मेरे हिस्से का (सर) दर्द / सुशील यादव

Gadya Kosh से
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इस मायावी संसार में जो आया है वो अपना–अपना सर और अपना–अपना दर्द ले के आया है। कई लोग अपवाद के तौर पर पैदा हो जाते हैं। पैदा होते तो पूरे पुर्जे के साथ हैं मगर किसी-किसी का पुर्जा, काम के बोझ से,या हैसियत से कहीं ज्यादा मिल जाने पर अनाप-शनाप काम करने लगता है।

मेरे एक साहब हुआ करते थे, पता नही अब हैं या नहीं, अगर कहीं जिन्दा हैं तो भगवान से उनके लिए सदबुद्धि मांग कर उनके घर –परिवार का सरदर्द बढ़ाना नहीं चाहता।

अजब खब्ती किस्म के सरके हुए से थे। उनसे एक कागज पर दस्तखत कराना मानो एक जंग जीतने के बराबर था। अपने को अंगरेजी में शेक्सपियर के बाद का संस्करण मानते थे।

अनुसंधान वाली किसी भी फाइल पर, छापा मार कर आए अफसरों को वो अनाप-शनाप सवाल पूछते थे कि पहले ही लाख प्रिपेयर हो के आए रहे हो, बिखर जाते थे। सर झुकाए अफसरों को वो, शर्लाक्स होम्स, और जेम्स हेडली चेईज की तरह, बात की जड में, घुसने की हिदायत दे कर, ऐसी झिडकी पिलाते थे कि दुबारा केस बुक करने के बारे में सोचे। कभी तुरंत अपने ड्रोवर से एक कोरी फाइल निकाल कर, अफसर के खिलाप, अफसर के सामने, तहकीकात में खामी गिनाते खोल देते थे। अनुँसंधान दल की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी। ये दीगर बात थी कि उन्ही खामियों की आड में वे ‘पार्टी’ का शिकार कर लेते थे।

किसी की औकात नही थी कि, वो अपने तजुर्बे, अपने बल-बूते पर कुछ काम कर लें,या ‘सर’ के अति पर, उपर फरियादी बनकर खड़े हो जाएँ। बाद में वे चार-छह दफ्तर के चाटुकार अफसर और लेडी-स्टेनो से घिर कर यूँ हाँकते थे, देखा कैसे हडकाया?

सब खींसे निपोर कर हिनहिनाते थे।

साहब के गुड-बुक्स में रहने का सबसे आसान सा तरीका होता है इन चाटुकारों की तरह हिनहिनाना।

तंग करने में वे माहिर इतने थे कि अगले को रुला के दम लें। आपके ब्रांच से टाइपिस्ट,कंप्यूटर-आपरेटर को हटा कर, आपको, पांच सालो का डाटा मांग लेना,ब्रीफ लिखे हो तो थीसिस मांग लेना, थीसिस लिख ले जाओ तो कहें, क्या समझते हो? उपर वाला कोई इतना पढ़ने के फुरसत में बैठा है। छोटा करो, छोटा करो।

वे अपने गोपनीय ब्रांच को, शस्त्रागार समझने में कभी भूल नहीं किए। चार की जगह आठ लोग बिठा रखे थे। छुट्टियों में बुला कर, प्रचारित करते थे कि फलां-फलां की फाइल रंगी जा रही है|स्टाफ की नाक में दम कर रखा था। स्टेनगन की जद में कौन कब आ जाए कहा नहीं जा सकता था।

ऐसो के खिलाफ़ कौन उठे?

स्टाफ, गंडे-ताबीज बंधवाता, मिन्नत–मनौती माँगता। उसके ट्रांसफर हो जाने पर भगवान को प्रसाद बदता। आठ घंटे की सरकारी नौकरी के लिए चौबीसों घंटे का बोझ लिए फिरता। दफ्तर टाइम पे पहुचता। बिना सी. एल. के कोई गायब नहीं रहता। लेडी-स्टाफ को देख के सर झुका लेता। कोई राजनैतिक बहस नही होती थी। बाबू –अफसर, क्लाइन्ट का काम बिना किसी उम्मीद के निपटा रहे थे। क्रिकेट में इंडिया पिटे या पीट दे सब भावना शून्य से हो गर थे। वे ट्रांसफर एप्लीकेशंस लिख ले जाते मगर देने की हिम्मत न जुटा पाते। एक किस्म की इमरजेंसी लद गया था दफ्तर में।

माहौल से नाराज अफसरों का एक विद्रोही दल, आजादी की जंग वाले अभियान की तरह छुपे-छुपे एकजुट होने लगे। वे एहतियात भी बरत रखते कि कोई भेदिया न घुस पाए नहीं तो लेने के देने पड जाए।

शुरू-शुरू में एनानिमस कम्प्लेंट करके, एक-दूसरे को तसल्ली देते रहे। ‘बोर्ड’ में माहौल बनाने का काम जारी था कि पता चला किसी दूसरी जगह के किसी बदनीयती के लफड़े में साहब को सस्पेंड कर दिया है।

दफ्तर का बहुत बड़ा ‘सर’ अब स्वयं दर्द के हवाले हो गया जानकार, दफ्तर में मिठाई बंट गई।

मेरे सर से भी रोज उठने वाला दर्द जाता रहा।