मेरा पुतला-दहन / प्रमोद यादव

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जब-जब देश, राज्य या शहर-बस्बे में कोई बड़ा घोटाला होता है, भ्रष्टाचार होता है या कोई बड़ा नेता कोई बड़ा ही बेतुका बयान बकता है तब ‘पुतला-दहन’ का पावन पर्व शुरू हो जाता है और फिर सियासत गरमा जाती है। देश स्तर पर होता है तो यह कार्यक्रम बिजली की गति से शहर-दर-शहर सफ़र करता है(टी। वी न्यूज। के माध्यम से) और कसबे या शहर स्तर का होता है तो राज्य के किसी मंत्री-संत्री या मुख्य- मंत्री का पुतला फूंक अपनी अंतरात्मा को शांत कर लेते हैं। पुतला-दहन से हमेशा की तरह होता कुछ नहीं। ना सरकार कभी इससे जलती (गिरती) है ना ही कोई मंत्री-संत्री मरता या इस्तीफा देता है। , ना ही फूंकने वाले किसी पुण्य के भागीदार बन ‘ स्वर्गीय’ स्थिति को प्राप्त होते हैं बल्कि अगले चुनाव के बाद पासा पलट जाता है और पुतले फूंकने वाले खुद पुतलों की शक्ल में फूंके जाते हैं। बरसों से यह दौर-दौरा चला आ रहा है और गाय की तरह सीधी जनता (आम आदमी) इस प्रायोजित कार्यक्रम को टी। वी। सीरियल ‘ये रिश्ता क्या कहता है’ के मानिंद तन्मयता से देखने मजबूर है। सब। अपना टाईम पास कर रहे हैं। आज पूरा देश ऐसे ही दृश्यों में ‘फ्रिज’ हो गया है।

पुतला-दहन के इतिहास के विषय में केवल इतनी जानकारी है कि बचपन में पहली बार दशहरे के दिन रावण के पुतले को दहकते देखा। तब इसे एक पर्व की भांति ही जाना। इस पर्व के मर्म से मैं सर्वथा अनभिज्ञ था। पर साल-दर साल यही सब देखते-देखते समझदार होते गया तो पुतले के मर्म को समझता गया। राम -रावण की कहानी से भिज्ञ हुआ। जाना कि एक छोटी सी चिंगारी आग का दरिया कैसे बनती है। भाई लखन ने रावण की बहन शूर्पनखा की नाक काट दी तो नौबत यहाँ तक पहुंची कि लंका-दहन हो गया और रावण रिवेन्ज लेने के मूड में बेवकूफी पर बेवकूफी और अन्याय पर अन्याय करता गया पर रामजी के न्याय के आगे टिक ना सका और देवों के देव महादेव के अनन्य भक्त रावण फिसड्डी साबित हो भस्म हो गया। मोराल ऑफ़ द स्टोरी ये है कि न्याय, अन्याय पर भारी पड़ता है, सच का बोलबाला, झूठे का मुंह काला होता है, अच्छाई की बुराई पर सदैव जीत होती है। इसी बात को रिमाईंड कराने हर साल दशहरे पर रावण का पुतला – दहन करते हैं। पर रावण कभी मरता नहीं बल्कि हर साल कुछ अधिक उंचाई के साथ खड़ा हो जाता है।

आज के दौर में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, अच्छाई- बुराई के बीच का फर्क समझ से परे है। जो बुरे हैं, बुरा काम करते हैं - वही मलाई खा रहें। पड़ोस का ठाकुर कुछ नहीं करता सिवा तिकड़म के। मोहल्ले में कोई उसे पसंद भी नहीं करता फिर भी रोज बिरयानी की सोंधी-सोंधी खुशबू केवल उसी के घर से आती है। नए युग के नए-नए सारे उपकरण केवल उसी के घर इंट्री मारते हैं। अच्छाई के साथ चलने वाले बेचारे टेंशन में होते हैं। किसी सड़क दुर्घटना में घायल आदमी का हेल्प कर दीजिये,, पुलिस के धारावाहिक इंटरव्यू से आप पागल हो जायेंगे। बार-बार थाने जाने के चक्कर में अपना घर भी भूल जायेंगे। तब कान पकड़ यही कहेंगे- ‘नहीं। दुबारा ऐसी भूल नहीं करूँगा कोई मरता है तो मरे। ‘

एक बार एक नौकर किन्हीं विषम परिस्थिति में अपने मालिक के तिजोरी से पचास हजार रूपये चुरा लेता है। घर लौटने पर उसे बड़ी ग्लानि होती है तो। पुनः पैसे को वापस रखने वह मालिक के मकान पहुंच तिजोरी खोलता है और रूपये रखते- रखते सपड़ा जाता है। मालिक उसे बेहद धुनता है। बार-बार नौकर सच्ची बाते बताता पर सुने कौन? पुलिस में दिया तो उसने भी खूब धूना। उनका तो यह सांस्कृतिक कार्यक्रम होता है। वहां भी वह सच्चाई बकता रहा पर पुलिस को तो सच्चाई के अलावा सब सुनने की आदत है। उसे लाकअप में ठूंस दिया। सत्य ‘फेल’ हुआ और असत्य ‘पास’।

मतलब ये है कि आज सब उल्टा-पुल्टा हो रहा है। किसी का पुतला-दहन कर केवल भड़ास निकाल सकते हैं। अपनी कुंठा शांत कर सकते हैं पर पुतले के भीतर के विकार को समाप्त नहीं कर सकते।

एक दिन मेरे आठ वर्षीय पुत्र ने पूछा- ‘ पापा, पुतला-दहन क्यूं करते है? ’

उसकी जिज्ञासा को शांत करने जवाब दिया- ‘ बेटा, किसी बात का विरोध –प्रदर्शन करने का तरीका है यह। ’

‘किसका पुतला दहन करते हैं? ’ बेटे ने सवाल दागा।

‘ किसी का भी। जो दिखता है उसका और जो नहीं दीखता उसका भी। जैसे- मंहगाई, आतंकवाद, ऍफ़। डी। आई। का, कभी केंद्र का, तो कभी राज्य का, कभी प्रधानमन्त्री का तो कभी मुख्यमंत्री का। कभी नेता का तो कभी अभिनेता का। ’

‘आपका पुतला दहन कब होगा? ’

मैं इस बेतुके सवाल पर चौंका। उसे समझाया- ‘ बेटे, केवल बड़े लोगों का होता है पुतला दहन। ’

‘ आप भी तो बड़े हैं पापा। ’

‘ अरे वैसा बड़ा नहीं बेटा। बड़े से मतलब धन-दौलत, पावर, पद से है। छोटे लोगों का पुतला दहन नहीं होता। ’

‘ आप छोटे क्यूं हैं? ‘वह नाराजी से पूछा।

‘ क्योंकि मैं कभी रिश्वत नहीं खाता। किसी से कमीशन नहीं लेता। कोई घोटाला नहीं करता। किसी को ठेका नहीं दिलाता इसलिए। पर ये बता। तुम्हें मेरे पुतला दहन के बारे में क्यूं सूझा? ’

उसने जवाब दिया- ‘ कल स्कूल के एक दोस्त ने बताया कि उसके बड़े पापा जो दतिया में एस। पी। हैं, उनका चार-पांच दिन पहले वहां पुतला दहन हुआ। उसने अखबार में छपी सर से पाँव तक वाली दो फोटो भी दिखाए ‘। पर समझ नहीं आया कि उसमे पुतला कौन है और एस। पी कौन। ’

‘ अरे इसमे समझने वाली क्या बात है। जो बड़ा बौड़म, बेडौल, और बदसूरत होता है – वही पुतला होता है। ’मैंने शेखी बघारी।

‘ पर पापा। दोनों एक से दिखते थे। दोस्त से भी पूछा कि इसमें दहन किसका हुआ तो वह भी बता न सका,कहा-अपने पापा से पूछकर बताऊंगा। ’

‘ तो ये बात है। बेटा, जिनके विरोध में हजारों-हजार लोग होते हैं,उन्हीं का पुतला दहन होता है। मेरे विरोध में तो आफिस का एक चपरासी तक नहीं तो क्या ख़ाक मेरा पुतला जलेगा? ’

‘कोई न कोई तो होगा पापा। ’

‘ नहीं बेटा। कोई भी नहीं। आफिस के सारे लोगों का काम मैं अकेले ही तो करता हूँ तो भला वे मेरा क्या विरोध करेंगे। क्यूं मेरा पुतला दहन करेंगे? मेरा कभी न होगा। भूल जा। पर हाँ। माटी का पुतला हूँ तो दहन तो इस पुतले का भी निश्चित है। तब तू ही मुझे फूंकेगा। पर विरोध में नहीं। । जा। । ये बातें अभी तू नहीं समझेगा। जाकर पढ़ाई कर। ये आलतू-फ़ालतू की बातें मत सोचा कर। ’

बेटे को तो भगा दिया पर मेरा मन इस ‘आलतू-फ़ालतू’ की बातों में उलझ कर रह गया। जिंदगी रहते तो कभी ‘बड़ों ‘ में शुमार ना हुआ। दहकने (मरने) के बाद ही सही। देर आयद - दुरुस्त आयद।