मैथिली कविता की परम्परा / देवशंकर नवीन

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किसी भाषा की लोकप्रियता का वास्तविक मानदण्ड, प्रशासकीय मान-सम्मान नहीं, बल्कि लोकजीवन में उसके महत्त्व से देखा जाता है। इस दृष्टि से मैथिली उन गिनी-चुनी भाषाओं में से है, जो ज्योतिरीश्वर से सैकड़ों वर्ष पूर्व से ही समृद्ध और लोकप्रिय रही है।

हर भाषा में कविता को मानव जीवन का अनुवाद कहा गया है; और प्रेम, मानव जीवन का अपरिहार्य स्वभाव, ठीक वैसे, जैसे साँस लेना। स्वभावतः लोकजीवन की लोकप्रिय भाषा मैथिली की कविता में प्रेम का उत्कर्ष उल्लासदायी होगा। ज्योतिरीश्वरकृत वर्णरत्नाकर से ही प्रारम्भ करें तो प्रेम का तत्व अपरिहार्य रूप से जीवन्त दिखता है। यहाँ तक कि लोककण्ठ में बसे जिस मौखिक साहित्य 'विरहा' और 'लगनी' की व्याख्या वहाँ है, उससे भी लोकजीवन में जड़ जमाए प्रेम-काव्य का स्वरूप निर्धारित होता है।

लोककण्ठ में बसे गीतों और ज्योतिरीश्वर के वर्ण रत्नाकार के बाद मैथिली कविता में प्रेम विषयक बहुआयामी चित्रण पर जहाँ सबसे अधिक नजर टिकती है, वह है विद्यापति पदावली। राधा-कृष्ण के प्रे्रम चित्रण में महाकवि विद्यापति ने प्रेम की सारी प्रचलित सरहदों को पारकर एक नए क्षितिज का निर्माण किया है। प्रेम के आयाम और मनुष्य जाति के क्षण विशेष के तीव्र मनोवेगों को कवि ने इतनी सूक्ष्मता से पिरोया है कि भावक का सहज ही अभिभूत हो जाना उचित है। वहाँ वयःसन्धि की मानसिक और आचरणगत चंचलता का चित्र जितना विस्तृत और स्पष्ट मिलेगा, उतना ही मूर्त नवयौवनाओं के आंगिक विकास का। यौवनोन्माद और प्रिय मिलन की उत्कण्ठा उनके यहाँ शालीन है या उद्धत---यह तय करना मुश्किल है। नायिका के क्षणिक आवेग से व्यक्त भाषा के आधार पर ज्यों ही उसे उद्दण्ड कहना चाहेंगे कि उसकी व्यवहारगत शालीनता आगे आकर खड़ी हो जाएगी। मन के विचरण की विस्तृत सीमा की तरह विद्यापति के काव्य में प्रेम का आयाम भी विस्तार से अंकित है। उनके यहाँ प्रेम कितना दैहिक है और कितना आत्मिक, कितना सांसारिक है और कितना आध्यात्मिक---यह तय करना भी दुष्कर है।

कहा नहीं जा सकता क्यों, लेकिन सच है कि विद्यापति के बाद मैथिली कविता में प्रेम-चित्रण का स्रोत क्षीण पड़ गया और वर्तमान शताब्दी के छठे दशक में आकर राजकमल चौधरी, मायानन्द मिश्र, मार्कण्डेय प्रवासी, गंगेश गुंजन, महेन्द्र, उदय चन्द्र झा 'विनोद', शेफालिका वर्मा, सियाराम सरस के काव्य में आकर प्रेम-चित्रण कुछ घना हुआ। इस बीच स्रोत को सूखने से बचाए रखने में गोविन्ददास, अमृतकर, दशावधान ठाकुर, कंस नारायण, उमापति, रमापति, नन्दीपति, रत्नपाणि, हर्षनाथ प्रभृत्ति की अहम् भूमिका है।

इस पीढ़ी के बाद कई समृद्ध पीढ़ियों का आगमन हुआ, जिनके योगदान से मैथिली भाषा साहित्य पर्याप्त समृद्ध हुआ; उनमें मनबोध, चन्दा झा, भुवनेश्वर सिंह 'भुवन', भोलालाल दास, पुलकित लाल दास, सीताराम झा, बद्रीनाथ झा, हरिमोहन झा, कांचीनाथ झा 'किरण' प्रभृत्ति का नाम लिया जा सकता है। लेकिन आम जनजीवन की भूख, बेकारी, महामारी, अनाचार, शोषण, बलात्कार, पाखण्ड और तरह-तरह की विकृतियों ने रचनाकारों को प्रेम की ओर देखने की मोहलत नहीं दी। पर बाद की पीढ़ी के रचनाकार इन्हीं परेशानियों में प्रेम के अँखुए जगाने लगे, मसलन कैक्टस की ठूँठ पर वैजयन्ती खिलाने का साहस करने लगे। ऐसे रचनाकारों की कविताओं में प्रेम क्षणिक मनोवेग और शरीरी उन्माद के बदले जीवन-संग्राम का पाथेय हो गया। समय के दुष्चक्र में उसकी आत्मा, उसके वजूद और उसकी अन्य अभिलाषाओं की तरह प्रेमोन्माद भी कुचल-कुचलकर ठोस होने लगा। दुखद अवश्य है कि इधर आकर मैथिली कविता से प्रेम फिर अनुपस्थित होने लगा है।