मैथिली कविता में प्रेम / देवशंकर नवीन

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'प्रेम' मानव जीवन का उतना ही आवश्यक तत्व है जितना मानव जीवन का अस्तित्व। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं--प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अन्त तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परम्परा को परखते हुए साहित्य-परम्परा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना 'साहित्य का इतिहास' कहलाता है। इस आधार पर यह बात बेहिचक मानी जानी चाहिए कि 'प्रेम' और 'साहित्य' के ताल्लुकात बुनियादी तौर पर बड़े गहरे हैं।

सृजन के प्रारम्भिक वर्षों से आज तक का साहित्य हर भाषा में अपने परिवेश की चित्तवृत्ति को चित्रित करता आया है। और, हर भाषा के साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंश प्रेम के नाम समर्पित रहा है। यदि थोड़ा व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो किसी भी 'रस' के साहित्य-सृजन का मूल कारण ही प्रेम होता है। आदिकवि वाल्मीकि को क्रौंचवध के बाद यदि करुणा उत्पन्न हुई तो इसका मूल कारण प्रकृति के सारे जीवों से प्रेम ही था और जिससे उन्हें प्रेम था उसका वध देखकर करुणा उत्पन्न होना लाजिमी था।

तमाम आधुनिक भारतीय भाषाओं में मैथिली पर्याप्त समृद्ध भाषा है। किसी भी भाषा की सम्पन्नता उसके सृजन की विरासत के उत्कर्ष, और जनपद में उसके सम्मान के आधार पर आँकी जाती है। मैथिली भाषा साहित्य में विद्यापति से पूर्व के साहित्य को आदिकाल में रखा गया है। उनसे पूर्व ज्योतिरीश्वर के 'वर्णरत्नाकर' में गद्य का स्वरूप पर्याप्त परिपक्व और सुगठित है जिससे यह तय करना आसान है कि 'वर्णरत्नाकर' से सैकड़ों वर्ष पूर्व मैथिली में पद्य रचना की एक समृद्ध परम्परा रही होगी, जो मुद्रण व्यवस्था तथा संरक्षण के अभाव में उपलब्ध नहीं रही। यहाँ ऐतिहासिक तथ्य खोजना ध्येय नहीं।

'वर्णरत्नाकर' को कविकर्म की निर्देशिका मानी जाए तो अनुचित न होगा। इस गद्य ग्रन्थ में ज्योतिरीश्वर ने विविध जैविक उपादानों का वर्णन किया है। कल्लोलों में विभक्त इस ग्रंथ के ज्यादातर कल्लोलों में प्रेम के स्वरूप खोजे जा सकते हैं। नायक, नायिका, शृंगार, स्नान, ऋतु, कामावस्था, वर्षा, चन्द्रमा, वेश्या आदि के वर्णनों में रचनाकार के लोक-सम्बन्ध, जीवन के तत्वों से तादात्म्य बड़ी सूक्ष्मता से परिलक्षित हैं। इन सारी स्थितियों के वर्णन में प्रेम के तत्व मूर्तिमान हैं। नायिका की हँसी का वर्णन करते हुए ज्योतिरीश्वर लिखते हैं--कुमुद, कुन्द, कदम्ब, कास, भास, कैलास, कप्र्पूर, पीयूषक कानि प्रसारी सन, शरतक पूर्णिमा, चाँदक ज्योत्स्ना अइसन, त्रौलोक्यो वश करइतें...। कल्पना सखी, शयन... और उपमा की यह विविधता रचनाकार के विराट अनुभव, तीक्ष्ण प्रतिभा और वास्तविक लोकजीवन के यथार्थ से गहरे सरोकारों का सबूत है। इस ग्रन्थ के अवलोकन से यह तय करना बहुत सहज है कि मैथिली साहित्य में प्रेम का उत्कृष्ट रूप प्रारम्भिक दिनों से ही रहा है। इसी वर्णरत्नाकर में लोककण्ठ में बसे कुछ मौखिक साहित्य 'विरहा' और 'लगनी' आदि की जैसी चर्चा है, उस आधार पर प्रारम्भ से ही, लोकजीवन में भी जड़ जमाए प्रेम-काव्य का स्वरूप निर्धारित होता है।

साहित्य के तीन प्रधान रस--भक्ति, वात्सल्य और शृंगार--का मूल केन्द्र 'प्रेम' ही है। मात्र इतने को ही प्रेम के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो आज जो कविताएँ आम जनता के दुख-दर्द का गुणगान करती हैं, उनका आधार-तत्व भी प्रेम ही है।

ज्योतिरीश्वर युग की समाप्ति के तुरन्त बाद मैथिली साहित्य में महाकवि विद्यापति आते हैं। शृंगार का जैसा उत्कृष्ट उदाहरण विद्यापति के साहित्य में है, वैसा संसार की किसी भी भाषा के साहित्य में मिलना दुर्लभ है। यद्यपि विद्यापति पर बहुत दिनों तक बंगला और हिन्दी के लोग दावा करते रहे। बाद में बंगला के विद्वान निश्चिन्त होकर बैठ गए; पर हिन्दी के लोग अभी भी अपना दावा रखे हुए हैं। यह विडम्बना ही है कि जिन बारह पुस्तकों को लेकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के वीरगाथा काल का नामकरण किया उनमें से सबसे प्रामाणिक पुस्तक 'कीर्तिलता' और 'कीर्तिपताका' के रचनाकार विद्यापति, फुटकल खाते में डाल दिए गए। बहरहाल, साहित्येतिहास का विवाद सुलझाना इस निबन्ध का ध्येय नहीं, इसलिए विद्यापति की शृंगारिक रचनाओं की चर्चा ही श्रेयस्कर होगी।

प्रेम एवं शृंगार सम्बन्धी विद्यापति की जो भी रचनाएँ हैं, वे विद्यापति पदावली में ही हैं। प्रेम के सार का उत्कर्ष उनकी पदावलियों में ही मौजूद है। मैथिली से हिन्दी तक के ज्यादातर विद्वान उनकी लोकप्रियता एवं ख्याति का आधार उनकी पदावली को ही मानते हैं। संयोग शृंगार हो अथवा वियोग शृंगार--हर स्थिति में पदावलियों में 'प्रेम' की अनुभूति की जो तीव्रता दिखती है, वह भावक के मन को व्याकुल और विह्वल कर देती है। यहाँ नायिकाओं का नख-शिख वर्णन, नायकों का चरित्रगान, सद्यःस्नाता के उन्नत उरोजों और स्निग्ध कपोलों, भीगे नीवी-बन्ध और आकुल केश-पाश के वर्णन ही नहीं, मिलन की स्थिति में सुध-बुध खोकर आनन्द के सागर में गोता लगाने की स्थिति और विरह की स्थिति में दोनों पक्षों की आतुरता का वर्णन जीवन्त हो उठता है।

राधा-कृष्ण के प्रेम का चित्र उकेरते हुए विद्यापति ने प्रेम के उन सारे सूक्ष्मतर बिन्दुओं को मूर्त किया है जो मनुष्य के क्षण विशेष के तीव्र मनोवेग का अनुषंग है। उनके यहाँ वयःसन्धि, मानसिक और आचरणगत चंचलता का चित्र जितना विस्तृत और स्पष्ट है, उतना ही मूर्त नायिका के आंगिक विकास का...। यौवनोन्माद और प्रियमिलन की उत्कण्ठा उनके यहाँ कितना शालीन है और कितना उद्धत--यह तय कर पाना मुश्किल है। उनकी नायिका कहीं अभिसार हेतु जाते समय घर के गुरुजनों का डर भूल जाती हैं तो दूसरी तरफ अभिसार को गुप्त रखने के लिए तरह-तरह के उद्योग में लगी रहती है--

सखी हे, आज जाएब मोहिं

घर गुरुजन डर न मानब, वचन चूकब नाहि

इधर प्रिय-मिलन के लिए दिए गए वचन निभाने हेतु, अभिसार हेतु घर के बुजुर्गों का कोई डर नहीं मानती, उधर शुक्लाभिसार या कृष्णाभिसार या पावसाभिसार के लिए ऐसे वस्त्र, ऐसे आभूषण का चयन करती रहती हैं कि रात में जाते हुए समाज के लोग या परिवार के लोग उनके परिधान के कारण उन्हें पहचान न पाए। शुक्ल पक्ष की चाँदनी रात में जब नायिका अपने प्रिय से मिलने जाएगी तो धवल परिधान धारण करेगी, अपने काले बालों को भी श्वेत पुष्प गुच्छ से इस तरह सजा लेगी कि रास्ते में चलते समय किसी की नजर पड़े भी तो उसे सन्देह न हो कि कोई मनुष्य है, वह यह सोचे कि यह चाँदनी का ही अंश है। यहाँ तक कि पायल से आवाज न निकले, इसका अभ्यास घर में ही कर लेगी। विद्यापति के प्रेम विषयक पदावली की नायिका, राधा का यह शालीन और साहसी आचरण प्रेम जीवन के साहस और कोमलता का परिचायक है।

राधा-कृष्ण प्रेम विषयक कविताएँ कई भाषाओं में उस काल के कई कवियों ने लिखी हैं। पर जहाँ जयदेव के यहाँ राधा का स्वरूप प्रेम में भाव-विह्वल है, चण्डीदास के यहाँ राधा प्रेम में मुग्ध है, वहीं विद्यापति की राधा विलास और उसकी कल्पना में खोई हुई दिखती हैं। उनके यहाँ आम तौर पर राधा का वय किशोरी से पूर्ण युवती तक दिखता है, जहाँ कभी वह मदनोन्माद में प्रियतम को कोसती है 'मदन वेदन बड़ पिया मोरा बोलछड़', कभी सहेली को अपने प्रिय मिलन का अनुभव सुनाती है 'सखि की पूछसि अनुभव मोहि', कभी अपने प्रियतम को सन्देश भेजने के लिए दूत ढूँढती है 'के पतिया लए जाएत रे, मोरा प्रियतम पास', कभी सहेली से अपनी विरह-वेदना सुनाती है 'सखि हे! हमर दुखक नहि ओर', कभी अपने बेमेल विवाह की व्यथा समाज से कहती है 'पिया मोरा बालक हम तरुणी गे!' साहस और शालीनता के बीच अनिर्णय की स्थिति में पड़ी, कभी-कभी असहज हरकतें भी कर लेने वाली विद्यापति की नायिका, राधा के इतने रूप, मानव जीवन की विविधता और समय विशेष के सामाजिक ढाँचे को स्पष्ट करते हैं।

विद्यापति के यहाँ विरहावस्था की व्याकुलता 'सखि हे! हमर दुखक नहि ओर', 'लोचन नीर तटिनि निर्माणे', 'सजनि के कह आओत मधाई', 'के पतिया लए जाएत रे', 'माधव कठिन हृदय परवासी', 'विरह व्याकुल बकुल तरु तर, पेखल नन्द कुमार रे', 'नयनक नीर चरण तर गेल'कृजैसे गीतों में तो दिखती ही है; विरह के बाद मिलन और फिर मिलन के बाद की अतृप्ति भी वहाँ नए क्षितिज का निर्माण करती है। उनके यहाँ विरहावस्था का 'क्षण' 'युग' जैसा और मिलनावस्था का 'युग' 'क्षण' जैसा बीतता है। मिलन के उस सुख की अतृप्ति नायिका के इन शब्दों में दिखती हैः

सखि की पूछसि अनुभव मोय

सोइ पीरित अनुराग बखानइते तिल तिल नूतन होय

जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेल

सेहो मधुर बोल श्रवणहि सूनल श्रुति पथे परस न गेल

कत मधु यामिनी रभसे गमावल न बुझल कैसन केलि

लाख-लाख युग हिय-हिय राखल तइयो हिया जुड़ल न गेल

वास्तविक अर्थों में 'प्रेम' दो मन के अनियन्त्रित विचरण, और व्यवहार से परिभाषित होता है। प्रेम के फलक भी मन ही की तरह अमूर्त, और उसके कार्य व्यापार मन के फैलाव की तरह विशाल और विशृंखल होते हैं। विद्यापति की पदावलियों में प्रेम के फलकों की यह विशालता साफ-साफ दिखती है। जिनकी नायिका का हाल 'आध आँचर खसि आध वदन हँसि आधहि नयन तरंग' है, जिनकी नायिका मदन-वेदना में इतनी व्याकुल है कि वह 'पिया' को 'बोलछड़' जैसी गाली दे बैठती है, उन्हीं की नायिका के प्रेम की निष्ठा यह है कि वह राधा आराधिका का प्रतीक बन जाती है। प्रेम का वह आराध्य स्वरूप निखर उठता है। फिर प्रेम नर-नारी के यौन मिलन तक सीमित नहीं होता; भक्त और भगवान का समन्वय दिखने लगता है। भगवान वहाँ 'रमण' होते हैं और भक्त 'रमणी'। इस दशा में प्रेम का यह तरंग उसी भागवान के सागर से उठता है और फिर उसी में समा जाता है--'तोहे जनमि पुनि तोहे समाओब सागर लहरि समाना!'

प्रेम का यह स्वरूप आध्यात्मिक है, जो जीव और परमात्मा के सम्बन्ध जैसा दिखता है। उन्माद के सारे क्रिया-व्यापार की मौजूदगी के बावजूद विद्यापति के यहाँ प्रेम कहीं अभद्र और शरीरी नहीं लगता, यह प्रेम जीवन का पर्याय होता है। वहाँ प्रेमी और प्रेमिका के सम्बन्धों का स्वरूप यह है कि नायिका जब नायक की अनुपस्थिति में उन्हें याद करती है तो वह अपना अस्तित्व तक भूल जाती है: 'अनुखन माधव माधव सुमरइत, सुन्दरि भेलि मधाई, ओ निज भाव सुभाबहि बिसरल अपने गुण लुबाधाई'। यह वही स्थिति है जब महामिलन में भक्त और भगवान का भेद समाप्त हो जाता है। इसे ही amalgamation with God ;k immersion in the absolute कहा जाता है।

इतने दृष्टान्तों से यह भी नहीं समझा जाना चाहिए कि विद्यापति के यहाँ प्रेम की यह शृंखला 'वन वे ट्राफिक' है। मिलन की स्थिति में नायक द्वारा 'मान' भंग करने हेतु किए गए यत्नों को देखकर, प्रेम की आकुलता और प्रेम का घनत्व समझा जा सकता है। विरह-वेला की समाप्ति के बाद मिलन की स्थिति में नायिका रूठ जाती है और नायक को कुछ देर तरसाकर दण्डित करने हेतु मान ठान देती है, ऐसे समय में नायक के मन की बातें 'मानिनि! आब उचित नहि मान', 'मान परिहरिहे करु वचन मोरा', 'मानिनि आकुल हृदय मोर'कृजैसे गीतों में स्पष्ट और प्रभावी ढंग से चित्रित हुई हैं।

मैथिली भाषा साहित्य में विद्यापति के बाद गोविन्ददास जैसे पुरोधा कवि ने उनकी परम्परा को कुछ तो पुष्ट किया, और कुछ नवीनताएँ दीं। बीच में भी कुछ छुट-पुट रचनाएँ हुईं। पर उनमें ज्यादातर शृंगारपरक, कुछ भक्तिपरक रचानएँ भी र्हुइं। उस अन्तराल की शृंगारपरक रचनाएँ भाषागीत संग्रह और राग तरंगिणी में संकलित हैं। इन संग्रहों में संकलित शृंगारपरक रचनाओं में प्रेम का वह उत्कर्ष नहीं दिखता जिसकी चर्चा गम्भीरता से की जाए। अमृतकर, हरपति, दशावधान ठाकुर, कंसनारायण जैसे रचनाकारों की उन रचनाओं में रूप, रस, वर्णन और किंचित विरह वर्णन मिल जाता है।

गोविन्ददास ने विद्यापति के प्रभाव को अपनी रचनाशीलता में साफ-साफ स्वीकारा है--'कविपति विद्यापति मतिमाने, जाक गीत जगचित्त चोराओल गोविन्द गौरि सरस रस जाने!' परन्तु उनकी रचनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनके यहाँ राधा-कृष्ण प्रेम विषयक प्रसंग मानवीय नहीं है, वे भक्तिप्रधान हैं। कहीं-कहीं नायिका के रूप-वर्णन में पदलालित्य का उत्कर्ष अवश्य दिखता है।

उमापति, रमापति, नन्दीपति, रत्नापाणि, हर्षनाथ प्रभृति सतरहवीं से उन्नीसवीं शताब्दी तक के ऐसे कवियों में से हैं जिन्होंने नाटक भी लिखा, तो उनमें अपने गीति कौशल का भरपूर उपयोग किया। उनके नाटकों के विषय सामान्यतया शास्त्र पुराणों की प्रेम-कथाएँ ही रहे, और रचनाकारों ने उनमें मान, विरह के चित्रण में जीवन्तता भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पारिजात हरण नाटक में उमापति ने जितने भी पद रचे उनमें पति-प्रेम गर्विता सत्यभामा के गर्व-वाचन, मानिनी सत्यभामा का विरह वर्णन, कृष्ण द्वारा सत्यभामा का मानप्रसादन जितना निखरा हुआ प्रतीत होता है, उतना और कोई प्रसंग नहीं। मान प्रसादन में जब कवि नायक से कहलवाते हैं: 'अरुण पुरुब दिसि बहल सगर निसि, गगन मलिन भेल चन्दा, मुदि गेल कुमुदिनी तइओ तोहर धनि मूदल मुख अरविन्दा!' मानप्रसादन का यह उत्कर्ष कवि के प्रेमकाव्य सृजन-कौशल का परिचायक है।

रमापति के पद 'गिरिवर लीन मलीन निसारकर अलप नखत नहि भासे, मुदित कमलवनि नहि तुअ धनि नयन सरोज विकासे!' में उमापति के उक्त पद की स्पष्ट छाया तो दिखती है, पर यहाँ रमापति के कौशल के उत्कर्ष की अनदेखी नहीं की जा सकती। नन्दीपति के नाटक कृष्ण केलिमाला, रत्नपाणि के नाटक उषाहरण तथा हर्षनाथ के नाटक उषाहरण में जितने पदों की रचना की गई है, उनमें चित्रित विरह वेदना, मिलन सुख, और नख-शिख वर्णन देखकर इन कवियों के प्रेम चित्रण के आयाम दिखते हैं। इन पदों में चित्रित प्रेम प्रसंग जीवन यापन के वैविध्य को कम और देह की जरूरत को ज्यादा रंजित करता नजर आता है। वास्तविक अर्थों में यह देखा जाना चाहिए कि ये रचनाएँ जिस दौर की हैं, वह समय हिन्दी साहित्य में रीति काल का है, जब 'प्रेम' विलास और क्रीड़ा में केंद्रित था। मैथिली के इतिहासकारों ने इस अन्तराल का नाम 'उत्तर विद्यापति युग' दे तो दिया, पर इस भाषा साहित्य में भी रचनाकर्म उन्हीं बिन्दुओं पर केन्द्रित था। कविवर जीवन झा (सन् 1856-1920) के यहाँ विरह गीतों में चित्रित प्रेम का स्वरूप जीवन की वास्तविकताओं से रू-ब-रू अवश्य होता है। यूँ तो जीवन झा ने भक्ति एवं शृंगार--दोनों तरह की रचनाएँ कीं। कल्पना की सूक्ष्मता, शब्द विन्यास और मधुर संगीतात्मकता उनकी दोनों तरह की रचनाओं में है, परन्तु शृंगारपरक रचनाएँ ही अपेक्षाकृत बेहतर हैं और विरहावस्था में नारी मनोदशा की व्याकुलता उकेरने में रचनाकार का चमत्कार दिखता है। रात ढलने पर घने जंगलों में नायिका वृक्ष से पूछती है कि मेरे प्रिय किधर रुक गएः

एक तँ राति निबिड़तम दोसर विपिन घनघोर

कहु तरुवर मोर जीवन पहु बिलमल कोन ओर

और यहाँ से मैथिली साहित्य में प्रेम काव्य सृजन का स्रोत लगभग सूखता-सा प्रतीत होता है। ऐसे तो कहा जाना चाहिए कि विद्यापति के बाद मैथिली साहित्य में प्रेम काव्य सृजन की परम्परा अत्यन्त क्षीण ही रही और यह क्षीणप्राय स्थिति उन्नीसवीं सदी के पाँचवे दशक तक चलती रही। बीच-बीच में जो कुछ प्रेमपरक कविताएँ लिखी गईं वे एक तरह से उसकी मौजूदगी मात्र का संकेत देती रहीं।

इस क्षीण परम्परा का कारण सामाजिक व्यवस्था ही है। इस अन्तराल का पूर्वांश तो मुस्लिम शासकों के ऐशो-आराम से प्रभावित रहा, जिसमें प्रेम-जीवन की सूक्ष्मताओं की उपेक्षा हो गई। बाद का समय अंग्रेजों की पराधीनता के कारण ऐसा आन्दोलित रहा कि सृजन के लिए ज्यादा आवश्यक बिन्दु प्रेम नहीं रह गया। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी कई वर्षों तक मिथिला स्थानीय समस्याओं से घनघोर रूप से ग्रस्त रही। भूख, बेकारी, महामारी, बाल विवाह, बेमेल विवाह, पारिवारिक कलह, दहेज विकृति, यौन विकृति, विधवाओं का यौन शोषण, आर्थिक परतन्त्रताके कारण नारियों की दुर्दशा आदि-आदि स्थितियाँ विकराल थीं। पारिवारिक वैमनस्यता, मानवीय मूल्य का लोप, छूआछूत, धर्मान्धता, जातीय कट्टरता, पारम्परिक पाखण्ड, अन्धविश्वासकृआदि-आदि कुरीतियों के कारण जनता इतना आक्रान्त रहीं कि इस दौर के मैथिली रचनाकारों के चिन्तन फलक पर 'प्रेम' नहीं आ सका। अभिप्राय यह नहीं कि बाद के कवियों के यहाँ 'प्रेम' इसलिए आया कि उस दौरान समाज से समस्याएँ लुप्त हो गईं और सामाजिक जीवन इतना सहज हो गया कि मानव जीवन में प्रेम के लिए ज्यादा अवसर दिखने लगा। बल्कि अभिप्राय यह है कि बाद के कवियों ने इन्हीं परेशानियों के बीच प्रेम के अँखुओं को भी गम्भीरता से देखना शुरू कर दिया, मसलन काँटों से घिरी डालियों में खिलते हुए गुलाब के वजूद को समझना शुरू कर दिया, कैक्टस की ठूँठ पर वैजयन्ती खिलाने का दुस्साहस शुरू कर दिया। मनबोध, चन्दा झा, भुवनेश्वर सिंह 'भुवन', भोला लाल दास, पुलकित लाल दास, मुंशी रघुनन्दन दास, सीताराम झा, बद्रीनाथ झा, हरिमोहन झा, कांचीनाथ झा 'किरण' प्रभृति महान कवियों की लेखनी यदि 'प्रेम प्रसंग' पर भली भाँति नहीं चली तो उसका मूल कारण सामाजिक जीवन में परेशानियों की बहुतायत ही था। परन्तु बीसवीं शताब्दी के पाँचवें दशक के बीतते-बीतते देश-दशा में काफी परिवर्तन आ गया। स्वभावतः मिथिला उसका अपवाद नहीं रही। परिवर्तन सर्वतोन्मुखी हुआ था, इसलिए लोगों की मान्यताएँ बदलीं, प्रेम के सम्बन्ध में लोगों के दृष्टिकोण बदले, समाज में समस्याएँ विकराल होती गईं, मानव जीवन की सहजता लुप्त सी हो गई, पुरुषों में उदारता बढ़ी, औरतों में साहस बढ़ा---इन सारी खामी-खूबियों के बीच मनुष्य का जीवन इस तरह अभ्यस्त हो गया कि लोगों की समझ में आ गया कि समस्याएँ मिटेंगी नहीं, अस्तु जीवन और प्रेम इन काँटों के बीच खिलेगा। और, रचनाकारों ने भी सोचना शुरू कर दिया कि हजार विडम्बनाओं के साथ जीता हुआ मनुष्य दो पल उल्लास में भी जीता ही है, भले ही उस उल्लास के चन्द्रमा को मुसीबतों का राहु निगलने को तैयार हो। और, जब जीवन में उल्लास के क्षण हैं तो वह कविता में क्यों नहीं? क्योंकि कविता अन्ततः मानव जीवन का अनुवाद है। जीवन के सूक्षम से सूक्ष्मतर बिन्दु भी कविता के लिए अग्राह्य नहीं होनी चाहिए। फलतः बाद के कुछ रचनाकारों ने प्रेम की तल्खी को उसकी पूरी ताकत के साथ अपनी रचनाओं में जगह दी।

बीसवीं शताब्दी के छठे दशक से लेकर आज तक की मैथिली काव्यधारा में जिन कवियों के यहाँ प्रेम को भली भाँति स्थान मिला है, उसे उसका वास्तविक स्वरूप मिला है, उनमें से प्रमुख हैं--राजकमल चौधरी, मायानन्द मिश्र, मार्कण्डेय प्रवासी, गंगेश गुंजन, महेन्द्र, उदयचन्द्र झा 'विनोद', शेफालिका वर्मा, सियाराम 'सरस' प्रभृति। लेकिन इनसे पूर्व काशीकान्त मिश्र 'मधुप', सुरेन्द्र झा 'सुमन', आरसी प्रसाद सिंह, चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर' और वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' ने ही इसके लिए अच्छा-खासा रास्ता साफ कर दिया था। यद्यपि 'सुमन', 'अमर' और आरसी के यहाँ प्र्रेम का बड़ा सतही और सपाट चित्र मिलता है। वहाँ अक्सर नायिका की विरहावस्था की उन्मत्त या कामुक आकुलता चित्रित है, फिर भी, वे अपने समय के उन महत्त्वपूर्ण कवियों में से हैं, जिन्होंने एक संक्रमण की स्थिति में मैथिली भाषा की सेवा की। 'मधुप' के अन्य योगदानों की चर्चा छोड़ भी दी जाए तो अकेले राधा विरह महाकाव्य उनकी उपलब्धि को काफी ऊँचा उठा देता है। राधा विरह राधा कृष्ण विषयक प्रेम को केन्द्र में रखकर लिखा गया महाकाव्य है जिसमें अन्य तत्वों की समृद्धि के अलावा प्रेम को अलग से रेखांकित करने की आवश्यकता है। भाषा पर तत्सम की बहुलता का असर रहने के बावजूद इस पुस्तक में प्रेम का संस्पर्श इतना जीवन्त और इतना तल्ख है कि आम पाठक को भी रसबोध में कोई खटका नहीं होता। यूँ, उनके अन्य मुक्तक काव्यों में भी प्रेम का संस्पर्श बड़ी आसानी से दिख जाता है। उस प्रेम में वासना का दंश कम और जीवन की रागात्मकता का मूल अधिक दिखता है।

वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' मैथिली साहित्य के उन महान पुरोधाओं में से हैं जिन्होंने इस साहित्य को समसामयिक बनाने में स्तरीयता की दृष्टि से एक लम्बी छलांग लगाई। प्रगतिवाद के शुरू होते ही साहित्य-सृजन के क्षेत्र में एक ऐसा फैशन चला कि एक खास तरह के इलीट वर्ग के लोग उन रचनाओं को स्तरीय मानने से परहेज करते रहे जिनमें भूख, बेकारी, कुण्ठा, शोषण आदि के विरोध की बात न की गई हो। इस फैशन और इस नारेबाजी के शिकार कई कवि भी हुए, यह घटना लगभग एक आँधी की तरह थी। लेकिन 'यात्री' इस आँधी में भी पहाड़ की तरह अचल रहे और अपनी मान्यताओं, अपनी सीमाओं में सृजन करते गए। ऐसे तो यात्री का मैथिली और हिन्दी, दोनों भाषाओं का पूरा का पूरा साहित्य सर्वहारा वर्ग के सुख दुख और आम जनता की चित्तवृत्ति का वाहक है, परन्तु उसी में उनके यहाँ प्रेम का सोता रिसता हुआ नजर आता रहा है जो उस कविता को एक आत्मिक शक्ति से सराबोर करता रहता है। सुमन, अमर और आरसी की तरह उनके यहाँ प्रेम की सपाटता नहीं दिखतीं, विरहाकुलता और ऋतुमती नायिका का औत्सुक्य नहीं दिखता, यहाँ प्रेम जीवन-यापन की मजबूरियों से ताल मेल बिठाता है। उसके कशमकश से कदम ताल करता है।

प्रेम के इसी स्वरूप का सर्वतोभावेन प्रस्फुटन राजकमल चौधरी के यहाँ होता है। यहाँ तो प्रेम जीवन-संग्राम के पाथेय की तरह मनुष्य की बगलों में हमेशा-हमेशा संचित रहता है, फैक्ट्री के कामगारों के जीवन में 'लंच आवर' जैसे किसी सुअवसर की तलाश रहती है। प्रेम वहाँ पर जीवन को दिशा देता है, बल देता है। उनकी कविता प्रश्न-उत्तर में इसका प्रमाण स्पष्ट है :

लौट आऊँ गाँव?

क्या मेरे परोक्ष में नहीं लगता अच्छा कुछ भी?

पति के पत्र में प्रश्न

'नहीं, मत आएँ आप

जब तक पा न लें नौकरी

प्राणेश्वर! मत छोड़ें कलकत्ता

आप रहें समीप, इसकी नहीं है कोई अभिलाषा

और, इतना लिखकर--

नहीं रोक सकी रोना सुन्दरी...

या फिर दूसरे पद्याशों को देखें :

जिसके पतिदेव भाग गए मोरंग

अकाल के समय में दिए नहीं दो दिन भी कुछ संग

विरहाग्नि नहीं, जठराग्नि से झरते हैं जिसके सभ अंग

जिसकी जिन्दगी पर उग आई है दूब


ऋतु बिता कर आई वर्षा, दिन ढले तो सूर्य चमका

प्यास का भ्रमर तो मर गया, अब क्या जो गुलाब बिहुँसा

इस तरह यदि राजकमल की कविताओं का पुनरावलोकन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि विद्यापति के बाद एक बार फिर 'प्रेम प्रसंग' उनके यहाँ आकर समय सापेक्ष और जीवन सापेक्ष हो गया। उनकी कविताओं में कामुकता भरी कल्पना का कोई पंख नहीं, कोई फैन्टेसी नहीं, यहाँ जीवन का सच है और समीक्षकों के लिए यह बहुत मुसीबत का क्षण होगा कि जहाँ जीवन की इतनी विदूपताएँ हैं, वहाँ प्रेम की इतनी अनुभूति है। जो राजकमल कहते हैं 'कविता नहीं है अब नख शिख शृंगार, रति विपरीत की उल्टी ग्रीवा हार, कविता है जीवन का जयघोष!' और इस जयघोष में सचमुच कवि ने कभी उन शृंगारों की चिन्ता नहीं की जो जीवन के फालतू प्रसंगों की खबर रखता हो। उनकी नायिका विरहाग्नि में तड़पती है, पर पेट की जरूरत के लिए एक नौकरी की उपयोगिता भी समझती है, उनके नायक प्रिया-मिलन हेतु उत्कण्ठा से भरे हुए हैं पर दूर शहर के प्रवासी हैं और अर्थाभाव में प्रिया के पास नहीं पहुँच पाने को मजबूर हैं।

कायदे से देखा जाए, तो उन प्राचीन कवियों को जीवन के इस अभाव से मुकाबला नहीं करना पड़ा होगा, जिनके यहाँ ज्यादातर परकीया प्रेम की ही बात चलती होगी। परकीया प्रेम में जीवन की जवाबदेहियों की तो कहीं से गुंजाईश रहती नहीं। जाहिर है कि उस जमाने के नायक, प्रेम में भी जवाबदेहियों से मुक्त होते थे। पर आज की कविताओं में स्वकीया प्रेम ज्यादा स्थान लेने लगा है, यहाँ जीवन की जवाबदेहियाँ प्रेम के पंखों में लटकता हुआ वह झोला है, जिसे उड़ पाने की अधिक स्वतन्त्रता नहीं है। लेकिन, मायानन्द के यहाँ आकर प्रेम फिर से जवादेहियों से मुक्त हो जाता है।

आपके लगाए हुए अमरूद में अब फल लग गया

(बड़ा-बड़ा और खूब परिपक्व)

बछिया को अब तक एक बच्चा भी हुआ

लेकिन पता नहीं आपको विवशता की कौन-सी सौत घेरी हुई है


एकाकी खड़े नीम के पेड़ को यह छिनाल पछिया

अंग-अंग में गुदगुदी लगा रही है

रह-रहकर कुत्तों के झगड़े

कर रहे हैं शान्ति को नग्न

रोशनी का सारा दूध पीकर यह करेतिन रात

मुझे डँस रही है

टटोलकर किसे उठाऊँ?


आप पहले मुझे देखते हैं या मैं?

यह कौन कहेगा?

कारण

देखते तो हैं दोनों चुराकर ही

फिर भी आप से बेहतर आपकी स्मृति ही है

वह आकर चली तो नहीं जाती...

प्रेमाकुलता का यह उत्कर्ष उनके यहाँ लोकलाज से ग्रस्त और जवाबदेहियों से मुक्त है, पर अनुराग के आवेग को चित्रित करने में कवि ने जितना घनापन दिखाया है वह प्रशंसनीय है। विरह और कामुकता के दंश से व्याकुल नायिका की व्यथा को इतने सधे हुए प्रतीकों में चित्रित करना निश्चय ही कवि के श्रेष्ठ रचना कौशल का परिचायक है।

महेन्द्र, शेफालिका वर्मा तथा सियाराम 'सरस' के यहाँ भी प्रेम का स्वरूप अपने तेवर में मौजूद है। अतल मन की भावुकता, विरहाकुलता, मिलन सुख सबके सब उनके यहाँ अपने पूरे वजूद के साथ चित्रित हुआ है। महेन्द्र का शब्द संयोजन और कोमल कल्पनाशीलता, शेफालिका का अनुराग चित्रण और सरस के प्रेम चित्र की सरसता प्रशंसनीय है। यह बात अलग से कहने की आवश्यकता है कि इन लोगों के यहाँ प्रेम के उन्माद में मिथिला के लोकाचार, शिष्टता और सामाजिक आहार-व्यवहार की उपेक्षा भी नहीं हुई है। पर इतना तय है कि इन लोगों की रचनाओं में नायक जवाबदेहियों से लदा हुआ कन्धा नहीं सहलाता, मन की भावुकता को गुदगुदाता है।

गंगेश गुंजन के यहाँ प्रेम का स्वरूप कोई उन्माद या कोई देह की व्यग्रता तक सीमित नहीं है। उनके यहाँ 'प्रेम' कहीं राजकमल के काव्य संसार के सिपाही की तरह भी है और मायानन्द के काव्य-संसार के भावुक और पागल पथिक की तरह भी। पेट की मजबूरियों को समझता हुआ प्रेम जब देह और मन की माँगों के लिए तत्पर हो जाए तो जीवन में आज वही प्रेम कुछ सार्थक हो सकता है। और, प्रेम की यह सार्थकता गंगेश गुंजन के यहाँ दिखती है। उनके यहाँ किसी गगनगामी हरकतों से प्रेम को काल्पनिकता देने की, फैन्टेसी गढ़ने की प्रवृत्ति नहीं मिलती। यद्यपि गंगेश गुंजन की स्थापना अपनी पीढ़ी के कवियों में और तरह की कविता के कारण है, जैसा कि यात्री, राजकमल, मायानन्द, महेन्द्र प्रभृत्ति कवियों की है, फिर भी इनके यहाँ प्रेम अपनी पूरी सार्थकता के साथ है। उदय चन्द्र झा 'विनोद' अपने समकालीन रचनाकारों के साथ युग यथार्थ को स्वर देते हैं और उसी स्वर में जब कोई स्वर प्रेम के लिए निकलता है तब लगता है कि वैज्ञानिक उपलब्धियों से भरा यह संसार आज मानव जीवन से पे्रम का बिरवा कैसे पके बाल की तरह ख्ंिाचता जा रहा है और मनुष्य काले बाल के उखड़ जाने से हुए दर्द से कैसे परेशान हो उठता है। विनोद की कविता कहलनि पत्नी, पत्नी, बबलू मायक नाम चिट्ठी आदि को देखा जा सकता है।

नई पीढ़ी में विभूति आनन्द, तारानन्द वियोगी, केदार कानन, रमेश, सुस्मिता पाठक जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण कवि हैं, जहाँ प्रेम का अस्तित्व कुछ और उभरा है। इन लोगों के यहाँ सारी जवाबदेहियों, सारी मजबूरियों, सारी परेशानियों के बावजूद प्रेम की भावुकता, आकुलता, उसका अनुराग अपने पूरे फलक के साथ उतरने लगा है। इस पीढ़ी में यद्यपि प्रेम कविता बहुत कम लिखी गई है, अत्यल्प, पर जो ही लिखी गई, उसमें प्रेम की अस्मिता काफी मजबूत है, कहा जा सकता है कि बुनियाद बुलन्द है। यहाँ 'प्रेम' जीवन-संग्राम में आलोक पुंज की तरह भी चित्रित हुआ है, कोमल मन की भावुकता की तरह भी, विवश मन की लाचारी की तरह भी और शक्तिशाली मन के योद्धा की तरह भी।

निष्कर्षतः, यह मानना ईमानदारी होगी कि समय की चकाचौंध ने शायद मनुष्य को इतना हत्बुद्धि कर दिया कि यहाँ प्रेम के लिए, जीवन की भावुकता के लिए, सहजता के लिए अवसर कम हो गया है। वर्ना जहाँ सौ से ज्यादा रचनाकार एक साथ सृजनशील हों और हर रचनाकार की वैयक्तिक वार्षिक रचनाएँ विविध विधाओं को मिलाकर सौ से ज्यादा हो और उनमें पाँच अदद प्रेम रचना न हो---यह भी कोई सोचने की बात है! असल बात है कि जीवन के आपाधापी में आज लोग उल्लास को अभिव्यक्त करने का सलीका और उदारता दोनों भूल गए हैं।