मेरे रश्के क़मर / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
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मुझे यह देखकर अचरज हुआ था कि यह जांलेवा नग़मा 'बेली डांसर्स ' के बीच बहुत मशहूर हो गया है, और ना केवल इसके बीसियों कवर वर्शन बनाए गए हैं, उनमें से कइयों पर 'बेली डांस' की पेशकश भी की गई है।
तब मुझे ख़याल आया कि कहीं ऐसा तो नहीं कि यारों ने 'रश्क़ - क़मर' को ‘कमर’ समझ लिया हो, और यहाँ से उनके तसव्वुर ने वो उड़ानें भरी हों, जिनमें कमर की लोच से भरे नाच पश्मीने के परदों की तरह लहरा रहे हों ?
तिस पर मैं अर्ज़ करूँ कि बिरादरान, ये ‘कमर' वाला 'कमर' नहीं है, ये ‘क़मर' वाला ‘क़मर' है, जिसमें 'क़' में नुक्ता ।
'क़मर' के मानी हुए - चाँद ।
'रश्क़' के मानी हुए - डाह ।
यानी चाँद को भी जिससे जलन हो, चंद्रमा को भी जिससे डाह हो, ऐसे मेरे मेहबूब, मेरे रश्के क़मर !
किसे मालूम था कि 'रश्क़े - क़मर' 'रक्से - कमर' बन जाएगा, यानी कमर का नाच। बेली डांस।
उर्दू के क़ायदे में ‘बड़ी क़ाफ़' सत्ताइवें नंबर का हरूफ़ है और 'छोटी काफ़’ अट्ठाइसवें नंबर का। 'बड़ी क़ाफ़', वो जिसमें नुक्ता लगता है और छोटी वह, जिसके डौल से नुक़्ते का चाँद ग़ैरहाज़िर है।
'छोटी काफ़' आप मान लीजिए, बस 'कामचलाऊ' ही है, लेकिन क़सम ख़ुदा की, क़यामत तो 'बड़ी क़ाफ़' ही है
बहरहाल, बहरकैफ़।
'क़मर' यानी कमर नहीं, 'क़मर' यानी चाँद ।
शायर ने अपना नाम ‘क़मर जलालाबादी' चाँद की इल्तिजा में ही रक्खा था, कमर मटकाने के लिए नहीं ।
‘क़मर’ उनका तख़ल्लुस था । जलालबाद उनका हाल- मुक़ाम । यों वे हिंदू घर में जन्मे थे, और उनका असल नाम ओमप्रकाश भंडारी था । ये बात दीगर है कि ओमप्रकाश भंडारी नाम से आप चुनाव ज़रूर लड़ सकते हैं, शायरी नहीं कर सकते। शायरी में ताब तभी आएगी, जब शायर का नाम 'क़मर जलालाबादी' जैसा कुछ होगा। चंद रवायतों को हमें हमेशा मानना चाहिए और अदब की रवायतें उनमें अव्वल हैं।
ख़ैर। उर्दू में चाँद को ‘क़मर' कहते हैं। उर्दू में चाँद को 'माहताब ' भी कहते हैं। यह तआरुफ़ 'चाँद - माह' के नाम पर बना है । इसी से 'माहज़बीं' लफ़्ज़ निकला है, वो जिसका चेहरा चाँद जैसा हो। इसी से 'माहपारा' नाम निकला है, वो जो चाँद के टुकड़े जैसा हो । पूनम का चाँद 'बद्र' कहलाता है । दूज का चाँद 'हिलाल' । उर्दू शायरों की जुबान है। ये मुमकिन नहीं था कि चाँद को बारह नामों से पुकारे बिना वे गुजर-बसर कर पाते ।
'मेरे रश्के क़मर' : यह गीत सबसे पहले नुसरत फ़तह अली ख़ां साहब ने आज से पूरे तीस साल पहले सन् अठासी में गाया था । समंदर का किनारा बहोत प्यासा होता है, क्योंकि लहरें उसे बार-बार छूकर लौट जाती हैं।
लेकिन, नमक की जरी वाला समंदर का किनारा भी प्यास से उतना उधड़ा हुआ नहीं होता, जितनी ख़राशें नुसरत साहब की आवाज़ में हैं । कि इस आदमी का दिल दरारों से भरा हुआ है । जिंदगी लंबे वक्त तक उस पर मेहरबां हरगिज़ नहीं रह सकती थी। वैसा ही हुआ भी ।
बाद उनके फिर इसे राहत ने गाया । बॉलीवुड की एक फ़िल्म में बीते सालों में इसे इस्तेमाल किया गया, जहाँ से इसका इक़बाल और बुलंद हुआ। करोड़ों कानों तक यह गाना पहुँचा, लाखों ने इसे अपनी तरह से देखा और समझा, हज़ारों ने इसे नए सिर से गाया, सैकड़ों ने इस पर नाच किया। यह गाना नाच के लिए यों बना नहीं था, लेकिन अगर्चे इस पर नाचें तो कोई हर्ज़ भी नहीं, यह उन नाच को देखकर आप समझ सकते हैं । के इस गाने के भीतर रक्स के बारहा तौर हमेशा से ही जैसे निहाँ थे I
अब जाकर हम यह क़बूल करें कि ऐसा नहीं है कि इस गाने में 'रक्स शक़' यानी 'बेली डांस' के लिए गुंजाइश नहीं थी । दरअसल, इसकी लय में 'रक्स शक़' के लिए बहोत गुंजाइश थी, इसीलिए ये दरिया उस सिम्त बह निकला, जहाँ अनेकानेक फ़नकारों ने इस पर 'कमरनाच' किया । 'क़मर' से 'कमर' तक का सफ़र इस तरह मुक़म्मल हो ही गया ।
नुसरत ने गाया है, तेवर में सूफ़ियाना है, इसके बावजूद ये ‘इश्क़-मज़ाजी’ का गाना है, यानी लौकिक चाहना की अभिव्यक्ति । ये 'इश्क़ हक़ीक़ी' नहीं है । और ‘इश्क़-मज़ाजी' भी वैसी माशूक़ा के लिए, जो बला की हसीन हो । माहताब हो, माहपारा हो, चाँद को जिससे रश्क़ हो ।
रबाब और नफ़ीरी की हज़ारहा ऐंठनों से भरा गाना, जो हमें अरबी रातों की दास्तानगोई में ले जाता है ।
'रेत ही रेत थी, मेरे दिल में भरी ... '
वाह, माशाअल्ला !
यह सतर पढ़ते ही जैसे दिल अरब के दश्त- सेहरा का हिरन हुआ जाता है, प्यास से तड़फता हुआ, ‘आबे - सराब' (मरीचिका) में भटकता हुआ, और मरने से पहले एक नग्मा गाता हुआ, ऐन यही नग्मा -
‘रेत ही रेत थी, मेरे दिल में भरी
प्यास ही प्यास थी, ज़िंदगी ये मेरी
आज सेहराओं में, इश्क के गाँव में
बारिशें घिर के आईं, मज़ा आ गया ।'
जैसे तराना नहीं गाया हो, मियाँ की मल्हार गाई हो, और गाने की ताब से रेगिस्तानों में यों बारिश हो जाए कि मरता हुए आशिक़ कलेजा मसलकर कह उट्ठे-
'मज़ा आ गया !'
‘मज़ा आ गया’, ये इस गाने की टेक है, निरे सुखवाद का दोहन करते हुए सुख का गरल पीने को व्याकुल ।
गोया-
‘तिश्नगी की तो कोई ताब नहीं,
ज़ेहर दे दे अगर शराब नहीं?'
ये शराब की तरह ज़ेहन पर तारी होने वाला गाना है । इसमें बला की मसर्रत है, कमाल का लुत्फ़ है, कि दिल इससे कभी भरता नहीं ।
धूप जिसकी नंगी पीठ पर चाहना का चित्र रचती है, वैसी दोशीज़ा की प्यास मन में जगाता हुआ। ये कामना का राग है, ये प्यास का भित्तिचित्र है !
हमें इस गाने को बारंबार गुनगुनाना चाहिए, और सही तलफ़्फ़ज़ के साथ गुनगुनाना चाहिए, 'क़मर ' को ' क़मर' ही बोलते हुए, हलक़ के भीतर से, 'बड़ी क़ाफ़' के क़ायदे में ।
मेरा मानना है कि इंसान का ज़ेहन साफ़ होना चाहिए, और उसके बाद उसकी जुबान साफ़ होनी चाहिए । दिल में थोड़ी बेईमानी हो तो चलेगी, के दिल भी अगर साफ़ हो गया तो हम दुनिया - आलम के रेगिस्तान में खेत ना रहेंगे !
बेईमानी दिल का मज़हब है !
'ऐसे लहरा के तू, रूबरू आ गई धड़कनें बेतहाशा, तड़पने लगीं
तीर ऐसा लगा, दर्द ऐसा जगा
चोट दिल पे वो खाई,
मज़ा आ गया!
मेरे रश्के क़मर...
सच में, मज़ा आ गया !
आफ़रीन, आफ़रीन...