मैं घर लौटा का जोगी -मन / सुधा गुप्ता

Gadya Kosh से
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एक जोगी-मन दशकों पहले 'अँजुरी भर आसीस' लिये भटकाव-भरी अनजान यात्र पर निकला था कि कोई मिले, जिसे 'अँजुरी भर आसीस' से नहला दे, कि अपना सर्वस्व उस पर लुटा दे, स्वयं को समर्पित कर धन्य हो जाए, चैन पा जाए, मन हल्का होकर किसी उन्मुक्त पंछी-सा हवा में तिरता चला जाए! अदृश्य की लीला! नियति की क्रीड़ा! सामना इस खोज में कुछ ऐसी स्थितियों से हुआ-

-हार पहनाकर जिसे हम खुश हुए / वे खड़े हैं सामने खंजर लिये (अधर पर मुस्कान)

-खून ही पीते रहे ये खून के रिश्ते / सदा ही रीते रहे ये खून के रिश्ते। (खून के रिश्ते)

चल पड़ा सिलसिला एक अन्तहीन यात्र का! लोग माया के पीछे दौड़ते हैं, यहाँ खेल उल्टा हुआ। माया इस जोगी के पीछे-पीछे भागी और यह उससे बचता हुआ आगे-आगे भागता रहा। माया के दुश्चक्र से बचता-बचाता वह शान्ति की खोज में चलता है, पर यहाँ तो हजारों 'जलते सवाल' उसे घेरे में लिये खड़े हैं- 'जेबकतरा' उसकी जेब काट लेता है, वह हक्का-बक्का तो रह जाता हैय परन्तु अपनी 'आस्था' नहीं खोता। आगे बढ़ता है तो 'आम आदमी' की लाश पहचानने के लिए जबरन पुलिस द्वारा धर लिया जाता है। सामाजिक विद्रूपता और घृणा, राजनीतिक दाँवपेंच देखकर इक्कीसवीं सदी में भी 'नारी की असहायता और पराजय' उसकी आँखों को आँसुओं से भर देती है। खिड़की पर-पर बैठी 'उदास लड़की' उसे आन्दोलित कर देती है।

अब वह पोटली में भूजा बाँधकर बगल में दबाए रोटी-रोजी की तलाश में 'पुरबिया मजदूर' के साथ हो लेता है और उस बदनसीब के साथ यात्र की तमाम यन्त्रणाएँ सहता है। उदासी घेरे मन कभी माँ को, कभी बेटियों की मुस्कान को, बेटे की पुरानी कमीज को, देस-परदेस बसी बहनों को, सदा बेघर रहते आए घर बनाने वालों को याद करता है, हँसता-रोता सीधे जंगल की राह लेता है-लोहे जैसी तपती धरती, लू के थपेड़े चट्टानें, सन्नाटा-भरी दोपहरी में अकेले खड़े अमलतास, जो 'फूलों के गजरे और पीले झूमर लटकाए' खड़े हैं, उसे कुछ देर को 'बिलमा' लेते हैं, लाज से लाल मुखड़ा जो 'अबीर' हो गया है, ऐसे दहकते 'पलाश' फूल उसे जंगल में रस बरसाते मिल जाते हैं, सरसों का लहराता 'पीताम्बर' और आँख मिचौली खेलती तितलियाँ उसके मन को बाँध लेती हैं, गर्म रेत पर चलने से छाले पड़े पैरों को कुछ पल सुस्ताने के लिए 'सिर पर फूल मुरैठा बाँधे गुलमोहर जो' बाराती जैसे सजे-धजे खड़े हैं, उनकी हँसी का रहस्य जानने के लिए वह भी कुछ देर रुकता है _ प्रकृति का रोमांच उसे कोमल सहलाहट से भर देता है, पर 'बंजारा मन' कहीं रुके तो कैसे? वह जिस 'खोज' में निकला है, जब तक वह पूरी न हो, चैन कहाँ?

इस खोए हुए चैन को खोजने के लिए यायावरी का दूसरा दौर शुरू होता है, यह पथ और भी कण्टकाकीर्ण है, उदास, एकाकी, सूना! अब की बार अनुरक्ति का गाढ़ा रंग धो-पोंछकर 'जोगी मन' तन को भी वैराग्य में रँग लेता-'भगवा चोला' और 'कमण्डल' धारण कर वह पर्वत, नदी, नाले पार कर डालता है, घाट-घाट घूमा, 'तीरथ' के जल में नहाया, माथा टिकाया, आचमन किया, मन्दिर और मजा़र पर सिर पटका, उस खोए चैन को पाने के लिए ; किन्तु वह न मिलना था, सो न मिला! हर जगह रेगिस्तान की आग मिली जलती हुई!

हार गया, थक गया, ऊब गया! सहसा उसे कुछ याद आया-उसने जोगिया बाना फेंक दिया, कमण्डल उछाल दिया और लौट पड़ा वहाँ के लिए, जहाँ उसका छोटा-सा संसार था-नन्ही मड़ैया-सा घर, नीम का पेड़, आँगन में खिलते हुए कनेर! वह बैठा ही था कि नन्ही बिटिया आकर गोद में दुबक गई, कनेर खिल पड़े थे, टेर रहे थे-'तुम कहाँ चले गए थे? हम कब से तुम्हारी राह देखते यूँ ही खिलते-झरते रहे!' पत्नी आई और स्वागत किया-शब्दों से नहीं महज एक आश्वस्ति भरे कोमल स्पर्श से कि तुम सही जगह पर आ गए हो। शीतलता की फुहार बरसी और नेह की चाँदनी ने नहला दिया! 'जोगी मन' की सुखद 'घर वापिसी' सम्पन्न हुई।

एक गैर ज़रूरी सूचना: न यह भूमिका है, न प्रस्तावना, न परिचय। कुछ भी नहीं। कविता अपने स्वयं के और पाठक के बीच कोई मध्यस्थता स्वीकार नहीं करती तो मैं बीच में कौन और क्यों? स्वयं पढ़िए ' हिमांशु जी की ये 87 कविताएँ _ जिनमें देश की हर धड़कन, हर रंग-रूप, रस समाया है। पढ़िए और अच्छी लगें, तो सराहिए भी (एक संवेदनशील पाठक का कर्त्तव्य निभाइएगा) बस।

(पुरुषोत्तम मास एकादशी, 12 जुलाई, 2015) 


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