मैंने इतना लिखा है, पर …: रांगेय राघव / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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मैंने इतना लिखा है, पर मेरी तूती नहीं बोलती: रांगेय राघव

हिन्दुस्तानी अकादेमी पुरस्कार (1947) , डालमिया पुरस्कार (1954) , उत्तरप्रदेश शासन पुरस्कार (1957 व 1959) , राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961) तथा, मरणोपरान्त, महात्मा गांधी पुरस्कार (1966) से सम्मानित, बहुमुखी प्रतिभा के धनी, समर्पित साहित्यसेवी और विलक्षण शब्द-साधक रांगेय राघव को, उनके शताब्दी-वर्ष में, श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए बहुत-अच्छा लग रहा है, क्योंकि हिन्दी में उनके लेखन का मूल्यांकन तो दूर, ठीक से नोटिस भी नहीं लिया गया है। आइए, कुछ कड़वी-मीठी सच्चाइयाँ जानने का प्रयास करें।

रांगेय राघव (तिरुमल्लै नंबाकम वीर राघवाचार्य) का जन्म 17 जनवरी, 1923 ई. को आगरा (उत्तरप्रदेश) में हुआ। आपकी सम्पूर्ण शिक्षा-दीक्षा भी आगरा में ही सम्पन्न हुई। आपने, प्रोफ़ेसर हरिहरनाथ टंडन के सुयोग्य निर्देशन में, 'भारतीय मध्यकाल का नमन: गोरखनाथ' (1949) पर पीएच.डी. की उपाधि अर्जित करके, नाथ-साहित्य के विशेषज्ञ के रूप में, अखिल-भारतीय प्रतिष्ठा प्राप्त की। रांगेय राघव के लेखकीय व्यक्तित्व का निर्माण, मात्र तेरह वर्ष की किशोर आयु में, चित्रकला से हुआ और चित्रों से ही कविता शुरू हुई; फलतः 1938 ई. में पहली कविता कोलकाता के साप्ताहिक 'विश्वामित्र' में प्रकाशित हुई। उन्हीं दिनों लिखी गयी 'मेनका' सरीखी लम्बी कविता ने भी खूब वाह-वाही लूटी। स्नातक कक्षा के अन्तिम वर्ष (1946) में लिखित 'घरौंदा' आपका प्रथम मौलिक उपन्यास है। देखते-ही-देखते 'विशाल भारत' के मुखपृष्ठ पर अपनी कविताओं के धारावाहिक प्रकाशन से वे तत्कालीन प्रगतिवादी कवियों की अग्रिम पंक्ति में आ गए। यों उनकी अन्तिम रचना एक कविता ही थी, जो उन्होंने मुम्बई में एक पुर्जे़ पर लिखी थी। आगे चलकर जब 'हंस' में उनके रिपोर्ताज़ और कहानियाँ निरन्तर छपने लगे, तो वे एक सशक्त गद्य-लेखक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। आश्चर्यजनक सच्चाई यह है कि उनके लेखन-कर्म का शुभारंभ और समापन कविता से हुआ, लेकिन उन्हें प्रतिष्ठा गद्य से ही मिली।

रांगेय राघव का निधन 12 सितम्बर, 1962 ई. को, ब्लड-कैंसर के कारण, मुम्बई में हुआ। मूलतः तमिलभाषी रांगेय राघव, तमिल सहित, संस्कृत, ब्रज, हिन्दी, तेलुगु और अंगरेज़ी भाषा-साहित्य के ज्ञाता थे। उन्होंने मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में 150 से अधिक विविध-विधात्मक ग्रंथों की रचना की, जिनमें 08 काव्य-संग्रह, 11 कहानी-संग्रह, 42 उपन्यास, 05 नाटक, 12 समीक्षा-ग्रन्थ, 04 इतिहास-ग्रन्थ, 06 समाजशास्त्रीय ग्रन्थ और 50 अनुवाद-कृतियाँ सम्मिलित हैं। सन् 1942 में वे पत्रकारिता से भी जुड़े और आगरा से प्रकाशित 'संदेश' में पत्रकार की भूमिका का सफल निर्वहन किया। सन् 1946 में उन्होंने अपनी एक साहित्यिक पत्रिका 'निर्माण' भी शुरू की, जिसका पहला अंक ही अन्तिम सिद्ध हुआ। वित्तीय दबाव की त्वरा में 'स्टोरीज़ फ्रॉम शेक्सपीअर' जैसे रद्दी अनुवाद भी रांगेय राघव के खाते में दर्ज़ हैं। इस प्रकार, निस्संदेह, उनका विपुल साहित्य उनकी अभूतपूर्व लेखन-क्षमता को दर्शाता है। कहा जाता था कि 'रांगेय राघव रोज़ सुबह आधा सेर कागज़ तौलकर बैठ जाते हैं कि आज तो इन्हें रंगकर ही मानूँगा।' माना यह भी जाता रहा है कि 'जितने समय में कोई एक किताब पढ़ता है, उतने में वे एक किताब लिख देते हैं।' स्थिति जो भी रही हो, इतना तो तय है कि प्रेमचन्दोत्तर कथाकारों की परम्परा में, अपनी रचनात्मक विशिष्टता, सृजन-विविधता और संख्या-विपुलता के कारण वे हमेशा स्मरणीय रहेंगे। इसी संदर्भ में मुझे प्रोफ़ेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी का यह कथन भी वज़नदार लगता है- "रांगेय राघव का मूल्यांकन बेहद मुश्किल काम है। उनके आलोचनात्मक और रचनात्मक साहित्य का कैनवास बहुत-बड़ा है। प्राचीनकाल से लेकर आधुनिककाल के तकरीबन सभी प्रमुख विषयों पर उन्होंने लिखा है। ज्ञान पाने और उसे विश्लेषित करने की जो भूख रांगेय राघव में है, वह उनके व्यक्तित्व को रैनेसांकालीन महानायकत्व देती है। पुराने या खोए हुए को मुकम्मल पाने की चाह के जोखिम ने उन्हें बुद्धिजीवी बना दिया।"

रांगेय राघव का 'वर्ग' सम्बन्धी चिन्तन और वर्णवादी व्यवस्था के प्रति रोष, उनके साहित्य एवं जीवन-दर्शन का, स्थायी भाव है। उनका यह जीवन-ध्येय, विशेष रूप से, उनके बहुचर्चित समीक्षा-ग्रन्थ 'प्रगतिशील साहित्य के मानदण्ड' में पूरी तरह स्पष्ट होता है। उनके समस्त रचनात्मक साहित्य-चाहे वे कहानियाँ हों या उपन्यास अथवा काव्य-का प्राणतत्त्व एक ही है-भारतीय समाज के अवशिष्ट समझे जाने वाले मानव-समूहों के प्रति संवेदना और समतावादी समाज के निर्माण का स्वप्न। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि रांगेय राघव की वैचारिक पक्षधरता शोषित-पीड़ित जनता के साथ तो है ही, मगर वे उसके दुःख-दर्द और उत्कट जीवनाभिलाषा के साथ-साथ, उसके अन्तर्विरोधों, रूढ़िगत संस्कारों और अतिवादी रुझानों का चित्रण करते हुए, उसके वास्तविक स्वरूप को उजागर करने का प्रयास भी करते हैं। इस प्रकार, उन्होंने जीवन के वैविध्य को साहित्य की विविधता के साथ जोड़कर प्रगतिशील मोर्चे को और-अधिक व्यापक स्वरूप प्रदान किया है।

रांगेय राघव घोषित-स्थापित मार्क्सवादी साहित्यकार हैं, भले ही उन्होंने बार-बार यह स्पष्टीकरण दिया हो - "मैंने न तो प्रयोगवाद और प्रगतिवाद का आश्रय लिया और न ही प्रगतिवाद के चोले में अपने को यांत्रिक बनाया।"

"परदेशी का राज न हो, बस यही एक हुँकार रहे" के उद्घोषक रांगेय राघव उन प्रगतिवादी कवियों में सदैव जीवित रहेंगे, जिन्होंने आक्रोश, व्यथा एवं कुण्ठा के शत-शत जनवादी स्वरों से हिन्दी-कविता के आनन को नूतन क्रान्ति-ज्योति से जाज्वल्यमान किया है। दो-चार उदाहरण द्रष्टव्य हैं-

एक दिन मानव का श्रम श्वास / मिटा होगा यह पाप

महान् / विश्व होगा केवल सुख स्थान / एक घर-सी होगी

यह भूमि / और भौतिक के दुःख कर चूर / बनायेंगे मानव

वह पंथ / जहाँ शोषण का रहे न नाम / जहाँ का सत्य

वास्तविक सत्य / जहाँ स्वातंत्र्य, साम्य, सुख, शान्ति /

करेंगे निशि-दिन नृत्य। ( 'मेधावी' )

XXX

सैंकड़ों बरसों रहा जो / वर्ग वाला सूर्य शोषक / आज

निष्प्रभ मलिन ठण्डा / गिर रहा है भग्न रोता। ...

एक ऐसी राह / हाथ फैलाकर न कोई / मान

बेचेगा जहाँ पर / रोटियों का दास बनकर / मर न

पाए जन जहाँ पर। ('और लोहा')

XX

शक्ति लग आहत पड़ा है आज भारत / रो रहा है

राम सत्यों का प्रदर्शक / भूल मत संजीवनी है आज

जनता / रावणों का ध्वंस ही है लक्ष्य प्रेरक। ( 'सेतुबंध' )

XXX

रक्त है कुछ-कुछ छलक आया गगन में / जागरण की लोर-

सी जागी विजन में / रात-भर दीपक जला व बुझ रहा है /

खून से भीगा हुआ सिर उठ रहा है। ( 'सूर्योदय' )

XXX

होगी इस मानवता की जय।

अन्तिम असाम्य की होगी क्षय॥ ( 'सुमेरु' )

रांगेय राघव को कहानीकार के रूप में ख्याति दिलाने वाली कहानियों में 'गदल' , 'प्रवासी' , 'देवदासी' , 'अनुवर्तिनी' , 'कार्तिकेय' , 'मृगतृष्णा' , 'पंच परमेश्वर' , 'तवेले का धुँधलका' और 'पर्तों की पीड़ा' आदि उल्लेखनीय हैं। यों उनकी उत्तमोत्तम कहानी 'गदल' मानी गयी है, लेकिन रांगेय राघव यह नहीं मानते। उनका तो यही कहना था - "गदल पढ़ी गई है, अन्य कहानियाँ पढ़ी नहीं गईं।" अपनी 'प्रवासी' कहानी के आत्म-वक्तव्य में तो उन्होंने अध्यापकों, आलोचकों और उनकी मिडियॉकर-वृत्ति तथा अल्प-अध्ययन की निन्दा करते हुए अपना आक्रोश तक व्यक्त किया है। समकालीनता के प्रखर पारखी रांगेय राघव की कहानियों को पढ़ते समय हम एक-ऐसे समाज से परिचित होते हैं, जो जाति, जातिगत अहंकार, शोषण, घृणित-दूषित-रूढ़िवादी परम्पराओं, भ्रष्टाचार, स्त्री के प्रति अत्याचारों, पुरुष-प्रधान मानसिकता और धार्मिक पूर्वाग्रह से ग्रसित है। इस समाज में आम आदमी की परेशानियाँ हैं और उन परेशानियों के मूल में सामन्ती व्यवस्था है, जिसके सूत्र सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में विद्यमान हैं। कहानीकार ने विशेषकर शोषित और वंचित आम आदमी के वास्तविक दुःखों को रेखांकित करके अपने उन मानवीय सरोकारों का परिचय दिया है, जो आम आदमी में जीने की तीव्रेच्छा उत्पन्न करते हैं तथा दरपेश चुनौतियों का सामना करने का नैतिक साहस प्रदान करते हैं। भले ही ये कहानियाँ सामाजिक बदलाव का दावा नहीं करतीं, परन्तु इनमें ऐसा करने की तीव्र आकांक्षा अवश्य विद्यमान है।

वास्तविक अथवा तथाकथित साम्प्रदायिकता और वास्तविक तथा अत्यधिक कामुकता के बावजू़द हिन्दी के अग्रणी उपन्यासकारों में रांगेय राघव का ऐतिहासिक महत्त्व है। 'घरौंदा' से लेकर अन्तिम उपन्यास 'आखिरी आवाज़' तक की यात्रा में उनके 'कब तक पुकारूँ' ('अधूरा किला') ने अपना अजर-अमर स्थान बना लिया है। इसमें पूर्वी-राजस्थान के विशेष-आदिवासी वर्ग-करनट समुदाय-के जरायमपेशायुक्त खानाबदोशी जीवन-यापन और संघर्षगाथा का मुँहबोलता चित्रण किया गया है। करतब-कला और खेल-तमाशा दिखाकर भीख माँगना तथा नटनियों द्वारा नाच-गाकर खुले-खिले रूप में यौन सम्बन्धों को निमंत्रण देना और वेश्यावृत्ति के माध्यम से दर्शकों को यौन-संतुष्टि देकर अपनी आजीविका में वृद्धि करना इस वर्ग की मान्य परम्परा रही है। उनकी युवा लड़कियाँ प्रायः ठाकुरों के पास जाया करती हैं-कहीं-कहीं मजबूरी में भी ऐसा करना पड़ता है। बकौल रांगेय राघव, "मैंने इनकी नैतिकता को समाज का आदर्श बनाकर प्रस्तुत नहीं किया है, बल्कि पाठकों को इसे सेक्स की ऐसी जानकारी के रूप में हासिल करना चाहिए कि यह इनमें होता है। यह सारा खानाबदोश समाज घोर उत्पीड़ित है, शोषित है।" यद्यपि रांगेय राघव ने इतिहास पर 'वाद' थोपने का 'पाप' किया है, तथापि, 'कब तक पुकारूँ' के बाद, 'मुर्दों का टीला' उनका दूसरा महत्त्वपूर्ण एवं चर्चित उपन्यास है, जो मोहन-जो-दड़ो की प्रागैतिहासिक सभ्यता-संस्कृति पर आधारित है।

रांगेय राघव द्वारा प्रणीत 'तूफ़ानों के बीच' नामक 'तात्कालिकी' (रिपोर्ताज़) ने भी विद्वानों को आकर्षित किया है। यह रचना 1942 में बंगाल में पड़े ऐतिहासिक अकाल की रोमांचकारी त्रासदी पर आधारित है। ध्यातव्य है कि इस रचना का शीर्षक भ्रामक है, क्योंकि यह 'तात्कालिकी' की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। इसका कारण यह है कि यह उन्हीं दिनों नहीं लिखी गई, बल्कि एक वर्ष पश्चात्, स्मृति-कथनों के दुर्बल आधार पर, रची गई है। यह 'घटनावली' वस्तुवाद की दृष्टि से भी स्तरीय नहीं है, क्योंकि इसमें लेखक का साम्यवादी पूर्वाग्रह आद्यंत व्याप्त है।

इतना लिखने के बाद भी रांगेय राघव की तूती क्यों नहीं बोली? इसके लिए आपका ध्यान इन टिप्पणियों की ओर आकृष्ट करना चाहूँगा-

'जब परकीयतावादी एवं हिन्दीघाती मार्क्सवादी धड़ा रोमन लिपि में लिखित हिन्दुस्तानी या उर्दू को राष्ट्रभाषा-राजभाषा बनाना चाहता था, तब राहुल सांकृत्यायन, यशपाल और रांगेय राघव ने उसका भरपूर विरोध किया था। फलस्वरूप उन्हें पार्टी से निष्कासन का दण्ड भोगना पड़ा था।' (रामप्रसाद मिश्र)

'रामविलास शर्मा ने जिन लोगों पर अत्यंत विध्वंसात्मक लिखा है, उनमें रांगेय राघव भी सम्मिलित हैं। रांगेय राघव इससे आहत थे और दोनों एक-दूसरे से बचते थे।' (समीरकुमार पाठक) यहाँ परदे का अपर पार्श्व यह भी है कि 'रांगेय राघव का आलोचकों के प्रति रवैया बड़ा निर्मम रहा। वे किसी भी चुनौती को अहम् के धरातल पर स्वीकारते थे। यही कारण है कि रामविलास शर्मा के साथ बहुत दिनों तक उनका पत्र-व्यवहार चलता रहा, कटुतापूर्ण रिश्ता बना रहा।' (रामकली सर्राफ)

"रांगेय राघव ने ऐसा बहुत-कुछ लिखा, जो सारवान था और अनदेखा रह गया। ... रांगेय राघव ने मार्क्सवाद से अपना सम्बन्ध कभी न तोड़ते हुए खुलकर वह-सब कहा, जो वे कहना चाहते थे। मुश्किल यह है कि वे आधुनिकतावादियों को ही नहीं, माक्र्सवादी बुद्धिजीवियों को भी आम तौर पर नहीं रुचे।" (शंभुनाथ)

"रांगेय राघव बड़ी मात्रा में लिखने के बाद भी उपेक्षित रहे। उन्हें हाशिये पर धकेल दिया गया।" (कुँवरपाल सिंह / नमितासिंह)

"हिन्दी में और शायद अन्य भाषाओं में भी, रचनाकारों का अवमूल्यन और अतिमूल्यन बड़े पैमाने पर हुआ है। इसका एक प्रमाण तो रांगेय राघव ही हैं।" (सत्यप्रकाश मिश्र)

"मेरे साहित्य की आज भले चर्चा नहीं होती, मुझे उसकी परवाह नहीं है। मैंने तो आने वाले समय / युग के लिए लिखा है।" (डॉ. सुलोचना रांगेय राघव, रांगेय राघव: एक अंतरंग परिचय, पृ। 43) "मैं (तो) चिर जीवन का प्रतीक हूँ।"

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