मेरे भगवान / रणविजय
मास्टर साहब अब एक संपन्न व्यक्ति हैं। अपने कस्बे में उनका रसूख है। लगभग 10 किलोमीटर के दायरे में उनके क्षेत्र से सम्बन्धित व्यापार में उनसे ऊपर कोई नहीं था। गाँव-समाज का प्रत्येक व्यक्ति हमेशा उनकी तरफ़ सम्मान और आशा से देखता था। उनकी काया में ऐसी कोई विशालता अथवा सौष्ठव नहीं था, परंतु वेश-भूषा, साफ-सफाई तथा सम्पन्नता से , विशिष्टता झलकती थी।
आज फ़िर दो-एक जानने वाले उनके साथ बैठकर अपने सम्मान में वृद्धि कर रहे थे। उनका घर ठीक सड़क पर पड़ता था, जहाँ से आधा किलोमीटर भी बाज़ार नहीं होगा। उनकी आदत थी कि शाम को वे अपने घर के सामने बरामदे में बैठते थे, जहाँ से गुजरने वाले उन्हें और वे गुजरने वालों को जोशपूर्वक नमस्कार करते थे। उनमें से कुछ लोगों को साथ बैठने के लिए बुला भी लेते थे। वे स्वभाव से विनम्र थे, इसलिए बैठकी वालों को भी सामाजिक महत्त्व के विषय जैसे राजनीति, थाना, कचहरी, वारदात, आलू, गन्ना, टमाटर रेट इत्यादि पर चर्चा-परिचर्चा करने में संकोच नहीं होता था। अपने ज़माने के वे काफ़ी पढ़े-लिखे व्यक्ति थे। इसके अतिरिक्त सामाजिक परिस्थितियों ने कम उम्र में ही उन्हें काफ़ी व्यावहारिक बना दिया था। वे बुद्धि से भी तेज थे।
गाँव-जवार, पास-पड़ोस पर चिड़िया की तरह व्यापक दृष्टि रखने वाले मास्टर साहब ने उस परिवेश की नब्ज पकड़ ली थी। समय से पूर्व ही उन्होंने यह समझ लिया था कि गाँववालों के बीच रहने में नुक़सान है , क्योंकि गाँव में प्रत्येक पट्टीदार और पड़ोसी आपसे ईर्ष्या करता है। उसका पूरा रुपया, वक़्त और जाँगर केवल इस कार्य में ख़र्च होता है कि आप कैसे दुःखी एवं परेशान रहें। उन्होंने समय से पूर्व यह भी समझ लिया था कि भविष्य में पढ़ाई का महत्त्व बहुत बढ़ने वाला है। जिनके बच्चे अच्छे शिक्षित होकर आगे बढ़ेंगे, वे गाँव के जमींदारों को पानी पिला देंगे। व्यापार का फैलाव किस दिशा में हो, ये वे पहले ही सूँघ लेते थे, इसलिए आज सफल बिजनसमैन थे।
दूर से ही किसी साइकिल सवार ने उनको नमस्कार किया, उन्होंने भी उसका जवाब काफ़ी सद्भाव तथा प्रेमभाव से दिया। ये सिलसिला वैसे तो रोज़ की सामान्य बात थी। क्योंकि सड़क पर गुजरने वाले अधिकांश व्यक्ति उन्हें जानते-मानते थे। पास आकर वह साइकिल सवार, साइकिल से उतरकर खड़ा हो गया। साइकिल को टेढ़ा कर अपने बदन से टिकाये हुए, विनीत मुद्रा में दूर से ही पूछा- “भैया, क्या हाल-चाल है?”
साइकिल सवार की उमर लगभग 26-27 साल थी, जबकि मास्टर साहब 52-53 साल के हैं। फ़िर भी गाँवों में इस तरह तथा उससे ज़्यादा उम्र के फासलों के लोग भी सम्बन्धों में एक-दूसरे के भाई लगते हैं। उसके बदन के मैले, उघड़े कपड़ों तथा सिली चप्पलों की हालत समझते हुए, मास्टर साहब ने भी करुणा से पूछा, “और कैसा चल रहा है सब, घर में? बहुत दिन बाद दिखाई पड़े, वंसू?”
कभी-कभी मोहब्बत का एक गर्म स्पर्श ही अन्दर तक पिघला देता है। वंशीलाल उस करुणा में भीग गये। वे क्षीण और भर्राई आवाज़ में बोले- “सब ठीक चल रहा है, भैया... बाक़ी तो आप गाँव का हाल जानते ही हैं। आपसे तो कुछ छिपा नहीं है।”
मास्टर साहब ने माहौल समझकर थोड़ी सहृदयता और जताते हुए पूछा- “आजकल क्या कर रहे हो? मोटकऊ के क्या हाल हैं?”
वंशीलाल ने अब साइकिल स्टैंड पर खड़ी कर दी और आहिस्ता-आहिस्ता अपने को घसीटते हुए आकर कुर्सी पर बैठ गये।
“बाबू की तबीयत अब ठीक नहीं रहती है। हिस्सा, बखरा के समय पर वे गिरधारी भैया के साथ चले गये। अब वहीं छप्पर के नीचे खटिया डाले पड़े रहते हैं। दिन-भर खाँसते हैं, परंतु आने-जाने वालों को बुला लेते हैं। फ़िर बीड़ी माँगकर पीते हैं। लोगों का तो एक बीड़ी में कुछ नहीं जाता, पर ऐसी अनेक बीड़ियाँ दिन-भर में ये पी लेते हैं। कभी-कभी गिरधारी भैया दवाई के लिए जाते हैं... हमारे ज़ोर से तो कुछ चलता नहीं है, खेती-बाड़ी में कुछ ज़्यादा होता नहीं है। वैसे भी चार-पाँच बीघे खेत में सब कुछ हो भी नहीं सकता। गेहूँ बो दो, तो सब्जी कहाँ मिले। धान लगा दो तो सिंचाई का साधन नहीं, खाने भर को भी पूरा गल्ला तो हो नहीं पाता। बाज़ार से दाल खरीदने के लिए बनिए को चावल देना पड़ता है। कपड़ा, दवा, दारू कहाँ से आए। इधर एक भैंस थी, जिसका दूध बेचकर कुछ काम चल जाता था, पर दो दिन से वह भी बीमार है। दवाई तक को पैसा नहीं है, डॉक्टर के पास क्या मुँह लेकर जाऊँ? न हैसियत है, न पहचान है...।” ऐसा कहते-कहते वंशीलाल रुँआसे हो गये। असहाय की भावना ने उन्हें दयनीय बना दिया। उनका चेहरा छोटा हो गया।
मास्टर साहब भी इससे अछूते नहीं रहे, उन्होंने 100 रुपये का एक नोट निकालकर सांत्वना देते हुए कहा-
“अरे वंसू, इतना दुःखी मत होओ। हमारे जिन्दा रहते तुम्हें इस तरह का दिन देखना पडे़, ऐसा कभी नहीं होगा। ये पैसा रक्खो और जाकर भैंस की दवाई कराओ, कम पड़े तो और दे दूँगा। आकर मुझे बताना, शरमाने की बात नहीं है।” कहते हुए उन्होंने लगभग उसके हाथों में नोट को ठूँस दिया।
वंशीलाल कुछ अनिर्णय की मुद्रा में थे कि रुपया लें अथवा नहीं। ऐसी परिस्थिति उनके लिए नयी थी, क्योंकि जब तक बँटवारा नहीं हुआ था तब तक सभी जिम्मेदारियों को देखने के लिए और बड़े लोग थे। इस स्थिति से उनका नाता पहले कभी नहीं पड़ा।
वंशीलाल के जाने के बाद एक व्यक्ति ने ज़िक्र किया-
“ये आपके गाँव का है क्या? क्या करता है?” इस पर मास्टर साहब ने थोड़ी याद करने वाली मुद्रा बना ली। सिर को ज़रा ऊपर करते हुए कहीं दूर लक्ष्य कर देखने लगे। वे कई वर्ष पूर्व अतीत की गलियों में उतर गये।
मास्टरजी का घर गाँव के किनारे भी नहीं था और न ही बीचोबीच था। वस्तुतः खपरैल का बना हुआ एक गँवई मकान था। बाहर की तरफ़ निकलने वाले रास्ते पर लगभग 10 मकान थे। सामनेवाले पड़ोसी ने जान-बूझकर घर का सारा गंदा पानी का नाला, इनके रास्ते पर खोल रखा था।
जो निकटतम पड़ोसी थे, वे रिश्ते में चचेरे भाई भी थे। पुरानी जायदादें बँटकर दो घर बने थे, इसलिए घर आपस में जुड़े हुए थे। निकटतम ईर्ष्यालु प्रतिद्वंद्वी भी वही थे। मास्टर साहब की दो बहनें थीं तथा तीन भाई थे। सबसे बड़े होने के नाते बड़ाई हमेशा ओढ़नी पड़ी। घर में मिठाई बँटे तो सबसे बाद में मिले, कपड़ा बँटे तो बाद में मिले, सोने को सबसे बाद में तथा उठना सबसे पहले पड़ता था। इस तरह की तमाम रस्मों एवं जिम्मेदारियों ने उन्हें स्वभाव से ही परिश्रमी बना दिया। रही-सही, कसर उनके पिताजी ने पूरी कर दी। उनके पिता को मंडलियाँ एवं संगतें लगाने का शौक हो गया। धीरे-धीरे बैरागी भावना भी उनमें जमने लगी। इसके बाद तो घर की तमाम जिम्मेदारियाँ उनके पिता को ईश्वर की क्रीड़ा लगने लगी एवं उन्होंने स्वयं को उस क्रीड़ा का एक पात्र समझ लिया। धीरे-धीरे जमीन-जायदाद भी नश्वर लगने लगी। तब उन्होंने उसे बंधक बना कुछ कर्जा ले लिया। इसी कर्जे से ईश्वर की अर्चनाएँ हुईं। उनका नाम बढ़ा तथा पुण्य के खाते में बहुत वृद्धि हुई।
परंतु घरवालों को इस कारनामे के परिणाम का पता बाद में चला, जब कर्जा देने वाले ने जमीनों से बेदखल करने की कोशिश की।
घरवालों की स्थिति मालिक से मज़दूर बनने की आ गयी। लम्बी दालान में बैठकर, ढिबरी की रोशनी में, खटिया पर लेटे हुए कई रातें मास्टर साहब की यूँ ही बीत गयी कि आख़िर इस समस्या से निपटा कैसे जाये। इस मुसीबत से निकलते हुए वे उद्यमी हो गये। इस तरह उद्यम एवं परिश्रम का जब मेल हुआ तो सफलता रोशनी की तरह फैली और फ़िर तो एक भी कोना अँधेरा नहीं रह पाया। जिधर प्रयास किया, उधर ही सफल रहे।
रामसजीवन की स्थिति रामकिशुन यानी मास्टर साहब के पिताजी से भिन्न नहीं थी। लगभग वैसी ही ज़मीन की मिल्कियत थी। उन जैसा ही घर था। जाति-बिरादरी भी एक थी। एक फ़र्क़ था कि रामसजीवन के केवल चार बेटे थे, उनकी बेटियाँ नहीं थीं, इसलिए शादी-विवाह में केवल उन्हें मिलना ही था, उन्हें किसी को कुछ देना नहीं था। इससे उनका बोझा खासा हल्का था और जीवन में बेखटक मस्ती थी। खाने-पीने की कोई परेशानी ख़ास नहीं थी। इन परिस्थितियों में उनके किसी बेटे ने भी स्कूल में समय ख़राब नहीं किया और न ही रामसजीवन को कभी यह महसूस हुआ कि उनके बच्चों के पास समय का और कोई बेहतर इस्तेमाल भी है। सभी बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कक्षा 2-3 से ज़्यादा नहीं हुई क्योंकि जब अगले ने नहीं पढ़ाई की तो पिछले को भी बराबर प्रेरणा मिली। इसलिए व्यावहारिक ज्ञान से आगे वे कभी कुछ जान न सके और संकुचित सोच के कारण दूर तक देख न सके।
जैसा रिवाज़ है कि जब बड़े बेटे की शादी होती है उसी दिन से ही गृह कलह तथा बँटवारे का बीज पड़ जाता है, जिसको सभी लोग मिलकर धीरे-धीरे सींचते हैं। दूसरी बहू के आने के बाद तो घर का पहिया जाम ही हो जाता है। इस रिवाज़ का यहाँ पूरा पालन हुआ। 6 हिस्सों में पूरी जायदाद का बँटवारा हो गया। रामसजीवन, बड़े बेटे गिरधारीलाल के साथ गये, क्योंकि बड़ी बहू उनकी सेवा करती थी। उनकी पत्नी तीसरे बेटे मुरारीलाल के साथ चली गयी, क्योंकि उसके घर में कोई लक्ष्मी नहीं थी। सबसे छोटे वंशीलाल, दूसरे नम्बर के भाई किशन लाल के साथ गये, क्योंकि दूसरे नम्बर की बहू अपने सबसे छोटे देवर पर जान छिड़कती थी। कालांतर में यह प्यार का रिश्ता भी नहीं निभा और वंशीलाल भी किशन लाल से काफ़ी झगड़ा, फजीहत करके अलग हो गये। जिसमें वंशीलाल तथा उनकी पत्नी का आरोप आज तक क़ायम है कि किशनलाल की पत्नी ने उनके जेवर, गहने ग़ायब कर दिये हैं। इस तरह से एक घर के कई हिस्से हो गये। किसी के पास आँगन आया तो किसी के पास दालान। किसी के पास जानवरों की आबादी आयी। छप्पर तथा मिट्टी का सहारा लेकर खेतों में वंशीलाल ने घर बना लिया। वे गाँव के लोगों से अलग हो गये।
12 बीघे की खेती बँटकर वंशीलाल के पास केवल 2 बीघे आयी। इधर पिछले साल से उन्होंने रामसरण का भी खेत जोतना-बोना शुरू कर दिया। क्योंकि रामसरण कानपुर में कहीं मिल में काम करता था और मजे में रहता था। उसको खेतों में मरने की क्या ज़रूरत थी। इस तरह बटाईदारी पर उसे 3 बीघे खेत और मिल गया था। तब जाकर किसी तरीके से घर का काम चलता था।
मास्टर साहब के सामने ये सब घटनाएँ घटी हैं, इसलिए उनको रत्ती-रत्ती का हाल मालूम है। इस पूरे परिवार में उनको वंशीलाल से सदैव हमदर्दी रही है, क्योंकि उसके स्वभाव में भी परिश्रम आ गया था। कम उमर में ही जब घर चलाने की जिम्मेदारी आ जाये तो बिगड़ने के सिवाय दूसरा रास्ता बनने का ही है। वंशी ने अभी दो साल पहले खेतों में टपरा डाल लिया। उपाय करके एक भैंस का बच्चा ले आया और टपरे में पाल लिया। उसकी सेवा-टहल कर उसको बड़ा किया। बाद में उसका दूध हलवाइयों को बेचने लगा था। नकद रुपया मिल जाने से बच्चों की दवाई-पाती, लिखाई-पढ़ाई का कुछ ख़र्च निकल आता था।
यही सब बयान करते-करते देर हो गयी। अब अँधेरा भी हो गया था। दोनों व्यक्ति भी बत रस का ख़ूब आनंद ले चुके थे, इसलिए विदा होने को तैयार थे। उनको विदा कर मास्टर साहब भी घर में आ गये तथा कपड़ा उतारकर लुंगी पहनकर हाथ-पैर धोने चले गये।
ठीक दो दिन बाद वंशीलाल फ़िर प्रकट हुए। एक मध्यम नमस्कार करके अपनी साइकिल ठीक से खड़ी करने में व्यस्त हो गये। उनकी वेश-भूषा तो अपने पूर्व रूप में ही थी परंतु मुख पर ज़रूर प्रसन्नता की चमक थी।
आकर कुर्सी खींचकर बैठ गये। प्रार्थना तथा आदरमिश्रित वाणी में बोले-
“भइया, आपका बड़ा उपकार है। आपका सहारा न होता तो मेरी भैंस तो मर ही जाती और फ़िर तो घर का ख़र्चा चलना बंद हो जाता। आपका यह अहसान मैं जिंदगीभर नहीं भूलूँगा।” ऐसा कहते-कहते उनके स्वर भीगने लगे।
मास्टर साहब ने उन्हें सँभालते हुए कहा-
“वंसू, तुम तो मेरे भाई हो। आख़िर भाई ही भाई के लिए नहीं करेगा तो किसके लिए करेगा।”
इसके बाद काफ़ी देर तक वार्तालाप नहीं हुआ। माहौल में शांति रही, परंतु कुछ ग़म्भीर बात होने का आभास बना हुआ था। ऐसा लग रहा था कि कब और कहाँ से शुरू हो, इसका इंतज़ार हो रहा था।
थोड़ी देर बाद ग़म्भीर स्वर में मास्टर साहब बोले- “वंशीलाल, मुझे पूरा विश्वास है कि तुम और आगे बढ़ सकते हो, यदि तुम वैसा करो, जैसा मैं कहता हूँ।”
ऐसा कहते हुए उन्होंने उसकी प्रतिक्रिया जानने के लिए वाक्य को अप्रत्याशित रूप से तोड़ दिया तथा दूर कहीं देखने लगे। वंशीलाल ने तुरंत पकड़ा- “भइया, जैसा आप कहेंगे, मैं वैसा ही करूँगा, परंतु मुझे उबार लीजिये।”
उसके स्वर में सच्चाई की ख़नक तथा आत्मविश्वास था। मँजे हुए जौहरी की तरह, मास्टर साहब ने भी ठीक से पहचानते हुए कहा-
“देखो, वंशीलाल तुम बहुत मेहनती हो, लेकिन तुम्हारी मेहनत में दिशा नहीं है, इसलिए तुम तरक्क़ी की तरफ़ बढ़ नहीं पा रहे हो। दिशा इसलिए नहीं है क्योंकि तुम्हारी सोच-समझ का विकास नहीं हुआ, या यूँ कहें कि क्या करना तथा कैसे करना चाहिए इसकी समझ तुम्हारे पास नहीं है। वह मैं तुम्हें दे दूँगा। एक और बड़ी शर्त है।” एक भारी वज़न रखने के पहले मास्टर साहब उसकी क्षमता का आकलन करने वाली नज़र से उसे देखने लगे। ज़रा आश्वस्त होते ही उन्होंने फ़िर एड़ लगायी- “बड़ी शर्त यह है कि... तुम्हें हर वक़्त सच्चा रहना पड़ेगा। सच्चाई का मतलब अंदर और बाहर दोनों से है। सच्चा तुम्हें मुझसे भी रहना पड़ेगा तथा सच्चा तुम्हें अपने आप से भी रहना पड़ेगा।” बात ठीक-ठीक न समझते देख मास्टर साहब ने थोड़ा और खोला।
“मान लो कि किसी की जेब से 100 रुपये गिरे और तुमने देख लिया, तुम्हें रुपयों की सख्त ज़रूरत है और तुम लाख मुसीबतों में भी हो, परंतु तुम्हारी आत्मा कहेगी कि ये 100 रुपये उसके हैं उसको वापस कर दो। तुम्हारी सच्चाई यही है कि तुम आत्मा की आवाज़ सुनो और उसे वापस कर दो।” वंसू ने समझ आने जैसा सिर हिलाया।
“दूसरा उदाहरण है, मान लो कि कड़ाके की ठंड में अगर तुम्हारे कर्तव्य के अनुसार तुम्हें उठकर भैंस का चारा डालना है तो तुम्हें अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर, रजाई छोड़कर चारा डालने जाना चाहिए, न कि कोई बहाना सोचना चाहिए। मसलन 1 घंटे बाद डाल दूँगा या चारा अभी डाला ही था या एक घण्टे चारा नहीं मिला तो भैंस मर तो नहीं जायेगी इत्यादि-इत्यादि। यही तुम्हारी अपने आप से सच्चाई है। दूसरों से सच्चाई का मतलब तुम बेहतर जानते हो।” बात जब ठीक-ठीक समझ में आती प्रतीत हुई तब मास्टर साहब थोड़ा आश्वस्त हुए। कुछ क्षण रुके और फ़िर पूछा- “भैंस अच्छा दूध दे इसके लिए क्या खिलाते हो?”
वंशीलाल ने जवाब दिया- “पिछले साल चना बहुत बोया था। वही खिला देता हूँ, दरदरा कर। एक दिन में लगभग एक पाव चला जाता है।”
इस पर मास्टर साहब मुस्कराने लगे। उन्होंने कहा- “चना है 50 रुपये किलो तथा पशुचारा जो कि डॉक्टरों द्वारा दूध बढ़ाने के लिए प्रमाणित है, 36 रुपये किलो। तुमने अपना कितना नुक़सान कराया।”
“भइया, चना तो घर में रखा है पर पशुचारा खरीदने के लिए नकद रुपया तो नहीं है और तो और हमें मालूम भी नहीं था।” इस पर वंशीलाल ने तपाक प्रतिक्रिया दी।
मास्टर साहब फ़िर मुस्कराये। उनकी भंगिमा से समझ में आया कि ये तो उन्हें मालूम है। थोड़ा और आश्वस्त होकर बोले- “मैं तुमको 5000 रुपये दूँगा, जिससे तुम एक भैंस और ख़रीद सको।”
ऐसा कहकर वे चुप हो गये। वंशीलाल की तरफ़ टोह लेने की दृष्टि से देखने लगे। वंशीलाल कुछ समझ नहीं पाये कि मुझे 5000 रुपये यूँ ही वे कैसे दे देंगे। अभी तो मैंने 100 रुपये भी वापस नहीं किये। परंतु थोड़ा प्रसन्न भी हुए कि भइया हमारे बारे में कुछ बहुत अच्छा सोच रहे हैं।
मास्टर साहब, वंशीलाल की भावनाओं का अंदाजा लगाते हुए बोले- “रोज रात में चार बजे उठो, भैंसों को खिलाओ, सुबेरे 6 बजे दूध निकालो तथा बिना एक बूँद भी पानी मिलाये हलवाइयों की दुकान पर जाओ। वहाँ दूध बेच आओ। कुछ दिन बाद हलवाइयों में तुम्हारी क्वॉलिटी तथा रोज़ समय पर आ जाने के कारण ज़्यादा रुपया देकर दूध खरीदने की होड़ लग जायेगी। यही काम रोज़ शाम को चार बजे से फ़िर शुरू करना है तथा शाम को अपना पैसा भी लेते हुए आना है।” फ़िर थोड़ी देर के लिए मास्टर साहब रुके। उन्होंने देखा कि इस प्रस्ताव में भारी मेहनत है, परंतु वंशीलाल के चेहरे पर उसको स्वीकारने का भाव है।
फिर आश्वस्त होकर आगे चले- “तुम्हें ये हमेशा ध्यान रखना है कि दूध में पानी एक बूँद नहीं मिलाना है और समय पर रोज़ आना है। नागा किसी भी सूरत में नहीं होना है चाहे जाड़ा, गर्मी या बरसात कुछ हो जाये। वादा करके कभी भी वादा तोड़ना नहीं है।”
सभी बातें ठीक से समझता देखकर फ़िर बोले- “जितना पैसा रोज़ मिलेगा उसमें से एक-तिहाई मेरे घर पर एक बक्से में डालोगे, एक-तिहाई अपने घर पर एक बक्से में डालोगे तथा बाक़ी बचे हुए से भैंसों का चारा, दवाई तथा अन्य ख़र्च चलाओगे। मेरे घर का बक्सा हर महीने तुम्हीं खोलकर मुझे गिनकर पैसा दोगे, इससे तुम्हें यह भी मालूम चलेगा कि तुम्हारे घर के बक्से में कितने पैसे इकट्ठे हो गये हैं। अपने घर का बक्सा तुम केवल साल के अन्त में खोलोगे। इस तरह तुम्हें रोज़ 4-5 लीटर दूध बाज़ार में बेचना है जिससे अगले वर्ष तुम 6-7 लीटर दूध देने वाली दो भैंसें और ख़रीद सको। यदि तुम्हें ऐसा करने की हिम्मत है तो बताओ?”
ऐसा कहकर मास्टर साहब ने ध्यान से वंशी का चेहरा पढ़ने की कोशिश की। वंशीलाल ने बड़ी दृढ़ता से कहा-
“भइया, आप हमारे बारे में इतना सोच रहे हैं। इतना तो हम इस जनम में कभी सोच भी न पाते और देख भी न पाते। लेकिन मेहनत करना मेरे हाथ है और आज मैं आपसे पहला वादा करता हूँ कि मैं पूरी सच्चाई से इसको निभाऊँगा।” उसकी आवाज़ में स्वतः ही एक जोश और ख़नक आ गयी।
रात होते-होते यह तय हो गया कि वंशीलाल कल जाकर कोई ठीक-ठाक भैंस तय कर आयेंगे तथा मास्टर साहब से रुपया लेकर फ़िर कारोबार शुरू करेंगे।
मास्टर साहब ने महसूस किया कि इन 6-7 महीनों में वंशीलाल का पहनावा काफ़ी सुधर गया है। उसकी साइकिल नई हो गयी है तथा उस पर कैन लटकाने के लिए जगह-जगह व्यवस्थाएँ बन गयी हैं। उसके घर की हालत भी सुधरने लगी है। मकान छप्पर से अब खपरैल हो गया। परंतु जो और महसूस किया वह ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था। इतने दिनों में वंशीलाल ने बिना किसी नागा के रोज़ आकर बक्से में कुछ रुपये डाले और हर महीने एक दिन उनको गिनकर मास्टर साहब को दिया।
साल के अंत में जब वंशीलाल का बक्सा खुला तो उसमें से 7215/- रुपये प्राप्त हुए। उसकी जानकारी बड़ी प्रसन्नता से वंशी ने मास्टर साहब को दी। उनके चेहरे पर उसने उपलब्धि और संतोष का भाव देखा। मास्टर साहब अपनी सफलता पर बेहद ख़ुश हुए, उनके शरीर में रक्त का संचार तीव्र हो गया और ऐसा महसूस हुआ जैसे उनके जीवन में युवावस्था वापस आ गयी। उनकी बनायी स्कीम पूरे तरीके से सफल रही। मास्टर साहब ने मिठाई मँगवायी। अपने आस-पड़ोस के व्यक्तियों को खिलाया और गर्वपूर्वक सभी को वंशीलाल की कहानी सुनायी। उन्हें पता था कि इस कार्य का मुख्य श्रेय उन्हीं को जाता है। पर प्रकट रूप में वे श्रेय वंशी को दे रहे थे। उन्होंने जाते-जाते वंशीलाल को पाँच हज़ार काटकर 2215/- रुपये वापस किये।
वंशीलाल ने बहुत मना किया, बहुत कहा कि उनके बहुत अहसान हैं, वह इस जन्म में भी उऋण नहीं होगा, पर मास्टर साहब ने हिदायत दी कि कल ही एक और भैंस लाओ जो कि 6-7 लीटर दूध एक टाइम में दे। इसके लिए तुम्हें 8-9 हज़ार रुपये लगेंगे। इसके बाद 6 महीने में ऐसी ही दूसरी भैंस भी तुम्हें ख़रीदना है। इतना बड़ा मंसूबा लेकर वंशीलाल विदा हो गये। अगले दिन वंशी ने तय कर दूसरी भैंस भी ख़रीद ली।
एक दिन बाद शाम को वंशीलाल जब मास्टर साहब के घर पर आये तो नमस्कार कर बैठ गये। फ़िर बताने लगे- “इस बार की भैंस बड़ी तंदुरुस्त है। 15-20 दिन बाद बच्चा देगी और थन देखकर अनुमान लगता है कि 8-9 लीटर से कम क्या दूध गिरेगा बाल्टी में, बस मालिक उसको ठीक रखें। बाबूजी के कहने पर गिरधारी भैया के बड़े बेटे को अपने साथ लगा लिया है। पर मैंने तय कर दिया है कि इतना काम करना पड़ेगा तभी कुछ रुपये दे पाऊँगा नहीं तो भैया मैं कोई मज़दूर कर लूँगा। गिरधारी भइया भी मान गये हैं।”
मास्टर साहब को और प्रसन्नता हुई कि एक वृक्ष के फलने-फूलने से उसकी सरपरस्ती में अन्य पौधे भी पनपने लगे हैं। उठकर वंशीलाल अंदर गये और तुरंत लौटकर आये। चिंतित से स्वर में बोले- “भइया, वह बक्सा नहीं दिखाई पड़ रहा है?”
मास्टर साहब, वंशीलाल की मंशा समझकर ज़ोर से हँसते हुए बोले- “उसका तो काम ख़त्म हो गया वंसू। अब तो कोई आवश्यकता नहीं।”
वंशीलाल थोड़ा अपनत्व वाली नाराजगी से बोले- “भइया आपने मूल दिया है तो जब तक मूल से रुपया बनता रहेगा, तब तक आप उसके हिस्सेदार रहेंगे, क्योंकि आप से मैंने कर्जा नहीं लिया था कि आप उसकी देनदारी का मुकदमा मुझ पर करते। आपने रुपया मुझे विश्वास पर दिया था जो कि डूब भी सकता था। आप मेरे लिए भगवान समान हैं। आपके आशीर्वाद से मेरी तक़दीर जुड़ी हुई है और ये जुड़ाव का बंधन है, इससे मुझे वंचित मत कीजिए, क्योंकि यदि इससे मैं छूटा तो हो सकता है कि मेरी हालत फ़िर से पहले जैसी हो जाये।” ऐसा कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू आ गये। स्वर क्षीण हो गये तथा गला भारी हो गया।
मास्टर साहब भी इस प्रेम से मुलायम हो गये, उन्होंने उठकर वंशीलाल के कंधे पर हाथ रखा और चुप कराते हुए बोले- “वंसू, ये तुम्हारी महानता है कि तुमने मुझे वह दर्जा दिया है जो कि बड़े-बड़े पीर, फकीरों को मिलता है और फ़िर तुम तो मेरे भाई हो, आज तुम जहाँ तक भी पहुँचे हो, अपनी मेहनत, ईमानदारी से पहुँचे हो और तो और अभी तुम चले हो, आगे कहाँ तक निकलोगे ये तो ज़माना देखेगा।”
उन्होंने वंशी को गले लगा लिया और फ़िर विदा किया। लेकिन जाने के पूर्व वंशी ने बक्सा रखवाकर उसमें रुपया डालना सुनिश्चित किया और यह भी सुनिश्चित किया कि यह बक्सा रोज़ उसके अर्पण के लिए रखा मिले। बक्सा उसके लिए मंदिर की मूर्ति के समान हो गया।
