मैं कासे कहूँ / डॉ. रंजना जायसवाल

Gadya Kosh से
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सर्द गुलाबी सुबह... बगीचे में पड़ी लकड़ी की बेंच और उस पर नटखट-सा लुका-छिपी खेलता धूप का एक टुकड़ा। मखमली हरी दूब में मोती-सा चमकता, लरजता ओस का एक कतरा... ऐसा लगा मानो ओस को अपने माथे पर मुकुट-सा सजाएँ वह दंभ से इठला रहा हो...पर शायद वह यह नहीं जानता था कि उसका यह दम्भ क्षण भर का है। धूप का वह टुकड़ा...जी हाँ वह धूप का वही टुकड़ा जो अब तक लकड़ी के बेंच पर अपने पाँव पसार चुका था अपने आगोश में धीरे-धीरे उसे भर लेगा और वह धीरे-धीरे पिघल कर धुंवा बन कर अस्तित्व हीन हो जायेगा। जाड़े के दिन... इंसान हो या पँछी सब को कितना लालची बना देता है... एक धूप का टुकड़ा। गुप्ता जी भी उस धूप के टुकड़े के लालच में सीढ़ियों पर बैठ गए।

मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे घण्टों हो गए थे...उनकी पत्नी सुषमा बड़े धर्म-कर्म वाली थी। रिटायरमेंट के बाद से गुप्ता जी अपनी पत्नी सुषमा के साथ रोज ही आते थे। जब तक सुषमा जिंदा थी तब तक तो ठीक था पर उसके जाने के बाद वह एकदम अकेले से हो गए थे। इस अकेलेपन में ये मंदिर ही उनका सहारा रह गया था... कॉलोनी के नुक्कड़ पर ही था। पंद्रह साल पहले की बात है, रातों-रात किसी ने एक छोटी-सी मूर्ति स्थापित कर दी और देखते-देखते इन पंद्रह सालों में भव्य मंदिर खड़ा हो गया। शुरू-शुरू में तो सिर्फ कान्हा जी की ही मूर्ति थी पर चंदा इकट्ठा कर-कर करके धीरे-धीरे आस-पास की जमीन भी कब्जा कर ली, वो भला मानुष कितना छटपटाया था...पुलिस-दरोगा सबके कितने हाथ-पैर जोड़े थे पर जीवन भर की पूंजी धर्म के नाम पर हाथ से सरक गई।

" टन्न! ...घण्टी की आवाज से गुप्ता जी अपनी सोच के दायरे से बाहर निकल आये।

"यहाँ क्यों बैठे है गुप्ता जी घर नहीं चलना है क्या...?"

"जी भाभी चलिए चलते है। थक गया था ...सोचा थोड़ा धूप सेंक लूँ।" शुक्ला भाभी जी गुप्ता जी के घर से चार घर आगे रहती थी। सुषमा के साथ रोज का उठना-बैठना था। सुषमा, गुप्ता जी और शुक्ला भाभी एक साथ ही मंदिर आते थे, सुषमा तो अब नहीं रही पर गुप्ता जी का मंदिर जाना नहीं छूटा। शुक्ला भाभी कभी सड़क पर तो कभी मंदिर में गुप्ता जी से टकरा ही जाती थी।

"भाईसाहब! ...परसों माता का शृंगार है, जरूर आयेगा बड़ा स्वादिष्ट प्रसाद मिलता है।"

प्रसाद के नाम पर शुक्ला भाभी जी के चेहरे पर एक निश्छल मुस्कान बिखर गई जैसे एक छोटे से बच्चे को उसका मनचाहा खिलौना मिल गया हो, कुछ ऐसी ही खुशी शुक्ला भाभी जी के चेहरे पर थी। आज सुबह ही मंदिर जाने के नाम पर गुप्ता जी की बहू-बेटे ने कितना बवाल मचाया था। गुप्ता जी स्नान-ध्यान के बाद मंदिर जाने को तैयार ही हो रहे थे। तभी पीछे से उनके बेटे गगन ने आवाज दी

"पापा! ...इतनी सुबह-सुबह कहाँ चल दिये।"

"बस मन्दिर तक जा रहा हूँ, घर में बैठे-बैठे ठंड में शरीर अकड़ जाता है, मोर्निंग वॉक भी बन्द है। इसी बहाने थोड़ा चलना-फिरना भी हो जाता है।"

"क्या पापा आप भी न, यही गैलरी में टहल लिया करिए न...क्या जरूरत है मंदिर-वन्दिर जाने की।"

पता नहीं गगन आज इतना चिड़-चिड़ा क्यों हो रहा था।

"रिया बता रही थी आपका पेट ठीक नहीं रह रहा, आप न...क्या जरूरत है भण्डारे में खाने की। पता नहीं कैसे-कैसे बनता है, रिया बता रही थी आप हलुवा लेकर आये थे उसके लिए...मैंने भी खाया था कितना घी चू रहा था।"

गुप्ता जी कहना चाहते थे कि वह भंडारे में कभी नहीं खाते अल्बत्ते उन लोगों के लिए ही प्रसाद ले आते है कि उन्हें भी भगवान का आशीर्वाद मिल जाये पर गुप्ता जी समझ गए थे गगन को समझाने से कोई फायदा नहीं... रिया उन्हें पहले ही काफी कुछ समझा चुकी थी। गुप्ता जी चलने को हुए तब तक एक और बम फूटा,

"पापा! ...एक बात कहनी थी, प्लीज़ आप बुरा मत मानियेगा। जब तक मम्मी जिंदा थी तब तक तो ठीक था पर अब शुक्ला आँटी के साथ आपका मंदिर जाना...आप समझ रहे है न मैं ...मैं क्या कहना चाहता हूँ। लोग पता नहीं क्या-क्या बात बनाते है अच्छा नहीं लगता।"

गुप्ता जी के पैरों तले जमीन खिसक गई, इस उम्र में इतना बड़ा आरोप,

"गगन! ...दुनिया की छोड़ो पर अपनी तो बुद्धि है। इस उम्र में अपने पिता पर इतना बड़ा कलंक...छी।"

"पापा समझने की कोशिश करिए आप तो दिनभर घर में रहते है पर मुझे और रिया को तो बाहर निकलना पड़ता है। अब दुनिया का तो हम मुँह बन्द नहीं कर सकते। रिया कल ही किट्टी गई थी, कॉलोनी की एक महिला ने चुटकी लेते हुए कहा आजकल के बुजुर्गों को तो मंदिर जाने का बहाना मिल गया है न जाने वह क्या करने जाते है। एक काम बता दो घुटनों में दर्द होता रहता है पर मंदिर के नाम पर..."

पता नहीं ये भ्रम था या फिर कुछ और गुप्ता जी को ऐसा लगा। किट्टी की उस महिला का तो सिर्फ बहाना ही था शब्द तो गगन के थे पर कही न कही सोच रिया की। मन खिन्न हो गया... किसको क्या समझाते। जब अपनी ही सन्तान समझने को तैयार नहीं पर एक अजीब-सा डर घर कर गया। तभी सक्सेना जी आते दिखायी दिए,

"और सक्सेना जी! ...क्या हाल-चाल है, बहुत दिनों बाद दिखाई दिए।"

"गुप्ता जी! ...बेटे के पास चला गया था, आपके तो मजे है एक ही बेटा है... मजे से पड़े रहो। यहाँ तो बुढ़ापे में बंदरों वाला हाल हो गया है। कभी इस डाल पर कभी उस...कभी इस बेटे के पास कभी उसके पास...जिसकी जैसी जरूरत वैसे बुला लिया। हम बूढ़े-बुढ़िया की अटैची तैयार ही रहती है। क्या करें किसी को नाराज भी नहीं कर सकते न जाने कौन कब काम दे। अब तो शरीर भी साथ नहीं देता पर मजबूरी, जब तक शरीर चल रहा घसीट रहे। कल बिस्तर पर पड़ गए तो पता नहीं कौन सेवा करेगा कौन नहीं..."

सक्सेना जी के चेहरे पर गहरी उदासी छा गई, गुप्ता जी सोच में पड़ गए। सुषमा हमेशा कहती थी एक और बेटा होता तो मन बहलाने के लिए कम से कम उसके पास चली जाती। यहाँ तो जैसा भी है चुपचाप पड़े रहो, कुछ कहो-सुनो मत बस आँखें मुँद लो...वरना इस बुढ़ापे में कहाँ जाएंगे। गुप्ता जी निर्विकार भाव से कान्हा जी को देखते रहे "प्रभु क्या इस दिन के लिए इंसान सन्तान पैदा करता है।"

...पर न जाने क्यों पत्थर के भगवान पत्थर के हो गए थे। गुप्ता जी ने मन ही मन भगवान से पूछा "ये सब देखकर भी आप चुप कैसे रह सकते है।" सक्सेना जी की बात सुनकर शुक्ला भाभी जी की आँखें भर आयी और वह साड़ी की कोर से अपनी भीगी पलको को पोछने लगी। अगर सन्तान ऐसी ही होती है तो उन्हें आज अपने बांझ होने पर कोई अफसोस नहीं। शुक्ला भाभी सोचती थी उनका भगवान न जाने कहाँ सो गया है पर आज उन्हें कोई अफसोस नहीं था।

शायद बगल वाले कॉलेज में छुट्टी हो गई थी। कई नव युवक अपनी महिला मित्रो के साथ मंदिर में प्रवेश कर रहे थे। सक्सेना जी ने फ़िकरा कसा,

"चलो अच्छा है...जीन्स-टॉप वाली पीढ़ी भी पूजा-पाठ और धर्म-कर्म में विश्वास रखती है।"

"आप भी सक्सेना जी... ये कौन-सी पूजा करने आते है अभी आपको पता नहीं।"

"मतलब...!" सक्सेना ने आश्चर्य से गुप्ता जी की तरफ देखा, शुक्ला भाभी गुप्ता जी की बात सुनकर मुस्कुरा पड़ी।

"भई इससे सुरक्षित जगह इन नौजवान कहाँ मिल सकती है। परिवार और समाज की नज़रों से दूर अपने सो कॉल्ड प्रिय और प्रिया के साथ समय बिताने की इससे अच्छी जगह भला और क्या हो सकती है। न पुलिस का डर और न ही तथाकथित छुटभैये नेता जी लोगों का डर...कब पकड़ लिए जाए और दूसरे दिन का समाचार पत्र उनकी करतूतों से रंगी हुई मिलेगी।"

गुप्ता जी बात सुनकर सक्सेना जी और शुक्लाइन खिलखिला कर हँस पड़े। तभी सामने से आते एक नौजवान जोड़े ने उन्हें बड़ी अदा से देखा और एक जुमला हवा में उछाल दिया..."ये लोग पूजा-पाठ करने आये है या पिकनिक मनाने।" लड़की ने लड़के की हाँ में हाँ मिलाई... उम्र देखो इनकी ये हमें क्या सिखायेंगे। वह कहते है न..."कौन कहता है कि बूढ़े इश्क नहीं करते, बस फर्क ये है कि उन पर हम शक नहीं करते।"

गुप्ता जी की आँखों के सामने गगन का चेहरा घूम गया, ऐसा लग मानी किसी ने गर्म शीशा कानों में उड़ेल दिया हो...शुक्ला भाभी ने बात संभालने की कोशिश की।

"अरे भाई! ...यही बसना है कि घर भी चलने का इरादा है।" सक्सेना जी ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई। सब लोगों उठने का उपक्रम कर ही रहे थे कि सामने वाले पीपल के पेड़ के चारों तरफ बने चबूतरे की तरफ भीड़ देखकर सबकी निगाह उस ओर रुक गई।

"कुछ हुआ है क्या, बड़ी भीड़ है।" गुप्ता जी ने चिंतित स्वर में कहा,

"अरे! ...कुछ नहीं भाईसाहब देखा-दिखउल हो रहा। लड़के और लड़की के परिवार वाले है... हर दूसरे दिन देखने को मिल जाता है ये सब..."

"यहाँ! ...ये भी कोई जगह है।" शुक्ला भाभी के अंदर की गृहणी जाग गई और उन्होंने अपना ज्ञान बघारना शुरू किया।

"भाईसाहब! ...होटल-वोटल में दिखाना महंगा पड़ता है। कोई खाने में कुछ मंगवायेगा कोई कुछ...होटल में कोई पहचान भी सकता है पर यहाँ दर्शन के नाम पर कितने लोग भी मंदिर चले आते है।"

"वाह! ...क्या दिमाग लगाया है।" दोनों पुरूष आश्चर्य से शुक्ला भाभी जी का मुँह देख रहे थे।

"जानते है भाईसाहब ...घर से कुछ भी सूखा नाश्ता, मिठाई ले आओ। मंदिर के बाहर बड़ी अच्छी चाय मिल जाती है। काम का काम...बचत की बचत भी हो जाती है। सस्ते में निपट जाते है, अब किसी को ये तो पता नहीं होता इसी लड़के या लड़की से शादी तय हो ही जाएगी। काहे का पैसा बर्बाद करना।"

शुक्ला भाभी की मितव्ययिता पर दोनों मुस्कुरा दिए,

"सच कह रही भाभी जी एक नए रिश्ते को शुरू करने से पहले अगर भगवान का आशीर्वाद मिल जाये तो इससे बेहतर क्या..." सक्सेना जी और शुक्ला भाभी जी ने गुप्ता जी बात पर गर्दन हिला कर सहमति जताई।

तभी उस भीड़ में से एक अधेड़ उम्र की महिला एक पुरूष के साथ टहलते हुए मंदिर की सीढ़ियों की तरफ आ गए, शायद वह दोनों पति-पत्नी थे।

"सुनते हो जी लड़की तो कुछ खास नहीं है... रंग भी कुछ दबा-सा है, दान-दहेज भी कुछ खास नहीं दे रहे...क्या फायदा ऐसे घर में शादी करने की। सिर्फ बेटियाँ ही बेटियाँ है, आगे नाथ न पीछे पनहा। हमारा बिट्टू उम्र भर जिम्मेदारी निभाते ही रह जायेगा।"

"कह तो तुम सही रही हो..." पुरूष के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई,

"जानते नहीं हो इन आजकल की लड़कियों को जब देखो तब मायके में ही पड़ी रहेगी कभी ये बीमार तो कभी वो...हमें तो कोई पूछेगा भी नहीं।"

"फिर...?"

"फिर क्या! ...तुम भी न, साफ-साफ मना कर दो।"

"ऐसे अच्छा नहीं लगता..."

"ठीक है सोचने का वक्त लेकर बहाना कर दो...अब चलो सब हमारी तरफ ही देख रहे है, चाय-नाश्ता भी ठंडा हो रहा।"

दोनो दम्पत्ति उस भीड़ में गुम हो गए। गुप्ता जी, सक्सेना जी और शुक्ला भाभी एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे और सोच रहे थे, सांवरे कृष्ण की बनाई कृतियों ने एक लड़की को उसके सांवरे रंग के कारण सांवरे के दर पर नकार दिया और साँवरिया देखते रह गए।