मैथिली कविता का यात्री-पथ (गंगेश गुंजन) / नागार्जुन

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नागार्जुन के काव्य में मुझे बहुत सूक्ष्म रूप में संस्कृत महाकवि भवभूति का विकसित युगीन काव्य-बोध निरंतर प्रवाहित प्रतीत होता है। ‘मां मिथिले, अंतिम प्रणाम’ एवं कुछ अन्यान्य कविताएं उसी करुणा का आधुनिक विस्तार लगती हैं। कथ्य या विषय स्वयं में काव्य का कोई एकमात्रा निर्णायक उपादान नहीं होता, काव्य में उसे नायक-तत्व भर कह सकते हैं। काव्यत्व की समग्र निष्पत्ति, कवि के विषय-बोध के साथ ही भाषिक बर्ताव की सुंदरता और अंतर्दृष्टि के विशेष प्रयोग से संभव होती है। वहीं कवि मन का उत्कर्ष सृजित होता है। कथ्य मात्रा चाहे वह कितना भी विशेष अथवा आम हो, हर कवि की क़लम से उतना महत्वपूर्ण नहीं बन पाता। यात्राी जी इस अर्थ में भी अपने समकालीन मैथिली कवियों से अलग हैं। अलग ढब के कवि। अपनी प्रभावान्विति में ‘अकाल और उसके बाद’ कविता में अभिव्यक्त नागार्जुन की करुणा साधाारण दुर्भिक्ष के दर्द से बहुत आगे तक की लगती है। क्योंकि उसी दौर में उस विपदा पर अनेक रचनाएं लिखी गयीं। पर यह रचना जनकंठ की आवृत्तियों में आयी और कालजयी हो गयी। जहां तक मेरी जानकारी है, मैथिली में इस मिज़ाज और वज़न की कविता नहीं मिलती है। उपलब्ध कंटेंट की और अधिक बड़ी सामाजिक खेती कर लेने वाले दूरंदेशी किसान हैंμयात्राी जी। उनकी रचना एक फ़सल ही नहीं, अगली फ़सलें भी बनती चली जाती है। साहित्य कर्म में जिसे आप काव्य, कवि परंपरा कहते हैंμमैथिली में यात्राी एक नयी परंपरा के प्रवर्त्तक हो गये हैं। उनका यह होना भी पचास के दशक में रूप ले चुका था। व्यक्तिगत होते हुए भी अपना यह अनुभव कहना समीचीन होगा; जब मेरी कोई तुकबंदी तरह की पंक्तियों को सुनकर और उस किशोर वय में ही दिनचर्या में मुझे अपने साथी-भाइयों की तरह ही पारंपरिक रूप में अनुशासित नहीं पाये जाने पर पिता ने कहा था, ‘हंुंह् जात्राी जी बनै छह-हुंह जात्राी बनते हो!’ उन यात्राी का तो मैंने नाम ही सुना पहली बार तिरसठ-चौंसठ के जमाने में। बल्कि और बाद में ही शायद जब एम.ए. मैथिली करने की ज़रूरत आयी। ‘चित्रा’ मेरे मैथिली-एम.ए. पाठ्यक्रम के उसी विशेष दौर की पुस्तक है जिसे मुझे पाठक की तरह नहीं, छात्रा की तरह पढ़ना था। तब मैथिली के इस रचनाकार का परिचय मिला, जिसका काव्य-संसार अनुभव, भाषा, काकु प्रांजल मैथिल व्यंजना की अभिव्यक्ति के सहज स्वादीय मिज़ाज से दीप्त था। संस्कृतनिष्ठ शास्त्राीय मैथिली शब्दावली की प्रयोग बोझिलता, गहन-गूढ़ नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 401 आदर्श या दार्शनिकता के कारण फ़क़त किताबी और बेस्वाद हो चुकी कविता की जगह सर्वथा नये और हठात् मन में उतर जाती हुई कविता का ‘मित्रालाभ’ हुआ। और यात्राी को तलाशने के क्रम में बहुत जल्दी ही हिंदी के नागार्जुन मिले। इन नागार्जुन कवि महोदय को मैं हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षीय कोठरी में आयोजित एक बहुत छोटी-सी किंतु स्मरणीय बड़ी गोष्ठी में, जिसमें आचार्य शिवजी समेत आचार्य नलिन विलोचन शर्मा और कई अन्य विशिष्ट जन रहे ही होंगे, मैं पहचानता नहीं था। मैं तो तब ख़ुद ही, जैसी याद है, बी.ए.पहले वर्ष का छात्रा रहा होऊंगा और प्रोफ़ेसर कलाधर जी के प्रेरणा-प्रोत्साहन से ही उसमें प्रवेश का साहस भी जुटा पाया था। यानी हम दो-तीन ऐसे साथियों की उपस्थिति से वहां का माहौल बाल मंडलिक भी हो गया था, सो याद है। उसमें बहुत से अपरिचित विशेष लोग कालांतर में आगे कुछ गुरुस्थानीय और कई अग्रज लेखक कवि बंधु के रूप में मेरे लिए प्रेरणा-स्रोत भी बने। दो कवि यात्राी जी के बारे में कई बार मन में प्रश्नाकुलता पैदा होती हैμविशेषतः उनकी भाषिक मान्यता और आग्रह को लेकर। वे, वैसे तो कई भारतीय भाषाओं में छिटफुट लिखते थे, ऐसा उनके बारे में प्रख्यात है। किंतु उनकी प्रमुख रचना-भाषाएं मैथिली और हिंदी ही रही हैं। मैथिली उनकी मातृभाषा है और हिंदी राष्ट्रभाषा के महत्व से उतनी नहीें जितनी उनके सहज स्वाभाविक और कहें तो प्रकृत रचना-भाषा के तौर पर उनके बड़े काव्यकर्म का माध्यम बनी। अबतक प्रकाश में आ सके उनके समस्त लेखन का अनुपात विस्मयकारी रूप से मैथिली में बहुत कम और हिंदी में बहुत अधिक है। ऐसा कोई आकस्मिक नहीं, भले ही परिस्थितिजन्य परंतु उनकी अपनी प्राथमिकता के अनुसार अतः उनका अपना चुनाव था। इस चुनाव में वही जीवन यथार्थ कारक हुआ जो आम तौर से प्रतिभाशाली लेखक को भी अक्सर व्यवसायी लेखक बना डालता है। अतः यह यात्राी जी का कोई अनायासित नहीं अपितु जीवन यथार्थ और व्यावहारिकता के दायरे में अपने स्वभावानुरूप प्रतिभा का अपना अभियोजन था। एकाधिक बार ‘मैथिली कें अपन कोंढ़-करेज खखोरि क’ देलियैक मुदा -(मैथिली को अपना कलेजा निकाल कर देता रहा लेकिन गुज़ारा नहीं कर सका)। इस प्रकार साहित्य को जीविका का साधन चुनने की उनकी लाचारी ने ही उनसे अपने मुख्य लेखन की भाषा हिंदी का यह पथ चुनवाया। कह सकते हैं कि साहित्य तो पवित्रा साधना-अर्चना का माध्यम है, उसके ज़रिये जीविका जैसी तुच्छ उपयोगिता नहीं ली जा सकती। जैसी चली आ रही अब तक की भावुक लोकरूढ़ि, उसे उन्होंने खुलेपन से तोड़ा। अपनी जीवनचर्या और कवि-व्यवहार के आजीवन पारदर्शी प्रदर्शन के साथ। चरैवेति स्टाइल में यात्राी बनकर। कहीं कोई चाकर-वृत्ति नहीं अपनायी। समाज या परिवार को किसी भ्रम में भी नहीं रखा कि उनकी फटेहाली महज कोई बौद्धिक प्रदर्शन है। इस पथ को प्रशस्त करने का भी मैथिली-श्रेय यात्राी जी को ही है। उनके पूर्व तक, मैथिली लेखक-कवि के लिए भले मैथिली-भाषा-आंदोलन की ऐतिहासिक विवशता रही हो, लेकिन कवि-लेखक बहुधा इस बात और व्यवहार पर आत्ममुग्ध ढंग से सक्रिय थे कि ‘साइकिल की हैंडिल मे अपना चूड़ा-सत्तू बांधकर मिथिला के गांव-गांव जाकर प्रचार-प्रसार करने में अपना जीवन दान कर दिया। इसके बदले में किसी प्राप्ति की आशा नहीं रखी। मातृभाषा की सेवा के बदले कोई दाम क्या ?’ ऐसी मान्यता को यात्राी ने अपने काव्य-व्यवहार और जीवन-निर्वाह की शैली से उदाहृत करते हुए नयी पीढ़ी के मन-मस्तिष्क में मातृभाषा-प्रेम और उसकी वास्तविक जीवन-संगति की समाजार्थिक 402 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 चेतना भरी और विज्ञान-सम्मत व्यावहारिक युक्ति से लैस करने का सामाजिक साहस किया। और भारत के बहुलांश भाषा-भाषियों की ‘भाषिक धर्मांधता की तरह ही जकड़ गये मैथिली जन मानस को भी अपने ख़ास तेवर और अपनी तत्कालीन मैथिली कविताओं से झकझोरा। मातृभाषा भी, परिवार के इष्टदेवता का नितांत कोई एकांत पवित्रा चिनवार नहीं होती, वह कुदाल-हल-बैल गाड़ी और अन्न-बसात भी होती है। और जबतक भाषा इन सभी युक्तियों को वहन नहीं कर सकती अर्थात् भाषा को इस योग्य नहीं बनाया जाता तब तक भाषा की आयु अत्यंत क्षीण रहती है। भाषा के बारे में बाबा की अवधारणा आज की आम भारतीय लोकतंत्राी अवधारणा के निकट नहीं थी। मैं ही नहीं, उनके बहुत-से स्नेही प्रशंसक बौद्धिक इस तथ्य के क़रीबी जानकार हैं। इधर के बहुत हल्के-फुल्के और नितांत सरलीकरण स्टाइल से आये जुमले भूमंडलीकरण, बाज़ार, विश्वभाषा अर्थात् अंग्रेज़ी का कॉरपोरेटी दबदबा हिंदी भाषा पर आसन्न ख़तरनाक संकट आदि शब्दावली की भाषाई विचारधारा के संदर्भ में भी बाबा अपने सदाबहार आत्मनिर्भर विवेक-विचार की तरह ही स्वच्छंद थे। मैथिली और हिंदी का भाषिक विचार उनका हू-बहू वैसा नहीं पाया गया जैसा आम तौर से इन दोनों ही भाषाओं के इतिहास-दोष या राष्ट्रभाषा बनाम मातृभाषा की द्वन्द्वात्मकता में देखने-मानने का चलन है। और ऐसा एक बार नहीं, गोष्ठी-चर्चा में तो शतशः, जिसका आवश्यक रूप से मुद्रित-प्रकाशित अभिलेख नहीं मिलता, किंतु लिखित रूप में भी इसका साक्ष्य उपलब्ध है। ‘मैथिली मरि जायत’ अर्थात् ‘मैथिली मर जायेगी’ जैसी कभी कही गयी उनकी भावोत्तेजक टिप्पणी, पर व्यापक सरगर्मी हुई थी। अच्छी ख़ासी। तत्कालीन उभयभाषी मठाधीशों के बीच में यह ख़ासा महत्त्वपूर्ण बनी। इसकी परिणति-निष्पत्ति कैसी रही इस बिंदु पर चर्चा महत्त्वपूर्ण नहीं। हालांकि हिंदी और मैथिली-भाषी समाज के बीच परस्पर द्वेष की सीमा तक यह असहज संबंध कम से कम मैं तो देख रहा हूं सन् 1965 ईसे, जब मैं आकाशवाणी पटना से प्रारंभ हुए मैथिली भाषा के स्वतंत्रा कार्यक्रम का प्रसारण प्रभारी बनाया गया। इससे पूर्व तो मातृभाषा तथा एक लेखक के अतिरिक्त मैथिली भाषा से ना तो मेरा कोई नियमित संपर्क-संवाद था ना ही वैसी सहज सामाजिकता जो कि हिंदी-समाज से थी। शिक्षा-दीक्षा समेत मेरा निजी लेखन हिंदी में ही सक्रिय था। और विस्मयकारी रूप से मैथिली भाषी प्रमुखों के द्वारा मैथिली प्रोग्राम के मेरे प्रभारी होने का इस विचार के आधार पर उग्र मुखर-सक्रिय विरोध हुआ कि एक ‘हिंदी’ के व्यक्ति को मैथिली कार्यक्रम क्यों सौंपा गया है?’ और विरोध या आपत्ति ऐसी साधारण नहीं थी कि टाल दिया जा सकता। कह सकता हंू कि यदि मेरी नियुक्ति केंद्र सरकारी नहीं रही होती तो कदाचित् मेरा कोई और ही हश्र हुआ होता। संदर्भ इसलिए अपरिहार्य ही मानता हूं कि महज़ भाषा के आधार पर अपने नाम पर मेरा ऐसा विरोध ख़ुद मेरे लिए अप्रत्याशित ही नहीं, अपितु झकझोर डालने वाली चिंता बन गया। क्योंकि मैथिली में भी कथाकार के रूप मे मैं विधिवत मान्यता पा चुका था। ‘अन्हार इजोत’ मेरा पहला कथासंग्रह भी छप चुका था। हिंदी और मैथिली के भाषाई विरोध के दायरे में अपने को इस दशा में पाने के फलस्वरूप ही सोचने का आधार हुआ और तब पाया कि यह विरोध यों ही या अचानक नहीं था, इसकी अपनी दुर्भाग्यपूर्ण ऐतिहासिकता थी। वाजिब थी या ग़ैर वाजिब थी इस विषय में मेरा अपना भी निष्कर्ष है मगर वह यहां कहने का विशेष औचित्य नहीं, क्योंकि मैं दोनों ही भाषाओं के प्रति ‘निष्ठा’ से संकल्पित हूं। निष्ठा शब्द अभिप्रायपूर्वक कह रहा हूं। चूंकि मैं आज की तारीख में भी साफ़-साफ़ देख-चीन्ह पा रहा हूं कि परस्पर विरोध और कई बार हिक़ारत तक बरते जाने के अंदाज़ में ऐसे ‘दकियानूस’ हिंदीवालों में भी नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 403 उतने ही हैं जितने मैथिली वालों में। बल्कि अब इस नव बाज़ारोन्मेष के दौर में यह भ्रम और ज़ोर पकड़ रहा है मानो भारत की अन्य भाषाएं हिंदी के विकास में अवरोधक हैं। मेरा प्रश्न इसी बिंदु से जुड़ा हुआ है। आखिर वह क्या वजह रही कि यात्राी ने नागार्जुन होकर जीने की राह अपनायी? इसी अर्थ में यह सवाल भी कि दोनों भाषाओं में लेखन के उनके अनुपात में बहुत अंतर का कारण क्या हो सकता है? मात्रात्मक और गुणात्मक कहें तो दोनों हिंदी में अधिक। मैथिली में बहुत कम है। एक सद्यः प्रमाण तो सात बृहत् खंडों में प्रकाशित नागार्जुन रचनावली है जिसका एक खंडμयात्राी समग्र जो मैथिली समेत बांग्ला, संस्कृत, आदि भाषाओं में लिखित रचनाओं का है। मैथिली कविताओं की अबतक प्रकाशित यात्राी जी की दोनों पुस्तकें क्रमशः ‘चित्रा’ और ‘पत्राहीन नग्न गाछ’ (साहित्य अकादेमी पुरस्कृत) समेत उनकी समस्त छिटफुट मैथिली कविताओं के संग्रह हैं। उनके स्वयं कहे अनुसार उनकी 40 राजनीतिक कविताओं का चिरप्रतीक्षित संग्रह ‘विशाखा’ आज भी उपलब्ध नहीं है। संभावना भर की जा सकती है कि किसी छिटफुट रूप में प्रकाशित हो गयी हो, किंतु मेरी जानकारी में वह इस रूप में चिह्नित नहीं है। सो कुल मिलाकर तीसरा संग्रह अब भी प्रतीक्षित ही मानना चाहिए। हिंदी में उनकी बहुत-सी काव्य पुस्तकंे हैं। यह सर्वविदित है। सो नागार्जुन या यात्राी के कविकर्म में यह द्वैत क्यों है और कारण क्या हैं? जैसे कि उनकी समस्त आपातकालीन कविताएं हिंदी में हैं। मैथिली और मिथिलांचल भी तत्कालीन जनांदोलन से असंपृक्त नहीं थे। कम से कम उल्लेखनीय स्मृति तो नहीं आती कि मैथिली में भी उन्होंने इसी सघनता से उस दौर में कुछ लिखा हो। और उनकी बहुलांश हिंदी-कविताओं का जो मिज़ाज है, उनका मैथिली अनुवाद किस विधि और युक्ति से संभव है, यह भी मैं नहीं सोच पाता। ‘पत्राहीन नग्न गाछ’ की कविताओं के बहाने हम बहुत संक्षेप में देख पाते हैं कि यात्राी की कविताओं में केंद्रीय रूप से जनपक्ष का सृजनात्मक प्रतिफलन किस प्रकार हुआ है। ‘पसेनाक गुण-धर्म’ में शब्द आया है, ‘बरकतइ’। श्रम के विवश उत्कर्ष की ठेठ मैथिल व्यंजना के इस शब्द का अर्थ न तो ‘खौलना’ है ना ही ‘उबलना’। इन दोनों ही के बीच का, यह शब्द है। वस्तु को एक विशेष तापांक पर पकाने की स्थिति। कठोर श्रमिक एक रिक्शा चालक के ‘स्नायुतंतु की ऊर्जा’ को इस ‘बरकतइ’ में अभिव्यक्त करने की उत्कट मार्मिकता को स्वाभाविक घनत्व में, इसी फ्ऱीक्वेंसी पर महसूस कर सकना मैथिली में ही सहज संभव है, जिन अर्थों में हम नागार्जुन की मैथिली कविता की उम्मीद रखते हैं, उनमें एक। ‘पड़ल छी छगुंता मे’ कविता के अंतिम अंश में यात्राी कहते हैं: आधा छीधा हलुकाही बोरा झाजीक प्रतापें जाइ छी खेपने ज़िंदाबाद सरकारी गोदाम ज़िंदाबाद सरकार बहादुर एक साथ सपाट और संश्लिष्टता के साथ ‘सरकारी लूट’ पर इस अदा की नकारात्मक व्यंग्य प्रशंसा! ऐसा आभास बाबा की हिंदी रचना में भी मिल जाना संभव है लेकिन ‘आधा छीधा हलुकाही बोरा’, ‘झाजीक प्रतापें जाइ छी खेपने’ की ध्वनि मैथिली में ही आस्वाद्य है। गौरा पहिरथि फाटल नूआ छनि कर्महि मे लागल भूआ 404 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 जैसी भाषिक व्यंजना और ‘कर्महि मे छनि लागल भूआ’ मुहावरा का यह प्रयोग तो मैथिली में भी प्रायः पहली बार और अप्रतिम रूप में हुआ है। इसी कविता के अंतिम प्रकरण में ‘महादेव’ के लिए ‘पचकल लोढ़ा’ का प्रयोग महज अनास्तिक पाठ ही नहीं है। इस गति में यात्राी जी जनसाधारण को ईश्वरवाद और प्रचलित आस्था के विरुद्ध नयी समझ का आह्वान कर जाते हैं। अर्थात् ऐसा जो किसी काम का नहीं, ईश्वर है, उसकी पूजा क्यों की जाय ? और धार्मिक अंध आस्थाओं का गढ़ रही मिथिला के जनसमाज को ऐसी वाणी में ‘कहने’ वाले कबीर अकेले यात्राी ही हुए। और कविता का अंत: पाथर भेलाह तों सरिपहुं बाबा बैदनाथ ! नहि नबतै तोरा खातिर किन्नहु हमर माथ! पंक्ति के अंतिम तीन शब्द ‘किन्नहु’ (कभी नहीं), ‘हमर’ (मेरा), ‘माथ’ (सिर) में प्रगट संदेश, विराट लोकरूढ़ आस्था के समक्ष इतने दृढ़विश्वासी कवि-स्वाभिमान का यह स्वर प्रथम ही गूंजा मिथिलांचल में। और स्वाभाविक ही एक अन्य अंदाज़ में संस्कृत त्यागकर अवहट्ठ में लिखने के कारण विद्यापति को मिले सामाजिक बहिष्कार की तरह ही, यात्राी जी को भी बहुत बड़े दकियानूस मैथिल वर्ग का धिक्कार उठाना पड़ा। मैथिली गद्य में जो हरिमोहन झा जी को भी सहना पड़ा। यहां इस ‘नहि नबते तोरा खातिर किन्नहु हमर माथ!’ में अभिव्यंजना की मौलिकता यह लगती है कि ऐसी किसी धर्मरूढ़ लोकआस्था के विरुद्ध संदेश देने वाली कविता आम तौर से अपने को ‘नारा’ होने से बचा नहीं पाती। लेकिन यहां कांतासम्मित तासीर के साथ आयी ये पंक्तियां, अप्रिय लगने से पहले ही, समाज को रुचिकर प्रतीत होती हैं। और ‘नहीं झुकेगा तुम्हारे वास्ते कभी नहीं, मेरा सिर!’ क्रमशः लोक-व्यवहारों में साकार होता है। परिवर्तित मिथिला आज वही मिथिला नहीं है। जीवन-शैली और विश्व-विमर्श तक के क्षेत्रा में वह भी साधिकार युग की मुख्य धारा में है। ‘बीच सड़क पर’ जो एक नन्हीं सी परिपक्व चित्राकविता हैμवह अपने संप्रेषण में अनूठी है। ठीक जैसे एक भोला भाला ग्रामीण मूर्त हो गया सा लगता है, जो औचक ही किसी कलकत्ता जैसे महानगर में आ गया हो। बिल्कुल वही सरल सहज मुग्ध हत्प्रभ जीवंत व्यक्ति चित्रा ‘मध्य वक्षपर ट्रामलाईनकेर जनउ पहिरने’ के दृश्य चित्रा में। स्नानोत्तर जनेऊधारी के चित्रा का यथावत स्वाद जन साधारण के लिए भी स्पष्ट है। यद्यपि जनेऊ कुछ ख़ास जाति वर्ग के लोग ही पहनते हैं, सभी नहीं, लेकिन पढ़ या सुनकर इसका आनंद सार्वजनिकता में संप्रेषित हो गया है। संग्रह में ऋतुओं पर ख़ुद मैथिली में ही कई अपूर्व कविताएं हैं। प्रकृति और मानव जीवन के अंतःसंबंध और तज्जन्य ऐंद्रिक संवेदनशीलता की लगभग महानता को छूती हुई दुर्लभ श्रेष्ठ कविताएं हैं। बाबा की कविताओं में मुझे यदाकदा उनकी गद्यकृतियों के पात्रा और स्थानिकता की प्रखर पहचान भी झांकती दीखी। ‘बीतल आधा फागुन’ में ‘पनिचोभक ओइ क़लमबागकें’ को इस दृष्टि से परखा जा सकता है। क्योंकि क़लमबाग तो मिथिला ही क्या हरेक जगह का प्रायः एक समान ही होता है फिर ख़ास ‘पनिचोभक क़लमबाग’ (पनिचोभ गांव का ही क्यों) इसका क्या मर्म है। अवश्य ही कुछ नितांत निजता और भावलोक का प्रच्छन्न अंतःसंबंध हो सकता है। नयी मानसिकता में भी लगभग सभी प्रचलित रसों की अधुनातन परिपाटी सहज प्रांजल अभिव्यक्ति पाती है जो संप्रेषण में अपने को सार्वजनिक कर देने के गुण रखती है। यह यात्राीजी के उत्कट-अप्रत्याशित नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 405 स्वभाव के विपरीत यों उतर गयी है मानो बिना उन्हें बतलाये आ गयी हो। ऐसे स्थलों पर उनकी वैचारिक निजता का इन रचनाओं पर कोई वज़न नहीं पड़ पाता। ‘कान पाथि कें सुनब पहर भरि’, ‘गाबथु प्रौढ़ा लोकनि मलार’ में तो अपूर्व व्यंग्य है। मलार के संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि यह ऐसा लोकगीत है जो अक्सर नव विवाहिता की ओर से विरह गान के रूप में गाया जाता है। और यहां गाया जा रहा है प्रौढ़ाओं के कंठ से जो अपनी तरह की सुरीली असंगति का दुर्लभ नमूना है। यात्राी जी सहज प्रयोगधर्मी कवि हैं। सायासी प्रयोगशीलता नहीं है इनमें। शब्द प्रयोग के तौर पर भी आत्म विश्वास से भरे रचनाकार हैं। ‘साओन’ शीर्षक कविता में तमाम शब्द का प्रयोग नये ढंग से करते हैं। ‘तमाम’ इस अंदाज़ और लय में आया है कि बिल्कुल ही मैथिलेतर नहीं लगता। आह्वान परोक्षतः विद्यापति की ही लय में है। लय का भी अपना मुहावरा होता है। ‘दागल ब्रह्मचर्य’, ‘चेतन कुम्हारक नबका बासन’,‘ढेकी नहि कूटी अपनहि अमरत्वटाक’ जैसे शब्द प्रयोग और भाषा की अलग सामर्थ्य का अनुभव ही यात्राी को नागार्जुन से पृथक कवि बनाता है। मैथिली व्यंजना की यह भी अद्वितीयता है। ऐसे ही संदर्भों में नागार्जुन यात्राी हैं। आधुनिक गंधबोध पर सकारात्मक नव्यता की व्यंग्य टिप्पणी के रूप में विलक्षण कविता है, ‘प्लास्टिकक लत्ती’! सृष्टि की प्राकृत्तिक सत्ता का काव्यप्रकाश है इनकी ‘चें चें चें चें’ कविता। इसमें मान्य सत्ता का सहज नकार है। तथापि अपनी लघुता अर्थात् निस्वार्थता की सहज सृष्ट अपनी शक्ति से निर्भय हैμगौरैया! यह बात ज़ोर-शोर से कही जा सकती है कि मैथिली के कवि के रूप में यात्राी जी का काव्य कालिदास और विद्यापति का ही आधुनिक मार्क्सवादी परिष्कार और विकास है। परंपरा की ठोस भूमि पर खड़े होकर वे अपनी संवेदना का प्रस्थान बिंदु बनाते हैं। यात्राी जी सर्वाधिक आशावादी हैं। विद्यापति का आशावाद जहां प्रेम-प्रसंगों तक सीमित है, वहीं यात्राीजी का आशावादी सरोकार विराट वैश्विक है। यह भी ध्यान देने लायक तथ्य है कि उनके व्यक्तित्व के फक्कड़पन से अनेक कविताओं में अनूठी रंगत आ गयी है। कविताओं में ‘ठठ्टा’ करने जैसी उत्कट भाषिक युक्ति है। नजीज़ा यह कि उनकी कविता आसानी से पाठक-श्रोता के मर्म में गहरे उतर जाती है। शब्दशिल्पन तो उन्होंने हिंदी में भी पर्याप्त किया है लेकिन मैथिली में शब्दशिल्पन के साथ-साथ ठिठोली भी खूब है और ऐसी जिसने आधुनिक मैथिली कविता में नये आस्वाद का लोकप्रवर्तन किया है। विद्यापति, गोविंद दास, चंदा झा, भुवन-सुमन-सीताराम झा, मधुप-किरण-मणिपद्म से अलग अनेक नवीन संदर्भों में टटकी भाषा-छटा की काव्ययुक्ति का प्रवर्त्तन भी यात्राीजी ने ही किया है। इसके साथ यह भी सच है कि यात्राी जी की काव्य-परंपरा को आत्मसात कर मैथिली काव्य को अग्रगामी दिशा में मोड़ने वाली क़लम का दर्शन नयी पीढ़ी में दुर्लभ है। ‘पत्राहीन नग्न गाछ’ में मिल और कारखानों में खटते-मरते श्रमिकों के दैन्य, विषाद के साथ नगर सभ्यता की विकृति और विसंगतियों का उपहास वक्रोक्तिपूर्ण शैली में किया गया है। परंतु इस संग्रह के पहले ‘चित्रा’ में ग्राम जीवन का प्रसादपूर्ण चित्राण है। प्रयोगवादी वैचित्रय और बौद्धिकता का स्वर ‘पत्राहीन नग्न गाछ’ में अधिक प्रखर है। आज मिथिला-समाज में यात्राी कविता का पर्याय बन चुके हैं। निषेघ और स्वीकार दोनों ही स्तरों पर अपने जीवन काल में ही वह किंवदंती बन गये थे, विलक्षण और श्रेष्ठ अर्थों में भी। मो.: 09899464576