मेरी छुआछूत / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

Gadya Kosh से
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सन 1923 ई. के अंत की एक दिलचस्प और जरूरी घटना का उल्लेख कर मैं सन 1925 में पहुँचूँगा। मौलाना मुहम्मद अली की अध्यक्षता में काकिनाड़ा (Cocanada) (आंधार देश) में कांग्रेस का अधिवेशन होनेवाला था। एक दल के साथ मैं भी रवाना हुआ उसमें शामिल होने के लिए। मनमाड़ जंक्शन से हैंदराबाद स्टेट रेल्वे में जाना और बेजवाड़ा में फिर दूसरी ट्रेन पकड़ कर काकिनाड़ा पहुँचना था। हम लोगों ने मनमाड़ में बंबे मेल छोड़ दी। पास के धर्मशाले में गए। वहीं संयोगवश काशी के प्रसिद्ध देशसेवक श्री शिवप्रसाद गुप्त भी मिल गए। बातचीत में तय पाया कि रास्ते में एलोरा की बौद्धकालीन ऐतिहासिक गुफाएँ देखना जरूरी है। सवेरे स्नानादि के बाद खा-पी के हम लोग ट्रेन में बैठे।

मैंने वहीं पहले-पहल एक दल गाँधी टोपीवालों का देखा। पता लगा साबरमती के सत्याग्रह आश्रम के ये लोग हैं। मैंने सुना और पढ़ा था, वहाँ बहुत ही संयम चलता है। मिठाई वगैरह खाई नहीं जाती। मगर वहाँ तो लड्डू, बँदिया आदि का खजाना उन लोगों के पास देखा। उसे खूब उड़ा रहे थे। ताज्जुब तो हुआ कि क्या सचमुच यही लोग गाँधी जी के उस ऐतिहासिक आश्रम के निवासी हैं। फिर संतोष किया कि आश्रम से बाहर आने पर जो थोड़ी आजादी मिली है उसी का उपभोग ये लोग शायद कर रहे हों! मगर दिल ने बार-बार कहा कि यह क्या है?कुछ दाल में काला जरूर है!

गाड़ी जब एलोरा रोड स्टेशन पर लगी तो देखा कुछ लोग एलोरा जाने के लिए उतर रहे हैं। एलोरा वहाँ से शायद आठ मील है। मगर हमें बताया गया था कि अगले स्टेशन सिकंदराबाद ही उतरना ठीक होगा। वहाँ से ताँगे वगैरह मिल सकेंगे। हमने ऐसा ही किया। सिकंदबाद में उतर के गुप्त जी ने कई ताँगे सबों के लिए ठीक किए। खैर, हम लोग एलोरा गए। हमने घूमघूम कर पहाड़ के उदर में उसे ही काट कर दो-दो, तीन-तीन मंजिलों के मकान देखे जिन पर रंगीन चित्रकारी अभी भी ताजी ही मालूम पड़ती थी। सचमुच बौद्ध जमाने की यह रचना अब तक फीकी न पड़ी, यह आश्चर्य है। रंग बनाने का कौन सा विज्ञान उस समय था, कौन बताएगा? पहाड़ को काट कर कई तल्लों के लंबे मकानात कैसे बने? यह सब देख कर हम लोग मुग्ध हो गए। घूमते-घूमते थक भी गए। ईधर शाम भी हो चली। किसी ने कहा, पास ही गाँव हैं जहाँ पंडे रहते हैं। वहीं ठहरना चाहिए। सबने पसंद किया कि एलोरा गाँव में आज रात को ठहर लें। बस, वहीं किसी पंडे के मकान में जा ठहरे।

अगले दिन सुबह उठे। शौच, स्नानादि किया। गुप्त जी के साथ काशी का एक जवान ब्राह्मण रसोइया था। वही पूड़ी और साग भोजनार्थ बनाने लगा। उधर स्नान कर के उन्होंने पायजामा पहना यह कह के कि संध्या करेंगे। संध्या भी क्या? शायद प्राणायाम किया। फिर धोती पहन ली। मैं तो किसी के हाथ का बनाया जल्दी खाता न था। मगर वहाँ खाना पकाने में दिक्कत थी।गाड़ी पकड़ने के लिए जल्दी भी थी। समझा कि ब्राह्मण रसोइया है। गुप्त जी आर्य समाजी हैं। इसलिए यह सच्चरित्र तो होगा ही। भला दुश्चरित्र को वह कैसे रख सकते हैं? इसलिए उसके हाथ की बनी पूड़ी खा तो ली। मगर पीछे पता चला कि वह बड़ा ही दुश्चरित्र है। फिर तो बड़ी ग्लानि हुई। इसलिए मैंने हँसते-हँसते गुप्त जी से कहा कि मैंने तो आपके साथ रहने से सच्चरित्र ब्राह्मण समझ इसके हाथ की पूड़ी खा ली। मगर पीछे पता लगा कि यह है भीषण दुराचारी। इतना सुनते ही हँस के उनने कहा कि “सच्चरित्र किसे कहते हैं?” मैंने कहा, “दुराचार, व्यभिचार आदि”। उनने चट कहा कि “गाय से बच्चा पैदा हो के साँड़ बनता और उसी गाय पर चढ़ता है, तो क्या वह दुराचारी व्यभिचारी है?”

इतना सुनते ही मैं समझ गया कि यहाँ मामला बेढब है। मैं इन्हें गलती से आर्यसमाजी समझता था। इसीलिए मामूली दलील करना मैंने बेकार समझा और बोलने हीवाला था कि उनने पुन: कहा कि “यदि यहाँ श्री प्रकाश होता तो आपको और भी हैंरान करता।” मैंने कहा कि “गुप्त जी मैं एक प्रश्न करता हूँ। अगर आपने उसका उत्तर दे दिया तो मैं हार जाऊँगा। मगर यह कह देता हूँ कि मुझे वैसे संन्यासी न समझिए जो अंध परंपरा के पिट्ठू होते हैं। मैं तो बुद्धिपूर्वक यह बात मानता हूँ।”

इसके बाद मैंने शुरू किया कि “एक ऐसा ब्राह्मण कल्पना कीजिए जो अच्छा विद्वान वेदशास्त्रज्ञ, कर्मठ, देशभक्त, खादीधारी, परोपकारी है। वह देशसेवा में जेल भी गया है, कष्ट भोग चुका है। ऐसा आदमी संभव है। फलत: वह सभी लोगों को मान्य होगा। अब फिर कल्पना करें कि एक घोर जंगल में स्थित एक ग्राम के निकट झाड़ियों में दैवात पहुँच कर कुछ करता है या अपनी थकान ही हटा रहा है। आप भी कुछ दूर पर बैठे हैं और उसकी हरकतें देख रहे हैं। मगर मूक हैं। आपकी जिह्वा में बोलने की शक्ति किसी कारण से नहीं रह गई है। इतने में एक अमीर का नन्हा सा बच्चा सोने-जवाहरात से लदा भटक कर उस झाड़ी में आ जाता है। वह सोना जवाहरात देख के वह ब्राह्मण लोभग्रस्त हो जाता है। यह असंभव नहीं है। अब सोचता है कि यदि छीनने की कोशिश करूँ तो बच्चा चिल्लाएगा और शायद पास में कोई हो तो पकड़ा जाऊँगा। बस, जबर्दस्त चाकू निकाल के फौरन उसकी गर्दन साफ करता और सब माल ले कर फौरन नौ दो ग्यारह होता है। आप उसकी सारी हरकत देखते, उसे पहचानते भी हैं।”

“अब अगर भविष्य में आपको पानी पीने की इच्छा हो और संयोगवश वही ब्राह्मण मिल जाए और पीने को पानी लाए, तो क्या आपकी हिम्मत होगी कि पी लें?” मैं रुक गया और उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। मगर गुप्त जी की तो बोलती बंद थी। मैंने बार-बार जोर दिया कि चुप क्यों हैं? बोलिए। मगर उनकी जबान न खुली और न खुली। मैंने कहा कि ऐसे बीसियों प्रश्न कर सकता हूँ। इसे ही चरित्र कहते हैं। मुझे यकीन है, मैंने आपको चरित्र का अर्थ समझा दिया।

इस प्रकार मैंने उन्हें निरुत्तर किया और अपने पक्ष का पूर्णत: समर्थन उन जैसे उच्छृंखल व्यक्ति के सामने कर दिया। उच्छृंखल केवल इस पानी में कि पोथी-पत्रो को जो न माने और कोरी दलील का जो कायल हो। मैंने उनसे यह भी कहा कि मैं इस छुआछूत में बाहरी और भीतरी दोनों ही प्रकार की, शुद्धियाँ मानता हूँ। बाहरी जो धोने-धाने, नहाने और स्थान आदि की सफाई को कहते हैं। भीतरी है चरित्र की शुद्धि के साथ ही सभी प्रकार के संक्रामक रोगों का अभाव। यह बात नितांत परिचित के सिवाय दूसरे आदमी के बारे में जानी नहीं जा सकती। इसीलिए अपरिचित के हाथ का खाना सनातनियों में मना है। मैंने कहा कि जेल में भी मैं खाना बनानेवाले कैदियों से खाना इसलिए नहीं बनवाता था। क्योंकि सोचता था कि न जाने क्या-क्या कुकर्म कर के जेल आए होंगे। नल (कल) का पानी भी मैं इसीलिए पीता हूँ नहीं। क्योंकि जहाँ लोटे वगैरह को बाहर-भीतर बराबर मलते हैं। नहीं तो धातु में जहर पैदा हो जाने और गंदा होने का डर रहता है। वहाँ नल के भीतर या बाहर कभी मला दला नहीं जाता। क्या कोई बिना मले-दले लोटे का पानी पीने की हिम्मत कर सकता है? फिर नल के पानी के पीने की हिम्मत मैं कैसे करूँ? काशी आदि शहरों में तो पाखाने आदि के नलों (drains) के साथ ही पानी के नल चलते हैं। इसीलिए और भी जी नहीं चाहता। नदियों में भी गंदी चीजें पड़ती हैं सही। मगर वहाँ धातु की बात नहीं है। साथ ही, धारा जारी रहने से पानी में आंतरिक (chemical action) क्रिया हो कर शुद्धि हो जाती है। इसी से कहा हैं “बहता पानी निर्मल, बँधा सो गंदा होय”।

लेकिन तभी से मेरे दिल पर एक विचित्र असर हो गया, यह पहले न था। तभी से मैं छुआछूत के मामले में और भी सख्त और बेमुरव्वत हो गया। क्योंकि वह मेरी दलील मेरे दिमाग के सामने बराबर ताजी रहती है। पहले यह बात न थी। इसलिए आदमियों के आचरण की उतनी सख्ती से खोज ढूँढ़ नहीं करता था। बेशक, मेरे खान-पानी की छुआछूत का अर्थ यह नहीं कि मैं किसी आदमी या जाति को सदा के लिए अस्पृश्य मानता हूँ। यह तो गलत बात है। न तो पोथियों से ही इसकी सिद्धि मेरे विचार के अनुसार हो सकती हैं। और न स्वतंत्र रूप से विचार करने से ही। मैं तो केवल खाने-पीने में ही छुआछूत मानता हूँ। इसका कारण भी बताया ही है। मेरी यह छुआछूत विचार मूलक है, बुद्धिपूर्वक है। मैंने इस पर बार-बार सोचा है और जितना ही विचारा है उतना ही इस मामले में सख्त हो गया हूँ। हालाँकि वर्तमान युग में इससे बदगुमानी मेरे खिलाफ बहुत फैली है। यहाँ तक कि लोगों ने समझ लिया है कि नीच, ऊँच, हिंदू, मुसलिम आदि भेद बुद्धि के कारण ही मेरी यह छुआछूत चलती है। लेकिन यह लोगों की धारणा गलत है।

मैं जाति या वर्ण के करते नीच-ऊँच या स्पृश्य-अस्पृश्य किसी को नहीं मानता। मुसलमानों या अन्य धर्मवालों को अस्पृश्य मानने की नादानी भी नहीं कर सकता हूँ। मगर किसी को शक हो तो एक बार कोई भी जाति या धर्म का आदमी मेरी रोटी या मेरा पानी छू कर देख ले कि मैं उसे खाता-पीता हूँ या छोड़ देता हूँ। मगर सदा इस प्रकार का छुआ खाने-पीने की हिम्मत मुझमें होती ही नहीं। कुछ मेरा अब स्वभाव ही ऐसा हो गया है। आखिर लगातार 50 वर्षों तक जिसका पालन निरंतर किया, और ईधर आ कर तो अत्यंत बुद्धिपूर्वक किया, वह स्वभाव न हो जाए तो हो क्या? इससे स्वयं मुझे कष्ट होता है। मगर उसका आखिर परिणाम अच्छा ही होता है। इससे खान-पान में मेरा संयम बना रहता है। उससे स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। इसलिए अब तो खान-पान की इस भीषण कट्टरता को मैं अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए ढाल मानता हूँ। फलत: इसे छोड़ना नहीं चाहता, ताकि नीरोग रह के ज्यादा काम कर सकूँ। नीरोग भी रहता हूँ।

आगे बताऊँगा कि किस क्षण में मैं इस कट्टरता को त्याग दिया करता हूँ और क्यों? इसके दृष्टांत आगे मिलेंगे। बेशक, मेरी यह कट्टर छुआछूत की बात इस जमाने के लिए है नहीं। इस जमाने में यह असंभव सी चीज है। इसे बड़ी ही दिक्कत से मैं निभा रहा हूँ। इसीलिए इस अर्थ में मैं दकियानूसी हूँ। सो भी पक्का। ऐसा मानने में मुझे जरा भी हिचक या शर्म नहीं है। यही कारण है, कि मैंने और किसी को भी इसके पालन की राय कभी नहीं दी है! ऐसी भारी भूल मैं हर्गिज कर नहीं सकता। जो लोग कट्टर वैष्णव, आचारी हो कर भी बाजार की इमिरती आदि चीजें या डाँक्टरी दवाइयाँ खाते हैं उन्हें मैं ढोंगी मानता हूँ। वे चीजें कैसे बनती हैं और मीलों की चीनी कैसे तैयार होती हैं यदि वे यह सोचते तो शायद वह यह ढोंग नहीं करते। या तो साफ-साफ सभी खाद्य पदार्थ खाते या छोड़ देते। मैं तो येचीजें छूता भी नहीं। इसीलिए मैं यह भी मानता हूँ कि या तो मेरी जैसी छुआछूत हो या नहीं तो नए ढंग के खान-पान का तरीका जारी हो। बाजार और हलवाई की चीजें खा के और हिंदू होटलों में ब्राह्मण के हाथ का बना भोजन हजम कर के जो लोग मानते हैं कि छुआछूत का पालन करते हैं वे ढोंगी और नादान हैं। मुझे तो इस छुआछूत के चलते लंबी यात्रा में रेल में बड़ी दिक्कत होती है। अतएव या तो बीच में ट्रेन छोड़ के खाने-पीने का प्रबंध करता हूँ या चौबीस घंटे यों ही रह जाता हूँ। उसी यात्रा में सिकंदराबाद से चल कर बेजबाड़ा शाम को पहुँचा। तब कहीं पाखाना गया, दतवन की। फलत: दाँतों का दर्द बेतहाशा बढ़ गया।