मेरे अब्बा रसूल हमज़ातोव / सलीहत हमज़ातवा / प्रगति टिपणीस

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अब्बा के बारे में संस्मरण लिखना मेरे लिए एक कठिन काम है। इसका कारण मेरा स्वयं पर यह विश्वास न होना है कि मैं उस गहरे और विशाल व्यक्तित्व के आयामों को पूरी तरह से अपने शब्दों में व्यक्त कर पाऊँगी, जो मेरे अब्बाजान का था। उनके बारे में लिखने की कोशिश करते हुए मुझे उनकी ही पंक्तियाँ याद आ रही हैं :

और मेरी कविताओं से ट्रेसिंग पेपर नहीं हटाया जाएगा

क्योंकि, उनका रहस्य तो रेखाओं के बीच ही रहेगा।

इसी तरह उनके व्यक्तित्व के पैमाने और उनकी आतंरिक दुनिया की गहराई का चित्रण मेरे इन संस्मरणों से नहीं हो पाएगा। मेरी यह कोशिश उस छोटी खिड़की की तरह है जिससे बाहर फैले सौंदर्य की मात्र झलक देखी जा सकती है, उसकी पूर्ण भव्यता नहीं। लेकिन मैं फिर भी अपने अब्बू के बारे में लिखना चाहती हूँ, क्योंकि यह जो ’खिड़की’ है, उसके माध्यम से मैंने उनके पिता रूप को बेटी की नज़रों से देखा है। मैं यह नहीं कह सकती कि मेरे अब्बू का व्यवहार अन्य लोगों के साथ मुझसे अलहदा था कि नहीं। मेरे लिए मेरे अब्बा उस सूरज की तरह थे जो सब पर अपनी रौशनी बराबर से और पूरी शिद्दत से बरसाता है। माना कि सूरज की तपिश सर्दियों में कम हो जाती है और गर्मियों में बढ़ जाती है, पर वह धूप बाँटते समय लोगों में फ़र्क नहीं करता। इसलिए बेटी के प्रति किसी ख़ास प्यार की अभिव्यक्ति के बारे में मैं नहीं कह सकती; हालाँकि एक ऐसी घटना हुई थी जो मुझे बहुत ठीक से याद भी है। लेकिन उसके बारे में थोड़ी देर बाद बताऊँगी। अब्बा का लोगों के प्रति जो स्नेह था, उसने मेरे मन पर अधिक गहरी छाप छोड़ी है और वह सचमुच एक अद्भुत भावना थी। मुझे लगता है कि यह भावना एक पारस्परिक प्रभाव पैदा करती थी और इसीलिए जवानी के दिनों में मुझे लगता था कि सभी लोग तेजस्वी, दयालु और नेक होते हैं। अपने अब्बा के व्यक्तित्व के आकर्षण के चलते मेरा ध्यान लोगों की उन कमियों, कमज़ोरियों आदि पर नहीं जाता था, जो दूसरों की नज़रों में आया करती थीं। उनकी सोहबत में सब लोग ख़ुशगवार लगते थे और उन्हें देखकर यह लगता था कि सभी दयालु हैं और अच्छाई में विश्वास रखते हैं। यह भावना लोगों को बदलने का सामर्थ्य रखती थी और सभी के उज्ज्वल पहलुओं का विकास होता था।

अब्बा की यादें मेरी स्मृतियों में कुछ प्रकरणों की तरह दर्ज हैं। उनके असाधारण हास्य, उनके चुटकुलों, उनके मज़ाकिया मिज़ाज आदि के बारे में मैं लोगों से सुनती आई हूँ जैसे उनका यह कथन —"कम्सामोल (युवा कम्युनिस्ट दल) के सदस्य अजीब लोग होते हैं : वे काम तो बच्चों की तरह करते हैं पर पीते वयस्कों की तरह हैं ।" यहाँ तक कि अब्बा की शोक सभा में आई एक महिला ने बताया था कि एक बार उनके सम्मान में दागिस्तान के एक विश्वविद्यालय में वॉलीबॉल टूर्नामेण्ट आयोजित किया गया था। खेल चल रहा था और अचानक गेंद उस हॉल में आ गिरी, जहाँ प्रतिष्ठित लोग बैठे थे। गेंद सीधी वाइस-चांसलर के सिर पर लगी । कुछ देर के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया। आमतौर पर लोग ऐसी स्थिति में ठहाका लगाना चाहते हैं, पर लोग लिहाज़ करके चुप थे। तभी मेरे अब्बा बोल उठे, “देखा, गेंद भी उसी सिर को चुनती है, जिसमें दिमाग तेज़ होता है ।” और वाईस चांसलर तथा कमरे में बैठे सभी लोग ठहाके लगाने लगे।

अब्बू कभी भी किसी को दुख पहुँचाने के लिए मज़ाक नहीं करते थे। उनके चुटकुलों से माहौल हमेशा ख़ुशनुमा हो जाता था। मेरे अब्बा बिलकुल वैसे थे जैसा रूसी कवि समुईल मरशाक ने अपनी इन पंक्तियों में कहा है :

"अगर दिमाग़ दयालु बना रहे, दिल ख़ुद-बख़ुद अक़्लमन्द हो जाएगा !"

मेरे अब्बा का दिल और दिमाग़ कुछ ऐसा ही था। उन्हें अक्सर लोग भाग्य का दुलारा कह कर पुकारते थे। वे समाज में हो रही किसी भी उथल-पुथल के बावजूद हमेशा ख़ुश रहते थे। इन शब्दों में निश्चित तौर से कुछ सच्चाई है। अपने अस्सीवें जन्मदिन के उपलक्ष्य पर हुए आयोजन में उन्होंने ख़ुद यह कहा था कि लोग तो उन्हें एक खुशमिज़ाज इनसान मानते ही हैं, वे स्वयं भी अपने बारे में यही सोच रखते हैं। उन्होंने अस्सी साल लम्बी ज़िन्दगी जी यानी जीवन के तीनों दौर — बचपन, जवानी और बुढ़ापा - उन्हें शान से जीने का मौक़ा मिला। अधिकाँश लोगों को इतने वसन्त देखने का अवसर नहीं मिलता है। युद्ध और दमन के वर्षों ने लाखों लोगों की जानें ले लीं। वे लोग नामी कवि, वैज्ञानिक आदि भी बन सकते थे। अब्बा कहा करते थे — ";हमें उन लोगों को याद रखना चाहिए, जो उस उम्र से बहुत पहले मर गए जो मुझे मिली है। वे लोग पूश्किन, ल्येरमंतफ़ जैसे महान कवि बन सकते थे। बहुत सारे लोगों की जवानी की दहलीज़ पर पहुँचते ही मृत्यु हो गई। मेरे कई दोस्त या तो कम उम्र में शहीद हो गए या मर गए, कइयों के भाग्य ने बहुत कठिन परीक्षाएँ लीं। पर सभी विपत्तियाँ और दुश्वारियाँ जैसे मेरी बग़ल से गुज़र गईं। मुझे क़लम थमाई गई और मैं लिखता चला गया…”

लेकिन अब्बा की ज़िन्दगी को मैं बाहरी तौर पर देखने के अलावा भीतर से भी जानती हूँ, और इसलिए अक्सर सोचती हूँ, शायद सभी तथाकथित भाग्य के दुलारों की अपनी कठिनाइयाँ और समस्याएँ होती होंगी, जिनके बारे में हम नहीं जानते। मेरे अब्बा के पास ये कठिनाइयाँ पर्याप्त मात्रा में थीं। क्या यह सम्भव हो सकता है कि आप लोगों के बीच रहें, उनके नेता होने का दर्जा पाएँ, सत्ता के ऊपरी सोपानों तक पहुँचें और आपके इर्दगिर्द ईर्ष्यालु लोग और निन्दक न हों? आपको अपने जीवन में किसी विश्वासघात का सामना न करना पड़े ? यह सब मेरे अब्बा ने झेला था, वे कहते थे कि मैंने ज़िन्दगी को उसके हर रूप में देखा है। कुछ लोग, जो उन वर्षों में काफ़ी कामयाब ज़िन्दगी बसर करते थे, अक्सर पीड़ित होने का चोला पहने रहते थे। अब्बा को तथाकथित पीड़ितों के कारण बहुत कुछ सहना पड़ा था, पर उन्होंने कभी भी इसका ज़िक्र नहीं किया। मेरे अब्बा इन गोरखधंधों से दूर रह कर उनसे ऊपर उठने में कामयाब रहे। कई ऐसे लोग थे जो ईर्ष्या के कारण उन्हें हर तरह का नुकसान पहुँचाने की कोशिश करते रहते थे। वे इसके लिए सबूतों की तलाश में रहते थे और न मिलने पर उन्हें गढ़ते रहते थे। मिसाल के तौर पर वे इस तरह की बातें करते थे —रसूल के पास लगातार यात्रा करने का समय तो होता है पर पार्टी का चंदा भरने के लिए नहीं। उसने अपने पचासवें जन्मदिन पर पार्टी का शुक्रिया तो अदा किया पर लिआनिद ब्रिझनेफ़ का नहीं। इस तरह की बातें करने और इस तरह के आरोप लगाने का ईर्ष्या करने वालों के पास, भला, क्या आधार था? यह कोई संयोग नहीं है कि अब्बा ने "एक कवि से" नामक अपने लेख के अन्त में लिखा है :

अपने पीछे कविताओं का एक संग्रह

छोड़ कर जाना तुम

न कि गुमनाम शिकायतों का पुलिन्दा

आज शायद जो लोग उनके पचासवें जन्मदिन पर हुए शानदार समारोह की रिकॉर्डिंग देखते होंगे और उनका उत्कृष्ट सम्बोधन सुनते होंगे — “मैंने अपना भाषण लिखा तो है, पर क्या कोई अपने देश, अपनी पार्टी या अपने लोगों को सम्बोधित करते समय काग़ज़ से पढ़कर बोलता है।”, उनके लिए यह सोच पाना भी मुमकिन नहीं होगा कि कोई बहुत ध्यान से उनका भाषण सुनकर इस बात को गाँठ बाँध रहा होगा कि अब्बा ने लिआनिद ब्रेझनेव का शुक्रिया अदा नहीं किया। कुछ दिनों बाद रसूल हमज़ातव को पार्टी दफ़्तर बुलाकर फटकार लगाई जाती है और शुक्रिया अदा न करने के लिए जवाब-तलबी की जाती है।

उल्लेखनीय बात यह है कि यही लोग (मेरा संकेत मात्र दो लोगों की तरफ़ है) जब उनकी सारी चालें ग़लत साबित हो जाती हैं, बड़ी आसानी से नए मुखौटे पहन कर यह कहकर माफ़ी माँग लेते हैं कि उनसे भूल हो गई, या अपने किए से पल्ला झाड़ लेते हैं। मेरे अब्बा ने उन लोगों का कभी अपमान या पर्दाफ़ाश नहीं किया।

मैं जब थोड़ी समझदार हो गई, तब मैंने अब्बा से पूछा था कि उन्होंने कभी भी उन लोगों द्वारा लगाई गई तोहमतों, की गईं साज़िशों और मानहानि के ख़िलाफ़ आवाज़ क्यों नहीं उठाई। उन्होंने जवाब में कहा था कि वे लोग चाहते थे कि मैं उनसे उलझूँ, बहस करूँ, लेकिन मैं अपने सृजनात्मक कार्यों में लगा रहना चाहता था। उस समय यह रवैया मुझे थोड़ा कायरता भरा लगा था — क्यों ऐसी हरकतों के प्रति अपने दृष्टिकोण का या उन हरकतों का ज़िक्र नहीं किया अब्बा ने ! लेकिन अब परिपक्वता आने के बाद मैं यह समझती हूँ कि कोई भी शख़्स पूरी शिद्दत के साथ कविता लिखने और तोहमतों से लड़ने का काम एक साथ नहीं कर सकता है। दिलचस्प बात तो यह है कि इन लोगों के बारे में हमारे परिवार में कोई बात नहीं होती थी। बाद में मैं अक्सर कई परिवारों में इस विषय पर बातें होती सुनती कि फ़लाने ने हमारे परिवार के साथ ऐसा-ऐसा बुरा बर्ताव किया वग़ैरह-वग़ैरह। मुझे इन लोगों के बारे में संयोग से तब पता चला, जब एक बार अब्बा-अम्मी आपस में अब्बा के ख़िलाफ़ होने वाले एक और अतिक्रमण के बारे में बात कर रहे थे। मैंने तब अब्बा को कहते सुना था कि ये लोग मुझसे दुश्मनी करके ख़ुद के लिए नाम कमा रहे हैं और मैं इनसे कोई वास्ता नहीं रखना चाहता हूँ। मुझे दागिस्तान के एक लेखक के शब्दों ने हैरान कर दिया था (मैं यहाँ उनका नाम नहीं लेना चाहती), जो उन्होंने शायद पिछली सदी के साठ या सत्तर के दशक में अब्बा के सम्बन्ध में कहे थे — “रसूल हमज़ातव अपनी माँ के बारे में कविताएँ लिखते हैं। उनकी माँ कौन हैं - आदर्श कर्मचारी या प्रगतिशील विचारों की मशालवाहक?” ऐसे लोग हमारे यहाँ महान लेखकों की पंक्ति में थे ! उन लोगों को उस समय ऐसी बातें लिखकर इस बात की उम्मीद रहती थी कि उनके अनुमोदन में कई हाथ उठ जाएँगे, साथ ही उन्हें कुछ ख़ास लोगों की सरपरस्ती की तवज्जो भी रहती थी। मैं आज यह सब इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि अब भी ऐसी बातें लिखने वालों को जननायक बनाने की कोशिश की जाती है, जबकि उनके लिखे या कहे में कुछ भी स्तुति योग्य नहीं है। मैं इन बातों का ज़िक्र इसलिए भी कर रही हूँ ताकि पाठक उस इनसान की जीवन्त छवि देख सकें जिसने अद्भुत पुस्तकें लिखीं और ज्ञानपूर्ण शब्द कहे, ताकि पाठक समझ सकें कि इसके बावजूद कि लोग उनसे अपार स्नेह करते थे और वे ख़ुद भी लोगों के प्यार में डूबे रहते थे, उनके जीवन में भी रंज-ओ-ग़म कम नहीं थे। उनको विभिन्न पड़ावों से — पूर्ण समर्थन से लेकर अत्याधिक तोहमतों तक — गुज़रना पड़ा था हालाँकि उन प्रसंगों के बारे में उन्होंने कभी कोई चर्चा नहीं की। यह कोई संयोग नहीं है कि उनकी कविता में ऐसी मार्मिक पंक्तियाँ हैं, जो वही इनसान लिख सकता है, जिसने उस मर्म की अनुभूति की हो।

दोस्तों का झूठ और दुश्मनों की तोहमतें

जब प्रभात बेला में इस धरती से विदा लेने का पल आए

तो मेरी आत्मा किसी वृक्ष और चीतल में न जा समाए

जब मैं ज़िन्दा था

मुझपर माहिर निशानेबाज़ों ने ख़ूब तीर चलाए

और मैं यह भी बख़ूबी जानता हूँ कि अँधेरे की आड़ में

पेड़ भी काटे जाते हैं और शाखाएँ भी चटकाई जाती हैं…

"वसीयत" कविता का एक अंश


अशिष्टता और हठपूर्वक सब दोहराया गया,

जो दूर था उसने तीर सीधे दिल पर दाग़ा

और जो साथ चल रहा था

उसने मुझे गिराने के सभी पैंतरे अपनाए …

बर्फ़ गिर रही है, जीवन कितना छोटा है… कविता का अंश

दोस्तों की दग़ाबाज़ी को तो मैं जानता हूँ

पर दुश्मनों की नफ़रतों से कभी सामना न हुआ

मेरी नातिन, नन्ही शाहरी के लिए कविता का अंश


तुम कड़वाहट चख चुके हो और दुख को समझ चुके हो

तुम्हें कौवों के झुण्डों ने बहुत बार चोंचें मारी हैं

दिन दहाड़े हुई वारदात कविता का अंश

उन की महानता का एहसास पूरी तरह से तब होता है जब कौवों के झुण्डों से मिली खरोंचों के बाद भी वे प्रेम-गीत लिखते रहते हैं और लोगों को बुलंद सितारे कह कर पुकारते रहते हैं।

आज भी मेरा कंठ अवरुद्ध हो जाता है जब उनकी शुरूआती कविता ‘कभी जो दोस्त था’ पढ़ती हूँ —

मेरा एक दोस्त था, मैं उससे प्यार करता था

मुझे उस पर भरोसा था और मैं उसे अपने भाई-सा मानता था

उसके स्वागत में मैं न केवल अपने घर के

बल्कि दिल के द्वार भी पूरे खोल देता था

वह जोश में कहता: “मैं बहुत दिनों से सोया नहीं था,

पर नींद आने पर मैंने तुम्हें सपने में देखा!”

मैंने कभी नहीं सोचा कि वह झूठ बोल रहा है

वह झूठ बोल भी नहीं रहा थाम :

वह आधी रात को मेरे ख़िलाफ़

शिकायतनामा लिख रहा था।

मैं उसे अपने दुश्मनों के बारे में बताता

और बाद में ज्ञात होता कि वह उनका दोस्त था

मैं उसे अपने दोस्तों के बारे में बताता

वह मुझे उनसे दूर करने की तरतीबें तलाशता

मैं अपने अब्बा के ख़िलाफ़ दागिस्तान मीडिया में छपे कुछ लेखों पर अपनी राय बताए बिना नहीं रह सकती हूँ। उनमें से एक मुर्तज़ाली दुग्रिचीलव का लेख है, वे दागिस्तान के हैं और आजकल विदेश में रहते हैं। उन्होंने अपने लेख में रसूल हमज़ातव पर कई गुनाहों का आरोप लगाया था। उनके उन दावों का आधार क्या था? सबसे पहले तो यह कि हमज़ातव ने किसी को जेल से बाहर निकालने में मदद की थी या यह कि उनकी पहल पर भारी भूकंप से क्षतिग्रस्त हुए बुइनकस्क में राहत कार्यों के लिए एक बड़ा आर्थिक बिल पास कर दिया गया था (यह तथ्य भी अब्बा द्वारा किए गए उन अनगिनत अच्छे कामों की तरह ही है, जिनके बारे में मुझे हमेशा दूसरों से ही पता चला, क्योंकि अब्बा अपने कामों का कभी ढिंढ़ोरा नहीं पीटते थे)। इस लेख को लिखने वाला अपने "सहयोगी-विदेशियों" के साथ यह सोचकर हैरान था ... कि क्या यह बेतुकी बात नहीं है कि किसी क्षतिग्रस्त क्षेत्र का नेता उसकी बहाली करे और किसी अवैध रूप से सज़ायाफ्ता व्यक्ति को एक वकील द्वारा जेल से रिहा किया जाए। वैसे काव्य प्रतिभा का इन समस्याओं से कोई लेना-देना नहीं है। शायद यहाँ पर यह याद करना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि हमज़ातव सोवियत संघ के सर्वोच्च सोवियत अध्यक्ष-मंडल के सदस्य थे। किसी भी संतुलित मस्तिष्क वाले के लिए यह कोई रहस्य नहीं होगा कि सत्ता में रहने वाले लोग हर समय में हर देश में घटनाओं को प्रभावित करते ही हैं। इसके बावजूद उपरोक्त लेखक और उन की मंडली को ये बातें हज़म नहीं हुईं। हाँ, यह एक एकदम अलग बात है कि कोई शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति किसी घटना-विशेष को कैसे प्रभावित करता है। और इस सन्दर्भ में लोगों के पास मेरे अब्बा के लिए नेक शब्दों के अलावा कुछ भी नहीं था। यहाँ तक कि यह अभियोजक ख़ुद भी लिखता है : "हमज़ातव की साख़ को इस तथ्य ने और मज़बूत बनाया है कि वे लगभग उन सभी लोगों की मदद करने में कामयाब रहे, जिन्होंने सहायता के लिए उनकी तरफ हाथ बढ़ाया।" ये शब्द शायद हर किसी के सन्दर्भ में नहीं कहे जा सकते हैं। मेरे अब्बा पर एक और गंभीर आरोप साल 1951 में उनके द्वारा इमाम शमील के ख़िलाफ़ लिखी कविता के लिए लगाया गया कि शमील विरोधी दौर में उन्होंने यह कविता मात्र लेनिन पुरस्कार प्राप्त करने के लिए लिखी, जबकि हक़ीक़त यह है कि वह प्रतिष्ठित पुरस्कार अब्बा को कहीं जा कर वर्ष 1963 में मिला था। कविता निश्चित रूप से दुग्रिचीलव के लेख में पूरी दी गयी है। वर्ष 1968 में लिखी अब्बू की किताब ‘मेरा दागिस्तान’ में आंशिक रूप से वे अंश भी दिए गए हैं, जहाँ हमज़ातव अपना जुर्म स्वीकारते हैं और लिखते हैं कि उन्होंने ऐसा स्वेच्छा से किया है न कि किसी और के फ़रमान से। अब्बा के कहे शब्द :

"मुझे नहीं पता कि दगिस्तानियों ने मुझे उस कविता के लिए माफ़ किया है या नहीं, शमील की आत्मा ने भी मुझे उसके लिए माफ़ किया है या नहीं, लेकिन मैं खुद को उसके लिए कभी माफ़ नहीं करूँगा।” ज़ाहिर सी बात है कि उस लेख के लेखक यह सब कभी और कहीं उद्धृत नहीं करते हैं।

बेशक, अब्बा ने ये अलफ़ाज़ दुग्रिचीलव और उनके जैसे अन्य लोगों के लिए नहीं लिखे थे, जिन्हें न तो अनुकम्पा देने का कोई अधिकार था और न ही रसूल हमज़ातव को उसकी कोई ज़रूरत। उन्होंने ये शब्द अपनी अंतरात्मा की आवाज़ व्यक्त करने के लिए लिखे थे। शायद इसीलिए ताज़िन्दगी वे अपनी अलग-अलग दीर्घ-कविताओं (मेरा दिल पर्वतों पर रहता है; लोग और परछाइयाँ; प्रार्थना) में उस कविता को लिखने पर पछतावा व्यक्त करते रहे। वे इस बारे में लगातार इसलिए कहते थे क्योंकि वे उसके लिए ख़ुद को दोषी मानते थे और स्वयं को उसकी याद दिलाते रहते थे। इसका ज्वलंत उदाहरण है - ‘नए साल की पूर्व संध्या पर लिखी कविताओं’ में अपनी माँ को संबोधित करते हुए लिखे शब्द:

तुम कभी भी मुझे फटकार नहीं पाओगी,

उस सख़्ती से

जैसे मैं ख़ुद को फटकारता हूँ।

क्या हमज़ातव के अलावा उनके सभी हमउम्र 27 साल की उम्र में अपने समय से आगे थे और देश में होने वाली चर्चाओं पर कान नहीं देते थे, उन पर विश्वास नहीं करते थे? क्या सभी में आधिकारिक दृष्टिकोण को न मानने या विश्वास न करने की अद्भुत क्षमता थी? लेकिन अब्बा ने विश्वास किया और पूरी ईमानदारी से उस आवेग के साथ बहे। और साल 1968 में उन्होंने उस किताब में, जिसने उन्हें विश्व-ख्याति दिलवाई, अपने तथाकथित गुनाह की खुलकर निंदा की है। शायद तब चुप रहना अधिक आसान रहा होता। लेकिन कवि के पश्चाताप और आत्म-निंदा के बावजूद अभियोजक संतुष्ट नहीं होता है क्योंकि उसके बाद यह मुद्दा लम्बे समय तक सार्वजनिक चर्चा से बाहर हो जाता है… और अफ़सोस कि दुग्रिचीलव महोदय और उनके सहयोगियों को अत्यंत वांछित तथाकथित जज की भूमिका से हाथ धोना पड़ जाता है। उन्होंने अपने लेख की प्रस्तुति भी रोचक की है : "जैसे ही मौक़ा मिला, उसने सभी दाग़ों से छुटकारा पा लिया।" यहाँ उनका इशारा किस मौक़े के मिलने की तरफ़ है? क्या राष्ट्रीय-नीति में कोई बदलाव आ गया था? नहीं। वे लेखक महोदय यह भी लिखते हैं, “दागिस्तान में हमज़ातव के अलावा सब को शमील का नाम लेने तक की मनाही थी।” क्या हमज़ातव को किसी ने यह अनुमति दी थी? कहा था : "लिखो";? नहीं, बात सिर्फ़ इतनी है कि हमज़ातव अपनी बात कहने का साहस रखते थे और ग़लती हो जाने पर उसे कुबूलने की विनम्रता भी, जो बहुत मुश्किल काम और दुर्लभ गुण होते हैं। क्या वह समय कॉकेशिया युद्ध और शमील के बारे में लिखने का उपयुक्त समय था? इस बारे में गिओर्गी दनेली ने अपनी पुस्तक "द टोस्टर ड्रिंक्स टू द बॉटम" में उद्धृत किया है। इस किताब के आधार पर अब्बा और वी. अग्नेयेव ने हाजी मुराद के बारे में एक पटकथा लिखी थी, जिसे दनेली ने अनुमोदित भी कर दिया था। फिल्मांकन की तैयारी का बहुत काम हो भी गया था: जगह चुन ली गयी थी, अभिनेताओं का चयन हो गया था, वग़ैरह-वग़ैरह। लेकिन फिर शूट रद्द कर दिया गया। दनेली ने लिखा है कि इतना आगे आने के बाद प्रोजेक्ट को रद्द करने की वजह उनके लिए एक रहस्य है, यह बात रसूल हमज़ातव की भी समझ से परे थी। लेकिन जैसा कि कहा जाता है अक़्लमंद के लिए इशारा काफ़ी है।

मैं यहाँ पर काकेशिया युद्ध और तत्कालीन दागिस्तान प्रमुख इमाम शमील से जुड़े एक अहम पर गुमनामी के अँधेरे में रहे तथ्य का उल्लेख करना चाहूँगी। जिस साल जॉर्जिया के रूसी साम्राज्य के साथ हाथ मिलाने की एक बड़ी जयंती मनाई जा रही थी, दागिस्तान की सरकार की भी अभिलाषा ऐसी जयंती मनाने की हुई। इसके लिए सभी शोधकर्ताओं और इतिहासकारों से उन तथ्यों को तलाशने के लिए कहा गया, जिससे दगिस्तान के स्वेच्छा से रूस के साथ जुड़ने की पुष्टि होती हो। वैज्ञानिक अपनी पूरी कोशिश के बाद भी ऐसा कोई तथ्य तलाश नहीं सके। क्या तब इन प्रयासों को दागिस्तान सरकार की यह मंशा माना जाए कि वह जबरन बनाए गए संघ की तरफ़ लोगों का ध्यान आकर्षित करवाना चाहती थी? मैं यह पूरे विश्वास से कह सकती हूँ कि इमाम शमील के नेक कामों और नाम को पुनर्जीवित करने के लिए जितना कुछ रसूल हमज़ातव ने किया शायद ही किसी और साहित्यकार ने किया होगा। मैं यहाँ यह भी कहना चाहती हूँ कि इमाम शमील के ख़िलाफ़ लिखी गयी कविता का शुमार कभी भी ‘ऊँचे सितारे’ काव्य-संकलन में नहीं किया गया, जिसके लिए सन् 1963 में रसूल हमज़ातव को लेनिन पुरस्कार से नवाज़ा गया था। अगर दुग्रिचीलफ़ ने एक बार भी हमज़ातव की किताब ‘मेरा दागिस्तान’ का वह भाग पढ़ा होता, जहाँ उन्होंने इस कविता के पीछे की कहानी लिखी है तो वे यह समझ जाते कि सन् 1961 में हमज़ातव ने इमाम शमील पर एक बिलकुल दूसरी कविता भी लिखी थी। मेरा यह मानना है कि दागिस्तान के प्रकाशकों को मेरे अब्बा के बारे में कुछ भी छापने के पहले तथ्यों की जाँच करनी चाहिए थी। मेरे और लेखक संघ के कई लेखकों के लिए दुग्रिचीलव का यह कथन आश्चर्यजनक है - कैसे ऐसी परिस्थितियाँ बन गईं कि मैं रसूल हमज़ातव और उनके कट्टर विरोधी अबू बाकर के बीच फँस गया?”

दुग्रिचीलफ़ के हमज़ातव के साथ जब कोई सम्बन्ध ही न थे तो वे अब्बू और अबू बाकर के बीच कैसे आ पाए? इस तरह से तो वे अबू बाकर और किसी के भी बीच आ सकते थे। अब तो सिर्फ़ अटकलें लगाईं जा सकती हैं लेकिन उनका वह कथन सुनने में बड़ा प्रभावी लगता है और तथाकथित निष्पक्ष न्यायाधीश के लिए एक अच्छे मुखौटे का काम करता है। मैं उस विषय पर भी एक बारीकी सामने लाना चाहती हूँ जिसके अनुसार अबू बाकर ने मेरे अब्बा के पुनर्निर्वाचन के लिए कोशिशें की थीं। इस पुनर्निर्वाचन प्रक्रिया में वे ख़ुद पत्रिका ‘सोवियत दागिस्तान’ के सम्पादक के पद के लिए नहीं बल्कि हमज़ातव द्वारा छोड़े गए उप-संपादक के पद के लिए खड़े हुए थे। इस बारे में दुग्रिचीलफ़ ने ठीक लिखा था कि हमज़ातव के समर्थकों ने ख़ास तौर से कवि नुरातदिन युसूपव ने इस बात का विरोध किया और कहा कि हम अपने प्रमुख को उसकी ग़ैर मौजूदगी में कैसे चुन सकते हैं? लेखक अबू बाकर बिलकुल भी बेवकूफ़ आदमी नहीं थे। वे किसी भी हाल में ऐसे इनसान का प्रमुख के पद के लिए पुनर्निर्वाचन करने को नहीं कहते जो कई सम्मानों से नवाज़ा जा चुका हो, सोवियत संघ के सर्वोच्च सभापतिमंडल का सदस्य हो और जिसने उन्हें ख़ुद अपना उप चुना हो। यानी उन्हें ऊपरी तबक़ों का समर्थन प्राप्त था और ऐसे निर्देश मिले थे। माना कि पत्रिका ‘सोवियत दागिस्तान’ का प्रमुख होना कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन लोगों को मेरे अब्बा का सोवियत संघ के सर्वोच्च सभापतिमंडल का सदस्य होना पसंद नहीं आता था। उन लोगों की योजना बिलकुल स्पष्ट थी; पहले इनसान की प्रतिष्ठा को उसकी मातृभूमि में धूमिल करो और फिर… यही कारण है कि वह अजीबोग़रीब प्रतिद्वंदी अब्बू के असफल तख़्तापलट के बाद किसी क्षेत्रीय अख़बार का संपादक बना और बाद में उस पत्रिका का जो मेरे अब्बा के प्रबंधन के दायरे में तो नहीं थी लेकिन निकलती उसी संस्था से थी जिससे वे जुड़े हुए थे। मैं अपनी तरफ़ से सिर्फ़ यही चाहती हूँ कि किसी को भी ऐसे डिप्टी या सहकर्मी न मिलें।

मैं अब्बा को प्रतिष्ठा के सोपान से हटाने के लिए किए गए अन्य विफल प्रयासों के बारे में नहीं लिखूँगी, उनका ज़िक्र ज़ाहिर बात है कि दुग्रिचीलव भी नहीं करते। मैं मुख्य रूप से यह सब इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि मेरे पिता का मृत्यु के प्रति विशेष दृष्टिकोण था। वे उस प्राचीन नीतिवचन का आदर करते थे कि मृत व्यक्ति की निंदा नहीं करनी चाहिए। मैं यह सब इसलिए भी नहीं लिख रही हूँ कि मृत हमज़ातव पर आरोप लगाने के लिए दुग्रिचीलफ़ को फटकार लगाई जाए। दागिस्तानियों के हृदय में मेरे अब्बा आज भी प्राग में कार्यरत दुग्रिचीलफ़ की तुलना में कहीं अधिक जीवित हैं। और मैं किसी को शिष्टाचार के नियम सिखाने -दुनिया से गुज़र गए लोगों के बारे में बुरा नहीं कहते - के लिए भी नहीं लिख रही हूँ। मेरे अब्बा दागिस्तान और सोवियत संघ के लिए एक अहम शख़्सियत थे, हैं और रहेंगे। लेकिन उन की छवि को कलंकित करने के लिए किये गए ग़लत प्रयासों पर मैं चुप्पी भी नहीं साध सकती।

मेरे अब्बा के रवैये और ख़ास तौर से मृत्यु के बारे में उनके दृष्टिकोण जानने वालों के लिए दुग्रिचीलव के इस दावे पर विश्वास करना असंभव हो जाता है कि अबू बाकर के अंतिम संस्कार के समय वे उस एक पत्रिका का संपादक बनने की पेशकश में लगे थे जो उनके अधिकार-क्षेत्र से बाहर थी। अगर उन्होंने यह प्रस्ताव रखा भी होगा तो निश्चित रूप से अंतिम संस्कार के समय नहीं। हो सकता है यह पेशकश उन्होंने उस समय की हो जब पत्रिका आर्थिक और लोकप्रियता की दृष्टि से ख़राब दौर से गुज़र रही होगी। लेखक-संघ उस पत्रिका को बचाए रखना चाहता था, जिसमें दागिस्तान के अधिकतर साहित्यकारों की रचनाएँ प्रकाशित होती थीं। और अगर दुग्रिचीलफ़ ने उसके लिए इनकार किया तो वह उनकी समस्या है। दागिस्तान में प्रकाशित होने वाली एकमात्र रूसी-भाषा की पत्रिका, जिसमें दागिस्तान के अधिकतर लेखकों की रचनाएँ छपा करती थीं, नए प्रधान-संपादक के आने के बाद मुख्य रूप से अनूदित प्रवासी साहित्य छापने लगी।

अपने लेख में दुग्रिचीलफ़ ने रसूल हमज़ातव और कवि मार्कफ़ के बीच समानताएँ खींची हैं। दुग्रिचीलफ़ के सौंदर्य संबंधी पूर्वाग्रहों की मुझे कोई परवाह नहीं है, लेकिन मेरी राय में सन् 1963 के संग्रह से उद्धृत इमाम शमील पर लिखीं मार्कफ़ की इन दो पंक्तियों - शमील जिस पथ पर चले, मेरे अल्फ़ाज़ ने उसे शर्मिंदा न किया - की तुलना मेरे अब्बा द्वारा साल 1961 में शमील को समर्पित लिखी इस लम्बी कविता से करना बेवकूफी है :

फिर से पुराना घाव, जो भर ही नहीं पा रहा,

मेरे दिल को चीरता है, छलनी करता है।

.. .. .. .. .. .. . उसे सच भी न मानें

धोखा ही मैंने उन्हें ऐसा दिया है

मेरे ओछे शब्दों ने उनपर तोहमतों का बाण चलाया है ।

तलवार से लिखने वाले कभी अपमान अपना भूला नहीं करते !

ख़ैर, लेकिन तुम, मेरे अपने लोग,

इस पाप के लिए मुझे माफ़ कर दो ।

मैं तुमसे बेतहाशा प्यार करता हूँ, मेरी प्यारी मातृभूमि !

तुम तो अपने कवि को यूँ न देखो

जैसे देखती है बेटे से दुखी और व्यथित माँ !

मार्कफ़ की अच्छी कविता "सैनिक चल रहा है"; को उद्धृत करने के बाद, किस आधार पर दुग्रिचीलफ़ दो कवियों - मार्कफ़ और हमज़ातव - को आमने-सामने रख कर यह दिखाना चाहते हैं कि इन दोनों में से एक सचमुच में देशभक्त था और दूसरा सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की मात्र कोशिश करता था। हमज़ातव के सृजन कार्यों की ऊँचाई किसी प्रमाण की मोहताज नहीं है। और जो लोग यह बात समझ नहीं सकते हैं, उनके लिए पर्याप्त होगा रसूल हमज़ातव की वेबसाइट खोलकर यह देख लेना कि आज भी देश के कितने कोनों में लोग उनकी कविताओं को पढ़ते और पसंद करते हैं। उनकी रचना ‘सारस’ को समर्पित न जाने कितने ही स्मारक बने हैं। यह रचना शहीद सैनिकों के लिए वास्तविक श्राद्धगीत है। हमज़ातव की शायरी के आकर्षण का एक मुख्य कारण यह है कि इसमें हमेशा एक जीवित व्यक्ति अपने सभी उतार-चढ़ावों, ग़लतियों, ख़ुशियों और दर्द के साथ होता है। लेकिन जो आदमी कभी किसी दूसरे के घर में पत्थर नहीं फेंकता, वह कहता है — देखो मैं कितना अच्छा हूँ, मैंने ऐसा नहीं किया, लेकिन दूसरे ने किया। और दुग्रिचीलफ़ का यह कहना कि मार्कफ़ ने हमज़ातव को इमाम शमील के ख़िलाफ़ कविता लिखने के लिए मना किया था उतना ही सच है जितना कि इमाम शमील के ख़िलाफ़ कविता का शुमार अब्बा के संकलन “ऊँचे सितारे” में होना।

मेरे पिता कौन थे और दागिस्तान के सामजिक और साहित्यिक जीवन में उनकी क्या भूमिका रही है, इस बात को दागिस्तानियों ने काफ़ी पहले समझ लिया था और अपने लिए निर्धारित कर लिया था। दुग्रिचीलव अपने इस तानों-तिश्नों से कि अब्बा अनुचित तरीक़े से "महत्त्वपूर्ण भूमिका" निभाने की कोशिश करते थे, मेरे अब्बा की भूमिका कोऔर सुदृढ़ करते जाते हैं।

मैं गिओर्गी दनेली के शब्दों का हवाला देते हुए एक दिलचस्प तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहती हूँ — विभिन्न स्तरों पर साहित्य और राजनीति क्षेत्रों से जुड़े योग्य, प्रतिभाशाली और बुद्धिमान वे सभी लोग जो मेरे अब्बा के संपर्क में आए, हमेशा उनकी प्रशंसा करते हैं और उनके प्रति गहरा सम्मान व्यक्त करते हैं। मात्र कुछ विशिष्ट लोग जिन्होंने अपनी ज़िन्दगियों में बड़ी ग़लतियाँ आदि की थी, वे मेरे अब्बा की निंदा करते हैं, उन पर उँगली उठाते हैं। लेकिन यह शायद किसी हद्द तक उनका ख़ुद को स्थापित करने का तरीक़ा होता हो ... यहाँ पर मुझे क्रीलफ़ की प्रसिद्ध पंक्तियों को कुछ यूँ लिखने का मन कर रहा है : "दोस्तो, आप किसी भी ओर मुँह कर क्यों न बैठें, संगीतकार और जज न बन पाएँगे"

मेरे अब्बा के ऊपर पत्रकार उज़ुनाएव द्वारा लगाए गए इस आरोप, कि वे कुमीकों को नापसंद करते हैं, के बारे में भी चंद शब्द कहना चाहती हूँ। पत्रकार साहब यह आरोप इस आधार पर लगाते हैं कि रसूल हमज़ातव ने उनके लिए किसी सिफ़ारिश पर दस्तख़त नहीं किये थे, जिसका कारण, पत्रकार जी को लगा कि उनका कुमीक होना था। मैं पूरे दावे के साथ कह सकती हूँ कि मैंने कभी भी अब्बा को कुमीक क्या किसी भी जाति के लोगों के प्रति विद्वेष की भावना रखते नहीं देखा, हर काम का आकलन वे पूर्णतः वस्तु-परक दृष्टिकोण से करते थे। लेखक संघ के सभी सदस्य अच्छी तरह से यह जानते हैं कि मेरे अब्बू का कुमीक कवयित्री जमिनात करीमवा के प्रति कितना सौहार्द और आदर पूर्ण व्यवहार था। उन्होंने युवा कवयित्री का हमेशा मार्गदर्शन किया, हर संभव सहायता की। यहाँ तक कि कवयित्री को उन्होंने मार्मिक पंक्तियाँ भी समर्पित कीं, जो मात्र किसी बहुत प्रिय और क़रीबी व्यक्ति के लिए कही जा सकती हैं :

जमिनात, मैदान का नाज़ुक फूल हो तुम,

तुमसे हर मुलाक़ात पर क्यों

बढे तुम्हारे हाथ को देखकर

याद आते हैं मुझे तुम्हारे पिता?...

मैं हूँ नहीं जादूगर, न ही कोई नामी हकीम

गुनाह मेरे झुकने नहीं देते सजदे में मुझे

काश! मेरी ये कविताएँ क़ुबूल हों ख़ुदा को

और पूरी हो जाए मेरी यह दिली दुआ

जो लिखी हुई है हर सफ़हे पर कि

कुमीक की इस गीत गाती कोयल

के परों का एक भी पंख न गिरे

क्या ये पंक्तियाँ किसी भी तरह से उस इनसान की कलम से निकली हो सकती हैं जो कुमीकों से नफ़रत करता हो?

प्रतिभाशाली आलोचक कमाल अबूकव ने कई वर्षों तक मेरे पिता के सहायक के रूप में काम किया, वे उनके बहुत अच्छे दोस्त थे और मेरे अब्बू उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे। कई कुमीक लेखक: अतकाई, अनवर, अजियेव, कामिल सुल्तानव वग़ैरह भी मेरे अब्बा के क़रीबी दोस्त थे। कामिल सुल्तानव को तो उन्होंने कुछ पंक्तियाँ भी समर्पित की थीं — "कामिल दानियालविच, मेरे पुराने दोस्त ..."। मुझे लगता है कि कामिल दानियालविच के प्रतिभाशाली वैज्ञानिक बेटे प्रोफ़ेसर काज़बेक सुल्तानव मेरे पिता के बारे में बहुत सारी अच्छी बातें साझा कर सकते हैं। मेरे अब्बा के अपनी पीढ़ी के लेखकों - अब्दुलवहाब सुलेमानव और महामेद-सुल्तान याख्यायिव के साथ बहुत अच्छे संबंध थे। साथ ही अब्बा के सम्बन्ध कुमीक थिएटर की पूरी टीम के साथ बहुत मधुर थे। अब्बू के सम्बन्ध महामेद मामेविच जम्बुलातव के साथ दोस्ताना थे। शेख़सईद इसायिविच शेख़सैदव और हिजरी इसायिविच शेख़सैदव के साथ उनके संबंधों की चर्चा मैं अलग से करुँगी। मैं आपको यह भी याद दिला दूँ कि मेरे नाना-नानी बुइनकस्क में रहते थे, जहाँ उस समय अधिकांश आबादी कुमीकों और अवारों की थी, और इन क़ौमों के प्रतिनिधियों के बीच दोस्ताना-रिश्ते एक बहुत ही स्वाभाविक बात होती थी। यहाँ यह उल्लेख करना भी ज़रूरी है कि वहाँ पर स्कूली बच्चे जब राष्ट्रीय भाषा बतौर विषय चुनते थे तो विविधता की चाह में अवारी क़ौम के बच्चे कुमीक भाषा सीखते थे और कुमीक - अवारों की भाषा। कुमीकों और मेरे अब्बा के बीच के संबंधों के बारे में बातचीत लम्बे समय के लिए जारी रखी जा सकती है... मुझे लगता है कि अगर उज़ुनाएव द्वारा बताया गया प्रकरण सच भी है तो उस सिफारिश पर दस्तख़त न करने की वजह दरअसल याचिकाकर्ता का व्यक्तित्व रहा होगा न कि उसकी राष्ट्रीयता। यहाँ मैं अपने अब्बा की एक वक्रोक्ति को उद्धृत करना चाहूँगी: "अपने स्वास्थ्य को कभी भी अंतरराष्ट्रीय महत्त्व का नहीं मानना चाहिए।" इस व्यंग्योक्ति को मुझे थोड़ा दूसरा रंग देने का मन कर रहा है, “अपने व्यक्तित्व को कभी भी अंतरराष्ट्रीय महत्त्व का नहीं मानना चाहिए।" यह मैं उपर्युक्त लेखक के साथ विवाद के लिए नहीं लिख रही हूँ, बल्कि इसलिए कि मैं नहीं चाहती कि अगर कुमीक बच्चे रसूल हमज़ातव की कविता तक उज़ुनाएव का लेख पढ़ने के बाद पहुँचे तो उनके मन में बरबस यह निराशा और नाराजगी न आए कि यह कवि तो कुमीकों को पसंद नहीं करता था।

अब्बा के दोस्तों में ततार खिज़गिल अवशालूमव और रूसी नतालिया कपियेवा भी थे ... लाक लेखक अबुतालिब गफ़ूरव उनकी किताब के नायक थे और प्रतिभाशाली लाक फ़ोटोग्राफ़र अमीन चुतुयेव और विख्यात संगीतकार मुराद कझलाएव को समर्पित मेरे अब्बा की सुंदर कविताएँ भी हैं।

मैं इन तथ्यों का सिर्फ़ इसलिए उल्लेख कर रही हूँ कि किसी के भी मन में यह संदेह न रह जाए कि रसूल हमज़ातव राष्ट्रवादी थे।

मुझे बहुत पसंद हैं सभी क़ौमें

और एक नहीं, दो नहीं, कई बार लानत है उस पर

चाहे जो कलंकित करना किसी भी क़ौम को

अब्बू की ये पंक्तियाँ मात्र उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति नहीं थीं।

मूल रूसी से अनुवाद : प्रगति टिपणीस