मेरे घर आना जिंदगी / भाग 16 / संतोष श्रीवास्तव्

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सूने घर का पाहुना ज्यूँ आया त्यूँ जाव

औरंगाबाद पहुँचकर प्रमिला से लिपट खूब रोई। सब कुछ खत्म। हेमंत... मुंबई से जुड़ा हर लम्हा जैसे मुट्ठी से रेत की मानिंद फिसल गया। अब खाली मुट्ठी है। भीतर तक खाली मैं। खाली होना कितना जानलेवा है। वक्त लगा सम्हलने में। खुद को उस माहौल में खपाने में। बीच-बीच में रचनाओं का प्रकाशन राहत दे जाता।

धनबाद झारखंड से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका हमारा भारत में अभिषेक कश्यप ने मेरा यात्रा संस्मरण छापा "नीले पानियों की शायराना हरारत।" मैंने अभिषेक को फोन किया "इस वक्त आपकी पत्रिका ने संजीवनी का काम किया। मुंबई छोड़कर मुझे लग रहा था मैं मर रही हूँ।"

लगता है कुछ भी छूटकर नहीं छूटता। हम सोचते जरूर हैं पर बहुत कुछ साथ आ जाता है उस छूटे हुए के साथ।

मुंबई विश्वविद्यालय से डॉ करुणा शंकर उपाध्याय के मार्गदर्शन में मेरी स्त्री विमर्श की पुस्तक "मुझे जन्म दो माँ" पर मनीषा यादव लघुशोध कर रही थी। उसके शोध प्रबंध का शीर्षक था "स्त्री विमर्श के आलोक में मुझे जन्म दो माँ का अनुशीलन।" मनीषा ने फोन पर बताया "मैम एम फिल वर्क कंप्लीट हो गया। इतनी बेहतरीन किताब लिखने के लिए मैं तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ।"

मेरी आंखें छलक आई। लो मैं तुमसे फिर जुड़ गई मुम्बई।

यह मेरी छठवीं पुस्तक पर लघुशोध हुआ था।

पहली पुस्तक "बहके बसन्त तुम" पर एस एन डी टी महिला कॉलेज मुंबई से मोनिशा बरुआ ने डॉ माधुरी छेड़ा के मार्गदर्शन में किया। दूसरी पुस्तक "टेम्स की सरगम" उपन्यास पर मुंबई विश्वविद्यालय से प्रांजलि शाह ने डॉ करुणा शंकर उपाध्याय के मार्गदर्शन में, चौथी पुस्तक एम पी शाह कॉलेज मुंबई से रक्षा वर्मा ने डॉ प्रज्ञा शुक्ल के मार्गदर्शन में तथा इसी कॉलेज से अनुजा तिवारी ने भी डॉ प्रज्ञा शुक्ल के मार्गदर्शन में प्रेम सम्बंधों की कहानियों पर एम फिल किया।

और भी पुस्तकों पर अन्य शहरों से एम फिल हुआ। प्रोफेसर प्रदीप श्रीधर के निर्देशन में डॉ भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा से मालवगढ़ की मालविका उपन्यास पर आकांक्षा गुप्ता ने तथा इसी विश्वविद्यालय से प्रोफेसर प्रदीप श्रीधर के निर्देशन में ही "लौट आओ दीपशिखा" उपन्यास पर ममता ने एम फिल किया।

औरंगाबाद में मन को रमाने की कोशिश की पर नहीं रमा। साहित्यिक माहौल नहीं के बराबर। कोई मित्र भी नहीं। बस घर का मेरा कमरा और मैं। तेजेंद्र शर्मा की बात याद आ रही थी। कि तुम्हें वहाँ अपना आसमान नहीं मिलेगा।

मगर मैं सोचती हूँ जितना अधिक मैं बिखरूंगी उतनी ही अधिक मुम्बई मुझ पर तारी रहेगी। मन कहीं न कहीं रमाना पड़ेगा।

जानती हूँ मन के साथ जबरदस्ती करना मेरी फितरत नहीं। पर मन मेरा कहा मान भी जाता है अक्सर। और मुझे मिली सुरभि पांडे।

एक दिन सुनीता मैत्रेई ने फोन पर पूछा "संतोष जी क्या पहले आप संतोष वर्मा नाम से लिखती थीं। यानी नीली बिंदी कहानी आपने लिखी?"

"हाँ, क्यों? क्या हुआ?"

"लीजिए बात करिए सुरभी से।"

बेहद अपनेपन से भरी आवाज

"आप संतोष वर्मा हैं नीली बिंदी की लेखिका? मैंने आपको कहां-कहाँ नहीं ढूँढा। आप की तलाश में ग्वालियर से मुंबई गई। जनसत्ता, धर्मयुग, नवभारत टाइम्स, सारिका के दफ्तर छान मारे। पर तब तक तो आप नाम बदल चुकी थीं। जिससे पूछती वह संतोष श्रीवास्तव नाम बताता।"

"सुरभी जी अच्छा लग रहा है आपसे बात करके, नीली बिंदी कहानी गर्मियों में छपी थी। जब मैं जबलपुर में थी और अविवाहित। शादी के बाद वर्मा से श्रीवास्तव नाम रख देने से खूब लानत मलामत मिली। लोग मुझसे नाराज हैं। इसी वजह से आपको मेरा पता नहीं बताया गया।"

"आपकी कहानी ने मुझे सर्वांग बदल डाला। बाबाओं के चक्कर से मुझे छुड़ाया। अपनी जिंदगी जीने का हौसला दिया। आप मिलें तो पैर पकड़ लूं आपके। मेरी लेखिका, मेरी दिदिया, मेरी सरकार।"

उस दिन उसने रात तक बार-बार मुझे फोन किया। ऐसी ही जुनूनी बातें, पर मुझे अच्छा लगा।

दूसरे दिन उसने अपनी डीपी में नीली बिंदी वाला अपना प्रोफाइल लगाया। उसकी बेटी ने फोन पर बताया कि मम्मी बाज़ार से वैसी ही गोल मच्छरदानी खरीद कर लाई जैसी आपने नीली बिंदी में लिखी है। मेरे लिए यह अप्रत्याशित था लेकिन मेरे दिल को सुकून देने वाला भी था।

अपना लेखन सफल होता नजर आया। औरंगाबाद में जिस अवसाद में मैं धीरे-धीरे प्रवेश कर रही थी वह दूर हुआ।

फिर मैं अपने काम में जुट गई। विश्व मैत्री मंच संस्था को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाने के प्रयास में जुट गई। इस संस्था के तहत पहला सेमिनार भूटान में हो चुका था और चर्चित भी खूब हुआ था और अब दुबई की योजना में जुट गई। बहुत मेहनत की सब को जोड़ने की। टर्की, दुबई आबूधाबी और मुंबई के प्रांतीय साहित्यकार जुड़ते गए। कारवां की संख्या 36 तक पहुँच गई। अगस्त 2016 में जाना था। तय हुआ दुबई पहुँचकर पहले दिन ही सम्मेलन कर लेंगे। आबूधाबी में कृष्ण बिहारी अरसे से रह रहे थे और निकट पत्रिका निकाल रहे थे। मेरे मुख्य अतिथि के रूप में सम्मेलन में शिरकत करने के अनुरोध को वे मान गए।

होटल पेनोरमा पहुँचते ही इंटरकॉम पर सूचना मिली कि संपादक कृष्ण बिहारी आबूधाबी से आ गए है और रिसेप्शन में हमारा इंतज़ार कर रहे है। मैं जल्दी-जल्दी तैयार होकर नीचे आई। मैंने अपना परिचय दिया तो बडी आत्मीयता से बोले—"पढ़ता रहता हूँ आपको। बड़ा अपीलिंग है आपका लेखन"

पलभर में ही औपचारिकता खत्म हो गई। हम सम्मेलन के लिए कांफ्रेंस रूम में आ गए। हॉल सज चुका था। संचालक विनीता राहुरीकर ने अतिथियों का स्वागत करते हुए मुख्य अतिथि कृष्णबिहारी, विशेष अतिथि डॉ राकेश पाठक और मुझे मंच पर आमंत्रित किया। सबसे पहले प्रतिभागियों का परिचय और स्वागत स्वरूप स्मृति चिह्न और प्रमाणपत्र प्रदान किए गए। इसके बाद लगभग 12 पुस्तकों का लोकार्पण हुआ और फिर सीता का बनवास और ध्रुवस्वामिनी नाटक की प्रस्तुति हुई। बेहद गंभीर विषय"विश्व हिन्दी साहित्य में बदलते मूल्य" पर परिचर्चा के दौरान कृष्ण बिहारी जी ने बताया कि दुबई में होने वाला यह तीसरा सम्मेलन है जिसका श्रेय विश्व मैत्री मंच को जाता है। इसके पहले के 2 अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में मॉस्को, लंदन और भारत के साहित्यकारों ने शिरकत की थी। दुबई के साहित्य के इतिहास में तीसरे सम्मेलन के रूप में दर्ज़ हो रहे इस सम्मेलन के 3 सत्रों में कृष्ण बिहारी जी 8: 00 बजे तक हमारे साथ रहे। अंतिम सत्र काव्य गोष्ठी का था जो उन्हें अधूरा छोड़ना पड़ा। उन्हें आबूधाबी लौटना था और सफर भी ढाई घंटे का था। रात 10: 00 बजे तक चले सम्मेलन में कोई थकने का नाम ही नहीं ले रहा था। दुबई नगरिया भी चकित हो रही होगी साहित्यकारों के इस जज़्बे से।

भारत लौटते ही अनुराग शर्मा का पिट्सबर्ग के रेडियो प्लेबैक इंडिया से प्रसारित होने वाले कार्यक्रम बोलती कहानियाँ के अंतर्गत मेरी कहानी "शहतूत पक गए" का भेजा लिंक मेल पर था। स्वर पूजा अनिल के। अपनी कहानी को अमेरिका के रेडियो से सुनते हुए में जितनी खुश थी उससे कहीं अधिक खुशी इस बात की थी कि मेरा लिखा हुआ सार्थक हो रहा है। दुनिया की नजरों में आ रहा है जो मैंने खुद को भूल कर हासिल किया था।

सितंबर में ही रिले रेस कहानी संग्रह हाथ आया जिसे संपादित किया था नीलम कुलश्रेष्ठ ने। इस संग्रह में नीलम ने विभिन्न कथाकारों की उन कहानियों को संकलित किया है जो स्त्री की कोख, सीने, स्तन, गूंगे होने, कटे हाथ होने, लंबे बाल होने, पुस्तकों में डूबे रहने पर यानी अक्ल का इस्तेमाल करने पर, बांझ होने या लड़का न पैदा कर पाने पर स्त्री के लिए जीवन संघर्ष के लिए एक से एक नई जमीन तैयार कर दी जाती हैं। या अपने अत्याचार का प्रतिशोध लेने वाली स्त्री कैसे जंजीरों में पागल की तरह जकड़ दी जाती है और

नीलम ने हंस में प्रकाशित मेरी कहानी गूंगी को इस संग्रह में लेने की स्वीकृति मांगी थी। मेरी कहानी को लेकर नीलम ने अपने संपादकीय में लिखा है कि यदि कोई जीवट वाली गूंगी बच्ची हो तो किसी बड़े घराने की अपने अधिकारों में खामोश रहने वाली गूंगी स्त्री को भी बोलना, विरोध करना सिखा सकती है। । संतोष श्रीवास्तव ने इस जीवट विरोधा को अपनी कहानी गूंगी में रचा है।

सितंबर 2016 में ही नया ज्ञानोदय में "अमलतास तुम फूले क्यों" कहानी प्रकाशित हुई। इसी महीने पुष्पगंधा के लघुकथा विशेषांक में मेरी लघुकथा बाज़ार प्रकाशित हुई। बाजार खूब चर्चित हुई। इसका मराठी में अनुवाद मंदा कोरे ने किया। फोन पर ही मंदा जी ने अनुवाद की अनुमति मांगी थी पर प्रकाशित प्रति मुझे भेजी ही नहीं। अक्टूबर 2016 के मंतव्य के अंक में हरे प्रकाश उपाध्याय ने भूटान का यात्रा संस्मरण "खुशहाली का देश भूटान" प्रकाशित किया किंतु शीर्षक बदलकर "निहायत छोटा देश" रख दिया। मुझे यह शीर्षक पसंद नहीं आया। मैं किसी भी देश की यात्रा उसके छोटे बड़े क्षेत्रफल के आधार पर नहीं करती। यात्रा के ढेरों कारण हैं जो मुझे लुभाते हैं।

मेरे यात्रा संस्मरण सोशल मीडिया पर बेहद पसंद किए जा रहे थे। नॉट नॉल, स्टोरी मिरर, मातृभारती, गाथा ऑनलाइन, प्रतिलिपि।

वीणा वत्सल ने मेल किया कि आपकी रचनाओं को अब तक 8 लाख पाठक प्रशंसक मिल चुके हैं। दिमाग चकरा गया। किसी पत्रिका में कहानी छपती है तो हजार पाठक मुश्किल से मिलते हैं। सोशल मीडिया के जलवे के क्या कहने। फेसबुक पर तो उपलब्धियाँ पूरा विश्व देखता है। हालांकि फेसबुक से रचनाओं की चोरी भी बहुत हो रही है। इसलिए मैं प्रकाशित रचनाएँ ही फेसबुक पर पोस्ट करती हूँ और अगर रचना चुरा कर कोई अपने नाम से प्रकाशित भी करवा दे तो क्या फर्क पड़ता है। कम से कम मेरा लिखा चोरी करने वाले को पसंद तो आया। तभी तो उसने चुराया।

फेसबुक के मैसेज बॉक्स में सरस दरबारी का मैसेज था।

"मेरा पहला काव्य संग्रह प्रकाशित होने जा रहा है। चाहती थी कि आप उसमें दो शब्द लिख दें या यह कहूँ कि अपना आशीष दे दें। आप की स्वीकृति पर पाण्डुलिपि मेल कर दूंगी। प्लीज बताइए।"

मैंने बधाई देते हुए-हुए कहा "जरूर लिखूंगी। कब तक चाहिए। मैं 26 अक्टूबर को आगरा जा रही हूँ। वहाँ पर अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन अटेंड करने।"

फिर लिखा कि वह तुम ही हो न जो समोसे खूब पसंद करती थीं। सरस ने खुश होकर लिखा। "वाह दी शुक्रिया। जल्दी ही पाण्डुलिपि मेल करती हूँ।"

अंतरराष्ट्रीय सेमिनार की बधाई। आपने खूब याद रखा। आज भी समोसे बहुत पसंद हैं। बस एक ही तो चीज है जिससे मेरा ईमान डोल जाता है। पर उसकी मनाही हो गई। वजन बढ़ रहा है न। "

वजन बढ़ने के चक्कर में अब तली चीजें मुझसे भी छूटती जा रही हैं। घर में तो कभी कभार ही यह सब खाती थी। समोसे तो हेमंत के साथ ही विदा हो गए। उसे बहुत पसंद थे। साहित्यिक यात्राओं में पूरी तरह परहेज नहीं हो पाता पर जाने कैसे यात्राओं में सब पच जाता है।

सरस से कह तो दिया कि आगरा से लौटकर भूमिका लिख दूंगी। लेकिन

एकाएक कई जगहों से साहित्य सम्मेलन के लिए निमंत्रण मिले।

आगरे से डॉ भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में आयोजित होने वाले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का डॉक्टर प्रदीप श्रीधर का आमंत्रण तो था ही, 11वें इंटरनेशनल राइटर्स फेस्टिवल में काफिला अंतरराष्ट्रीय लेखक महोत्सव जो उदयपुर में आयोजित हो रहा था, से देव भारद्वाज का आमंत्रण था, चंडीगढ़ से सुनीता मैत्रेई का आमंत्रण और दिल्ली में मौलिक काव्य सर्जन आयोजक सागर सुमन द्वारा मुझे काव्य कृष्ण सम्मान 20 अक्टूबर को मिलना था। कोलकाता से त्रैमासिक पत्रिका लहक द्वारा आयोजित मान बहादुर सिंह पुरस्कार समारोह में शामिल होने का निर्भय देव्यांश का आमंत्रण था और मुंबई से डॉक्टर सुशीला गुप्ता का राष्ट्रीय संगोष्ठी में वक्तव्य के लिए आमंत्रण था। यानी कि छै शहर, अक्टूबर का महीना। मौसम भी खुशनुमा। मेरी अटैची 15 दिन की साहित्यिक यात्राओं के लिए तैयार हो गई थी।

उदयपुर में काफिला अंतरराष्ट्रीय लेखक महोत्सव दो दिवसीय था। लेकिन पूरा सम्मेलन अंग्रेजी भाषा का। केवल कवि सम्मेलन हिन्दी कवियों का था। जिस का संचालन देवमणि पांडे ने किया था। मैंने गजल सुना कर खूब तालियाँ बटोरी। मुझे 2 दिन उदयपुर रुकना था और चित्तौड़गढ़, कुंभलगढ़, हल्दीघाटी, रणकपुर, उदयपुर घूमना था। देवमणि पांडे ने एक कार हायर कर ली जिसमें उनके साथ में और रमा पांडे यात्रा पर निकल पड़े। रास्ते भर खूब शेरो शायरी हुई। देवमणि पांडे और मेरी ग़ज़लों की एकमात्र श्रोता रमा पांडे।

मुझे सफेद चूहों वाला कर्णावती मंदिर भी देखना था लेकिन मंदिर में मिले काले चूहे जिनकी संख्या 20 हजार कही जाती है पर अब कुछ ही शेष दिखे। वह भी जाली के कटघरे में कैद। यह मंदिर देवी दुर्गा का अवतार करणी माता को समर्पित है। करणी देवी को चढ़ाया भोग पहले चूहों को दिया जाता है और चूहों का जूठा प्रसाद भक्त खाते हैं। अद्भुत परंपरा।

लंच में हमने दाल बाटी चूरमा खाया। वैसे तो उदयपुर झीलों की नगरी कहा जाता है। हमने भी कुछ झीलें देखीं। सघन वृक्षों वाले तट पर थोड़ा समय गुजारते हुए चना चटपटा और काली मिर्च, नमक लगी ककड़ी खाई। झील में मानो राजस्थान का वीरता भरा इतिहास झिलमिला रहा था।

उदयपुर से मैं ट्रेन से दिल्ली आई। सुनीता मैत्रेई ने चंडीगढ़ आने के लिए पूरी व्यवस्था बस से कर दी थी। वीआईपी सवारी के रूप में। एक जगह चाय नाश्ते को बस रुकी। मुझे स्पेशल जगह पर मनचाहा नाश्ता और चाय दी गई। पेमेंट करने लगी तो मैनेजर ने हाथ जोड़ दिए।

"आप से क्या लेना आप तो जैन साहब की मेहमान यानी हमारी मेहमान है।" बाद में पता चला सुनीता के पति टूर एंड ट्रेवल्स के बिजनेस में है। चंडीगढ़ बस अड्डे जैन साहब मुझे लेने आए। सुनीता के घर खूब आवभगत में 3 दिन के प्रवास में हमने पूरा चंडीगढ़ घूमा और पंचकूला में आधार प्रकाशन के देश निर्मोही जी से उन्हीं के दफ्तर में मुलाकात की। घंटे भर हमने उनकी सद्य प्रकाशित पुस्तकों का जखीरा देखा और ढेर सारी साहित्यिक चर्चाएँ की। चलते समय उन्होंने अपनी कुछ किताबें मुझे भेंट की। चंडीगढ़ का इलाते मॉल करवा चौथ की रौनक से जगमगा रहा था। पंजाब में तो कुंवारी लड़कियाँ भी करवा चौथ रखती हैं। बाजार करवा चौथ की सरगी करने की मिठाई आदि से पटा पड़ा था। हल्की-हल्की ठंड भी थी।

चौथे दिन सुनीता और जैन साहब अपनी कार से मुझे दिल्ली छोड़ने आए। रास्ते में अंबाला पड़ता है। विकेश निझावन जी का आग्रह था

"आप अंबाला से गुजर रही हैं, घर तो आना ही पड़ेगा। लंच भी यहीं करें।"

विकेश जी, उनकी पत्नी विजया, बेटा अरुण निझावन जो पुष्पगंधा का पूरा काम देखते हैं, बहू शिखा, अरुण की छोटी-सी बिटिया। पूरा घर हमारी आवभगत में मुब्तिला हो गया। विजया जी ने बहुत ही प्रेम से बेहद स्वादिष्ट लंच बनाया। लंच में कई तरह के व्यंजन मक्खन लगी तंदूरी रोटी सहित परोसे गए। मेवा मिश्री वाली खीर... लंच के तुरंत बाद अदरक वाली गरमा गरम चाय। विजया जी के आतिथ्य के क्या कहने।

विकेश जी द्वारा लगाए बगीचे में ढेरों फूल खिले थे। बंगले में ही एक कमरा पुष्पगंधा का ऑफिस। दीवारों पर पुष्प गंधा के पुराने अंकों के कवर पेज लगे थे। आज तो खासकर मुझ पर आधारित अंकों की ही सजावट थी। पूरे बंगले में मानो लेखक, लेखन और प्रकाशन का ही वास था। उस लेखकीय मंदिर से विदा होते हुए विकेश जी का पूरा परिवार गेट तक छोड़ने आया। विजया जी देर तक हाथ हिलाती रहीं। मुझे क्या पता था कि मैं अंतिम बार उन्हें देख रही हूँ। अभी पिछले ही महीने उनका निधन हो गया।

न जाने कितने मौसम आए और चले गए। मौसम के कुछ प्रहर स्मृतियों में अंकित हो गए। विजया जी के साथ बिताया वह दिन भी स्मृति में एक खुशनुमा प्रहर की तरह अंकित है।