मैकग्रेगर का एक्स सिद्धांत / राकेश बिहारी

Gadya Kosh से
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यह हैदराबाद की एक आम सुबह थी और उनके लिए नए शहर में पहला वीक-एंड। सूरज सामने की पहाड़ी से निकलता हुआ लगभग दो घंटे का सफर तय कर चुका था और आधे से ज्यादा लोग हैदराबाद दर्शन के लिए निकल रहे थे। कावेरी होस्टल के लॉन में खिले रंग-बिरंगे फूलों ने धूप की चटख रोशनी के साथ मिल कर वातावरण को और खूबसूरत बना दिया था। लेकिन आस-पास की हरियाली, सामने रोज गार्डन में मुस्कराते रंग-बिरंगे गुलाब व उसके पीछे की घाटी तथा ऐसे ही कई खूबसूरत दृश्य एक साथ मिल कर भी उसे बाँधने में असमर्थ थे। उसने मन ही मन सोचा, कितना खूबसूरत है सबकुछ लेकिन उदास और बेचैन।

अभिषेक ने क्षण भर को बालकनी से झाँक कर सबको जाते हुए देखा, खासकर मेधा को और कमरा बंद कर लिया। 'पिछले हफ्ते पढ़ाई गई चीजों को दुहरा लूँ तो अच्छा रहे।' उसका रूममेट दीपक अपने बिस्तर पर पहले से पढ़ रहा था। अभिषेक ने किताब के पन्ने पलटे, 'लीव अकाउंट'। उसने अंडरलाइन किया, 'कंपनी के हर महिला और पुरुष कर्मचारी को पूरे सेवाकाल में दो बार क्रमशः 135 और 15 दिनों की मैटरनिटी और पैटरनिटी लीव दी जाएगी।' उसके मन में एक शरारती प्रश्न जागा, 'अब तो मेडिकल साइंस ने साबित कर दिया है कि पुरुष भी बच्चे जन सकते हैं। यदि भविष्य में ऐसी स्थिति आई तो? शायद तब इन प्रावधानों की शब्दावली बदल जाए। मैटरनिटी लीव के बारे में पढ़ते हुए अचानक ही उसे अपनी पत्नी सुजाता की याद हो आई। यहाँ आने से पहले उसके पीरियड के दिन खिंच रहे थे। वह मन ही मन मुस्करा उठा। लगता है नौकरी के पहले ही वर्ष में उसे पैटरनिटी लीव पर जाना होगा।

अगले चैप्टर के साथ वह फिर से अपने बिस्तर पर था, 'पे फिक्सेशन'। वह तो कन्फ्यूज ही हो गया था इसे पढ़ते हुए। लेकिन थैंक गॉड, मेधा ने डाउट्स क्लियर कर दिए।

उस दिन जब सारे ट्रेनीज को स्टडी मेटीरियल दी गई थी क्लास में वह अभिषेक के बगलवाली सीट पर बैठी थी।

'हैलो, आइ एम मेधा, फ्रॉम लुधियाना, पंजाब।' उसने मुस्कराते हुए अभिषेक की तरफ हाथ बढ़ाया था।

'और मै, अभिषेक। मूलतः बिहार का लेकिन फिलहाल मुंबई में रहता हूँ।'

'आपके पेरेंट्स?'

'वे तो बिहार में हैं लेकिन पत्नी मुंबई में। आप अपने बारे में भी तो बताइए।'

'अपने बारे में क्या बताऊँ, हाँ, मेरी भी शादी होनेवाली है।'

'कांग्रेच्युलेशंस। लेकिन कब?'

'हम तो दिसंबर में ही चाहते थे। लेकिन इस ट्रेनिंग के कारण देर हो रही है।'

'आपके घर में और कौन-कौन हैं?'

'मेरी माँ और मेरा भाई।'

'पिता कहीं बाहर रहते हैं?'

'अब नहीं रहे।' मेधा की आँखें उदास हो चली थीं।

'ओह, आई एम सॉरी।'

इसी बीच क्लास का एलओ (लायजनिंग आफिसर) किताबें ले कर आ गया था और एक-एक डायरी भी। पाँच-छह सप्लीमेंट्री हैंडनोट्स अलग से।

मेधा ने जल्दी से अपनी डायरी अभिषेक की डायरी से बदल ली।

'अरे, मेरी डायरी क्यों ले रही हैं?'

'मेरीवाली का कवर थोड़ा मुड़ा हुआ है।' अभिषेक ने सोचा लड़की स्वार्थी है। लेकिन चुप रह गया।'

'अभिषेक की नजर अपनी दूसरी तरफ बैठे सलीम पर गई। वह उसे अजीब तरह से घूर रहा था। नजर मिलते ही सलीम एक कुटिल मुस्कान के साथ उसके कानों में बुदबुदाया, 'और जनाब, क्या बातें हो रही हैं, मैडम से?' उसकी गोल-गोल घूमती आँखें मेधा पर अटक गई थीं।

'बस इंट्रोडक्शन, जैसे सुबह आपके साथ हुआ था।'

'अब यह तो मत ही कहो कि जैसे मुझसे हुआ था।' उसकी आँखों की कुटिलता अब गले तक उतर आई थी।

'क्यों, लड़कियों से बातें करते हुए आदमी का परिचय बदल जाता है क्या?'

'नहीं, ऐसा तो नहीं होता... फिर भी...' सलीम की आँखें वृत्ताकार घूम गई थी।

'फिर भी क्या... साफ-साफ क्यों नहीं बोलते?' अभिषेक ने खीजते हुए कहा।

'मतलब यह कि उसे यह तो नहीं ही बताया होगा कि आप शादी-शुदा हो।'

'कमाल है, इसमें छुपानेवाली कौन-सी बात हुई?'

'आप झूठ बोल रहे हो, और यदि बताया ही है तो प्रूव कर के दिखाओ।' सलीम ने प्रूव करने पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया था।

'अब आपको विश्वास नहीं है तो मैं क्या करूँ। यह कोई रेखागणित का थ्योरम तो है नहीं कि मैं प्रूव करूँ...'

सूरज लगभग डूबने को था। शाम धीरे-धीरे रात की तरफ बढ़ रही थी। दिन भर की क्लास के बाद देश के सबसे बड़े पीएसयू (सार्वजनिक उपक्रम) के ये मैनेजमेंट ट्रेनीज खुद को मुक्त महसूस कर रहे थे। कोई बैडमिंटन की कोर्ट पर था तो कोई टेबल-टेनिस रूम में। कुछ लोग कैरम में मशगूल थे। अभी वह सीढ़ियों तक ही आया था कि मेधा मिल गई।

'आर यू कमिंग फॉर ए वॉक?'

अभिषेक ने सहमति में सिर हिलाया और दोनों आगे बढ़ गए।

'इस तरह खुली हवा में टहलना सुजाता को बहुत पसंद है। लेकिन मुंबई टहलने कहाँ देती है, वहाँ तो दौड़ने से ही फुरसत नहीं होती।

'मैं तो रोज टहलती हूँ। कोई ना हो तो अकेली ही सही।'

'और कैसा लग रहा है यहाँ?' अभिषेक ने बातचीत को आगे बढ़ाया।

'पहली बार घर से दूर हूँ। होम सिकनेस तो नहीं कह सकती पर हाँ, घरवालों की हमेशा याद आती है। आशुतोष को इतना मिस करती हूँ कि पूछो मत। आज मंगल है। वहाँ हम शाम को मंदिर जाया करते थे। पता नहीं आज अकेले वह गया भी होगा या नहीं। वैसे मैंने तो सुबह उसे फोन पर कहा था कि जरूर चले जाना। लेकिन कह रहा था, 'तुम्हारे बिना कहाँ जाया जाएगा।' अमूमन अपने दोस्तों के बीच सबसे ज्यादा बोलनेवाला अभिषेक चुपचाप मेधा की बातें सुन रहा था। शायद यह सिलसिला और लंबा चलता यदि इसी बीच मेधा के मोबाइल पर एसएमएस नहीं आया होता।

'सॉरी... आशुतोष का मेसेज था।'

'इसमें सॉरी की क्या बात है। सब कुछ ठीक-ठाक तो है?' अभिषेक ने एक औपचारिक-सा प्रश्न किया।

'हाँ-हाँ, ही इज परफक्टली फाइन। उसने एक शे'र भेजा है, सुनाऊँ आपको?' और मेधा ने पढ़ना शुरू कर दिया, 'मुझको शाम बता देती है, तुम कैसे कपड़े पहने हो। उजले-उजले फूल खिले हैं बिल्कुल जैसे तुम हँसते हो।'... अभिषेक ने आगे की पंक्तियाँ पूरी कर दीं, 'मुझसे बिछुड़ कर खुश रहते हो, मेरी तरह तुम भी झूठे हो।'

'अरे, आपको तो पहले से पता था सब। लगता है आप भी शौकीन हो शेरो-शायरी के।'

'हाँ, थोड़ा-बहुत मैं भी पढ़ लेता हूँ कभी-कभार। अब इसे आप शौक कह लें या और कुछ। ये शे'र दरअसल बशीर बद्र के हैं। बशीर कंटेमप्रेरी उर्दू पोएट्री के एक बड़े नाम हैं।'

'हाँ, वो गजलें सुनता है न, इसलिए उसके पास हमेशा अच्छी लाइनें भेजने को रहती हैं। सुनना तो मुझे भी अच्छा लगता है, लेकिन याद नहीं रहता। आपको तो बहुत शे'र याद होंगे। कुछ मुझे भी बताओ न, कुछ अच्छा-सा जो आशु को भेज सकूँ।

'ठीक है, तो सुनिए, शायद आपको पसंद आए, 'यह शाम उदासी, सूनापन पर संग तेरा अहसास तो है, बोझिल-बोझिल इस संध्या में तू पास नहीं पर पास तो है। हर रिश्ते की चादर देखी, कुछ कटी-फटी पैबंद लगी, सबको पहचानते इस दिल में कोई आस न हो तेरी आस तो है।'

'वाह, आपने तो बिल्कुल मेरे मन की बात कह दी। अब इसे आप धीरे-धीरे बोलो ताकि मैं टाइप कर सकूँ।'

जब मेधा ने ये पंक्तियाँ भेज दीं तो अभिषेक ने उसे बताया, 'जो लाइनें आपने अपने आशुतोष को भेजी हैं, सुजाता की लिखी हुई हैं।'

'तो आपकी वाइफ राइटर हैं।' मेधा की आँखों में एक आश्चर्यमिश्रित खुशी का भाव तैर गया। 'कमाल के आदमी हो आप भी, इतनी बातें हो गईं और आपने बताया ही नहीं अब तक कि सुजाता इतना अच्छा लिखती है।'

'आपने मौका ही कहाँ दिया इसका।'

'तो आप यह कहना चाहते हो कि मैं बहुत ज्यादा बोलती हूँ। आशुतोष भी ऐसा ही कहता है।'

'नहीं-नहीं, मैंने ऐसा कब कहा। मैं कौन कम बोलता हूँ। अभी तो शुरुआत है, आप ऊब जाएँगी मेरी बातों से।

'देखती हूँ, कौन किससे ऊबता है।'

'और कितना पढ़ोगे? चलो तैयार हो जाओ, लिंगमपल्ली चलना है।' दीपक के शब्दों ने अभिषेक को फिर से अपने कमरे में ला दिया था। वरना न जाने कब तक वह स्टडी मेटेरियल हाथ में लिए स्मृतियों के पन्ने पलटता रहता।

'मैं तो भूल ही गया था कि डॉक्टर के यहाँ चलना है। बस पाँच मिनट। अभी तैयार हो जाता हूँ।' दीपक का हाल ही में एक माइनर ऑपरेशन हुआ था और उसे ड्रेसिंग करवानी थी। इसी कारण दोनों हैदराबाद घूमने न जा कर हास्टल में ही थे।

इसी बीच दीपक के मोबाइल पर मेसेज आने के संकेत मिले। उसे पता था सुजाता इसी वक्त एसएमएस करती है। दीपक ने मोबाइल उसकी तरफ बढ़ा दिया, 'मन बहुत उदास है, अपना लिखा कुछ भेजो न...'

अभिषेक ने टाइप किया, 'नया कुछ नहीं है मेरे पास। हाँ, यहाँ आ कर एक कहानी शुरू की है पहली बार।'

सुजाता के एसएमएस ने उसके होठों पर मुस्कराहट बिखेर दी, 'तुम्हारे होठ बहुत खुश्क रहते हैं, इन्हीं लबों पर कभी ताजा शे'र रहते थे। ये तुमने होठों पे अफसाने रख लिए कब से?' अभिषेक ने चाह कर भी प्रत्युत्तर नहीं दिया। दूसरे के मोबाइल से एसएमएस करने की कोई सीमा तो होनी ही चाहिए।

रात को कैंटीन में हर तरफ हैदराबाद की चर्चा थी। कोई एनटीआर गार्डन की सुंदरता का बखान कर रहा था तो कोई हुसैन सागर लेक पर फिदा था। लड़कियाँ जहाँ मोतियों के जेवर पर अपनी खुशियाँ और स्पर्द्धा लुटा रही थीं वहीं कुछ आज से ही अगले वीकएंड पर रामोजी राव फिल्म सिटी जाने की योजना बना रहे थे। कुल मिला कर साँभर और रसम की खुशबू पर हैदराबाद की खूबसूरती हावी थी।

गो कि पूरे हॉस्टल कैंपस में जगह-जगह साँप होने की चेतावनी के बोर्ड लटके थे, लेकिन रात के खाने के बाद लगभग सभी ट्रेनीज दो-चार के ग्रुप में आधा-एक घंटा घूमना नहीं भूलते थे। दरअसल इस हरे-भरे कैंपस में टहलने का सुख साँप निकलने के भय से कहीं ज्यादा बड़ा था।

'आपने तो एक बार पूछा भी नहीं कि आज का दिन कैसा रहा। कल रात तक तो इतनी बातें कर रहे थे। एक ही दिन में इतनी पराई हो गई मै?' मेधा ने शिकायती लहजे में टहलते हुए कहा।

'ऐसा भी क्या हो गया... अभी-अभी तो हम मिले ही हैं। लेकिन आपने तो मुझे यहीं छोड़ दिया और खुद चली गईं। और तो और, सुबह एक बार यह भी बताने की जरूरत नहीं समझीं कि आप जा रही हैं।'

'आपने ही कौन-सा पूछ लिया कुछ। मुझे हेडेक था और मैं जाना भी नहीं चाहती थी। लेकिन वह शमा आ गई थी सुबह-सुबह मेरे कमरे में।'

'मेधा, तुम नहीं चल रही हो घूमने?'

'अरे, इसका तो मन ही नहीं लगता हमारे साथ।' मेधा कुछ बोले इसके पहले ही कुसुम टपक पड़ी थी बीच में।

'ऐसा कुछ नहीं है। दरअसल मुझे बहुत सारे कपड़े धोने हैं और तबीयत भी ठीक नहीं लग रही कुछ।'

'बहाने क्यों बना रही हो? सीधे-सीधे यह क्यों नहीं कहती कि अभिषेक नहीं जा रहा तो तुम क्यों जाओगी... कहीं और जाने का तो प्लान नहीं है...?'

'मैं जानती हूँ कि आपके साथ मेरा टहलना, बातें करना कइयों को खटकता है लेकिन कोई ऐसे भी कहेगा मैंने नहीं सोचा था। मैं तो रो पड़ी। बाद में वह माफी माँगने लगी... 'मैं तो बस मजाक कर रही थी।' फिर मैंने भी सोचा कि आप तो दीपक के साथ डॉक्टर के यहाँ जाओगे और ये लोग पूरे हैदराबाद एक-दूसरे को हमारे बारे में नई-नई कहानियाँ सुनाते फिरेंगे।'

अभिषेक गंभीर हो गया था, 'मुझे आप से बातें नहीं करनी चाहिए, वरना ये तो रोज ही बात का बतंगड़ बनाएँगे।'

'हमने कोई पाप किया है कि बातें नहीं करेंगे। मैं कोई परवाह नहीं करती इन लोगों की बेहूदा बातों की।'

'लेकिन तकलीफ तो होती है न?'

'हाँ, वो तो है। लेकिन, मैंने आज यह जरूर तय कर लिया कि आगे से इन लोगों के साथ नहीं जाऊँगी कहीं। कम से कम उस ग्रुप में तो नहीं ही जहाँ वे चारों होंगे।'

'कौन चारों?'

'वही, सलीम, राजीव एंड कंपनी।'

'क्यों, क्या हो गया? लड़ाई हो गई उनसे?'

'आपको तो बस मैं लड़ाकी ही दिखती हूँ। ऐसा कुछ नहीं हुआ। बस यूँ ही...'

'मैं भी तो जानूँ कि आखिर हुआ क्या जो आपने उनके साथ आगे से नहीं जाने की ठान ली।'

'दरअसल सलीम सारे दिन कुछ ज्यादा ही ध्यान रख रहा था मेरा। मैं कोई लूली-लँगड़ी नहीं हूँ। मेरे भी हाथ-पैर हैं। खुद से अपने लिए चाय-पानी के ग्लास उठा सकती हूँ मैं। और वे तीनों, बिना डबल मीनिंग की बातें तो जैसे बोल ही नहीं सकते! और वो शमा ऐसे तो बहुत पतिव्रता बनती है लेकिन वहाँ उनके छिछोरेपन और हा-हा-ही-ही में वह भी शामिल थी। मैं लड़कों के साथ हँस-बोल लेती हूँ इसका मतलब क्या? इसका कोई अनड्यू एडवांटेज तो नहीं ले सकता न!'

'पता नहीं ये लोग किस मिट्टी के बने हैं!'

'खैर, छोड़ो यह सब। इनकी बातें कर के अपना ही मूड खराब होगा। लेकिन हाँ, अगली बार से आपके ही साथ जाऊँगी मैं।

अभिषेक ने घड़ी की तरफ इशारा किया, 'इससे पहले कि कोई नई कहानी शुरू हो, हमें भी चलना चाहिए। अब सब जा रहे हैं।'

उस दिन क्लास के बाद दीपक और संजय साइबर सिटी जा रहे थे। मेधा भी उनके साथ हो ली। अभिषेक ने दीपक के कहने पर 'मूड नहीं है' का बहाना बनाया। उसे हॉस्टल के फोन पर सुजाता का इंतजार था। मेधा यह जानती थी। उसने जोर नहीं दिया। अभिषेक हॉस्टल में अकेला था। कभी कमरे तो कभी बाल्कनी में लगातार चहलकदमी कर रहा था वह कि तभी माइक्रोफोन की आवाज गूँजी - 'अभिषेक कुमार। रूम नं. 208। फोन कॉल।'

'हाँ, बोलो कैसी हो?' उसे पता था सुजाता के अलावा किसी और का फोन हो ही नहीं सकता।

'ठीक हूँ। रिपोर्ट लेने गई थी। यूपीटी (यूरिन प्रेगनेंसी टेस्ट) पॉजिटिव आया है। मैं बहुत खुश हूँ अभिषेक। लेकिन तुम्हारे बिना यह खुशी अधूरी लग रही है। दो दिन के लिए भी आ जाओ न तुम।' सुजाता की खुशी में उसका लाड़ भी शामिल हो गया था।

'पागल हो गई हो प्री-इंडक्शन ट्रेनिंग में भी कहीं छुट्टी मिलती है क्या? हाँ, तुम श्योर हो न?' अभिषेक को ठीक-ठीक शब्द नहीं सूझ रहे थे कि क्या कहे... कैसे कहे...

'नाराज क्यों हो रहे हैं? मैं तो बहुत खुश हूँ कि...'

'अब इतना भी खुश होने की जरूरत नहीं है। रिपोर्ट गलत भी हो सकती है और अभी तो बहुत वक्त है... ढेर सारे खतरे भी।' पता नहीं यह छुट्टी नहीं मिल पाने का क्षोभ था या कुछ और, अभिषेक बेवजह कठोर हो गया था।

लेकिन सुजाता के रुआँसे होने पर वह कुछ नरम हुआ। 'अपना ध्यान रखना... ज्यादा काम-वाम मत करना। बिल ज्यादा उठ रहा होगा। और हाँ, रात को दीपक के मोबाइल पर एसएमएस करना। मैं भी करूँगा।'

कमरे तक आते-आते अभिषेक पूरा भर चुका था। उसने रूम बंद किया और हिलक-हिलक कर रो पड़ा। उसने खुद को तकिए में छुपा लिया था। आँखें थम नहीं रही थीं। उसे अपनी खुशी का अहसास कुछ देर से हुआ था। इतनी बड़ी खबर... और वह किस बेरुखी से सुजाता से बातें कर रहा था। बाप बनने की संभावित खुशी और सुजाता से ठीक से बात नहीं करने का अपराधबोध देर तक उसकी आँखों से बहते रहे।

किससे बाँटे, किसे कहे वह यह सब, वह खुशी से दुहरा हुआ जा रहा था। उन लोगों के साइबर सिटी से लौटने तक अभिषेक ने भी खाना नहीं खाया। खुशी के मारे उसके कदम जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। उसने बाल्कनी से ही उन्हें आते देख लिया और सीधे कैंटीन में पहुँच गया।

'क्या बात है, बहुत खुश दिख रहे हो।' दीपक ने जैसे अभिषेक का चेहरा पढ़ लिया था।

'मुझे तो लगता है हमें जल्दी ही पार्टी मिलनेवाली है।' मेधा की आँखों में भी एक खुशी चमकी थी।

अभिषेक ने डाइनिंग टेबल पर कुछ नहीं कहा, सिर्फ मुस्करा कर रह गया।

टहलते हुए मेधा ने बात आगे बढ़ाई, 'सुजाता का फोन आया था?'

'हाँ।'

'तो फिर मेरा अनुमान सही है।'

'हाँ।'

'अजीब आदमी हो आप भी। इतनी बड़ी खुशी और सिर्फ हाँ-हाँ कर रहे हो।'

'दरअसल मैंने उससे ठीक से बात नहीं की। वह दुखी होगी। मुझे तो तब समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ। वो तो फोन रखने के बाद मुझे अपनी खुशी का अहसास हुआ।'

'यही प्रॉब्लम है आप लड़कों के साथ। बोलने के पहले तो सोचते नही। बाद में आँसू बहाते हो। जाओ और पहले फोन कर के उसे सॉरी कहो। और हाँ, कांग्रेच्युलेशंस।' अभिषेक ने जवाब में एक हल्की-सी मुस्कराहट बिखेर दी।

अगले दिन सुबह-सुबह दीपक के मोबाइल की घंटी बजी। दीपक ने मोबाइल अभिषेक की तरफ बढ़ा दिया। उधर सुजाता थी। अभिषेक को आश्चर्य हुआ, कुछ आशंका भी। इतनी सुबह तो वह फोन नहीं करती। हो सकता है उसे मेरी याद आ रही हो। उसने अपने भय को हल्के से बरजा।

'हैलो।'

'रो क्यों रही हो? क्या हुआ?'

'अभिषेक, मुझे ब्लीडिंग हो रही है... मैं क्या करूँ... मुझे डर लग रहा है।

'घबराओ नहीं। आराम करो। थोड़ी देर के बाद जा कर डॉक्टर से मिल लेना, ठीक हो जाएगा सब। और हाँ, डॉक्टर से मिल कर आते ही मुझे फोन करना। मुझे तुम्हारी चिंता लगी रहेगी।'

'अभिषेक... हमारे सपने को, किसी की नजर लग गई।'

'इस तरह नहीं बोलते। याद है, भाभी को भी तो ऐसा ही हो गया था न, लेकिन सब ठीक हो गया।'

अभिषेक की आवाज की नमी को भाँप कर सुजाता ने खुद को शायद सँभाला था, 'तुम ठीक से रहना। यदि तुम रोने लगोगे तो मेरी हिम्मत ही टूट जाएगी। मैं डॉक्टर से मिल कर फोन करूँगी।'

अभिषेक ने फोन पर भले ही जाहिर न होने दिया हो, लेकिन अब खुद पर उसका नियंत्रण नहीं था। संजय और दीपक बाथरूम में थे। उसने अंदर से दरवाजा बोल्ट किया और फूट पड़ा। वह कल भी रोया था। वह आज भी रो रहा था। लेकिन इन दो रुलाइयों के बीच का फासला बहुत बड़ा था।

क्लास के दौरान अभिषेक अनमना-सा रहा। जब लंच में भी सुजाता का फोन नहीं आया तो उसकी चिंता आशंका में बदल गई। वह लंच के बाद क्लास नहीं गया। दीपक का मोबाइल भी उसने अपने पास ही रख लिया था। शाम को चार बजे उसने सुजाता को एसएमएस किया।

'तुम्हारी चुप्पी ने मुझे सब कुछ बता दिया है। तुमसे बात करने की हिम्मत नहीं हो रही है।'

'मुझी में कहाँ हिम्मत रह गई है... शब्द बीच में ही अटक गए थे।

'सुजाता हो सकता है, यूपीटी की रिपोर्ट ही गलत रही हो।'

'नहीं, अभिषेक ऐसा नहीं हो सकता। इतना वक्त खिंचना, इतनी तेज ब्लीडिंग और बीच-बीच में रेशा-रेशा... पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ... और तकलीफ तो पूछो मत।

'हिम्मत रखो मैं जल्दी ही आऊँगा। तुम ठीक से रहो अभी मेरे लिए यही बहुत है।'

अगले एसएमएस में सुजाता ने जो शे'र भेजा उसने अभिषेक को बेइंतहा दर्द से भर दिया। 'अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द भुला दें, कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं।' उसने बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि उसे अभी सुजाता के पास होना चाहिए था।

वह कमरे से शायद निकलता ही नहीं, यदि मेधा का एसएमएस नहीं आता, 'प्लीज कम फॉर अ वाक, आइ एम वेटिंग फॉर यू।'

'क्या हुआ, आज लंच के बाद क्लास में नहीं आए। दीपक कह रहा था आपकी तबीयत ठीक नहीं।'

'यूँ ही नहीं आया, और नहीं आया तो कोई बहाना चाहिए न।'

'सुजाता का फोन आया? उससे तो लड़ाई नहीं हुई। और हाँ, आप मुझे उसका नंबर दो। उसे बधाई देनी है मुझे।'

'वह डाक्टर के पास गई थी। अब बधाई की जरूरत नहीं रही।'

देर तक दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा।

'कुछ बोलो भी तो। बुला लिया और चुप हो,' अभिषेक ने बेमन से चुप्पी को धकेलना चाहा।

'क्या बोलूँ... सोच रही हूँ, सुजाता कितनी अकेली होगी वहाँ...

दोनों चुपचाप टहल रहे थे। मेधा ने ही चुप्पी तोड़ी... 'मेरा भी मन नहीं लग रहा था। अब तो और अजीब हो गया है। चारमीनार चलोगे? कुछ मन भी बदलेगा। और हाँ, वहाँ चूड़ी बाजार भी है। मैं भी कुछ चूड़ियाँ खरीद लूँगी और आप भी सुजाता के लिए ले लेना।'

'मेधा, आज नहीं। किसी और दिन।'

दोनों देर तक खामोश टहलते रहे। जब लौटे, काफी देर हो चुकी थी। दीपक और संजय जैसे अभिषेक की राह ही देख रहे थे।

'अब तक कहाँ थे? भाभीजी के तीन-तीन मेसेज आ चुके हैं। और हाँ, बुरा नहीं मानो तो एक बात कहूँ, आप मेधा के साथ इतना मत घूमा-फिरा करो। लोग तरह-तरह की बातें बनाते हैं।'

अभिषेक दीपक की बातों का कुछ जवाब देता, इसके पहले ही संजय बोल पड़ा, 'अरे, इसकी बकवास पर ज्यादा ध्यान मत दीजिए। उन चारों के अलावा किसी और को कुछ बुरा नहीं लगता। दरअसल उस दिन हुसैन सागर बोट में वे लोग मेधा के साथ डांस करना चाहते थे लेकिन उसने उन्हें कोई लिफ्ट ही नहीं दी और आप से इतनी घुली-मिली रहती है। बस इसी कारण वे चिढ़ते हैं आप दोनों से।

अभिषेक चुप ही रहा लेकिन दीपक की बातों ने उसके मन पर एक बोझ डाल दिया था। वह देर तक करवटें बदलता रहा। शायद दीपक ठीक ही कह रहा था। उसने सोचा वह कल से मेधा से कम से कम बातचीत करेगा। इस ऊहापोह में उसे सुजाता का मेसेज पढ़ना भी ध्यान नहीं रहा।

सुबह जगते ही उसे सुजाता के एसएमएस की याद आई। दीपक और संजय अब भी सो रहे थे। उसने इनबॉक्स चेक किया, 'आज तबीयत बहुत बिगड़ गई थी, बहुत सारी उल्टियाँ हुईं, पेट में दर्द भी। डॉक्टर ने दूसरी बार अल्ट्रासाउंड करवाया और अब सफाई करवाने को कह रहे हैं। कल 11 बजे शायद भर्ती होऊँ... प्लीज, जल्दी फोन करो।' वह खुद पर शर्मिंदा हो उठा। सुजाता की ऐसी हालत और वह बेवजह की बातों में उलझा रहा। वह रिसेप्शन पर फोन करने के लिए भागा। उसने फोन नहीं किया सुजाता को कैसा लग रहा होगा... अपराध बोध से ग्रस्त अभिषेक ने जब सुजाता को यह कहा कि जब उसके एसएमएस आए तो वह मेधा के साथ टहल रहा या तो उसके प्रत्युत्तर में उसे रुलाई और उलाहने से भरे कुछ शब्द मिले थे, '...तुम उसी के साथ टहला करो बस... मैं कहाँ हूँ... कैसी हूँ तुम्हें क्या मतलब...?' और फिर सुबकती हुई सुजाता चुप हो गई थी अचानक और फिर चुप ही रही। अभिषेक देर तक अपनी सफाई देता रहा, माफी माँगता रहा। उसे लगा जैसे बहुत बड़ी गलती हो गई है उससे... कि प्यार का एक नपा-तुला अंश ही होता है हमारे पास जिसे चाहें एक से बाँटे या दो से। आखिर मेधा से जुड़ कर ही तो वह सुजाता को भूल गया था उन क्षणों में...

अभिषेक की तनिक भी इच्छा नहीं थी कि वह क्लास में जाए लेकिन क्लास में जाना मजबूरी थी। राहत बस इतनी थी कि आज फर्स्ट हाफ में प्रो. रवींद्रन का क्लास था, एक वही तो थे जो सीए, आईसीडब्ल्यूए और एमबीए जैसे प्रोफेशनल्स को उनके स्तर से पढ़ा सकते थे। अन्यथा लगभग दो सौ कर्मचारियों, अधिकारियों की स्ट्रेंथवाला वह रीजनल ट्रेनिंग सेंटर एक सफेद हाथी ही था जिसका संचालन ट्रेनिंग देने से ज्यादा कंपनी के इन बेकार कर्मचारियों की नौकरी बचाए रखने के लिए किया जा रहा था। देश के सबसे बड़े सार्वजनिक उपक्रम का यह अकेला पालतू हाथी नहीं था। ऐसे-ऐसे दो दर्जन और ट्रेनिंग सेंटर थे जो अपनी अनुत्पादकता से कंपनी को लगातार अनुर्वर और लॉस मेकिंग बनाने में अपना योगदान दे रहे थे।

अभिषेक जब क्लास में आया, प्रो. रवींद्रन मैकग्रेगर की मोटिवेशन थियरी पढ़ा रहे थे, 'अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को मोटिवेट करने के लिए एक मैनेजर की मानव संसाधन के संदर्भ में कुछ मान्यताएँ होती हैं। प्रख्यात मैनेजमेंट गुरू मैकग्रेगर ने इस संदर्भ में दो तरह की मान्यताओं का सिद्धांत दिया था जिसे मैनेजमेंट साइंस में 'थियरी एक्स और थियरी वाई' के नाम से जाना जाता है। 'थियरी एक्स' की मान्यताओं के अनुसार एक सामान्य कर्मचारी कामचोर होता है। वह सकारात्मक परिवर्तनों को भी हिकारत की दॄष्टि से देखता है। उसका कोई लक्ष्य नहीं होता, उसकी कोई महत्वकांक्षा नहीं होती। जबकि 'थ्योरी वाई' की मान्यताओं के अनुसार एक आम कर्मचारी ईमानदार और लगनशील होता है। प्रगति की आकांक्षा और परिस्थितियों की समझ उसके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग होते हैं। वह प्रो-एक्टिव होता है। दरअसल मानव स्वभाव के संदर्भ में ये दो विपरीत मान्यताएँ दो तरह के मैनेजर्स बनाती हैं। 'एक्स थ्योरी' में विश्वास रखनेवाला मैनेजर जहाँ अपने अधीनस्थ कर्मचारियों में अविश्वास करते हुए अनुशासन के चाबुक से संस्थान को चलाता है वहीं 'वाई थियरी' में विश्वास रखनेवाला मैनेजर अपनी टीम के लोगों में विश्वास करते हुए संस्थान की तरक्की के लिए काम करता है।'

अभिषेक ने पीछे से हाथ उठाया, 'मे आई आस्क अ क्वेश्चन सर?'

'यस प्लीज।'

'सर, अगर मिस्टर मैकग्रेगर मैनेजमेंट गुरू की जगह एक समाजशास्त्री होते तो मानव स्वभाव के बारे में उनकी मान्यताएँ क्या होतीं?'

'मि. अभिषेक, यू शुड ऑलवेज रिमेंबर दैट दिस इज ए क्लास ऑफ मैनेजमेंट, नॉट ऑफ सोशियॉलाजी।' पूरा क्लास एक ठहाके से गूज गया था।

टी ब्रेक में मेधा ने अभिषेक से कहा, 'आप आज पीछे क्यों गए? नाश्ते पर भी वेट नहीं किया।'

'बस यूँ ही।'

'यूँ ही नहीं। संजय ने सब बता दिया है मुझे। इनको मैं जान चुकी थी लेकिन आपसे यह उम्मीद नहीं थी कि आप भी इनकी फालतू बातों की परवाह करेंगे। आप भी किन लोगों की बातों में आ गए!'

जोरदार ठहाकों के बीच उन चारों का पीछे मुड़ कर उस तरह देखना पूरे दिन अभिषेक का पीछा करता रहा। शाम को हॉस्टल लौटते हुए मेधा ने उससे कहा, 'हाँ, टहलना नहीं छोड़ दीजिएगा आज से। जरूर आइएगा। मुझे आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं। मैं आपका इंतजार करूँगी।'

शाम को जब संजय मोबाइल रीचार्ज कराने इंदिरानगर चल गया, अभिषेक ने बातचीत वहीं से शुरू की जहाँ मेधा ने क्लास से लौटते हुए छोड़ा था।

'आप कुछ जरूरी बात करनेवाली थीं।'

'वैसा कुछ जरूरी नहीं है। मैंने तो बस इसलिए कह दिया कि आप मुँह लटका कर कमरे में ही न रह जाओ। और वैसे भी मुझे यहाँ आपके साथ टहलने की आदत भी हो गई है।' मेधा ने अपने चेहरे पर एक फीकी-सी मुस्कराहट लाने की कोशिश की।

'मैं नहीं मानता आपकी यह बात। कुछ न कुछ तो है। वरना इतना उदास मैंने आपको कभी नहीं देखा। आपको झूठ बोलना नहीं आता। पकड़ी जाती हैं आप।'

'बस यूँ ही। आज जब से मम्मी से बात हुई है मन बार-बार रोने को हो रहा है।'

'क्यों, क्या हुआ?'

'दरअसल आज से ठीक पाँच साल पहले मेरे पापा हम लोगों को छोड़ कर चले गए थे। उसके बाद मैं कभी अपनी मम्मी से दूर नहीं रही।'

'मेधा, बीता हुआ समय लौट कर नहीं आता...'

'लेकिन बीते हुए दिन गुजर भी तो नहीं जाते न। आज भी मुझे पाँच साल पहले की वह रात उसी तरह याद है। यही कोई नौ बज रहे होंगे। मैं, मम्मी और राहुल रात के खाने पर पापा का इंतजार कर रहे थे। पापा हमेशा की तरह तगादे में जालंधर गए हुए थे। कि तभी फोन की घंटी बजी थी। फोन राहुल ने उठाया था। उसकी आवाज शुरू में लड़खड़ाई थी। लेकिन क्षण भर में उसने जिंदगी की चुनौतियों को समझ लिया था। मुझे तो आज भी विश्वास नहीं होता कि उस पंद्रह वर्ष के लड़के को अचानक इतनी समझ कैसे आ गई थी। उसने माँ को कुछ नहीं बताया था। हाँ, मुझे बाजार चलने के बहाने नीचे ले आया था। पापा ने मुझे कभी बेटी नहीं माना। लड़कों के कपड़े पहनाए। लड़कों के स्कूल-कॉलेज में पढ़ाया। बिजनेस के हिसाब समझाए। इनकम टैक्स की रिटर्न भरवाई। मुझे सीए बनाना चाहते थे। लेकिन उस रात वे अचानक ट्रेन एक्सीडेंट के शिकार हो गए थे। हम दोनों भाई-बहन किसी तरह अपने आँसू पी कर ताऊ के यहाँ गए थे ताकि उन्हें साथ ले जा कर पापा की डेड बॉडी ला सकें। जानते हो तब ताऊ ने क्या कहा था हमसे, 'अब जब मर ही गया है वह तो कल सुबह चलेंगे। अभी ठंड में क्या जाना।' हम दोनों ने बार-बार कहा था, और हार कर घर वापस आ गए थे और फिर मम्मी के साथ ही...' मेधा की आवाज ने अपनी आँखों की तरफ देखना बंद कर दिया था।

'और उसके बाद से मैंने ट्यूशन पढ़ा कर न सिर्फ अपना घर चलाया बल्कि सीए बन कर पापा का सपना भी पूरा किया। मैं तो चाहती थी राहुल भी और पढ़े। लेकिन उसने ग्रेजुएशन के बाद फिर से पापा का बिजनेस शुरू कर दया है। इक्कीस साल में ही वह एक जिम्मेदार मर्द हो गया है। उसे लगता है पढ़ने के बजाय घर चलाना ज्यादा जरूरी है उसके लिए।' अभिषेक को पहली बार समझ में आया मेधा के हाथ लड़कों जैसे क्यूँ लगते हैं। उसे कुछ कहने को ठीक-ठीक शब्द नहीं मिल रहे थे। वह हतप्रभ था। एक शब्दहीन नमी उसकी आँखों तक भी उतर आई थी।

अभिषेक ने लाख कहा लेकिन मेधा ने उस रात एक कौर भी नहीं खाया। वह जड़वत टेबल पर बैठी रही। खाने पर पापा का इंतजार कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया था। उस रात अभिषेक से भी नहीं खाया गया। वह प्लेट यूँ ही छोड़ कर उठ गया।

अभिषेक जब कमरे में आया तो देखा वे चारों वहाँ पहले से विराजमान थे।

'अरे आओ साहब, हम तो कब से आपका ही वेट कर रहे हैं।' यह राजीव था।

'इन्हें फुरसत हो तब तो हमारा भी खयाल आए।' महेंद्र भी कहाँ पीछे रहनेवाला था।

'अभिषेक यार, हमारे काँटे लगे हैं क्या? कभी हमसे भी तो बातें कर लिया करो।' यह उन तीनों में सबसे कम बोलनेवाले राजेश की आवाज थी।

'अभिषेक जी, हम आपसे कुछ बातें करने आए हैं।'

'बोलिए।'

'आप कुछ ज्यादा ही तेज भाग रहे हैं।'

'मैं समझा नहीं।'

'जानबूझ कर नासमझ बन रहे हैं आप।'

'साफ-साफ क्यों नहीं बोलते, क्या कहना चाहते हैं आप?'

'आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि आप शादीशुदा हैं।'

'आपको ऐसा क्यों लगता है कि मुझे यह याद नहीं?'

'तो फिर मेधा के साथ इस समय तक क्यों घूम रहे थे?'

'मैं किसके साथ घूमता हूँ, क्या करता हूँ, कहाँ जाता हूँ यह मेरा निजी मामला है। मैं नहीं समझता कि इसके लिए मुझे कुछ आपसे पूछने की जरूरत है। मैंने कभी आपसे पूछा कि आप हमेशा बेवजह हा-हा-ही-ही क्या करते रहते हैं?' उनकी बातों ने अभिषेक को तल्ख कर दिया था।

'आप यह क्यों नहीं समझते कि भाभी जी आप में बहुत विश्वास करती हैं। आपको उनका विश्वास नहीं तोड़ना चाहिए।'

'राजीव, मैं फालतू बातों में नहीं उलझना चाहता। लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि जब तब हमारे संबंधों से आप लोगों की कोई व्यक्तिगत हानि नहीं होती, आप चुप ही रहें। रही बात भाभी जी की, तो उनकी चिंता आप न ही करें यही बेहतर है।'

'अरे आप तो खामखा नाराज हो रहे हैं। मैंने तो आपको अपना मित्र समझ कर कुछ समझाने की कोशिश की थी। अब नहीं मानते तो नहीं मानिए।'

'और हाँ यदि तुम्हारी इतनी ही सगी है तो उसे कह दो कि क्लास में ढंग के कपड़े पहन कर आया करे। उसका ड्रेसिंग सेंस देखा है तूने?' यह तब से चुप बैठा राजेश था।

'इससे पहले कि मैं खुद से अपना नियंत्रण खो बैठूँ तुम चले जाओ। तुम लोगों का दिमाग खराब हो गया है।'

'तुमने देखा है कि जब वह कुछ लिखती है तो उसका टॉप कैसे कमर से ऊपर उठ जाता है।' महेंद्र दीपक के बेड तक चला गया था।

'और आज जब वह रामाराव सर से सवाल पूछ रही थी तो तुमने देखा कैसे उसके संतरे लटक पड़े थे। मैं तो पसीने-पसीने हो गया था।' राजीव अब भले सीधे अभिषेक से नहीं बोल रहा हो लकिन उसका निशाना अब भी वही था।

'अबे ठीक से देखा कर। और वही बोल जो दिखता है। यानी संतरे नहीं नींबू।' कल तक यूनिवर्सिटी में सांस्कृतिक राजनीति के नाम पर वेलेंटाइन डे का विरोध करनेवाले राजेश की जुबान कुछ ज्यादा ही चल रही थी।

अभिषेक की इच्छा हुई वह उन्हें धक्के दे कर बाहर कर दे। लेकिन यह सिर्फ उसका कमरा नहीं था। वह चुप रह गया। उसने अपने तरफ की लाइट ऑफ कर दी।

अगले दिन शाम में क्लास इन्चार्ज जयकांतन ने अभिषेक को अपने चेंबर में बुलाया।

'अभिषेक, आई लाइक यू मोस्ट इन द क्लास ऐंड यू डिजर्व इट टू। मैं नहीं चाहता कि लोग तुम्हारी शिकायत करें।'

'सर, कैसी शिकायत?'

'तुम अच्छी तरह समझते हो मैं क्या कह रहा हूँ।'

'कहीं आप मेरे और मेधा के बारे में तो कुछ नहीं कहना चाहते।'

'मैं कुछ नहीं कह रहा। तुम्हारे बैचमेट्स ही कंप्लेन कर रहे हैं। मुझे उम्मीद है तुम उनके नाम नहीं पूछोगे।

'सर, आपको भी लगता है कि...'

'आई नो अभिषेक, देयर इज नथिंग बैड इन योर हार्ट। बट, सबके सब इतने खुले मन के नहीं होते। आई नो दे फील जेलसी टू।'

'सर, देन व्हाट कैन आइ डू?'

'अभिषेक, तुम समझने की कोशिश करो। मैं तुम्हें मैच्योर समझता हूँ, इसीलिए तुमसे बात की। मेधा शार्ट टेंपर्ड है, इसीलिए उसे नहीं बुलाया।'

'सर बिलीव मी, वी हैव नॉट डन एनीथिंग राँग।'

'येस, आइ नो इट। मै। तो बस तुम्हें बताना चाहता था। और हाँ, यू टेक केयर ऑफ इट।'

'यस सर।'

मेधा यह सब जानते ही भड़क उठी।' उनकी हिम्मत कैसे हुई यह सब कहने की। मैं तो कल जयकांतन से पूछूँगी कि कौने थे वे लोग और प्रिंसिपल से उनकी शिकायत करूँगी।'

अभिषेक ने बहुत समझाया कि वह नहीं पड़े इन बातों के चक्कर में, कि जयकांतन ने गुड फेथ में बताया था उसे। लेकिन वह कहाँ माननेवाली थी। उसने जयकांतन से तो कुछ नहीं पूछा लेकिन तीसरे दिन वह प्रिंसिपल के चेंबर में थी -

'सर, मैं जब से यहाँ आई हूँ, कुछ लोग मुझे बहुत परेशान कर रहे हैं...'

'मैडम, आप को भी ठीक से रहना चाहिए। कुछ लोगों ने मुझसे आपकी भी शिकायत की है। सुना है पिछले वीक-एंड पर जब सारे ट्रेनीज हॉस्टल में रह कर फाइनल टेस्ट की तैयारी कर रहे थे, आप अभिषेक के साथ तिरुपति गई थीं।'

'सर, हमारी तैयारी पूरी हो चुकी थी।'

'आप आगे से लड़कियों के साथ ही रहा कीजिए। आप मेरी बेटी जैसी हैं इसलिए समझा रहा हूँ।'

ट्रेनिंग समाप्त हो गई थी। रिजल्ट आ गए थे। सब को उसकी पोस्टिंग की जगह बता दी गई थी। अभिषेक और मेधा गोलकुंडा फोर्ट देख कर लौट रहे थे।

'अभिषेक, मुझे यह समझ नहीं आया कि जब डिसिप्लिन में सबको दस में दस मार्क्स आए हैं तो फिर हम दोनों को सिर्फ सात-सात क्यों?' मेधा का मन अब भी स्कोर कार्ड पर टँगा था।

'उसके बाद भी उन्होंने क्या बिगाड़ लिया आप का? फर्स्ट तो आप ही आई न।'

'लेकिन इसी तीन नंबर के कारण आप चौथे स्थान पर चले गए। उस सलीम और आप में तो बस एक ही नंबर का अंतर था। मुझे तो लगता है हम जीत कर भी हार गए। प्रिंसिपल ने भी उन्हीं की बातों में भरोसा किया वरना अनुशासन के सात-सात नंबर दे कर हमें वह यह कैरेक्टर सर्टिफिकेट नहीं पकड़ाता।'

'मेधा, एक खास माइंड सेट की उपज यह मार्कशीट हमारे लिए कैरेक्टर सर्टिफिकेट तो कभी नहीं हो सकता। इतना ज्यादा मत सोचिए। ऐसे कुलीग्स और सीनियर्स की तो लंबी फेहरिस्त इंतजार कर रही है हमारा। यह तो बस पहला पड़ाव है। यदि इस तरह सोचने लगे तो एक कदम भी नहीं चल पाएँगे हम।'

अगले दिन मेधा को हुसैन सागर एक्सप्रेस में मुंबई के लिए छोड़ कर अभिषेक नागपुर जानेवाली वॉल्वो बस में बैठ गया। पिछले तीन महीने में पहली बार वह इतना अकेला था। उसने अपनी डायरी निकाल ली, जिसमें सब ने उसके लिए कुछ-कुछ लिखा था। आखिरी पन्ने पर मेधा थी -

मै दुविधा में हूँ कि क्या लिखूँ। लिखने को तो बहुत कुछ है पर सही शब्द नहीं मिल रहे। यहाँ आते वक्त मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि यहाँ मुझे इतना प्यारा दोस्त मिलेगा। अगर आप यहाँ नहीं होते तो मैं एक-एक पल बहुत भारी मन से गुजारती। मैं बहुत अकेलापन महसूस करती। आपके होने से ये तीन महीने मेरी जिंदगी के यादगार लम्हों में जुड़ गए हैं।

मैं जानती हूँ कि लोगों ने हमें बहुत भला-बुरा कहा। लेकिन मुझे खुशी है कि आपने इन बातों का हमारे रिश्ते पर कोई असर नहीं होने दिया। लोगों का मुँह बंद करने के लिए मैं आपको अपना भाई भी बना सकती थी और मैं जानती हूँ कि आप इनकार भी नहीं करते। लेकिन मुझे इस रिश्ते के लिए दोस्ती शब्द ही उचित लगता है।

और हाँ, प्रो. रवींद्रन की क्लास में आपने पूछा था न कि अगर मैकग्रेगर मैनेजमेंट गुरू के बदले एक समाजशास्त्री होते तो मानव स्वभाव के बारे में उनकी क्या मान्यताएँ होतीं। इस प्रश्न पर मैंने भी बहुत सोचा है और मुझे लगता है कि समाजशास्त्रीय सिद्धांत मानव-स्वभाव को इस तरह सफेद-स्याह के खाने में नहीं बाँट सकते। दरअसल सामाजिक व्यवहारों-रिश्तों के 'एक्स' और 'वाई' फैक्टर आपस में इस तरह घुले-मिले होते हैं कि हम उन्हें इतनी आसानी से अलग नहीं कर सकते। कई बार तो हम किसी के 'वाई' फैक्टर से इस तरह जुड़े होते हैं कि उसके व्यक्तित्व का 'एक्स' फैक्टर हमें दिखाई ही नहीं पड़ता।

अब देखिए न, मैंने ही आपसे आशुतोष की कितनी तारीफ की थी। लेकिन जब से यहाँ आई हूँ वह बदल-सा गया है। पता नहीं यह पहली बार अलग रहने के कारण है, या फिर वह ऐसा ही है जिसे मैं अब तक जान नहीं पाई थी, उसे मेरा आपसे या अन्य लड़कों से बात करना, घुलना-मिलना पसंद नहीं। कई बार तो इस कारण उसने मुझसे कई-कई दिन बातें भी नहीं की हैं। सच बताऊँ तो मैंने अब उससे छुपाना शुरू कर दिया है यह सब... मुझे ऐसा करते गिल्ट महसूस होता है लकिन... मैं तो शादी के लिए भी तैयार थी लेकिन अब डर लगने लगा है... मैं प्यार में मुक्ति का सपना देखती हूँ। ऐसा जीवन जीना चाहती हूँ जिसमें हम एक दूसरे को स्पेस दे सकें। लेकिन वह काफी पजेसिव है। वह जिसे एकाधिकार कहता है, मुझे उसमें अविश्वास और असुरक्षा का आभास होता है... मुझे ऐसी जिंदगी नहीं चाहिए...

मैंने जान-बूझ कर यह सब नहीं बताया था आपको। पता नहीं इस सब का हमारी दोस्ती पर क्या असर पड़ता... खैर, मैं अपनी बातों से आपको दुखी नहीं करना चाहती।

मेरे लिए प्रार्थना करना...

आपकी दोस्त

मेधा

अचानक अभिषेक ने जैसे खुद को धुँधली-सी आशंका की गिरफ्त में पाया। जाने वह कोई आशंका थी या मन पर बादलों-सी घिरती आती उदासी। नहीं, वह आशंका ही थी... शायद कोई डर। अगर आशुतोष और मेधा के रिश्ते में कोई दरार आई तो उसकी वजह क्या अभिषेक होगा? नहीं, नहीं, उसने तो मेधा की चमकती आँखों में एक सपने को देखा था और चाहा था कि मेधा उस सपने को, उस सपने के बाहर-भीतर की दुनिया को छू कर देखे।

उसे सुजाता की याद आई... हमेशा की तरह वही सजल-सुरभित स्मृति। कितना विश्वास करती है वह उस पर। उसके भीतर सवाल की तरह एक आशंका जागी... इस बार अपने आनेवाले दिनों को ले कर। क्या सुजाता... आशुतोष की तरह बदल सकती है? उसने अपने अंदेशे को झटकने की कोशिश की। नहीं, वह ऐसा नहीं कर सकती।

उसने धीरे-धीरे आँखें मूँद लीं। उसके मन में मेधा का बड़ी-बड़ी चमकती आँखोंवाला चेहरा उभरा। अचानक उसने पाया, उसके भीतर कोई प्रार्थना-सी उभर रही थी... शब्दहीन... किसी अंतर्लीन राग की तरह। यह प्रार्थना किस के लिए है... उसने भीतर-भीतर इस सवाल को उस राग में शामिल होने दिया। क्या, मेधा के लिए वह किसी शुभ और सुंदर की कामना थी या खुद अपने लिए... और सुजाता के लिए?...

उसने पाया उसके हाथ ऊपर उठे थे... डीलक्स कोच में शायद ठंड बढ़ गई थी। उसके उठे हुए हाथ एयर कंडीशनर कम करने के लिए बढ़ गए। वॉल्वो की रफ्तार तेज हो रही थी।