मेरे घर आना जिंदगी / भाग 20 / संतोष श्रीवास्तव्

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मॉस्को से दिल्ली लौटे तो महानगर डेरा सच्चा सौदा के राम रहीम के कारनामों के विरोध में हिंसा पर उतर आया था। दिल्ली के आसपास सिरसा हरियाणा तक आग पहुँची थी। मुझे एटा में अपनी मौसेरी बहन गुड्डी, (लेखिका निरूपमा वर्मा) को देखने जाना था। मॉल की सीढ़ियों से फिसल जाने के कारण उसके कंधे में फ्रैक्चर हो गया था। मैं दिल्ली से आगरा आई और वहाँ से टैक्सी से एटा। गुड्डी का दाहिना हाथ बेकार हो गया था और वह काफी तकलीफ से गुजर रही थी। उसका विशाल घर। घर के चारों तरफ फलों के दरख़्त, फूलों की क्यारियाँ। समृद्धि कोने-कोने से झलक रही थी। लेकिन एक भुतहा सन्नाटा था वहाँ जिसमें गुड्डी और उसके पति अजनबियों की तरह रहते थे। कहीं संतुष्टि नहीं। सुबह लान में कुर्सियों पर हम चाय पी रहे थे।

"जीजी कुछ सुनाओ।" गुड्डी के अनुरोध पर मैंने अपनी कविता सुनाई।

मैं तब भी नहीं

समझ पाई थी तुम्हें

जब सितारों भरी रात में

डेक पर लेट कर

अनंत आकाश की

गहराइयों में डूबकर

तुमने कहा था

हाँ प्यार है मुझे तुमसे

समुद्र करीब ही गरजा था

करीब ही उछली थी एक लहर

बहुत करीब से

एक तारा टूट कर हंसा था

तब तुमने कहा था

हाँ प्यार है मुझे तुमसे

जब युद्ध के बुलावे पर

जाते हुए तुम्हारे कदम

रुके थे पलभर

तुमने मेरे माथे को

चूम कर कहा था

इंतजार करना मेरा

तुम्हारी जीप

रात में धंसती चली गई

एक लाल रोशनी लिये

मुझे लगा

अनुराग के उस लाल रंग में

सर्वांग मैं भी तो डूब चुकी हूँ

हाँ मैं बताना चाहूंगी

तुम्हारे लौटने पर

कि तुम्हारी असीमित गहराई

तुम्हारी ऊंचाईयों

को जानना

मेरी कूबत से परे है

मैंने तो तुम्हारी

बंद खिड़की की दरार से

तुम्हें एक नजर देखा भर है

और बस प्यार किया है

वाह जीजी, अनुराग के लाल रंग को आपने खूब उकेरा है। जिसकी तुलना जीप की लालबत्ती से की है। प्रेम का यह अप्रतिम सौंदर्य जिसकी गहराई को नापा नहीं जा सकता जबकि उसका प्रवेश बंद खिड़की की संध से होता है। प्रेम की यह सूक्ष्मता कविता को नया अर्थ देती है। क्योंकि यह बचा ही रहता है। "उसने कहा था" के बोधा सिंह के प्रेम की तरह।

इतनी खूबसूरत समीक्षा ने मुझे निशब्द कर दिया। रिमझिम बारिश शुरू हो गई। हम बरामदे में आ गए। सन्नाटे तब भी तारी थे।

दिल्ली लौटने पर पता चला प्रमिला के पति सत्येंद्र सीरियस हैं। जब हम रूस जा रहे थे तब भी उनकी तबीयत खराब थी और जांच में कैंसर निकला था। दिल के मरीज पहले से ही थे। प्रमिला तुरंत प्लेन से औरंगाबाद रवाना हो गई। मुझे दो दिन बाद लौटना था। लेकिन मेरे लौटने के पहले ही सत्येंद्र की हार्टअटैक में मृत्यु की खबर आ गई।

फरीदाबाद लौटकर मैं प्रमिला का मन बहलाने के लिए वर्धा ले गई। प्रोफेसर दरवेश कठेरिया भी चाह रहे थे कि मैं वर्धा आ जाऊँ। ताकि रूबरू बैठकर एविस का उनका जो किताबों के ऑडियो का प्रोजेक्ट है वह डिस्कस कर लें। वे मेरे सभी उपन्यास कहानियों का भी ऑडियो तैयार करा रहे थे।

वर्धा में कठेरिया जी के शोध छात्र हमें स्टेशन लेने आए और बाबा नागार्जुन अतिथि गृह में कमरा हमारे लिए अरेंज कर दिया। भोजन का समय हो गया था। नीचे ही डायनिंग रूम था। खाना खाकर हमने आराम किया। तीन बजे कठेरिया जी और उनके शोध छात्र हमसे मिलने आए। शाम तक अशोक मिश्र जी, वीरपाल सिंह जी अपनी पत्नी सहित आए। वर्धा की काफी जानकारियाँ मिलीं। हम डिनर तक साथ बैठे।

वर्धा का महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय लेखकों का गढ़ है। यह बात सुबह यूनिवर्सिटी जाते हुए अधिक स्पष्ट हुई। विभूति नारायण राय जब यहाँ कुलपति थे तो उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान इसका स्वरूप निखार दिया। कदम-कदम पर बाबा नागार्जुन, कामिल बुल्के, प्रेमचंद, टैगोर, निराला, पंत, शमशेर बहादुर सिंह जैसे लेखकों के नाम पर अतिथि गृह पुस्तकालय तथा विभाग हैं। पुस्तक वार्ता के सह संपादक अमित कुमार विश्वास हमें स्वामी सहजानंद सरस्वती संग्रहालय ले गए। जहाँ हिन्दी के ठाठ देखते ही बनते हैं। मील का पत्थर कहलाने वाले लेखकों के वस्त्र, चप्पल, चश्मा, पांडुलिपियाँ वहाँ करीने से मौजूद हैं। मन खुश हो गया उस पुस्तकालय में।

त्रैमासिक पत्रिका बहुवचन के ऑफिस में बहुवचन के संपादक अशोक मिश्र से दोबारा मिलना हुआ। छोटा-सा ऑफिस एक मेज और उस पर कंप्यूटर। जहाँ से हर 3 महीने में कभी दो सौ और अगर विशेषांक हुआ तो पौने तीन सौ पृष्ठों तक का बहुवचन निकलता है। मनोज पांडे भी आए। वह हिन्दी समय वेब पोर्टल का काम देखते हैं। पुस्तक वार्ता का ऑफिस ऊपरी मंजिल पर था। अमित जी ने तीन किताबें दीं कि 15, 20 दिन में समीक्षा लिख भेजिए।

"इतनी जल्दी कैसे?"

"अच्छा तो महीना भर ले लीजिए।" हमारी हँसी ऑफिस में गूंजने लगी।

शाम को हुस्न तबस्सुम निहा कमरे में मिलने आई और मुझे अपनी पुस्तक नीले पंखों वाली लड़कियाँ भेंट की। वे यहाँ हॉस्टल में रहती हैं और अपनी थीसिस लिख रही हैं। डिनर के बाद कठेरिया जी आए।

"सुबह 7: 00 बजे हम लोग बापू की कुटी घूमने चलेंगे।"

सुबह हल्की-हल्की बारिश हो रही थी फिर भी कठेरिया जी नियत समय पर आ गये। हम कठेरिया जी की गाड़ी से बापू की कुटी आए। स्वतंत्रता संग्राम को वर्धा से चलाने के उद्देश्य से 30 अप्रैल 1936 को गांधीजी सेवाग्राम आए और ग्रामीणों के साथ रहते हुए 100 रूपयों में स्थानीय सामग्री का इस्तेमाल कर घर बनाने की अवधारणा रखी। तभी बापू कुटी बनी। इस आश्रम में गांधीजी ने अपने जीवन के संध्या काल के 12 वर्ष बिताए।

वर्धा शहर से 8 किलोमीटर दूरी पर 300 एकड़ की भूमि पर फैला यह आश्रम इतनी आत्मिक शांति देता है जिसको शब्दों में पिरोना मुमकिन नहीं। यहाँ बापू ने कई रणनीतियाँ बनाईं। कईयों से मिले और बहुतों को जीवन की नई दिशा दी। इस आश्रम को समझने में गांधीजी का व्यक्तित्व भी समझ आता है। बापू की कुटी के हर कमरे का अपना इतिहास और कहानी है। बापू की धरोहर घड़ी, चश्मा कपड़े, छड़ी, साँप भगाने वाली लंबी छड़ी, टाइपराइटर, पेन, टेलीफोन, बर्तन, बाल्टीयाँ, नहाने का टब, मालिश की मेज़, पलंग आदि बहुत सावधानी से रखे गए हैं। बा की कुटी अलग है।

पुण्यधाम सेवाग्राम में जैविक खाद से सब्जियाँ उगाई जाती हैं। गौशाला भी है और भोजनालय में पूर्ण रूप से सात्विक भोजन पकाया जाता है।

विनोबा भावे आश्रम पहुँचने पर बारिश की फुहारें शुरू हो गई थी। गांधी हिल पर गांधीजी का खूब बड़ा चश्मा रखा था। कठेरिया जी ने हमें सभी दर्शनीय स्थल घुमाए। रात को वे अपना बैनर लेकर आए। साथ में विद्यार्थीगण। दीवार पर बैनर टांग कर उन्होंने चरखा और पोनी का प्रतीक चिह्न देकर तथा सूत की माला पहनाकर विशेष सम्मान दिया। वह क्षण अभूतपूर्व था। एक तो वर्धा का शैक्षणिक माहौल। फिर बाबा नागार्जुन अतिथि गृह में 3 दिन का डेरा। खातिर सत्कार...

सुबह प्रस्थान था। कठेरिया जी अपने विद्यार्थी को भेजेंगे स्टेशन तक पहुँचाने।

वर्धा से लौटकर ढेरों प्रकाशित रचनाओं की पत्रिकाएँ मेज पर थीं। कुछ वेब पत्रिकाओं के लिंक भी। वेब पत्रिका अंतरा शब्द शक्ति के सितंबर अंक में आसमानी आंखों का मौसम कहानी संग्रह की समीक्षा मुकेश दुबे ने की थी। कथा रस की मधुर फुहार शीर्षक था। इस पुस्तक के ऑडियो पर ही कठेरिया जी काम कर रहे थे। पिट्सबर्ग से रेडियो प्लेबैक पर भी पूजा अनिल की बोलती कहानियाँ के अंतर्गत आवाज में "शहतूत पक गए" प्रसारित हुई थी। सामयिक सरस्वती के जुलाई सितंबर 2017 के अंक में डॉ रविंद्र कात्यायन द्वारा "मुझे जन्म दो माँ" की समीक्षा "कोख से कब्र तक स्त्री विमर्श के विभिन्न रूप" प्रकाशित हुई थी। किरण वार्ता में कंबोडिया वियतनाम का यात्रा संस्मरण छपा था। संपादक शैलेंद्र राकेश ने बताया कि इस अंक का लोकार्पण 5 अक्टूबर 2017 को किरण मंडल के 70वें कौमुदी महोत्सव के अवसर पर हुआ था। सुषमा मुनींद्र ने भी "लौट आओ दीपशिखा" की समीक्षा लिखकर नया ज्ञानोदय में भेजी थी वह अक्टूबर अंक में प्रकाशित हो गई थी।

कलम ने हमेशा साथ दिया है। तब भी जब मुंबई छोड़कर औरंगाबाद आई थी। अब भी जब यहाँ से "लाद चला है बंजारा।"

अपने आराध्य कृष्ण पर भरोसा है। वह जो करेंगे, जैसा चाहेंगे मेरे हित में नहीं तो अहित में भी नहीं होगा। जानती हूँ सपने बुनती हुई सलाईयाँ बार-बार फंदा गिरा देती हैं। सपने उधड़ने लगते हैं। पर सपने सलाई पर हैं तो सही। इसी आस में तो जिंदगी चलती है।

तो मैं अक्टूबर की आखिरी तारीखों में यानी 26 अक्टूबर को भोपाल शिफ्ट हो गई। औरंगाबाद में भी रुकने का कोई आग्रह न था। पूरे 14 महीने की निष्क्रियता ... जो उल्लास और जीवंतता मुंबई में थी वह औरंगाबाद में कपूर की तरह उड़ गई थी। जिंदगी ने जब भी करवट बदली है मुझे तेजी से एहसास कराया है कि बूंद भर पाने की कामना मुझसे बहुत कुछ ले लेती है।

कबीर तन पँछी भया, जहाँ मन तहाँ उडि जाय

भोपाल बिल्कुल अनजाना शहर। रिश्तेदारों में बस विजयकांत जीजाजी। सभी की जुबान पर बस एक ही बात की क्या जज्बा है आपका। ऐसा कदम उठाने को तो पुरुष भी दस बार सोचेगा। क्या करूं फितरत ही ऐसी पाई है। ठहरे हुए जड़ पर्वत कभी पल भर को नयन सुख देते हैं पर बहती नदिया और पहाड़ों से फूटे झरने दूर तलक संग-संग चलते हैं।

भोपाल में एंट्री भी हरि भटनागर के शब्दों में धमाकेदार हुई। विजय जीजाजी मुझे भोपाल स्टेशन रिसीव करने आने वाले थे पर जब मैं भोपाल पहुँची रात के करीब 7 बजे तो उनका फोन आया कि वह यूनिवर्सिटी के काम में अचानक व्यस्त हो गए हैं इसलिए हरि भटनागर मुझे लेने आएंगे। हरि भटनागर ने फोन किया कि आप एक नंबर प्लेटफार्म से बाहर आ जाना मैं वहीं खड़ा मिलूंगा। मैं कुली के साथ बाहर आई पर हरी जी कहीं दिखे नहीं। फोन लगाया तो पता चला वे छह नंबर प्लेटफार्म के बाहर मिलेंगे। हम छह नंबर की ओर भागे तो वे एक नंबर पर वापिस आ गए और एक नंबर और 6 नंबर का सिलसिला आधे घंटे चलता रहा यानी कि हमारा भोपाल में पदार्पण आँख मिचौली से हुआ। बहरहाल 6 नंबर पर आखिर हरि भटनागर जी मिले। कहने लगे साहब (वे मुझे साहब ही कहते हैं) एक नंबर पर टैक्सी वालों में मारपीट हो गई। पुलिस आ गई तो मैं 6 नंबर पर चला गया। अब क्या बताऊँ आप भी परेशान हुई। मगर जनाब एंट्री आपकी धमाकेदार हुई। "

हम दोनों खूब हँसे। डी मार्ट पर हमें जीजाजी रिसीव करने खड़े थे। यहाँ मैंने हरि भटनागर से विदा ली और जीजाजी के साथ घर आ गई। दूसरे दिन बेंजामिन भी आ गया।

औरंगाबाद से सामान भी आ गया था। वैसे तो फर्नीचर आदि सब मैंने औरंगाबाद में ही छोड़ दिया था। बस मोमेंटो, प्रशस्ति पत्र, किताबें और कपड़े ही साथ लाई थी। मोमेंटो भी प्रांतीय अकादमियों के और राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कारों के बाकी एक बोरा मोमेंटो औरंगाबाद में छोड़ आई थी। जिसे प्रमिला ने तुरंत कबाड़ी को बेच दिया था। गलती से उसमें मेरा कंबोडिया में मिला अंतर्राष्ट्रीय सम्मान का मोमेंटो छूट गया था। वह भी गया। जिसका मुझे आज भी अफसोस है। सोचा था पैकर्स एंड मूवर्स से सामान सुरक्षित पहुँच जाता है जबकि हमने सामान का इंश्योरेंस भी करवाया था परंतु वह फ्रॉड निकला। औरंगाबाद से जो भी सामान आया वह बहुत टूटी-फूटी हालत में हम तक पहुँचा। कंप्यूटर टेबल, दीवाल घड़ी, क्रॉकरी आदि सब नष्ट हो गई। बेंजामिन ने कहा ग्राहक मंच में शिकायत दर्ज करा देते हैं लेकिन वह हो न सका और मैंने पनौती मानकर सह लिया और खुद को परिस्थिति अनुसार ढाल लिया।


मेरी जिंदगी तीन काल खंडों में बंटी है और इन काल खंडों का मेल ही मेरा इतिवृत्त है लेकिन इन काल खंडों में से मैंने उस समय को भूल जाना चाहा है जो मेरी लंबी आत्मव्यथा का समय था। हालांकि यादों के शिलालेख में वही समय गहरा खुदा है जो मैंने सहा है। झेला है। कह तो आसानी से दिया कि उस व्यथा भरे समय को भूल जाऊंगी। नहीं लिखूंगी पर फिर लिखूं क्या! मेरी पूरी जिंदगी व्यथा से ही तो भरी रही।

भोपाल आकर यहाँ का हरा-भरा परिसर, शांत माहौल और साहित्यकारों का बड़ा-सा कुनबा... बहुत अच्छा लगा था।

मैं 27 अक्टूबर को भोपाल आई और 29 अक्टूबर को ही बड़ा-सा ब्रेक मिल गया। राजीव शर्मा द्वारा स्थापित नवनिर्मित संस्था प्रणाम मध्यप्रदेश का प्रथम महासम्मेलन राष्ट्रीय संग्रहालय में संपन्न हुआ जिसके पर्यटन सत्र में मैं मुख्य अतिथि थी। यह संस्था मध्य प्रदेश की हस्तकला, शिल्प कला, चित्रकला और पर्यटन को बढ़ावा देने का कार्य करेगी। कार्यक्रम के अंतिम सत्र यानी कवि सम्मेलन में मुझे जहीर कुरैशी जैसे मशहूर शायर के संग गजलें कहने का मौका मिला। श्रोताओं की खूब तालियाँ मिलीं और गजलें सुनाने की फरमाइश भी हुई। राजेश शर्मा ने समय की कमी को देखते हुए कहा कि "संतोष जी को तो हम किसी दिन जी भर के सुनेंगे।" जहीर कुरैशी ने कहा कि "आप तो भोपाल में हमारे लिए चुनौती बन कर आ गई हैं।"

मेरे आगे जैसे कई पल खड़े मुस्कुराने लगे। चुनौती उनके लिए ही नहीं मेरे लिए भी थी। मुझे बेहतर लिखना था और-और बेहतर लिखना था।

कि जैसे पलों का अँधेरा मद्धिम-सी लौ में पीले उजास से भर उठा था और मैं अंदर तक भीग गई थी।

दूसरे दिन की शाम नीलिमा जी और राकेश पाठक के संग बेहद खूबसूरत गुजरी। बल्कि यादगार बन गई। 14 महीने के वनवास के बाद कुछ अपना-सा, प्यारा सा, लौटता नजर आया। भोपाल में सभी साहित्यकार जाने पहचाने थे। साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति पहले भी आती जाती रही हूँ। जब मुंबई में थी तब भी। सब कुछ अजनबियत से परे था।

जया केतकी ने भी मेरे सेटल होने में, पांव जमाने में बहुत मदद की। छोटे-मोटे जरूरत के सामान के साथ-साथ एक अपनत्व कि मुझे लगने लगा कि भोपाल में मेरा एक और घर है जो मेरा अपना है।

इस बार विश्व मैत्री मंच का राष्ट्रीय सेमिनार केरल में होना तय हुआ। जिसकी तैयारी मैं पिछले तीन महीने से कर रही थी। भोपाल आकर खुद को सेटल करने में भी वक्त लग गया और 23 नवंबर आ गया। 23 नवंबर को ही हमें केरल के लिए निकलना था। पहले मुंबई और फिर वहाँ से कोच्चि के लिए फ्लाइट लेनी थी।

मेरा जन्मदिन मुंबई जाने वाली ट्रेन में मना। रात ट्रेन में ही बितानी थी और रात भर जन्मदिन की बधाई के फोन आते रहे। फेसबुक पर ढाई हजार लोगों ने बधाईयाँ दी। शानदार पोस्ट भी लगाई।

आशा सिंह गौर ने लिखा

आज संतोष जी के जन्मदिन पर कुछ दिल की बातें...

उनके बारे में जितना कहूँ कम है। समय बहुत नाराज़ रहा है उनसे। जब उनसे पहली बार मिली थी तब भी धूप के काले चश्मे के पीछे आँखे लबालब आँसुओं से भरी थीं पर उदासी चेहरे पर ज़ाहिर न थी। लेकिन ज़िंदगी का अथाह दर्द उन्हें रोक नहीं पाया बल्कि उनकी लेखनी में उतर गया। संतोष जी ऐसे लोगों में से हैं जिन्होंने दुख की परिभाषा बदली है और जो दृढ़ता से हर चुनौती का सामना करती हैं, जो सबको साथ लेकर चलती हैं और नए रास्ते बनाती चलती हैं। वह बच्चों के साथ बच्ची बन जाती हैं और बड़ों के साथ गंभीर भी हो जाती हैं। जितना लिखना उनकी ज़िंदगी का हिस्सा है उतना ही पर्यटन भी है और शायद इन दोनों को साथ लाने के इरादे से ही उन्होंने विश्व मैत्री मंच की स्थापना की। जिससे एक-एक करके हम आप सब जुड़ते गए। ये आसान नहीं था पर संभव हो पाया संतोष जी के निरंतर प्रयास से। उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र हेमंत को खोकर आंसू बहाने की जगह उसकी स्मृति को प्रतिवर्ष हेमंत स्मृति कविता सम्मान के आयोजन के रूप में संजोया है। अद्भुत है उनका यह कार्य।

जहाँ कई बार लोग काम के लिए भी दूसरे शहर जाने से कतराते हैं वहीं संतोष जी ने इस उम्र में मुम्बई की चकाचौध को छोड़ नितांत अजनबी शहर भोपाल को अपना घर बनाने की हिम्मत दिखाई और भोपाल ने भी उन्हें दिल खोलकर अपना लिया।

संतोष जी सबके लिए एक प्रेरणा हैं। केवल लेखनी में ही नहीं बल्कि हिम्मत और जुझारू पन से ज़िंदगी से निरंतर लड़ते हुए आगे बढ़ने में भी।

आपको जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ संतोष, आप हमेशा यूं ही मुस्कुराती रहें।

पूर्णिमा ढिल्लन ने लिखा

यह संतोष जी के अपनत्व और स्नेह का जादू ही है जो सबको उनकी ओर आकर्षित कर उनके प्रेम पाश से बाँध लेता है।

साहित्य की अविरल धाराओं से निकलने वाला संगीत उनके जीवन की अनमोल धरोहर है और यही ईश्वर द्वारा दिया गया बेशकीमती तोहफा है, इस तोहफे ने उनके जीवन को बहुत खूबसूरत बना दिया है lइस खूबसूरत तोहफे से उनका जीवन सजा रहे! यही ईश्वर से प्रार्थना हैl

हिन्दी साहित्य की मल्लिका साहित्य के चिराकाश में सदा विचरण करती रहे l उनकी लेखनी से साहित्य की ऐसी धाराओं का प्रवाह हो

जो ऐसे स्तंभ स्थापित कर सके कि आने वाली पीढ़ियों के लिए अमूल्य धरोहर बन जाए l बस यही ईश्वर से प्रार्थना हैl

कलम उनका सहारा बन उनको ताकत देती रहे,

शब्दों के बेशकीमती मोतियों से सदा माला पिरोती रहे

कभी न टूटे लेखन की यह लड़ियाँ इन्हीं मालाओं के सम्मान से उनका व्यक्तित्व दमकता रहेl

प्रमिला वर्मा ने लिखा

शनैः-शनैः उन्नति और सफलताओं की ओर अग्रसर होते हुए आज उन्होंने साहित्य जगत में जो मुकाम हासिल किया है, वह निश्चय ही सराहनीय है। मुझे याद है जब धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, कहानी, सारिका, नई कहानियाँ और भी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में संतोष दी की कहा नियाँ लगातार छपती रहती थीं और सुदूर बर्फीले स्थलों में तैनात सैनिकों के लिए जहाँ बिनाका गीतमाला अपना कार्यक्रम पेश करता था। वहीं संतोष दी की कहानियों के अनेक प्रशंसक थे। जो यदा-कदा किसी के हाथ या स्वयं कोई सौगात उन्हें भेजते थे। जिनमें शहद, अनन्नास, खजूर, अखरोट आदि होते थे। स्नेह प्रगट करने का सैनिकों के इस तरीके की सराहना सभी करते थे। सीमा पर तैनात सैनिकों की वे बहन थीं। ऐसा पाठक वर्ग शायद ही किसी को प्राप्त होगा।

फिर कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों को प्राप्त करना उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही परिणाम है। वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ख्यात लेखिका हैं। जिसकी जिंदगी में इतना बड़ा हादसा हुआ कि एकमात्र संतान हेमंत ने छोटी-सी आयु में संसार को अलविदा कह दिया हो और फिर उसकी माँ दृढ़ संकल्प से खड़ी होकर सिर्फ और सिर्फ साहित्य को समर्पित हो गई हों। उन्होंने अपने दर्द को अपनी ताकत बनाया। वे युवा लेखकों की प्रेरणा हैं। यह भी एक उदाहरण है हम सब के लिए।

उनके लेखन को उनकी ऊर्जा और नित नई सफलताओं को मेरी अनेक शुभकामनाएँ। ...

पढ़कर मन विचलित-सा हो गया। इतना प्यार अपनापन कैसे सहेज सकूंगी मैं।