मेरी स्वतंत्रता किसके पास है / राजकिशोर

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अकसर मैं सोचता रहता हूँ कि मेरी स्वतंत्रता किसके पास है? मैं... मैं कौन हूँ? समझ लीजिए वही, जिसे सरकारी भाषा में बीपीएल कहा जाता है। नहीं, नहीं, मैं वह भी हूँ जिसे मार्क्सवादी लोग पेटी-बूर्जुआ कहते हैं। जी हाँ, मेरा दायरा मध्य वर्ग तक भी जाता है। भारत के मध्य वर्ग से अधिक कौन अपनी गरीबी को जानता है? मैं मजदूर भी हूँ, किसान भी हूँ, दुकानदार भी और क्लर्क भी। मेरा एक पूरा कुनबा है, जिसमें सभी तरह के लोग आ जाते हैं – दरिद्र, बहुत गरीब, कम गरीब, कुछ अमीर और वे, जिन्हें न गरीब कहा जा सकता है न अमीर। जेंडर? जी, मैं पुरुष भी हूँ और स्त्री भी हूँ। बच्चा भी, जिस पर सब रुआब गाँठते हैं। मेरी आबादी भारत में सबसे ज्यादा है। ऐसे भी कह सकते हैं कि कहाँ नहीं हूँ मैं... खोजिएगा तो अमीर से अमीर आदमी के घर में भी मिल जाऊँगा – उसका खाना बनाते हुए, उसके कपड़े साफ करते हुए, उसकी गाड़ी चलाते हुए, उसके जूते पॉलिश करते हुए, उसके लिए दरवाजा खोलते और बंद करते हुए। कई बार तो पाँच आदमी का काम अकेले करते हुए।

अब आप पूछेंगे कि मैं किस स्वतंत्रता की बात कर रहा हूँ? आप का यह पूछना जायज है। स्वतंत्रता का मतलब है कि आप क्या-क्या कर सकते हैं। जीवन की योजना में कितनी दूर तक जा सकते हैं। यानी आपके सक्रिय अधिकार कितने हैं। अब पूछिए, यह सक्रिय अधिकार क्या होता है? जो अधिकार सिर्फ कागज पर या हवा में न हो, उसे सक्रिय अधिकार कहते हैं। जैसे हर लड़के या लड़की को डॉक्टर या वैज्ञानिक बनने का अधिकार हैं। किसी के लिए मनाही नहीं है। लेकिन कितने बच्चों को यह सुविधा है कि वे इस महँगी और दुर्लभ पढ़ाई कर सकें? मेरी स्थिति यही है।

क्या यह आज की बात है? मैं जिस समाज में जन्म लेता और मरता रहा हूँ, उसमें अधिकाश जनता के लिए अधिकार नाम की कोई चीज नहीं थी। जो चीज थी, उसे कर्तव्य कहते हैं। सभी का कर्तव्य निश्चित कर दिया गया था। जो इस कर्तव्य से हटता था, वह धर्म-विरुद्ध आचरण करता था। उसे कोई भी सजा दी जा सकती थी। ऊँची जातियों के भी कर्तव्य थे, पर इन कर्तव्यों का पालन नहीं करनेवालों को दंडित करने का कोई प्रावधान नहीं था। उदाहरण के लिए, क्षत्रिय ने देश, राज्य या समाज की रक्षा नहीं की, तो उसे धिक्कारनेवाला कोई नहीं था। किसी ब्राह्मण ने अगर वेद नहीं पढ़े, तो उसे सजा देने के लिए कोई तंत्र नहीं था। वैश्य अपने कर्तव्य से च्युत हुआ, तो यह उसका अपना चुनाव था। लेकिन शूद्र और अतिशूद्र? इन्हें इतना डरा कर, धमका कर रखा गया था कि वे अपने कर्तव्यों की अवहेलना कर ही नहीं सकते थे। भारतीय समाज में यह एकमात्र वर्ग था, जिसके कर्तव्य ही कर्तव्य थे – अधिकार कोई न थे। जी हाँ, वही मेरे पूर्वज हैं। मैं उन्हीं का उत्तराधिकारी हूँ। क्या इसीलिए मेरी नियति वही है जो मेरे बाप-दादा-परदादा की थी? वे मेरे लिए कर्तव्यों की एक लंबी श्रृंखला छोड़ गए थे; अधिकार की विरासत वे कैसे छोड़ जाते? अपने अधिकारों को वे जानते भी कैसे? उन्होंने अधिकार का नाम सुना ही कब था? और, जो आपके पास नहीं है, उसे अगली पीढ़ी के नाम कैसे छोड़ कर जा सकते हैं?

कहते हैं, अंग्रेजों या मुसलमानों के आने के पहले भारत स्वतंत्र था। क्या खाक स्वतंत्र था? जिस देश की अधिसंख्य आबादी के पास कोई अधिकार न हों – सिर्फ कर्तव्य ही कर्तव्य हों, क्या उसे भी स्वतंत्र कहा जा सकता है? क्या वह समाज स्वतंत्र समाज है, जिसमें अधिकांश नागरिकों की स्वतंत्रता छीन ली गई हो? आंतरिक गुलामी का बाह्य गुलामी से गहरा संबंध है। आंतरिक रूप से गुलाम कोई भी देश बाहरी आक्रमण को सहन नहीं कर सकता। दास अपनी स्वतंत्रता की तो रक्षा कर नहीं सकते, वे दूसरों की स्वतंत्रता की रक्षा कैसे कर सकते हैं? सैनिक वही पूरी आन-बान-शान से लड़ सकता है, जो अपने लिए, अपने परिवार के लिए और अपने समाज के लिए लड़ रहा हो।

मेरे पूर्वजों में से कोई एक अगर पूछता, जैसे मैं पूछ रहा हूँ, कि मेरी स्वतंत्रता किसके पास है, तो उसे क्या उत्तर मिलता? वह राजा को दोषी ठहरा नहीं सकता था, क्योंकि वह अपनी राजधानी में, गाँवों से बहुत दूर रहता था। उसे सिर्फ अपने राजस्व की चिंता थी। उसका अपना हिस्सा सुरक्षित रहे, तो उसे इससे कोई मतलब नहीं था कि गाँवों में लोग कैसा जीवन बिता रहे हैं। तो, अपनी स्वतंत्रता का हरण करनेवालों की खोज में वह किधर जा सकता था? जिस धर्मशास्त्र की दुहाई दे कर उसे गुलाम बना कर रखा जा सकता था, वह कोई उसके गाँव के ब्राह्मणों ने थोड़े ही बनाया था जो उनसे पूछा जाए कि महाशय, आप ने ऐसा क्यों किया? आप भी आदमी हैं, मैं भी आदमी हूँ, फिर हमारे अधिकार और कर्तव्य अलग-अलग क्यों हैं? जिस ईश्वर के नाम पर मेरे पूर्वजों का शोषण किया जाता था, उस ईश्वर की उम्र कोई सौ-पचास साल तो थी नहीं। वह तो तब से मौजूद था जब से यह सृष्टि है। जिन धर्मशास्त्रों की तलवार को उनकी गरदन से लगा कर रखा जाता था, उन शास्त्रों की रचना पता नहीं कितने साल पहले हुई थी। मेरे पूर्वज क्या करते? वे मनु या याज्ञवल्क को कहाँ पकड़ते?

जिधर से भी देखता हूँ, यही लगता है कि मेरे पूर्वजों को पता नहीं था कि उनकी स्वतंत्रता किसके पास है। एक राजा की हत्या करने से कोई फायदा नहीं था। उसकी जगह कोई और राजा आ जाता। या, हत्यारों में से ही कोई राजा बन जाता, तो कुछ दिनों में वह भी पुराने राजा की तरह व्यवहार करने लगता। किसी एक व्यक्ति के पराक्रम से व्यवस्था नहीं बदलती। इसी तरह, किसी एक गाँव के सारे ब्राह्मणों को मार गिराया जाता, तो क्या ब्राह्मणशाही खत्म हो जाती? लेकिन ऐसा होता भी कैसे? धर्म और ईश्वर के खिलाफ कौन खड़ा हो सकता था? अगले जन्म में किसे नरक जाना था? तभी तो वे सामाजिक दासता की जंजीरों का भार इतने लंबे समय तक उठा सके। जब ईश्वर ही उनके खिलाफ था, जब धर्म ही अधर्म का कारण था, तब वे बेचारे कहाँ जाते, क्या करते? उनका शत्रु उनके सामने, आगे, पीछे यानी चारों और था, पर वे उसे पहचान नहीं सकते थे, वे खुद विभिन्न जातियों और वर्गों में बँटे हुए थे, इसलिए अपनी खोई हुई स्वतंत्रता को कहाँ ढूँढ़ते?

वैसी ही मुसीबत मेरे साथ है। मैं भी नहीं जानता कि मेरी स्वतंत्रता किसके पास है। हाँ, मेरे पूर्वजों और मुझमें एक फर्क जरूर है। उन्हें अपने अधिकारों का पता नहीं था। मुझे अपने अधिकारों का एहसास है। इसे ही युग परिवर्तन कहते हैं। मैं नए युग में रह रहा हूँ। यह आजादी का युग है। आजादी की गारंटी हमारे संविधान में दी हुई है। अंग्रेजों के जाने के बाद जो सबसे अच्छी बात हुई, वह थी मूल अधिकारों की घोषणा। यह पहली बार था जब भारतवासियों को बताया गया कि उन सभी के कुछ मूल अधिकार हैं और वे सभी के लिए एक जैसे हैं। इन अधिकारों को बाकायदा संविधान में लिख भी दिया गया, ताकि उनकी अवहेलना हो तो आदमी उन्हें लागू कराने के लिए अदालत की शरण में जा सके। जब मुझे पहली बार मूल अधिकारों के बारे में पता चला, तो मेरा मन खिल उठा था। मेरे करोड़ों भाई-बहनों को इनकी कोई खबर ही नहीं थी। न किसी ने उन्हें बतलाने की तकलीफ उठाई थी। यह सोच कर मैं तो चकरा गया था। यह क्या बात हुई कि आपने सभी भारतीयों के लिए एक बड़ा ही अहम कानून बनाया और उसे इसका पता भी नहीं चलने दिया। यह तो कुछ-कुछ पुराने जमाने जैसी बात हुई। मेरे पूर्वजों को वेद-शास्त्र पढ़ने की इजाजत नहीं थी, लेकिन वे वेद-शास्त्र के नियमों के अनुसार चलने को बाध्य थे। आज की खबर यह है कि मेरे मूल अधिकार तो सन 1952 में ही तय कर दिए गए, पर अभी तक यानी साठ साल बाद भी उनके बारे में किसी को बताया नहीं गया। अगर वह परतंत्रता थी, तो क्या यह स्वतंत्रता है?

अब एक मार्के की बात बताता हूँ। जब मैंने अपने मूल अधिकार जान लिए तब जो प्रसन्नता मुझ पर छा गई थी, वह कुछ ही समय में काफूर हो गई। क्यों, बताता हूँ।

· मेरा पहला मूल अधिकार है समानता। जी नहीं, रुपए-पैसे की समानता नहीं। खाने-पीने की भी समानता नहीं। घर-मकान की भी स्वतंत्रता नहीं। यानी कोई भी असली समानता नहीं। फिर भी, समानता। । सबसे पहले कानून के सामने स्वतंत्रता। किसी के साथ पक्षपात नहीं। रोजगार के मामले में अवसर की समानता, छुआछूत का खात्मा। क्या बात है! आप ने लिख दिया, छुआछूत खत्म और वह समाज से उड़नछू हो गया। कितना भोला विश्वास है। खास तौर से तब जब जिसके साथ छुआछूत होता है, उसे पता ही न हो कि उसे अछूत मान कर व्यवहार करनेवाला आदमी जेल जाने का अधिकारी है। और पक्षपात? धर्म के आधार पर, कोई किस राज्य का है, इस आधार पर, जाति के नाम पर - यानी जहाँ-जहाँ भी मनाही है, वहाँ-वहाँ पक्षपात है और खुल कर है। असल में, जब कानून बनानेवाले ही पक्षपात को बढ़ावा दे रहे थे, सत्ता अपने खेत का बैंगन समझ रहे थे, तब बाहर पक्षपात या भेदभाव कैसे खतम होता? ऐसी अनैतिक व्यवस्था में मैं कैसे उम्मीद कर सकता हूँ कि मेरे साथ भेदभाव नहीं होगा? क्या जज साहब मेरे साथ वैसा ही व्यवहार करेंगे जैसा वे किसी अमीर आदमी या मिनिस्टर के साथ करते हैं? जब हमारी हैसियत ही एक जैसी नहीं है, तब हमारे साथ समानता का बरताव कैसे हो सकता है? संविधान में जो भी लिखा हो, मैं इस बात को नहीं मान सकता।

· दूसरा मूल अधिकार तो निहाल कर देनेवाला है - स्वतंत्रता का अधिकार। थोड़ा उलझा कर कहूँ तो स्वतंत्र होने की स्वतंत्रता। इससे जुड़े दो-तीन अधिकारों की हकीकत बताता हूँ। एक स्वतंत्रता है देश भर में कहीं भी आने-जाने का। अब कितने लोग ऐसे हैं जो आधे देश में भी घूम सकें? ठीक है, मुझे कश्मीर, दार्जिलिंग या जैसलमेर जाने का अधिकार है, लेकिन ऐसा अधिकार किस काम का जिसका उपयोग करने के साधन आदमी के पास न हों? मुझ गरीब को भी विमान से यात्रा करने का अधिकार है, लेकिन क्या इस जनम में कभी हवाई जहाज पर चढ़ सकूँगा? देश में कहीं भी रहने का अधिकार। हुँह। क्या अमीरों और गरीबों की बस्तियाँ अलग-अलग नहीं होतीं? क्या कोई गरीब अमीरों की बस्ती में जा कर मकान खरीद सकता है? फिर, कहीं भी जा बसने और रहने के अधिकार का व्यावहारिक मतलब क्या है? यह तो एक हाथ से देना और दूसरे हाथ से छीन लेना हुआ।

· शोषण के विरुद्ध अधिकार। यानी बच्चों से काम नहीं कराया जाएगा, आदमियों की खरीद-बिक्री नहीं होगी। किसी ने हिसाब लगाया है कि 1947 में कितनी वेश्याएँ थीं और आज कितनी हैं? ये नई वेश्याएँ कहाँ से आ रही हैं? क्या उनकी खरीद-बिक्री नहीं होती?

· धर्म की आजादी। इसका तो और भी बुरा हाल है। किसी भी बच्चे का यह अधिकार नहीं है कि वह अपना धर्म खुद चुन सके। पैदा होते ही उस नादान, अबोध प्राणी को किसी न किसी धर्म में दीक्षित कर दिया जाता है। फिर वह जिंदगी भर के लिए हिंदू या मुसलमान बन कर रह जाता है। क्या सांप्रदायिक द्वेष इसी का नतीजा नहीं है? एक धर्मवाला आदमी दूसरे धर्मवाले को नीचा दिखाना चाहता है। क्यों? ताकि उसका समुदाय मजबूत हो? अगर हर बच्चे को बड़ा होने के बाद अपना धर्म चुनने की स्वतंत्रता हो, तो यह विवेक के आधार पर होगा, समझ-बूझ कर होगा। उसके बाद जुदा-जुदा धर्मवालों के बीच फसाद की गुंजाइश कहाँ रह जाएगी?

· हाँ, यह अधिकार जरूरी था कि समाज के विभिन्न समुदायों के लोग अपनी संस्कृति, भाषा या लिपि आदि को बचा कर रख सकें। जिस देश में अल्पसंख्यकों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता, वह रहने लायक नहीं है। लेकिन इस अधिकार का भी कितना सम्मान होता है? अल्पंख्यकों पर हमेशा दबाव बना कर रखा जाता है कि वे मुख्य धारा में अपना विलय कर लें। होगा, एक दिन यह भी होगा, क्योंकि एक-दूसरे के संपर्क में आने के बाद संस्कृतियाँ वही नहीं रह जातीं जो वे पहले थीं। लेकिन यह स्वाभाविक रूप से होगा, जोर-जबरदस्ती से नहीं। जोर-जबरदस्ती से तो लोग अपने खोल से निकलेंगे ही नहीं और कुएँ का मेढ़क बने रहने को बाध्य होंगे।

· और सुनिए, मूल अधिकारों का उल्लंघन हो, तब संवैधानिक उपचारों का अधिकार। क्या यह मेरे जैसे आदमियों के साथ मजाक नहीं है? जब छोटी अदालत में जाने की सोच कर ही पसीना छूटने लगता है और हम अन्याय पर अन्याय बरदाश्त किए जाते हैं, तब अपने मूल अधिकारों की रक्षा के लिए मैं बड़ी अदालत में कैसे जा सकता हूँ? तभी तो हमारे बीच यह कहावत प्रचलित है कि ये सब कोर्ट-कानून पैसेवालों के चोंचले हैं, गरीब आदमी तो भगवान से ही न्याय की फरियाद कर सकता है – उसी भगवान से, जिसने यह अन्याय और विषमता भरी दुनिया बनाई है।

हर पंद्रह अगस्त को मेरे सामने यह सवाल मुँह बाए खड़ा हो जाता है कि जब स्वतंत्र भारत के कानून ने मुझे अधिकारों की इतनी बड़ी सौगात दी है, तो व्यवहार में मेरे अधिकारों का किसने अपहरण कर लिया है? मेरे अधिकार मेरे पास नहीं हैं, यह तो मैं रोज सुबह-शाम अनुभव करता हूँ, पर यह समझ नहीं पाता कि मेरे ये अधिकार हैं किसके पास? जब तक दोषी का पता नहीं लगेगा, तब तक उसके खिलाफ कार्रवाई कैसे होगी? यह तो तय है कि सरकार उनकी खोज नहीं कर सकती जिन्होंने मेरे अधिकार चुरा रखे हैं या मेरी स्वतंत्रता मुझसे छीन ली है, क्योंकि मुझ जैसे करोड़ों लोगों के साथ ऐसा हो रहा है, फिर भी सरकार हरकत में नहीं आती। ऐसी सरकार मेरी स्वतंत्रता का पता लगा कर कैसे मुझे वापस लौटा सकती है?

मेरी स्वतंत्रता क्या खुद सरकार के पास है? लेकिन वह तो हमारी ही बनाई हुई है। पुलिस-प्रशासन भी इसी के हाथ में है। इनकी ताकत को हम स्वीकार करते हैं, तभी यह ताकत है। तो क्या मेरी स्वतंत्रता अमीरों के पास है? लेकिन उनकी संख्या ही कितनी है ? मुट्ठी भर लोग करोड़ों आदमियों की स्वतंत्रता कैसे छीन सकते हैं? जमींदार रहे नहीं, जिन्हें दोषी ठहराया जा सके। जगह-जगह गुंडे जरूर हैं, पर कितने? इतने तो नहीं कि वे व्यवस्था को अपने हाथ में ले लें। फिर वे हैं तो किसी के बल पर ही होंगे। वे कौन हैं? संसद है, राजनैतिक दल हैं, पक्ष है, विपक्ष है, अदालतें हैं, अखबार हैं, टीवी है, फिर भी उनके नाम क्यों नहीं सामने आते जिन्होंने मेरी स्वतंत्रता को छीन रखा है?

पहले एक ईश्वर हुआ करता था जो इस अन्यायपूर्ण दुनिया को चलाता था। आज का ईश्वर कौन हैं? उसका धर्मशास्त्र कहाँ है? उसके पुजारी, पुरोहित कहाँ रहते हैं? और रक्षक तथा प्रहरी? तब का ईश्वर संस्कृत बोलता था। आज का ईश्वर कौन-सी भाषा बोलता है?

मेरे अधिकार किसके पास हैं? इसकी खोज में वर्षों से लगा हुआ हूँ। आपको मुझसे थोड़ी भी सहानुभूति हो, तो आप भी खोजिए। बस पता लग जाना चाहिए। जब ईश्वर नहीं रहा, तो यह भी कितने दिन बच सकेगा?