मेरे घर आना जिंदगी / भाग 17 / संतोष श्रीवास्तव्

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दिल्ली में मौलिक काव्य सर्जन द्वारा कृष्ण काव्य सम्मान 20 अक्टूबर को मिलना था।

कार्यक्रम के आयोजक सागर सुमन ने मेरे रहने की व्यवस्था की थी।

मुझसे मिलने सुरभि पांडे ग्वालियर से आई थी आते ही लिपट गई।

"मेरी बरसों की तलाश पूरी हो गई। मुझे नीली बिंदी की मेरी लेखिका मिल गई। देखो सरकार, मैं आपके लिए नीली बिंदी लाई हूँ।" उसने सुनीता मेरे और अपने माथे पर नीली बिंदी लगाई। मेरे साथ फोटो खिंचवा कर व्हाट्सएप की डीपी में लगाई।

वह पूरा दिन मैंने सुरभि के संग बिताया।

"सरकार, नीली बिंदी ने मेरी जिंदगी बदल दी। पहले मैं हालात से डरी सहमी अपने भाग्य पर बिसूरती थी लेकिन नीली बिंदी की नायिका ने मुझे जो हौसला दिया। जो ताकत दी। सरकार आप तो मेरे भगवान हो। शिल्पकार हो आप। अपनी लेखनी से गढ़ दिया आपने मुझे।"

मैंने ऐसा पाठक पहले कभी नहीं देखा था। जुनून था उसे मेरे लेखन का। शाम को वह सुनीता के संग चंडीगढ़ चली गई और मैं सम्मान समारोह के लिए अहिंसा भवन की ओर।

यह पुरस्कार जैन समुदाय द्वारा आयोजित किया गया था। अतः सम्मान भी इंदौर के प्रतिष्ठित लक्ष्मीमल जैन द्वारा प्रदान किया गया। फिर मुशायरा हुआ। मैंने भी गजलें सुनाई। देर रात सब अपने-अपने कमरों में गए।

दूसरे दिन आधे से अधिक लोग लौट गए। मुझे एक दिन दिल्ली में और गुजारना था। लिहाजा में दूसरे होटल में शिफ्ट हुई जो किन्हीं मानक शाह का था। मानक शाह ने ही सागर सुमन को आयोजन का खर्च दिया था। होटल में शिफ्ट होते ही वह आधा घंटे बाद मेरे कमरे में आया।

इस बीच मैंने नमन प्रकाशन के नितिन गर्ग को होटल में मिलने बुलाया था। मानक शाह ने आते ही कहा "मैं इसी होटल में अकेले रहता हूँ। बीवी बच्चे इंदौर में। बस नाम की बीवी है। बहुत अकेला हूँ मैं जिंदगी में।"

तभी नितिन जी आ गए और मानिक शाह की मंशा बखूबी ताड़ कर मैंने उनसे रुखसती के लिए हाथ जोड़ दिए। नितिन जी से गपशप के दौरान समय का पता ही नहीं चला। डिनर हमने होटल के कैंटीन में साथ ही लिया। मानक शाह पहले से वहाँ मौजूद था। उसने हमारी टेबल की ओर कुर्सी खींच बैठते हुए कहा

"आनंद से खाइए, संकोच न करें। आपका ही होटल है। ट्रेन कितने बजे की है आपकी। मैं ड्रॉप कर दूंगा आपको।"

नितिन जी के जाते ही उसने मुझे फोन लगाया।

"आप गतिमान से आगरा जा रही हैं। जो हजरत निजामुद्दीन से सुबह 8: 00 बजे चलेगी और पौने 3 घंटे में आगरा पहुँचा देगी। आप ठीक 7: 00 बजे तैयार रहिएगा।"

पहले तो मेरे मन में यह सवाल आया कि इसे कैसे पता चला कि मैं गतिमान से जा रही हूँ। फिर बाद में मैंने सोचा कि शायद सागर सुमन ने बताया हो क्योंकि उन्हें मेरे जाने के बारे में पहले से पता था।

सुबह किसी भी तरह गाड़ी का प्रबंध न होने की वजह से मुझे मजबूरन स्टेशन जाने के लिए उसकी गाड़ी में बैठना पड़ा। रास्ते भर वह 1 मिनट को भी चुप न हुआ। "आप जो विश्व मैत्री मंच का राष्ट्रीय सम्मेलन अहमदाबाद में कर रही हैं मेरी ओर से 15000 डोनेशन के लिख लीजिए।" जानती थी इतनी मक्खनबाज़ी मेरे नज़दीक आने के लिए थी। लेकिन वह नहीं जानता था मैं किस जज़्बे की हूँ।

अहमदाबाद सम्मेलन फरवरी 2017 की किसी तारीख में करना तय होना था और मानक शाह से परिचय अक्टूबर 2016 में हुआ था। तब से वह लगातार फोन पर अपने अकेलेपन का जिक्र करते हुए 15 हजार भेजने का वादा करता रहा और हर बार दिए हुए समय पर रुपया जमा न करने की सफाई देता रहा कि एडवांस का स्टाफ चैक आज ही बना है। कल बैंक में जमा होगा। क्लियर होते ही आपके खाते में 15000 जमा करवा दिए जाएंगे। इस बार मैं खुद करवा दूंगा ताकि कोई गड़बड़ी न हो। यकीन करें घटित हालातों वश लेट होता गया पर जबान से पलटना कभी सीखा नहीं और आपको तो दिल में बसा लिया है,। अपने अकेलेपन का साथी मान लिया है। आपसे तो वादाखिलाफी हरगिज़ नहीं। "

धूर्त लंपट अपनी जात पर आ गया। मैंने फोन पर लगभग चीखते हुए कहा "खबरदार जो दोबारा फोन किया। वरना पुलिस में एफ आई आर दर्ज करा दूंगी।" और मैंने व्हाट्सएप से, फेसबुक से उसे ब्लॉक कर दिया।

जीवन में ऐसे मौकों से निपटना हालात ने मुझे बखूबी सिखा दिया था।

आगरा स्टेशन पर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के हिन्दी शाखा प्रमुख प्रोफेसर प्रदीप श्रीधर मुझे लेने आए। मुझे होटल में व्यवस्थित कर वे तुरंत ही चले गए। 2 घंटे बाद गाड़ी भेज दी मुझे लिवा लाने को। कार्यक्रम 11 बजे आरंभ हुआ। जम्मू से क्षमा कौल और मैं विशिष्ट अतिथि थे। अध्यक्ष डॉ भीमराव अंबेडकर कॉलेज के कुलाधिपति डॉ अरविंद कुमार दीक्षित। क्षमा कौल तो अपने भाषण में विषय से हटकर कश्मीर के विस्थापितों पर ही बोलती रहीं। मेरे वक्तव्य के बाद सभागृह में से अनुपमा यादव नामक शोध छात्रा खड़े होकर बोली "आपने अपने वक्तव्य में जो शेर सुनाया है वह पूरी ग़ज़ल सुना दीजिए।"

मैंने ग़ज़ल क्या सुनाई पूरा हॉल मंत्रमुग्ध हो गया। कार्यक्रम की समाप्ति पर श्रोता मंच पर आकर मेरा ऑटोग्राफ लेने लगे। नीतू मित्तल बार-बार लंच के लिए चलने का आग्रह कर रही थी पर मेरे लिए अधिक महत्त्व मेरे श्रोताओं का था। लंच के दौरान प्रदीप श्रीधर जी ने कहा "मैडम आप श्रोताओं की ही डिमांड पर नहीं है बल्कि कुलपति साहब ने 1 दिन और रुक कर कल के कार्यक्रम के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करने को कहा है।" मैं आग्रह टाल न सकी। टिकट तो आयोजकों ने ली थी। अतः मुझे रिजर्वेशन का तनाव नहीं था।

दूसरे दिन हॉल खचाखच भरा था और श्रोताओं ने मेरी कविताओं, ग़ज़लों का आनंद लिया। यहीं डॉ सुषमा सिंह से मेरी मुलाकात हुई। वे आगरा कॉलेज के प्रिंसिपल पद से रिटायर हुई थीं। बाद में वे विश्व मैत्री मंच की आगरा शाखा की प्रभारी नियुक्त हुई। और उनके निर्देशन में संस्था ने आगरा में विस्तार पाया। अब तो आगरा ही नहीं बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में यह संस्था फैल चुकी है और उत्तर प्रदेश विश्व मैत्री मंच का गठन हो चुका है।

दिल्ली लौटकर मैंने कोलकाता के लिए फ्लाइट ली। मुझे निर्भय देव्यांश ने मान बहादुर सिंह लहक साहित्य सम्मान में आमंत्रित किया था। एयरपोर्ट से सुरेश गुप्ता जी और श्री मोहन तिवारी जी मुझे लेने आए और सीधे एक बेहद गंदी धर्मशाला में ले गए। जहाँ चाय, पानी, खाना, सुरक्षा कुछ भी न था। मैंने निर्भय जी को फोन लगाया "इस जगह रुकना है क्या मुझे?"

मेरी आवाज तीव्र दुख से भर्रा-सी गई। मैं हवाई जहाज का खर्च वहन कर सिर्फ निर्भय के कार्यक्रम में शामिल होने आई और ...मैंने सुरेश जी से कहा मुझे वापस एयरपोर्ट छोड़ दीजिए। लेकिन 2 घंटे बाद ही निर्भय देव्यांश ने बढ़िया होटल में शिफ्ट करवा दिया जहाँ सुधीर सक्सेना और रायपुर से आया उनका कोई चित्रकार दोस्त भी ठहरा था। इलाहाबाद से नीलकांत जी आए थे। जिन्हे मान बहादुर साहित्य सम्मान दिया जा रहा था। उनके साथ मान बहादुर सिंह के कुछ सम्बंधी भी आए थे। बांदा से उमाशंकर सिंह परमार, इलाहाबाद से धर्मेश गुप्ता पटना से भी कुछ मेहमान थे। सभी पीने वाले। होटल की कैंटीन में ही थोड़ा बहुत खा कर मैं अपने कमरे में आ गई।

सुबह सुरेश गुप्ता जी सबके लिए कचौरी और गरम जलेबी लेकर आए। पीछे-पीछे चायवाला।

कार्यक्रम शाम को 5: 00 बजे से भारतीय भाषा परिषद के सभागार में था। लंच के लिए सुरेश गुप्ता हमें बंगाली होटल में लाए। लेकिन वह होटल नहीं बल्कि बिल्कुल घर लग रहा था। शायद घर ही था। जहाँ बंगाली भोजन परोसा गया। पहले चावल सब्जी का झोल, आम की मीठी लौंजी, पापड़। नॉनवेज खाने वालों के लिए माछ झोल। फिर संदेश, पूडी। फिर दही सलाद वगैरह। मुझे रमेश के मित्र भट्टाचार्य जी याद आए। जब वे हमारे घर भोजन करने आते थे तो कहते थे "संतोष जी, एक साथ क्यों सारा खाना परोस दिया। बंगाली लोग एक-एक डिश बारी-बारी से खाते हैं। पहले चावल सब्जी खाते हैं। फिर रोटी, मिष्टी तथा अन्य पकवान। एकदम आखिर में दही सलाद।"

लंच के बाद हम होटल आकर तैयार होने कमरों में चले गए। तभी कुमार सुशांत का फोन आया।

"मैं कूचबिहार पश्चिमी बंगाल से आप का साक्षात्कार लेने आ रहा हूँ। प्लीज आधे घंटे का समय वहीं कार्यक्रम के दौरान दीजिएगा।"

कार्यक्रम 6: 00 बजे आरंभ हुआ। नीलकांत जी वरिष्ठ जनवादी लेखक हैं जिन्हें सम्मानित किया जा रहा था। मान बहादुर सिंह भी मार्क्सवादी कवि थे जिनकी 24 जुलाई 1997 को सुल्तानपुर में नृशंस हत्या कर दी गई थी। उनका कविता संग्रह "बीड़ी बुझने के करीब" काफी चर्चित हुआ।

कार्यक्रम के दौरान ही कुमार सुशांत ने भारतीय भाषा परिषद के ही कमरे में मेरा साक्षात्कार शूट किया। न तो पहले से प्रश्न बताए गए थे और न ही मैं तैयार थी लेकिन बहुत उम्दा साक्षात्कार हुआ जिसे कुमार सुशांत ने यू-ट्यूब और कूचबिहार के लोकल चैनल में प्रदर्शित किया। मेरे साक्षात्कार के बाद सुशांत तुरंत रेलवे स्टेशन चले गए उन्हें उसी दिन कूचबिहार लौटना था।

इन दिनों कुमार सुशांत मेरे उपन्यास "टेम्स की सरगम" पर आलोचनात्मक ग्रंथ लिख रहे हैं। इस ग्रंथ में कुछ वरिष्ठ साहित्यकारों के लेख रहेंगे तथा बाकी शोध छात्रों के। यह मेरे लिए खुशी की बात है कि उपन्यास शोध के विद्यार्थियों के बीच पढ़ा जाएगा और उस पर आलोचनात्मक लिखा जाएगा।

दिए हैं। कार्यक्रम के बाद हम कोलकाता का रात्रि कालीन सौंदर्य देखते हुए डिनर लेकर वापस लौटे।

सुबह जल्दी ही कोलकाता भ्रमण को निकल गए। साहित्य और कला को समर्पित कोलकाता में ही तो टेम्स की सरगम ने विस्तार पाया था। मैं नायिका डायना की नजरों से कोलकाता देख रही थी। सिटी ऑफ पैलेसेस, सिटी ऑफ प्रोसेसंस और कल्चरल कैपिटल ऑफ इंडिया से अपनी पहचान बनाने वाले कोलकाता ने चार नोबेल पुरस्कार विजेता विश्व को, सीवी रमन, रवींद्रनाथ टैगोर, अमर्त्य सेन और मदर टेरेसा।

जहाँ एक ओर मैं स्वामी विवेकानंद का घर देखकर भावविभोर हो गई। वहीं ईश्वरचंद्र विद्यासागर का घर देखकर वहाँ से आने का मन ही नहीं कर रहा था। उनके घर को अब संग्रहालय का रूप दे दिया है जो पर्यटकों को उनकी संपूर्ण जानकारी देता है।

सुरेश गुप्ता जी का आग्रह था कि थोड़ी देर के लिए उनके घर हम सब चलें जो नजदीक ही राममोहन राय सरणी में है। इस सरणी यानी लेन का नाम राजा राममोहन राय इसलिए रखा गया कि वे यहीं रहते थे और वे भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत और आधुनिक भारत के जनक थे। सकरी गलियों से होते हुए हम सुरेश जी के तीन मंजिले मकान में गए। बेहद विशाल घर। बड़े-बड़े कमरे। वे शौक से पूरा घर दिखाने लगे। उनकी पत्नी ढेर सारा नाश्ता प्लेटों में ले आईं। बड़े-बड़े मगों में चाय, कॉफी।

घूमते हुए शाम हो गई थी। नीलकांत और उनके सम्बंधी शॉपिंग करने चले गए। मुझे सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय देखना था जो कोलकाता के सबसे बड़े पुस्तकालयों में से दूसरे नंबर पर है। मैं और मोहन तिवारी जी पुस्तकालय आ गए। मोहन तिवारी जी इस पुस्तकालय में कार्यरत हैं। उन्होंने वयोवृद्ध श्री राम तिवारी जी से मिलवाया जो लाइब्रेरियन थे। वे हमें हिन्दी और संस्कृत की 35 हजार पुस्तकों से भरी अलमारियाँ खोल खोलकर दिखाते रहे और मैं ताज्जुब और खुशी से भर उठी जब अपनी किताबों का पूरा सेट वहाँ रखा देखा। मेरी किताबें पुस्तकालय के आर्डर पर आई थीं। बताया श्री राम तिवारी जी ने। फिर मेरे लिए फुचके, पानी पूरी मंगवाई गई। साथ ही आनन-फानन एक छोटी-सी कवि गोष्ठी मेरे सम्मान में आयोजित कर ली और कोलकाता के कवियों का गजब का जज्बा आधे घंटे के अंदर सत्यदेव दुबे, ज्ञान प्रकाश पांडे, रंजीत भारती, फलक, मृणाल रोशन, श्री मोहन तिवारी, अनुज कुमार, कुशेश्वर, अर्चना पांडे, बिनयकुमार जैसे प्रतिष्ठित कवि हाजिर हो गए। देर तक शेरो शायरी कविताओं का दौर चला। अविस्मरणीय शाम देने के लिए मैंने श्री राम तिवारी जी का आभार मानते हुए उनके पैर छुए। उम्र में बड़े तो थे ही साहित्य के उपासक भी। उनकी जिंदगी पुस्तकों के बीच ही गुजर रही है।

शाम को प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक एवं पत्रकार अरुण माहेश्वरी और राज्यसभा में सदस्य रह चुकी कवयित्री सरला माहेश्वरी ने अपने घर डिनर पर बुलाया। मैं निर्भय देव्यांश के संग गई। डिनर के साथ ही अरुण जी का आग्रह था कि मैं उनके घर पर रुकूं। सुबह वे मुझे एयरपोर्ट पहुँचा देंगे। मुझे भला क्या ऐतराज था। निर्भय जी ने मेरी अटैची होटल से अरुण जी के घर पहुँचा दी।

अरुण माहेश्वरी शहर के रईसों में से एक हैं। उनका शानदार दो मंजिला घर और कमरों की सादगी भरी सजावट ने मन मोह लिया। उनकी बंगाली सेविका-सेविका नहीं बल्कि घर की सदस्य की तरह थी। सेविका ने अपना कमरा दिखाया। बताया कि 25 वर्षो से वह यहाँ काम कर रही है। उसने स्वादिष्ट भोजन टेबल पर सजाया। थालियाँ दो ही लगाई और हम तो तीन थे। सरला जी ने बताया जब से वे शादी करके इस घर में आई हैं उन्होंने कभी अलग थाली में खाना नहीं खाया। अरुण जी और सरला जी दोनों एक ही थाली में भोजन करते हैं। ऐसा प्यार कहीं देखा नहीं।

उनके विवाह के किस्से भी रोचक हैं जिन्हें अरुण चाव से सुनाते हैं। सरला जी प्रसिद्ध मार्क्सवादी कवि हरीश भदानी की पुत्री है। हरीश भदानी की जीवनी जिसे अरुण माहेश्वरी ने कलमबद्ध किया है अरुण जी ने अपनी विशाल लाइब्रेरी दिखाते हुए मुझे भेंट की। उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें सरला जी की और खुद की लिखी भेंट की। मैंने भी अपना उपन्यास टेम्स की सरगम उन्हें भेंट किया। भेंट के दौरान की हम तीनों की तस्वीर अरुण माहेश्वरी ने उसी दिन फेसबुक पर अपलोड की-

"सुप्रसिद्ध लेखिका संतोष श्रीवास्तव सरला और मुझसे मिलने मेरे निवास पर आईं और अपनी चर्चित पुस्तक टेम्स की सरगम जो कोलकाता की पृष्ठभूमि पर लिखी उत्कृष्ट प्रेम कथा है भेंट की।"

सुबह उनका ड्राइवर मुझे एयरपोर्ट पहुँचा गया। मैं सुबह 8: 00 बजे मुंबई पहुँच गई। सुमिता के घर रुकना था। दरवाजे पर मुझे खड़ा देख वह खुशी से दौड़ी मेरी ओर। कॉलेज के जमाने के बाद से सिर्फ सुमीता की दोस्ती ने ही मेरे दिल को छुआ था। हम देर तक पुरानी बातों को दोहराते रहे। बार-बार उसका आग्रह-"वापस आ जा संतोष, तेरे बिना मुंबई-मुंबई नहीं रही" और बार-बार मेरी असमर्थता, उदासी, खुशी और स्नेह में गुजरने लगा दिन।

मुझे हिंदुस्तानी प्रचार सभा से डॉ सुशीला गुप्ता ने 4 बजे आने कहा था। समय की बड़ी पंक्चुअल है वे। 4 बजे मेरे पहुँचते ही कार्यक्रम शुरू हो गया। इस हवाले का मेल महीना भर पहले मुझे मिला था कि हिंदुस्तानी प्रचार सभा मुंबई द्वारा राष्ट्रीय संगोष्ठी में मुझे शिरकत करनी है। विषय समकालीन कहानी। मंच पर मेरे साथ सूर्य बालाजी, दामोदर खडसे जी, सलाम बिन रज्जाक, सादीका नवाब भी थे। मेरे वक्तव्य पर खुश होकर सुशीला मैडम ने मेरा वक्तव्य हिंदुस्तानी जबान में प्रकाशित करने के लिए मंगवाया। मुझे स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया। मुंबई के साहित्यकार साथियों से मिलना उनके संग चाय नाश्ते के दौरान समय गुजारना मेरी खास उपलब्धि रही।

लौटकर मैं और सुमीता देर रात तक बतियाते रहे। सुमीता हास्य मंचों में अपने पांव जमाने की कोशिश कर रही है। मुझे मालूम है साहित्यकार इसे पचा नहीं पाएंगे। सुमिता का कहना था कि साहित्य में पैसा नहीं है और मुझे पैसा कमाना है। वह एक अच्छी कवयित्री है। मुझे विरोध करना चाहिए था पर मुझे पता है वह मानेगी नहीं।

दूसरे दिन दादर से मुझे औरंगाबाद के लिए जनशताब्दी लेनी थी लेकिन मैं ट्रैफिक में फंस गई और जब स्टेशन पहुँची तब तक ट्रेन ने प्लेटफार्म पार कर लिया था। अब क्या करूं! सुमीता को फोन लगाया। औरंगाबाद दिव्या को लगाया। सुमिता का फोन "मोहित से बोलती हूँ दूसरी ट्रेन में टिकट के लिए।"

दिव्या को सौभाग्य वश एक टिकट कंफर्म मिल गई। जो रात के 9: 00 बजे मिलेगी। मैंने कुली को सामान वेटिंग रूम में पहुँचाने कहा। इत्तफाक से मुझे मुकेश गौतम मिल गए। वे रेलवे में ऑफिसर है। फिर तो खाते-पीते बतियाते कब 9 बजे पता ही न चला। उन्होंने ट्रेन में मुझे बिठाकर टिकट कलेक्टर को भी बता दिया।

"वीआईपी हैं। ध्यान रखिएगा। संतोष जी इत्मीनान से सो जाइए। औरंगाबाद सुबह 6: 00 बजे आएगा।"