मेरी यादों के 'तार' / प्रमोद यादव

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मेरी यादों के तार तब ‘तार’ से जुड़े जब मैं केवल सत्रह बरस का था. पहली बार जब तार करने तार-आफिस पहुंचा तो एक तार-मास्टर (अनुभवी) भी अपने साथ ले गया था.वह बताता रहा कि तार में कम से कम शब्दों के उपयोग से कम से कम पैसे लगते हैं. पहली बार जाना कि ‘तार’ के हर शब्द के पैसे लगते हैं.इतना भर जानता था कि इसके द्वारा मेसेज त्वरित गति से गंतव्य तक पहुँचता है.तार किया तो एक-दो घंटे में निश्चित ही गंतव्य तक पहुँच ही जाएगा. इसके विश्वसनीयता पर किसी को शक न था उन दिनों तार के बहूउद्देशीय उपयोगों से मैं अनभिज्ञ था.तार का पर्याय मुझे केवल ‘निधन’ लगता.’तार’ आया कि समझो कोई चटक गया. देर रात जब दरवाजे के बाहर ‘टेलीग्राम’ या ‘तार’ की ऊँची आवाज दस्तक देती तो भीतर के लोग सहम जाते, उनके दिल बैठ जाते. बड़ी मुश्किल से सांकल खोल टेढ़े-मेढे अ क्षरों से उनकी पुस्तिका पर सा इन कर पाते.फिर धीरे से पूछते-सब खैरियत तो है ना? तब तारबाबू एक प्रोफेशनल की तरह बिना किसी हिचकिचाहट के सीधे-सपाट शब्दों में बक देता-‘गनपत गुजर गया है’ सुनते ही घर में हाय-तौबा मच जाता तारवाला उदास होने का उपक्रम करते बिना बख्शीश के चला जाता.

अरसे बाद मैंने जाना कि तारवाले अच्छी खबर पर अच्छी बख्शीश भी मांगते हैं जैसे- पास होने पर, प्रमोशन होने पर, लड़का या लड़की होने या विवाह फिक्स होने पर, जनम-दिन पर आदि आदि आदि. लेकिन ‘निधन’ वाले केस में भरपूर कोशिश करते हैं कि बख्शीश न लें.धीरे-धीरे मैं समझदार होता गया तो ‘तार’ के और कई तार खुलने लगे, लिहाजा यह भी जाना कि ‘डेथ’ वाले केस को ये अविलम्ब हैंडिल करते हैं और ऐसे मेसेज पर पैसे भी कम लेते हैं.वैसे भी डेथ मेसेज तो दो शब्दों में बयाँ हो जाता है-‘ फादर एक्सपायर्ड’ या ‘गनपत एक्सपायर्ड’ मुझे तो अब लगता है कि सरकार जब ‘डेथ मेसेज’ पर इतनी उदार थी, मरनेवाले के परिवार के साथ सहानुभूति रखती थी तो इसे ‘फ्री आफ कास्ट’ क्यूं नहीं किया?

खैर...मैंने अपनी जिंदगी का जो पहला तार किया, वह भी ‘डेथ मेसेज’ ही था.दूसरी बार जब दूसरी तरह का मेसेज किया तब मैं जवान और समझदार हो गया था,नौकरी पर था. आदमी के साथ ये तीनों बातें हो तो आदमी बौरा जाता है, तिकडमी हो जाता है.मैं भी हुआ.दूसरा मेसेज जो किया वह पूरी तरह ‘फ़ाल्स’ था.आफिस से चार दिनों की छुट्टी लेकर पूरी गया पर चार दिनों बाद भी लौटने को मन न किया तो एक टेलीग्राम पेल दिया कि बीमार पड़ गया हूँ अतः अनिश्चितकाल के लिए छुट्टी बढ़ाने की कृपा करें.यह आइडिया मेरे साथ गए शातिर मित्र ने दिया जिसका मैंने वक्त-बेवक्त भरपूर उपयोग किया.तब ‘तार-सेवा’ को मैंने सही तौर पर ‘सेवारुपी’ पाया.

अब दुखी हूँ कि तार-सेवा बंद हो जाने के बाद क्या करूँगा? एस.एम्.एस., ई-मेल, सेल-फोन जरुर हैं पर इनकी विश्वसनीयता बिलकुल नहीं है.१६३ साल बाद एकाएक इस सेवा को बंद करने से कोई दुखी हो या ना हो, मैं जरुर दुखी हूँ. सेमुअल मोर्स (तार के अन्वेषक) ने कभी सपने में भी नहीं सोचा रहा होगा कि जिस उपकरण को ईजाद करने में उन्हें कई बरस लगे, वह एक दिन इस तरह सहज ही दम तोड़ देगा. कईयों ने आखिरी बार तार कर अपने को, बिदाई के इस पल को इतिहास में दर्ज किया. सेमुअल होते तो उन्हें तार कर मैं भी आज कृतार्थ होता.

तार से जुड़े मेरी यादों के कई तार अब भी झन-झना रहे हैं...टिक-टिक कर रहें हैं.तार से कभी-कभी पेचीदगियां भी पैदा हो जाती.तार मिलता तो उसकी लिखावट अंग्रेजी टायपिंग की होती जो इस कदर अदृश्य सा होता कि बामुश्किल पढ़ा जाता. कई बार ‘ मनोहर सिंह एक्सपायर्ड ‘ होता और रिसीवर को ‘ नोहर सिंह एक्सपायर्ड ‘ मिलता. बेचारे झारसुगडा की जगह नागपूर पहुँच जाते और वहाँ नोहर सिंह को बरामदे में बैठे भुट्टे खाते देख पागल हो जाते.फिर माजरा समझ उलटे पाँव झारसुगडा की ट्रेन पकड़ते. तब तार वालों को इतना कोसते कि भूले से भी कोई मिल जाए तो उसे तार से लपेटकर ‘टिल डेथ’ वाली सजा देने की सोचते.

तार से जुड़े एक सच्ची घटना का जिक्र कर बताना चाहूँगा कि तार कई लोगों को कई बार कैसे तार-तार करता था. शहर के बीचों-बीच मुख्य बाजार में मेरे एक मित्र की ‘ लांड्री ‘ की दुकान है.सभी बड़े वर्ग के लोग-व्यापारी,वकील,डाक्टर आदि के कपडे वहीँ धुलते हैं.मेरे मित्र के एक और करीबी मित्र हैं-अरविन्द.शहर में सबसे बड़ा परिवार है उनका.७०-८० लोग एक साथ रहते,खाते पीते हैं.इन सबका भी कपडा इसी लांड्री में धुलता है. एक दिन एकाएक धडधडाते हुए अरविन्द लांड्री वाले मित्र के पास आया और बोला कि क्या वह एक दिन में उसके थ्री पीस सूट की धुलाई कर देगा? मित्र ने असमर्थता जताई तो अरविन्द परेशान हो गया कि अब वो क्या करे? बिना सूट विवाह में कैसे जाए? तब लांड्री वाले मित्र ने सलाह दी कि एक ग्राहक का सूट १५-२० दिनों से रखा है,कोई बाहर के व्यक्ति का है अगर तुझे फिट आ जाये तो ले जा. चार-पांच दिनों में तो तू आ ही जाएगा.काम चलता है तो देख ले.उसने कोशिश की,एकदम फिट आया. सूट लेकर वह सुबह की ट्रेन से भोपाल चला गया.जाते-जाते भोपाल का पता मित्र को देता गया.

जिस दिन भोपाल में शादी थी,उसी दिन वह लोटकर शहर आ गया.पहले घर गया फिर धडधडाते हुए लांड्री आया और गुस्से से एक लाल कागज (तार) फेंक मित्र पर तमका- ‘ ये क्या बेहूदगी है...तुम्हारी बेवकूफी की वजह से मुझे शादी छोड़ कर आना पड़ा..टेलीग्राम करते तो कुछ ढंग का करते...इस तरह का तार देकर मुझे क्यों जार-जार रुला रहे हो?

बाद में लांड्री वाले मित्र ने जब पूरा माजरा बताया तो मैंने अरविन्द के गुस्से को जायज पाया लेकिन मित्र के कारनामे पर मुस्कुराए बिना न रह सका. दरअसल हुआ यूँ था कि जिस दिन अरविन्द सूट लेकर गया उसी शाम उसका मालिक सूट लेने आ गया. मित्र दुविधा में कि अब क्या जवाब दे? उसे एक-दो दिन में देने की बात कही तो वह बौखलाया कि बीस दिनों में भी एक सूट न धुल सका तो दुकान में ताला क्यों नहीं लगाते? किसी तरह उसे ‘परसों’ डिलवरी देने के लिए प्रोमिस किया.अब दुविधा ये कि अरविन्द तो शादी निपटने के बाद ही आएगा यानी चार-पांच दिनों बाद उसे तुरंत कैसे बुलाये? धंधा तो धंधा है,इसे भी देखना था.सो उसने तय किया कि उसे तुरंत ‘तार’ कर दिया जाए.यही एक तरीका था उसे अविलम्ब बुलाने का.पर तार में लिखे क्या? किसी ने सलाह दी कि ‘कम सून इमीजियेटली’ लिख दो...आ जायेगा. उसने वैसा ही किया पर भेजने वाले की जगह पर अरविन्द का ही नाम लिख दिया. अरविन्द ने तार को इस तरह पढ़ा- ‘कम सून इमीजियेटली अरविन्द ’ उसने तुरंत अनुमान लगाया कि दादाजी तड़क गए (बीमार चल रहे थे) शादी छोड़ उसी वक्त जो ट्रेन मिला उसमे बैठ गया.घर पहुंचा तो दादाजी को दीवान में पसरे पपीता खाते पाया.थोड़ी देर में उसे माजरा समझ में आ गया, तब वह मित्र की ओर गुस्से से लपका और काफी गाली दी उसे.पर मित्र ने भी भोलेपन से कहा-‘ और क्या करता यार...परसों उसे सूट देना है...जा...सूट लेकर आ...वह आता ही होगा..’

आज तार को डेड कर दिया गया..उसे ‘वार्म फेयरवेल ‘ दे दिया गया..पर ‘तार’ के कई तार अब भी जेहन से जुड़े हैं और हमेशा जुड़े रहेंगे