मेरे पाठक हैं - मेरी ताकत / उर्मिला शिरीष

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मेरे पाठक हैं - मेरी ताकत

एक दिन मैं बहुत उदास थी। उदास और बेचैन। उदास और बेचैन इस मायने में कि साहित्य की राजनीति और चापलूसी देखकर मुझे लग रहा था कि इस माहौल में लिखना, लिखते रहना... और फिर टिके रहना कितना मुश्किल है। मेरा कोई गॉड फादर नहीं है। आलोचकों का एक विशेष वर्ग अपने प्रिय लेखकों को लेकर आलोचना के मापदण्ड और औज़ार बदल लेता है। पत्रिकाओं के सपादक अपने गुट के लेखकों को ‘हाइलाईट’ करने में लगे रहते हैं। ऐसे में आप कब तक केवल अपनी रचनाओं के बल पर खड़े रह सकते हैं? क्या इससे पहले भी यह सब होता होगा? बहुत लेखकों को उपेक्षा झेलनी पड़ी होगी... यही सब मन में चल रहा था। भोपाल राजधानी है। कलाओं की स्थली। शासकीय-अशासकीय संस्थाएँ अपने कार्यक्रम निरन्तर करती रहती हैं। वहाँ भी लगभग यही आलम था।

इन्हीं बातों को लेकर मैं उद्वेलित थी कि शिरीष ने कहा-

‘‘चलो दूध का पैकेट ले लेते हैं। सुबह मुझे जल्दी निकलना है।’’

हम लोग एक मिल्क बूथ पर जा पहुँचे। अपने में खोई-खोई मैं दूध लेने के लिए जा खड़ी हुई। मिल्क बूथ वाले लड़के ने मुझे गौर से देखा और नमस्ते कहकर मुस्कुराकर आदर के साथ बोला-

‘मैडम, क्या आप उर्मिला शिरीष हैं?’ मैंने कहा- ‘‘हाँ’’ तो वह उत्साहित होकर बोला-

‘‘मैंने आपको पहचान लिया। आज आपकी कहानी छपी है। मैंने पढ़ी थी। मैंने आपकी ‘अपराधी’, ‘सबूत’ और ‘निगाहें’ कहानियाँ भी पढ़ी हैं...। आज की कहानी पढ़कर तो मेरी आँखों में आँसू आ गये थे। मैडम, फिर उस औरत का क्या हुआ?’’

मैं आश्चर्य से उसका चेहरा देखती रही। लगा पलों में मेरा द्वन्द्व... मेरी बेचैनी... मेरा गुस्सा और निराशा बिच्छू के ज़हर की तरह उतर गया। मन ने रचनाकार मन से कहा-

‘‘और क्या चाहिए तुम्हेंन, यही तो असली प्राप्ति है। जिनके लिए लिख रही हो, जब वही तुहारे साथ हैं तो बाकी दुनिया की क्या परवाह?’’

सचमुच पाठक ऐसे ही होते हैं। ऐसे ही मन का संताप हर लेते हैं। टूटते विश्वास को, लेखकीय आस्था और संघर्ष को बचाये रखते हैं। वे नि:स्वार्थ होते हैं। वे अपरिचित और अनजान होकर भी सबसे करीब और आत्मिक होते हैं। उनके परिचय का सेतु वह कहानी होती है, जो उन्होंने पढ़ी होती है। वह सुन्दर-असुन्दर से परे केवल रचना के सौन्दर्य के पारखी होते हैं। पाठकों का ऐसा ही असीम प्यार, समान, आत्मिकता, अधिकार लेखक के लिए सबसे बड़ी धरोहर होती है। इस मामले में मैं बेहद भाग्यशाली हूँ। मुझे अपने पाठकों से इतना प्यार, इतनी प्रशंसा और इतनी ताकत मिली है कि मैं विस्मित रह जाती हूँ। इस मामले में बिहार मेरा साहित्यिक मायका कहा जा सकता है।

‘नई धारा’, ‘ज्योत्स्ना’, ‘मुक्तकण्ठ’ या अन्य पत्रिकाओं में छपी कहानियों को पढ़कर सुदूर गाँव-देहातों और कस्बों से पाठकों के कार्ड चले आते हैं। पत्रिकाओं में छपे पत्रों को मैं यहाँ नहीं लेना चाहती हूँ, क्योंकि वे तो सभी पढ़ लेते हैं। उन दिनों... कहानियों पर पत्रों से ही प्रतिक्रिया मिलती थी। ‘सिगरेट’ कहानी पर मुझे जो प्रतिक्रियाएँ मिली थीं... वे अपने आप में अद्भुत थीं। इससे पहले की कहानियों पर आये पत्रों को पुनः पढ़ना भी रोमांचकारी लगता है। ‘इंडिया टुडे’ में प्रकाशित कहानी ‘रंगमंच’ ने पाठकों में सवालों को खड़ा कर दिया था। पर ‘हंस’ के विशेषांक में प्रकाशित कहानी ‘चीख’ ने उन सभी पत्र-प्रतिक्रियाओं को पीछे छोड़ दिया था। देशभर से पाठकों के ऐसे-ऐसे पत्र आये कि मुझे ‘साहित्य का प्रभाव’ और ‘ताकत’ का एहसास करा गये। एक बैंक मैनेजर लिखते हैं- कहानी पढ़कर मैं बाथरूम में जाकर जोर-जोर से रोता रहा। एक दो पत्र मैं यहाँ देना चाहती हूँ, क्योंकि ये पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। पर एक पत्र से जुड़ी घटना को मैं ज़रूर आपसे शेयर करना चाहती हूँ। उस दिन मैं एक कहानी की रिकार्डिंग के लिए आकाशवाणी जा रही थी। रास्ते में पोस्टमेन मिल गया। मैंने पत्र-पत्रिकाओं को सरसरी निगाहों से देखा और रख दिया कि लौटकर पढ़ूँगी। पर एक लिफ़ाफ़े पर मेरी निगाहें ठहर गईं। पत्र के पीछे लिखे नाम और स्थान का नाम पढ़कर मेरे हाथ काँपने लगे। आखिर किसी जेल से कोई मुझे पत्र क्यों लिखेगा। अब तक मैं आकाशवाणी पहुँच गई थी। मैंने राजुरकर राज को वह पत्र दिखाया। राजुरकर राज ने एक साँस में वह पत्र पढ़ा। उसकी फ़ोटोकॉपी करवायी और उस पत्र को कहानी के साथ अपनी पत्रिका ‘आसपास’ में पकाशित किया। वह पत्र था गोवा जेल के कैदी सुधीर शर्मा का।


सुधीर कुमार शर्मा

कैदी

केन्द्रीय कारागार आग्वाद

कांदोलिम, बार्देश

गोवा-


आदरणीय उर्मिला शिरीष जी,

हार्दिक अभिवादन,


एक अनजान, अपरिचित कैदी के पत्र को पाकर आपको कितनी हैरानी होगी, कह नहीं सकता, पर इतना विश्वास है कि यह आपको खुशी देगा।


‘हंस’ जनवरी-फरवरी के विशेषांक में आपकी रचना से मिलना हुआ। (चीख) रचना ने दिल को छू लिया। महसूस हुआ इसकी रचनाकार को पाठकीय आभार पत्र लिखना चाहिए। यह पत्र लिखकर मैं अपने उसी फर्ज को पूरा कर रहा हूँ।


कृपया पहले यह जान लें कि आपकी इस बेहतरीन रचना से कैसे मिल सका। चार बरस पहले इंडिया टुडे में मैंने ‘पहल’ की समीक्षा पढ़कर एक साथी बंदी से अनुरोध किया कि वह ‘पहल’ की सदस्यता ले ले। (मैं यहाँ पर इस हालत में हूँ कि किसी भी पत्रिका को खरीद कर नहीं पढ़ सकता) उसके सदस्यता लेने के बाद मैं भी पहल के संपादक ज्ञानरंजन से संवाद बना पाया। ज्ञानदा ने मुझ पाठक कैदी को कबूल किया। ज्ञानदा के जरिये मेरा संवाद बहुत से संपादकों, लेखकों से बना। मैंने हंस की ख्‍याति पढ़ी थी। सोचा हंस के संपादक को पत्र लिखकर एक अंक का दान माँगा जाए और पत्र लिखकर ज्ञानदा के जरिये भेजा। संपादक राजेन्द्र यादव जी ने मुझे हंस के वरदान से तो नवाजा ही, अपनी संपादकीय करुणा के चलते मेरा वह पत्र भी हंस में छाप दिया, तब से हंस मुझे नियमित रूप से मिल रही है। इस तरह आपकी रचना ‘चीख’ से मैं मिल सका।


उर्मिला जी, आपकी रचनाएँ पत्र-पत्रिका में पढ़ी हैं, पर यह स्मरण नहीं कि आपको पूर्व में पाठकीय पत्र लिखा है या नहीं, अगर लिखा भी हो तो आपको यह सब फिर से पढ़ना पड़ा होगा, इसके लिए खेद है।


मैं कोई गहरा पाठक नहीं हूँ, न ही ज़्यादा शिक्षा पाई है। मेरा पाठकीय जन्म ही रचनाकारों के साहित्य-दान से हुआ है। चूँकि मेरी पाठकीय आयु बड़ी अल्प और कच्ची है। इसलिए गहरी रचनाओं के मूल को मैं नहीं पकड़ पाता। आप इसी बात से संतोष कर सकती हैं कि एक आम कैदी ने आपकी रचना को जानने-समझने की कोशिश की।


आपका जिक्र पत्र-पत्रिकाएँ एक जहीन व संवेदनशील लेखिका के रूप में करती हैं।


‘चीख’ को पढ़कर महसूस हुआ आप वाकई में एक बड़ी और प्राणवान लेखिका हैं। इतने छोटे से पाठकीय जीवन में मैंने ‘बलात्कार’ जैसे नाजुक विषय पर इतनी उद्वेलित करने वाली रचना को कम ही पढ़ा। ‘चीख’ ने मुझे इस कदर झकझोर दिया कि बलात्कार के लिए नफरत व घृणा से मेरी आत्मा चीख उठी। बलात्कार जैसे विषय पर संजीदगी से कम ही लिखा गया है। अख़बार पत्र-पत्रिकाएँ इस विषय को एक रुटीन मामला समझकर उसी तरह लिख देते हैं। उससे ‘बलात्कार’ की भयावह विभीषिका उभर कर नहीं आती। उसके लिए ‘खोल दो’ जैसी रचना का जन्म चाहिए। आपकी ‘चीख’ ने ‘खोल दो’ के काम को ही आगे बढ़ाया है। ‘चीख’ आपकी बड़ी ही उत्कृष्ट रचना है, कम से कम मेरे जैसे पाठक के लिए! इसे पाठक लंबे समय तक जेहन में रखेंगे। मैंने ‘चीख’ शीर्षक और आपका नाम पढ़ने के बाद बड़ी जिज्ञासा व उत्सुकता के साथ पढ़ना शुरू किया। शुरूआती पंक्तियों ने ही आभास दे दिया। किसी महत्त्वपूर्ण रचना से गुज़रने वाला हूँ। जैसे-जैसे रचना में उतरता गया, दिलो-दिमाग में वैचारिक तूफान उठता चला गया। आधी रचना को पढ़ने के बाद मैं रुका और वह पृष्ठ निकाला जिसमें संपादक ने चित्र के साथ आपका परिचय दिया है। फिर से पढ़ने के बाद, मैंने आपके चित्र को ध्यान से पढ़ना शुरू किया। मुझे बहुत से मनोविज्ञानियों की बातें कौंध गईं जो वह चेहरे की बनावट, हिस्से, अंग को लेकर कहते हैं। उनकी बात का धरातल आपके चित्र में मौजूद था। इतनी बड़ी रचना लिखने वाली लेखिका इतनी सादगी से भरी होगी सोचा न था। आपकी सादगी ने आपके चित्र को विराटता दे दी थी। चश्मे से देखती आपकी गहरी आँखें बता रही थीं इस लेखिका के भीतर असाधारणता छिपी है। आपका अक्लमंदी से भरा चेहरा बड़ा सौम्‍य व आकर्षक लगा। उर्मिला जी, आप सोचेंगी बड़ा अजीब पाठक हूँ, जो रचना के बारे में लिखते-लिखते यह आपके चित्र के बारे में क्या लिखने लगा। उर्मिला जी, आधी रचना को पढ़ने के बाद लगा इस गहरी और जीवन्त लेखिका के चित्र को ध्यान से पढ़ा जाए। मुझे जिस तरह महसूस हुआ उसी तरह लिख दिया। अगर बुरा महसूस हुआ हो तो माफ कर दीजियेगा।


मैंने आगे ‘चीख’ को पूरी की। ‘चीख’ ने मेरे दिमाग में हलचल मचा दी। मैं बड़ी देर तक विचारों के तूफान से टकराता रहा। रचना से उपजे सवालों ने कई विस्फोट से कर दिए। उनसे जूझते हुए दिल हुआ, ‘चीख’ को फिर से पढ़ा जाए, मैंने फिर से ‘चीख’ को पढ़ा। वह पहले से ज़्यादा विराट नज़र आई।


मैं आपकी कथा-नायिका के साथ रचना में प्रविष्ट हुआ और, फिर हर क्षण मैं उसकी अनुभूतियों, द्वन्द्वों के साथ भागीदार रहा। उर्मिला जी, जिस सरल-सीधे शब्‍दों में आपने रचना को बुना है उसे देखकर हतप्रभ हूँ। शायद यह आपकी जीवन्त लेखनी की वजह से लगा हो, जब मुझ जैसा आम पाठक रचना को आसानी से समझ गया हो तो समझिये रचना सार्थक हुई। आपने जिस बारीकी के साथ इस रचना को बुना है, उससे लगता है, आपने वास्तविक जीवन में ऐसी कथा-नायिका को देखा-भोगा है। सिर्फ़ कल्पना के आधार पर ‘चीख’ जैसी रचनाओं का जन्म नहीं होता। क्या आप यकीन करेंगी, रचना को पढ़ते हुए मैं कथा-नायिका की मदद के लिए छटपटा उठा था।


बलात्कार की दुर्घटना के बाद कथा-नायिका को खुद उसके घरवाले एक दूसरी नज़र से देखने लगते हैं। कथा-नायिका के परिवार के द्वन्द्व को जो आपने दिखाया है, वही सच -- प्रतिशत भारतीय परिवारों का है। शील-भंग की शिकार लड़की (महिला) का परिवार ऐसी ही मानसिक व भावनात्मक यंत्रणा में जीता है। आपने इसकी जो भयावहता दिखाई है वह रोंगटे खड़े कर देती है। कुछ पशु-पुरुषों द्वारा की गई पाशविकता की यंत्रणा को यह परिवार जिस तरह झेलता है उसे देखकर दिल दहल जाता है। किसी दुष्ट पुरुष की, की गई (दुष्टता) गलती को शील-भंग की शिकार हुई लड़की व उसका परिवार भोगता रहता है, उसका दंश उनके सुख-चैन को तहस-नहस कर देता है।


आपकी इस रचना ने दिमाग में सवालों और विचारों का बवंडर खड़ा कर दिया। शायद पहली बार मुझे बलात्कार की भयावहता इतनी असरदार ढंग से समझ आई। और पुरुष की काम-पिपासा पर घृणा भी। न जाने क्यों? मुझे खुद के ऊपर बड़ी शर्म आई, आखिर मैं भी उसी पुरुष-समाज का अंग हूँ। उर्मिला जी, हमारी सामाजिक दृष्टि व मूल्य ही इस तरह के हैं कि औरत की तमाम खूबियाँ व अस्तित्व उसके शील से जुड़ा रहता है। इतनी प्रगति (?) व शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद भी हमारी आन्तरिक सोच व मानसिकता वही दकियानूसी व सड़ी-गली है। शील-भंग की शिकार लड़की को इस नज़र से देखा जाता है, जैसे उसके जीने का कोई मतलब नहीं है। खुद परिवार वाले भी उसे सिर झुकाकर जीने के लिए कहते हैं। मेरी समझ में नहीं आता बलात्कार की शिकार लड़की, महिला को समाज पूर्ववत् दृष्टि से क्यों स्वीकार नहीं करता? कोई दुष्ट कामी पुरुष यह घृणित कार्य करता है उसे मज़े से स्वीकार लिया जाता है, जैसे उसने कोई बहुत मर्दानगी (?) वाला काम कर दिया हो, वह शान से सिर उठाकर समाज में जीता है। उसका कोई सामाजिक बहिष्कार नहीं होता। उसकी शादी, याह में भी कोई अड़चन नहीं आती। यह हमारी समाज की मानसिक विकलांगता और भेदभाव वाली दृष्टि है। अगर किसी लड़की या महिला के साथ बलात्कार होता है तो उसे हर इंसान दूसरी ही दृष्टि से देखने लगता है। दूसरों के अपराध की सजा उसे भोगनी पड़ती है। समाज इसे स्वस्थ नज़रिये से क्यों नहीं देखता? वह इस पर विचार क्यों नहीं करता कि शील-भंग के लिए पुरुष दोषी है। और जोर-जबरदस्ती से किया गया शील-भंग का अर्थ उस महिला के ‘जीवन का खत्म हो जाना’ नहीं होता, शील-भंग भी उसी तरह की एक दुर्घटना है, जैसे शरीर के अन्य अंगों का हमले में क्षतिग्रस्त होना है। क्या हम उन इंसानों को स्वीकार नहीं करते? या फिर अपने आसपास हम उन सैकड़ों अवैध सबन्धों को नहीं जानते जो हमारे सामने बनते हैं और शान से सिर उठाकर जीते हैं। हम उन्हें जानते-समझते हुए भी ढोंग करके मान्यता भी देते हैं। दरअसल, हमारी सामाजिक सोच व दृष्टि इस मामले में बड़ी पक्षपाती व पंगु है। जब तक उसमें बदलाव नहीं आता तब तक आपकी कथा-नायिका की तरह शील-भंग की शिकार लड़की, महिला व उसके परिवार वालों को यह नाटकीय मानसिक यंत्रणा झेलनी पड़ेगी। हैरत वाली बात यह है समाज का शिक्षित, सय वर्ग भी शील-भंग की शिकार लड़की, महिला के लिए यही दृष्टि रखता है कि उसकी सारी इज्जत, अस्तित्व, उसकी जाँघों के बीच है, यह देखकर मन में क्षुधता व आक्रोश उपजता है।


उर्मिला जी, हम लोग अमूनन हर रोज ही बलात्कारों की खबरों को एक चटपटे मसाले की कहानी की तरह पढ़ते हैं, और भुला देते हैं क्योंकि हमें बलात्कार के जम का सही अनुमान नहीं होता है। उल्टे कुछ तो उस शिकार लड़की की कहानियाँ बनाकर सुनायेंगे। आपकी ‘चीख’ पाठक को खुद कटघरे में खड़ा करके सवाल करती है। तब जाकर उसे बलात्कार से उपजी भयावहता का अन्दाज़ा लगता है। आपकी कथा-नायिका इस तरह वास्तविकता के धरातल से उपजी है। एक आम भारतीय लड़की को बलात्कार की त्रासदी के बाद बिल्कुल इसी दिमागी जज्बाती नाटकीय यातना में जीते है। समाज की बात छोड़िये, खुद घर के सदस्य भी उस लड़की को एक दूसरी नज़र से देखना शुरू कर देते हैं। आपने नायिका के माँ-पिता, भाई-बहन, दीदी के ‘बलात्कार’ के बाद उपजे हालातों का बड़ी बारीकी से चित्रण किया है। आपकी इस दक्षता की जितनी तारीफ की जाये, कम है। समाज की कई विसंगतियों को आपकी चीख ने उधेड़ कर रख दिया। यह सामाजिक कुरूपता हर वर्ग के समाज में समान रूप से मौजूद है, मैं आपकी इस सूक्ष्म दृष्टि व पकड़ पर अवाक् हूँ।


आपकी कथा-नायिका पहले-पहले इस सामाजिक कुरूपता के आगे हिमत हारने लगती है। आखिर खुद उसके परिवार वाले उसे जीवनदायी प्रेरक विचार नहीं देते। गर्भ गिराने के बाद डॉ. शोभा जिस तरह कथा-नायिका को जीवन संघर्ष करने की प्रेरणा देती है, वही कथा-नायिका को जीवन-जीने के लिए उत्साह व ऊर्जा से भर देता है। कथा-नायिका का डॉ. शोभा को यह पूछना कि- मुझे क्या हो गया था? पर डॉ. शोभा के यह प्रेरक व जीवनदायी विचार निकले-

‘‘जानकर क्या करोगी? लेकिन अब तुहें स्वयं को सँभालना चाहिए। बहुत हो गया। मुझे देखो मैं क्या करती हूँ? कई बार ऐसे केस आते हैं जिनमें ज़िन्दगी या मौत... या माँ और बच्चे में से एक को चुनना पड़ता है... बचाना होता है... लेकिन आखिरी क्षण तक कोशिश करते हैं, तो महत्त्वपूर्ण क्या है?... ज़िन्दगी... सारी जद्दोजहद ज़िन्दगी के लिए होती है न। तुम्‍हारी अपनी ज़िन्दगी की कीमत तुहारे लिए कितनी है, यह तुहें सोचना होगा? पहले तुम स्वयं के बारे में सोचो कि तुहें देह को लेकर... तड़पते रहना है या आत्मा की आवाज़ पर चलना है... बार-बार तुहारे साथ घटनाएँ घटित हो रही हैं और तुम स्वयं कुछ नहीं कर पाती हो। यह शरीर तुहारा है या किसी और का। यदि तुम मेरी बेटी जैसी होती तो मैं तुम्‍हें कहती, उठो... जागो... जीवन... को अपनी गति से चलने दो... जो हुआ उसका सामना करो, कोई तुम्‍हें एक्सेप्ट नहीं करता मत करने दो, तुम खुद को एक्सेप्ट करो।’’

डॉ. शोभा की यह बातें कथा-नायिका में प्राण फूँक देती हैं। वह हालातों से लड़ने की ठान लेती है। और अपना दृढ़ निश्चय घरवालों को बताती है। डॉ. शोभा ने आपकी कथा-नायिका को ही नहीं बल्कि मुझ कैदी को जीवन-संघर्ष का मंत्र दे दिया। आपकी कथा-नायिका के साथ जब मैं प्रैक्टिस के लिए स्टेडियम जाने को निकला तो कथा-नायिका के समान मेरा मन भी हवा से बातें करने लगा। आपकी इस रचना ने मुझे वैचारिक धरातल देकर मेरा इंसानी विकास किया इसके लिए आभारी हूँ। पत्र पहले ही बहुत लंबा हो गया है इसलिए खत्म करता हूँ।


अपने बारे में क्या लिखूँ? समझ नहीं आता, मैं सैंतीस वर्षीय कैदी हूँ जो अपनी नशे की लत की सजा काट रहा है। (08 ग्राम ब्राउन सुगर रखने की) आठ बरस पूरे होने को आए। अभी तीन बरस बाकी हैं। इस जेल में कैदी के लिए कोई काम नहीं है और न ही यहाँ पुस्तकालय है। 24 घंटे बन्द बैरक में रहना पड़ता है। अगर साहित्यकारों का मजबूत भावनात्मक व मानसिक सहारा मुझे न मिलता तो ज़रूर मेरी दिमागी सेहत गड़बड़ा जाती। इस बात का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहूँगा कि महिला लेखकों ने मेरी बड़ी महत्त्वपूर्ण मदद की है। मेरा आन्तरिक विकास उनके व्यावहारिक आचरण ने किया। अब जेल-यात्रा जारी है। मैं हालात व परेशानियों से जीवन के सबकों को सीखने में जुटा हूँ। आपने मेरे पत्र को अपना कीमती वक्त दिया। उसका भी आभारी हूँ।


आपकी खुशी व सेहत की कामना के साथ...


आपका-

सुधीर शर्मा

कैदी



इन्दौर

मार्च


माननीय उर्मिला जी, सादर अभिवादन,


आशा है आप स्वस्थ सानन्द होंगी।


हाल ही में प्रकाशित आपकी दो कहानियाँ ‘चीख’ (हंस) और ‘नानी’ (साहित्य अमृत) पढ़ीं। ‘चीख’ ने जहाँ झिंझोड़ा, ‘नानी’ ने वहीं सहलाया। ‘चीख’ ने घाव पैदा किये, तो ‘नानी’ ने मरहम ज़्यादा लगाया। ‘चीख’ की माँ, बहन, भाई, पिता - ये सब लड़की के बलात्कार से उपजी यातना से गुज़रते हैं और जिस चिन्ता में घुलते हैं, वह लड़की के प्रति उनकी मानवीयता का विस्फोट ही है। हालाँकि उनका ढंग समाज की नाकेबन्दी के भीतर खौफ खाये हुए ढंग से प्रकट होता है। समाज के सामने बलात्कार की दुर्घटना के बाद जितना आतंक, अपमान और अवसाद पीड़ित को झेलना पड़ता है, वह आपने पूरी संजीदगी से उभारा है। उसी मानवीयता के दूसरे पहलू का प्रकटन ‘नानी’ में दूसरे ढंग से होता है। वह उपेक्षित होकर बेटी के परिवार की तरफ ‘नानी’ के रूप में बुढ़ापा गुज़ारती है। बेटों की माँ बेटी की माँ बन जाती है। ‘नानी’ की अनुपस्थिति में, कहानी के अन्तिम हिस्से में, नानी की पीड़ा का जिस तीव्रता से नाती को अहसास होता है, जिस स्तर पर उसे नानी की कमी खलती है, वैसा कुछ धन-संपन्न बेटों को भी महसूस नहीं होता। यही बड़ी विडंबना है। बेहद तीव्र और नुकीले विडंबना के स्वर हैं ये।


आपकी कहानियों में भाषा बेहतर रूप लेती दिखाई देती है, लेकिन यदि वह ‘चीख’ के रास्ते चले तो। ‘नानी’ की भाषा में कसाव ‘चीख’ की भाषा के कसाव के मुकाबले कहीं कुछ झीना है। कुछ रेशे छूट जाने का अहसास दिलाता, जैसे खूब जतन से करघे पर बुनी गई साड़ी की डिजाइन के किसी तार के छूट जाने से सुन्दरता में जो क्षति पहुँचती है - उतनी क्षति लिये हुए।


बहरहाल, बेहतर कहानियों के लिए हार्दिक बधाइयाँ।


चरणसिंह अमी


‘पत्ते झड़ रहे हैं’ कहानी में प्रेम का द्वन्द्व था। विछोह का दर्द था। पाठकों के खूब पत्र आये। हर कोई एक ही सवाल पूछता- सीमा कहाँ है? सीमा का क्या हुआ? ‘बांधो न नाव इस ठांव बंधु’ कहानी जब ‘वागर्थ’ के वृद्ध विशेषांक में छपी तो कितने ही ऐसे वृद्धों के पत्र आये, जिन्होंने अपना प्रेम अपने भीतर छुपा रखा था, पर वो प्रेम उनके भीतर तब भी जीवित था... उनके नितान्त निजी अनुभवों ने मुझे भीतर तक भिगो दिया था। ‘निर्वासन’ कहानी जब छपी तो पत्रिका में जितने पत्र छपे थे, उससे कई गुना पत्र मेरे पास आये थे। लड़कों को धिक्कारते... बुजुर्ग के प्रति संवेदना दिखाते वे पाठक जैसे उस दर्द के स्वयं हिस्सेदार बन गये थे। ‘लौटकर जाना कहाँ है’ कहानी पढ़कर एक शादीशुदा लड़की अपनी ससुराल लौटकर नहीं आयी। ससुराल में मिले दुःखों से निजात पाने के लिए उसने स्वयं को उन तमाम चीज़ों से मुक्त किया। आज वह महाराष्ट्र के किसी कालेज में पढ़ा रही है। ‘दहलीज पर’ कहानी का पात्र एक छोटा बच्चा था, जो अपनी विधवा माँ के विवाह के बाद दोनों परिवारों में एकाएक ही अजनबी बन जाता है। उसका दर्द, उसके अकेलेपन और उपेक्षा ने छिन्दवाड़ा की एक पाठिका को इतना अभिभूत किया कि उन्होंने अपनी दूसरी शादी का विचार ही त्याग दिया। वे मुझसे मिलने आईं और यह बात उन्होंने मुझे स्वयं बतायी। इसी कहानी को पढ़कर बिलासपुर से एक पाठक का फ़ोन आया- ‘‘आपने मेरी कहानी लिख दी। मैं रातभर रोता रहा।’’ ‘उसका अपना रास्ता’ कहानी में बढ़ती हुई सौन्दर्य प्रतियोगिताओं के प्रति निम्‍न मध्यम वर्गीय परिवार की लड़कियों में आकर्षण से लेकर उसमें असफल होने की कहानी ने कई पाठकों को विचलित कर दिया था। उनमें से दो पाठिकाओं ने तय किया था कि वे अपने आसपास की लड़कियों को... पढ़ाई के प्रति प्रेरित करेंगी न कि सौन्दर्य प्रतियोगिता की अंधी दौड़ में शामिल होने देंगी।


पाठक सिर्फ़ प्रशंसा ही नहीं करते, बल्कि वे कहानियों की कमियों के बारे में भी स्पष्ट राय देते हैं, जैसे एक पाठक लिखते हैं-

‘‘संवेद वाराणसी के अंक दस में प्रकाशित आपकी कहानी (अग्निरेखा) पढ़ी। कहानी अच्छी लगी। जंगलों की समस्या तथा जंगल अधिकारियों के भ्रष्ट कारनामों को उजागर करती एक सुन्दर एवं श्रेष्ठ रचना है। इस कहानी की अन्तर्वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर ध्यान खींचती है। एक कमी लगती है कि चेतीराम एवं साँवली के संवाद उनके चरित्र एवं परिवेश के अनुकूल नहीं हैं।’’ (पटना)


पाठकों के नाम दिये जाने चाहिए या नहीं। मुझे लगता है कि कुछ चीज़ें पाठक और लेखकों के बीच की ही होती हैं...। शहर में अकेली लड़की, प्रतीक्षा, वानप्रस्थ, मुक्ति, किसका चेहरा, सच के आगे का सच, आशिक अली, नानी, अथ भागवत कथा, समन्दर, अपराधी, अभिशाप, कोशिश, एम.एल.सी., रोटियाँ, बिवाइयाँ, अँगारों की हँसी, निगाहें, सरगम, लकीर, आत्मा की आवाज़, कन्या, पत्थर की लकीर, केंचुली, रंगमंच, स्वांग, सरगम, मुआवजा, सहमा हुआ कल, कुर्की, पुनरागमन, चपेटे, अग्निरेखा और भी कहानियाँ... जिनको पाठकों ने खूब-खूब सराहा...। कुछ पाठक कहानी पढ़कर भावुक हो जाते हैं तो कुछ को यकीन ही नहीं होता है कि कहानी वास्तविक है या काल्पनिक? कई बार वे सरकार और समाज पर कटाक्ष करते हैं तो अपना रोष भी प्रकट करते हैं।


ये पाठक कभी छोटे भाई के रूप में तो कभी शिष्य के रूप में, तो कभी शुद्ध पाठक के रूप में, तो कभी दोस्त के रूप में, तो कभी हितचिन्तक के रूप में पत्र लिखते हैं। एकमात्र पाठक ही नाम के आगे कहानीकार, वरिष्ठ कहानीकार, प्रसिद्ध साहित्यकार लिखकर एहसास करवाते हैं कि... साहित्यकार की भी समाज में कोई हैसियत या पदवी होती है। हाँ, उनकी भावनाओं का निष्कर्ष यही होता है कि उनकी बात को, प्रतिक्रिया को लेखक समझे... कम से कम कुछ नहीं तो दो लाइन लिखकर जवाब दे। कन्याकुमारी से लेकर स्थानीय पाठकों की चिट्ठियों के पैकेटों से भरी अलमारी... कितनी अपनी, कितनी जीवन्त और कितनी... सुन्दर लगती है... यह बात कोई लेखक ही महसूस कर सकता है। एक बार... एक वरिष्ठ लेखक ने मजाक में कहा-

‘‘महिला लेखिकाओं के पास उनके फ़ोटो के कारण ज़्यादा पत्र आते हैं, आपकी फ़ोटो देखकर... इतने पत्र आते होंगे।’’

बात मजाक की थी पर भीतर तक... छील गयी। एक पत्रिका में बिना फ़ोटो की कहानी छपी थी। ताज्जुब कि तेरह पत्रों में से ग्यारह पत्रों में मेरी कहानी का ज़िक्र था... तब मैंने उन्हें बताया कि आपकी बात कितनी निराधार है। एक बार दूरदर्शन में इंटरव्यू के दौरान मध्यप्रदेश की ही वरिष्ठ लेखिका ने कहा कि पाठक मुझे इतने अश्लील पत्र लिखते हैं... तो मैं अवाक् रह गयी... क्या कभी... कोई पाठक ऐसा भी कर सकता है। मुझे तो आज तक याद नहीं आता कि मेरे पाठकों ने मुझे अति समान से भरे सबोधनों के अलावा एक भी शद हल्का-फुल्का लिखा हो।

मैं अपने पाठकों का बेहद समान करती हूँ, क्योंकि वही हैं जो मेरे लिखे को सार्थक करते हैं... हाँ, अब दुःख इस बात का है कि पहले डाक में जो चिट्ठियाँ भरी चली आती थीं, अब मोबाइल और एसएमएस के द्वारा प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं। जो शद पहले पत्रों में होते थे... स्थायी होते थे... वे अब हवा में होते हैं। एसएमएस के जरिए भी वही बात होती है। यह आत्मप्रशंसा नहीं है, न ही अपनी कहानी को श्रेष्ठ बताने की बात, पर इधर प्रकाशित कहानियों पर जो प्रतिक्रियाएँ मिलीं, उन्होंने मुझे इतना आत्मविश्वास और सृजनात्मक ऊर्जा दी है कि मैं स्वयं को ही स्वयं से तौलती रहती हूँ। मेरा संघर्ष, मेरी स्पर्धा सब कुछ मेरे लेखकीय मन से होता है। कई बार पाठकों को लगता है कि... लेखक की कहानी उस कहानी में शामिल है... या वह कहाँ पर है, किस रूप में... जैसे बांदा से एक पाठिका ने ‘रोटियाँ’ कहानी पढ़कर लिखा कि-

‘‘मैं यहाँ बैठी हूँ वहाँ बैठकर आपने मेरी कहानी कैसे लिख दी।’’

तो ऐसे पाठक जो लेखक की अपनी अनुभूतियों के सहभागी बन जाते हैं, उनकी सोच... उनकी चेतना... उनकी अनुभूतियाँ... लेखक की अनुभूतियों से एकाकार हो जाती हैं, तभी तो वे प्रश्न करने लगते हैं- क्या प्रगतिशील है? क्या लड़का हिन्दू और लड़की मुसलमान (अँगारों की हँसी) नहीं हो सकती? सचमुच... इन बुद्धिमान... सहृदय... उदार और आत्मीयता से भरे पाठकों की मैं चिरऋणी रहूँगी... उन्होंने हर रचना पर मेरा जो मनोबल बढ़ाया है... उसी का परिणाम है कि आज मैं लिख रही हूँ। और उन्हीं के लिए लिखती रहूँगी। मेरे प्रिय पाठकों बहुत-बहुत आभार।


- उर्मिला शिरीष ई-115/12 शिवाजी नगर, भोपाल मध्य प्रदेश .462003 ईमेल : urmilashirish@hotmail.com