनी ही लापरवाही पूर्वक उस लड़की का जवाब भी मिला - “अंकल! आप रख लीजिये न।”

और तेजी से उतर कर वह आँखों से ओझल हो गई।

जी.टी. साहब ने उस लिफाफे को खोलकर देखा। उसमें एक मेमोरी कार्ड रखा हुआ था। उसे समझते देर नहीं लगी कि यह वही मेमोरी कार्ड है, जिसमें रिकार्डेड प्रोग्राम का आनंद मोबाइल के स्क्रीन पर कुछ देर पहले वह लड़की अपने सहेलियों के साथ ले रही थी; और जिसे वह बड़ी चतुराई के साथ, भूलने का अभिनय करते हुए, जानबूझ कर इस लिफाफे के साथ छोड़ गई थी।

घर आकर जी.टी. साहब ने उस मेमोरी कार्ड में कैद फिल्मों का जी भर कर आनंद लिया और अब उसी आनंद को मित्र के साथ शेयर करने के लिये यहाँ आया हुआ है।

जी. टी. साहब से ट्रेन वाली इस यात्रा वृतांत को सुनने के बाद जे.डी. साहब ने कंप्यूटर ऑन करके वह मेमोरी कार्ड चला दिया। खुलते ही उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। यह वही मेमोरी कार्ड था जिसे आज सुबह से ढ़ूढ-ढ़ूढ़ कर वह परेशान हुए जा रहा था, और जिसमें केवल वयस्कों की फिल्में लोड थी।

कंप्यूटर से कार्ड रीडर को अलग करते हुए और नकली गुस्से का इजहार करते हुए उन्होंने जी. टी को डाट लगाई - “वाह बेटा, अब तूने चोरी करना भी शुरू कर दिया है ...।”

आश्चर्यचकित होने की बारी अब जी.टी. की थी। कंप्यूटर मॉनीटर के स्क्रीन सेवर की ओर इशारा करते हुए उसने पूछा - “अबे! ये लड़की यहाँ कैसे? कौन है यह?”

“क्यों?”

“यही तो है, कल की टेªन वाली वह लड़की। कल इसी ने तो यह कार्ड ट्रेन में छोड़ा था।”