मैथिली कथा: पाठ प्रक्रिया / देवशंकर नवीन

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समय चक्र की गतिमान प्रवृत्ति के साथ मानव सभ्यता और सामाजिक जीवन की विकास प्रक्रिया भी अपना शील-स्वभाव और अपेक्षा-आकांक्षा बदलती रही है। चूँकि साहित्य सामाजिक जीवन की चित्तवृत्ति का इतिहास है, इसलिए इस परिवर्तन का प्रभाव सभी भाषाओं के साहित्य की सारी विधाओं पर पड़ना आवश्यक और उचित है। इसीलिए, मैथिली कथा को युग परिवर्तन, वैज्ञानिक उपलब्धि, राजनीतिक उथल-पुथल, सामाजिक चेतना की क्रान्ति, मानवीय सम्बन्ध के जीवन मूल्य, नीति मूल्य, अर्थ मूल्य के विप्लव, ह्रासमान मानवीय सम्बन्ध, पश्चिमी राष्ट्र और साहित्य से आयातित समस्त संस्कार-विचार और चिन्तन-पद्धति आदि से प्रभावित होना था; सो हुआ।

यहाँ मैथिली-कथा के विकास क्रम पर दृष्टिपात करने का कोई प्रयोजन नहीं दिख रहा है। हरिमोहन झा के 'प्रणम्य देवता' (1945) के प्रकाशन से पूर्व 'चन्द्रप्रभा' (श्रीकृष्ण ठाकुर), गप्प-सप्पक खरिहान (बैद्यनाथ मिश्र 'विद्यासिन्धु'), 'कामिनीक जीवन' (काली कुमार दास) और 'बीछल फूल' (प्रबोधनारायण चौधरी) का नाम, मैथिली के मौलिक कथा लेखन के क्षेत्र में लिया जाता है। प्रारम्भ जैसा भी रहा हो, किन्तु अगला कदम ही हरिमोेहन झा ने रखा और मैथिली कथा में कितना साहस किया जा सकता है, वह अपने समकालीन और परवर्ती कथाकारों को दिखा दिया। किरण, मनमोहन, व्यास, शेखर के समय को पार करती हुई मैथिली कथा राजकमल चौधरी के (1929-1967) समय में प्रविष्ट हुई। मेरी राय में हरिमोहन झा के कथा लेखन की अवधि को यदि मैथिली का नवजागरण काल कहें तो राजकमल चौधरी के सृजनशील वर्षोें को क्रान्तिकाल कहना अधिक समीचीन होगा।

किसी समय के किसी भी क्रान्ति का अग्रदूत एक ही व्यक्ति होता है। वह अपने-अपने समय में हरिमोेहन झा और राजकमल चौधरी हुए। राजकमल के समस्त समकालीन बड़े-छोटे, अर्थात शैलेन्द्र मोहन, किसुन, ललित, मायानन्द, सोमदेव, हंसराज, रामदेव, बलराम, आदि ने उसमें अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा के साथ-साथ दिए। अगली पीढ़ी के गुंजन, प्रभास, रमानन्द रेणु, जीवकान्त, धूमकेतु, राजमोहन, साकेतानन्द, सुभाष, और उससे अगली पीढ़ी के विनोद बिहारीलाल, विभूति आनन्द, अशोक, पूर्णेन्दु, शिवशंकर श्रीनिवास, नवीन चौधरी, तारानन्द वियोगी, केदार कानन, प्रदीप बिहारी, रमेश, देवशंकर नवीन के कथा लेखन का विस्तृत आयाम उसी नवजागरण और उसी क्रान्ति-दृष्टि का प्रस्फुटन है।

आज मैथिली कथा, उपलब्धि की जिस धरातल पर पहुँच पाई है, वह संसार की किसी भी भाषा के कथा लेखन के लिए प्रतिस्पद्र्धा की बात अवश्य है। हिन्दी के 'नई कहानी आन्दोलन' का जो समय है, मैथिली में ललित-राजकमल-मायानन्द के कथा लेखन का सक्रिय काल वही है। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसी समय में मैथिली कथा की विषय-वस्तु का विस्तृत आयाम बना और कथा लेखन में शिल्प का वैविध्य आया, बल्कि शिल्प प्रमुख होने लगा। शिल्प सृजन की उसी प्रक्रिया ने अगली पीढ़ी को और भी मजबूत किया और चमत्कारी शिल्प में विस्मयकारी विषय वस्तु की कथा सामने आने लगी।

मैथिली आलोचना, और कक्षा में मैथिली (भाषा साहित्य) की अध्यापन-शैली इसके लिए उत्तरदायी है कि यहाँ कथा-पाठ प्रक्रिया की कोई अपेक्षित शैली विकसित नहीं हुई। सर्वमान्य तथ्य है कि हमारे समाज में कथा सुनाई जाती थी--कामकाजी लोगों के बचे हुए समय को व्यतीत (टाईम पास) करने के लिए, अर्थात मनोरंजन के लिए। जब कथा लिखी जाने लगी, तब भी यही बात थी। अर्थात् कथा का उद्देश्य मात्र मनोरंजन होता था, अथवा उपदेश देने का उदाहरण। किन्तु जब व्याख्या पद्धति विकसित हुई, उपदेश की प्रक्रिया विश्लेषित हुई, तब कथा का विषय, घटना और चरित्र-चित्रण क्रमशः गौण होती गई और कथा के सम्पूर्ण शिल्प पर बातें होने लगीं। इस विश्लेषण की आवश्यकता मैथिली में छठे दशक की कथा को ही पड़ गई थी। किन्तु मैथिली कथा के पाठकों को हरिमोहन झा का प्रहार तक भी, उतना उदार और दृष्टिसम्पन्न नहीं बना पाया। दरअसल यह कर्तव्य तो होता है समकालीन आलोचक, बुद्धिजीवी और समाज-साहित्य के प्रवक्ता लोगों का। किन्तु वे लोग तो स्वयं हरिमोहन झा से ही सिरफुटौवल करने को उतावले थे, वे सामान्य पाठकों को क्या प्रेरणा देते।

यही कारण है कि राजकमल चौधरी की कुछ कथाओं (ननद भाउज, सुरमा सगुन विचारै ना, माहुर) को आपत्तिजनक कथा माना गया। धूमकेतु की 'छठि परमेसरी' कथा को धर्म और जिजीविषा की नजर से पढ़ा गया। शिवशंकर श्रीनिवास की कथा 'आदंक' में बालमनोविज्ञान की प्रमुखता को छोड़कर और कुछ ढूँढ़ लिया गया। और भी कितने उदाहरण गिनाए जा सकते हैं, किन्तु उसकी आवश्यकता यहाँ है नहीं।...दरअसल इस परिस्थिति को समय-समय पर स्वयं कथाकारों ने भी कम घी नहीं पिलाया है। और लोगों की तो बात ही क्या, स्वयं राजकमल चौधरी ही 'सुरमा सगुन विचारै ना' कथा पर स्पष्टीकरण देने लगे और 'कथा समाप्तिक विघटन आ समस्या' शीर्षक निबन्ध 'मिथिला मिहिर' में छपाकर कितने ही पाठक-प्रवक्ताओं को दिग्भ्रमित करने लगे।...मैथिली में अभी भी कितने ही रचनाकार हैं, जो अपने ही सृजन पर वक्तव्य देते हैं। वे यह बात भूल जाते हैं कि हलवाई लोगों को मिठाई खाने का अवसर दे सकता है, मिठाई खाने का ढंग बता सकता है, किन्तु मिठाई का स्वाद जानना नहीं बता सकता है, मिठाई खाकर पचाने की प्रक्रिया नहीं बता सकता है।...जो भी हो, आज के रचनाकार भी अपने सृजन पर इस कदर मुग्ध हो गए हैं कि वे पाठकों को डिक्टेट करने पर तुले हुए हैं--मैंने जो लिखा है, वही पढ़ें, और उसका अर्थ, मैं जैसा कहता हूँ वैसा लगाएँ।--आज के रचनाकारों को अलक्ष्य और असम्प्रेषित रह जाने का भ्रम हमेशा लगा ही रहता है। पाठकों को नासमझ समझना और स्वयं को पाठकों पर थोपना, अनर्गल बात है। अपने पाठकों पर विश्वास करना रचनाकार की आत्मशक्ति और आश्वस्त रचना-कौशल का परिचायक होता है। तुलसीदास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अलावा अन्य कतने ही पूर्वज ऐसी हिदायत रचनाकारों को दे गए हैं कि वे अपने सृजन पर मुग्ध न होएँ।...तथापि ऐसा होता है। धरती माँ किसी भी किसान को यह बताने नहीं आती कि यह धान है, इसे कूट कर खाएँ; यह गेहूँ है, इसे पीसकर खाएँ; किन्तु हमारे रचनाकार बन्धु ऐसा करना चाहते हैं, और करते हैं...।

पिछले कुछ वर्षों से मैथिली में 'सगर राति दीप जरए' शीर्षक से कथागोष्ठी होती आ रही है। इस कथागोष्ठी की कितनी ही अच्छी बातों पर चर्चा की जा सकती है। इस गोष्ठी में सबसे अच्छी तरह 'कथा-पाठ प्रक्रिया' के तन्तु विकसित किए जा सकते थे, जो नहीं हुआ। गेहूँ की उपज में खड़-पतवार की तरह कितनी ही अराजक बातें कुछ लोगों ने इसमें सीखीं, किन्तु एक अच्छी सम्भावना फलित होने से रह गई। वैसे गेहूँ की उपज भी भली ही रही, वह अलग बात है।

वर्तमान समय में मैथिली कथा की सबसे बड़ी समस्या पाठ-प्रक्रिया ही है। यहाँ कहानियाँ लिखी जा रही हैं, इक्कीसवीं शताब्दी के मानसलोक और जनमानस को ध्यान में रखकर; किन्तु पढ़ी-समझी जा रही है बीसवीं शताब्दी के पहले दशक की सामाजिक आचार-संहिता को ध्यान में रखकर। मिथिलांचल के लोग अब अच्छी तरह आधुनिक हो गए हैंै। कट्टर-धर्मभीरु और अन्धविश्वासी परिवार की बहू-बेटियाँ भी अब हर तरह की सरकारी/गैरसरकारी नौकरी करती हैं, प्रेम-विवाह और अन्तर्जातीय विवाह करती हैं, गर्भपात कराती हैं, परिवार नियोजन कराती हैं, कोर्ट मैरेज और तलाक लेती हैं, तन और मन के सन्तोष हेतु मनपसन्द पुरुष के साथ विवाहेतर सम्बन्ध रखती हैं, वृद्ध विवाह और बहुविवाह की बलिदानी बकरी होने का विरोध करती हैं, अपने विवाह के निर्णय में अपनी आकांक्षा जाहिर करती हैं, विधवा विवाह का समर्थन और स्त्री-शोषण का विरोध करती हैं, पुरुषों के स्‍त्रैण और राक्षसी स्वभाव तथा स्त्री-जाति के दुष्ट स्वभाव की निन्दा करती हैं, अपने तन और मन की स्वामिनी स्वयं को समझती हैं, सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था को कल्याणमय बनाना चाहती हैं, कल्याण-व्यवस्था के ढोंग और पाखण्ड में हविस नहीं होना चाहती हैं...इन समस्त व्यवस्थाओं में जिस परिवार के पुरुष मन से, अथवा बेमन से समर्थन देते हैं, उसी परिवार के व्यक्ति जब मैथिली कथा पढ़ना शुरू करते हैं, तो उन्हें चाहिए घूँघट डालकर आँगन बुहारती दुल्हन, ताली बजाकर बच्चों को बुलाती अनुजवधू अथवा बहू, खड़ाऊँ खोलकर पत्नी की कोठरी में जानेवाला बेटा, अपनी शादी की चर्चा सुनकर भाग जानेवाली बहन-बेटी...। ताज्जुब की बात है कि गाँव में भी अब पेप्सोडेण्ट टुथपेस्ट और कमोड वाले पखाने का चलन हो गया है, डाइनिंग टेबल पर भोजन होता है, पूजा घर में सिरैमिक पालिश किया हुआ टाइल्स लगाया जाता है। किन्तु कथा में लोगों को वर्णन चाहिए नीम और साहुर के दातुन का, उत्तर मुँह बैठकर पैखाना करने का, लीप-बुहारकर पीढ़े पर बैठकर भोजन करने का, गाय के गोबर से गह्वर लीपने का...।

चूँकि मैथिली की आलोचकीय और प्राध्यापकीय दृष्टि समय-सापेक्ष नहीं हो पाई है, यहाँ की पाठकीय दृष्टि भी सौ वर्ष पीछे चल रही है। आलोचना-कर्म और विवेचना-कर्म, यहाँ के बुद्धिजीवियों, साहित्य-प्रेमियों और विद्यार्थी-शोधार्थियों को किसी भी तरह नई दृष्टि नहीं दे पाया है। अन्यान्य भाषा-साहित्य की रचनाएँ--सृजनात्मक और आलोचनात्मक दोनों ही क्षेत्रों में पारम्परिक से आधुनिक हुईं, समकालीन हुईं, उत्तर-आधुनिक हुईं, और अब उसके अन्त की भी तैयारी चल रही है, किन्तु मैथिली के पाठकवृन्द को राजकमल चौधरी की कथा अश्लील और अनैतिक लग रही है।

इन सारी परिस्थितियों को देखते हुए आज के कथाकार, आलोचक, प्राध्यापक और समाजशास्त्री लोगों का दायित्व बढ़ा हुआ दिखाई दे रहा है। सबसे बड़ा दायित्व तो कथाकारों का होता है कि वे अपनी कहानियों की वकालत बन्द करें। जिन बातों को वे अपनी कथा में स्पष्टतः नहीं कर पाए, उसे अपनी टिप्पणी से स्पष्ट करने की चेष्टा न करें और अपनी विफलता की जड़ ढूँढें। साथ ही अन्य समस्त साहित्यिक प्रवक्ता लोगों के साथ एकजुट होकर इस स्वर को स्थापित करें कि जैसे रसभोग का असली स्वाद लेने के लिए रससिद्ध होना आवश्यक है, जैसे संगीत स्वर-लहरी के उचित आनन्द के लिए लयसिद्ध होना आवश्यक है, वैसे ही कथा-पाठ (साहित्य पाठ) के वास्तविक आनन्द के लिए साहित्य सिद्ध होना, रसज्ञ होना, मर्मज्ञ होना आवश्यक है। चूँकि समकालीन समाज के जीवनक्रम का इतिहास साहित्य होता है, इसीलिए अतीत की मर्यादा और आचार संहिता के फारमूले पर समकालीन साहित्य का अवगाहन-अनुशीलन नहीं किया जाना चाहिए। साहित्य सदा से अतीत की नींव और वर्तमान की धरातल पर भविष्य की महल खड़ा करता आया है। ऐसे में कथा को पढ़ने-लिखने का औजार समकालीन होना चाहिए। चन्द्रमा पर उतरकर जो बहू वहाँ की मिट्टी ले आई और उसका वैज्ञानिक परीक्षण कर लिया, उनकी सास को यह प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए कि उनकी बहू खीरा हाथ में लेकर चैठ-चन्द्रमा को प्रणाम करेंगी। मानव क्लोन बनाने वाले वैज्ञानिक के मैथिल पिता को यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि उनके पोते की तबीयत खराब होने पर पुत्र हनुमान चालीसा का पाठ, अथवा महामृत्युंजय मन्त्र का जाप, अथवा ओझा-गुनी को बुलाएँगे। आज की मैथिली कथा पढ़ते समय, पाठकों को मन से समकालीन और हृदय से उदार रहना पड़ेगा और इन सारी बातों को मन में रखना पड़ेगा। ऐसा किए बिना आज के साहित्य के मर्म तक पहुँचना असम्भव है। मैथिली के बहुत से पाठक ऐसे भी होते हैं, जिन्हें विश्व सन्दर्भ की समस्त गतिविधियों से कोई मतलब नहीं रहता है। अपनी नमक-रोटी की व्यवस्था और सगे-सम्बन्धियों के नाते-रिश्ते तक सीमित रहते हैं। किन्तु इसीलिए वे सामाजिक-पारिवारिक अद्यतन सूचना से निरपेक्ष नहीं रहते हैं। और, यह बात सत्य है कि साहित्य के वास्तविक रसबोध के लिए इतनी ही जागृति और इतनी ही उदारता पर्याप्त है। इससे अधिक ज्ञान की उपयोगिता आचार्य और प्रवक्ता लोगों के लिए अपेक्षित होती है।

प्रशासनिक सेवा के प्रशिक्षु लोगों को व्याख्यान देते हुए शिक्षक कहते हैं--भारतीय व्यवस्था में किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए प्रशासकों को कुछ नियम दिए जाते हैं, ताकि उस नियम का अनुसरण करते हुए लक्ष्य तक पहुँचा जाए। किन्तु विडम्बना यह है कि भारत की प्रशासन व्यवस्था उस नियमावली के पालन को ही लक्ष्य मान लेती है।--मिथिला की सामाजिक आचार संहिता और भारतीय साहित्य के लक्षण ग्रन्थ के अनुशासन में भी यही हाल है। यह बात सभी लोग जानते हैं कि प्राचीन लक्षण-ग्रन्थ का सृजन लक्ष्य-ग्रन्थ के बाद ही हुई है। अर्थात, आलोचना कर्म के लिए निहित कसौटी का निर्धारण कुछ प्रामाणिक लक्ष्य ग्रन्थों को सामने रखकर किया गया है। यदि यह बात उस समय में सत्य था तो आज ऐसा क्यों नहीं हो सकता? आज की साहित्यिक आलोचना के लिए पुरानी कसौटी अर्थहीन हो गई है। आज का मैथिली कथा लेखन यह तय कर चुका है कि इन रचनाओं को कथानक की दृष्टि से नहीं पढ़ा जाए। समाज और सामाजिक जीवन अब इतना अत्याधुनिक और वैज्ञानिक शैली का हो गया है कि इस वातावरण में उपजी कथा केवल कथा ही हो सकती है, कथासार नहीं। पहले कथ्य होता था, और उसमें हाड़-माँस-मज्जा भरकर कथानक गढ़ा जाता था, कथा की प्रभावान्विति उसकी सम्पूर्णता में होती थी। अब वैसा नहीं है। आज की कहानियों के सार-संक्षेप नहीं सुनाए जा सकते हैं। वर्तमान समय की कहानियों की एक-एक पंक्ति और एक-एक शब्द में कथा की आत्मा निवास करती है, कथा का एक-एक अंश कुछ कहने के लिए व्यग्र रहता है। शिल्प-संरचना आज की कथा का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष बन गया है। राजकमल चौधरी की कथा 'हरिद्वारवास' की मालती अस्सी वर्ष के बूढ़े आत्मानन्द जी के साथ रात बिताकर बाहर आती हैं, तो बोलती हैं, 'बड़े सिद्ध महात्मा हैं आत्मानन्दजी; अभी तक मन तो बीस-पच्चीस वर्ष का ही है। किन्तु, बेचारे करें क्या, शरीर ही साथ नहीं देता है।'--मात्र तीन वाक्य-खण्ड एक विशाल वक्तव्य की तरह फलित होते हैं। कथा के शिल्प-संरचना-शैली में आज एक-एक वाक्य इसी तरह से फलित होता है। कथा के एक-एक शब्द, वाक्य, विराम, पॉज, चुप्पी तक में कोई न कोई बड़ी बात कही गई रहती है। इन सभी तत्वों की विस्तृत व्याख्या अपेक्षित होती है। हरिद्वार के संन्यासाश्रम कल्याणाश्रम की व्यवस्था विधान में क्या क्या हो रहा है, सेठ बाँकेमल, या आत्मानन्द जोगी, या मायास्वामी के जीवन का क्या उद्देश्य है? जीवन का अन्तिम लक्ष्य क्या है? कामवती या फिर मालती के जीवन का चरम लक्ष्य क्या है? देह और मन की तृप्ति के अलावा और कुछ? निश्चित रूप से या तो सभी दिशाहारा हैं अथवा समाज में श्रेष्ठ किन्तु मन के गुलाम बनकर जीवन पूरा करना चाहते हैं। धर्म और साधना और धर्म के प्रचार-प्रसार की ओट में क्या-क्या हो सकता है--उन्हीं सब बातों का छिलका छुड़ाने के लिए इस कथा में इतना ट्रीटमेण्ट किया गया है। खोजना शुरू करें तो बहुत छोटा-सा कथ्य मिलेगा कि मालती घर से भागकर मन की शान्ति के लिए 'हरिद्वारवास' का निर्णय लेती हैं और वहाँ भी वंचना अथवा वांछना के सम्मोहन में आश्रम आती हैं और वहीं के रीति-रिवाज में रम जाती हैं। किन्तु इतना-सा कथ्य और इस कथा के सार को मन में रखकर आगे बढ़ें तो कुछ हाथ नहीं लगता है। मुख्य बात तो यह है कि आज की कहानी की विशाल बेल के लिए कथ्य, केवल सहारे का काम करता है। किसी भी बेल को अपने विकास की ओर उन्मुख होने में, जमीन का मोह छोड़कर फैलने में जो काम कोई सूखी डाली करती है, उतना ही सहारा आज की कथा को कथ्य दे रहा है। अभिप्राय यह नहीं कि कथ्य निष्प्रयोजनीय हो गया है। उस अर्थ में वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। उस सहारे के अभाव में बेल मिट्टी पर फैलकर सड़ जाएगी, पल्लवित-पुष्पित-फलयुक्त नहीं हो पाएगी।