मैथिली बाल साहित्य का विहंगम परिदृश्य / देवशंकर नवीन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बालोपयोगी साहित्य की स्थिति किसी भी आधुनिक भारतीय भाषा में बेहतर नहीं है। हिन्दी में अपेक्षाकृत थोड़ा ठीक कहा जा सकता है। मैथिली में तो बदतर है। पृष्ठभूमि देखी जाए तो तमाम आधुनिक भारतीय भाषाओं में मैथिली अति प्राचीन भाषा है। इतिहासकारों ने ईसा पूर्व पहली सदी में कालिदास के 'विक्रमोर्वशीय' के चतुर्थ अंक में मिथिलाप्रभंश के प्रयोग का सूत्र दिया है। विदेह जनपद में लिखित प्राचीन साहित्य के 'बुद्ध वचन', 'महावीर वचन' में, आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के चर्यापद में, 'प्राकृतपैंगलम' में, 'कर्पूरमंजरी' में, 'भामती टीका' में, 'सिद्ध साहित्य' में... हर जगह मैथिली भाषा के प्रारंभिक स्वरूप का निदर्शन होता है। और, 'वर्ण रत्नाकर' से आगे तो मैथिली साहित्य का विधिवत् सूत्र तो है ही। संभवतः संसार की अकेली भाषा मैथिली हो जिसके आदिकाल के प्रामाणिक और ठोस साहित्य गद्य (वर्णरत्नाकर) में हों। यहां तक देखें कि जिस महाकवि विद्यापति से मैथिली का मध्यकाल शुरू होता है, उस विद्यापति की प्रामाणिक कृति 'कीर्तिलता' और 'कीर्तिपताका' को हिन्दी के आदिकाल की सामग्री मानी जाती है। ध्यान रहे कि 'कीर्तिलता' मैथिली के प्रख्यात आलोचक प्रो. रमानाथ झा ने विद्यापति की प्रारंभिक सर्जना नहीं कहकर, उनकी बाद में बेमन से लिखी हुई रचना कही है। जाहिर है कि विद्यापति पदावली में संकलित उनके तमाम शृंगारिक पद पहले ही रचे जा चुके थे और भक्तिपरक पद राजा शिवसिंह के परोक्ष होने के बाद रचे गए। अर्थात्, एक ही विद्यापति की रचनाएं, स्वभाव के आधार पर हिन्दी के वीरगाथा काल, भक्ति काल और रीतिकाल तक फैली हुई हैं। दुखद अवश्य है कि इतनी समृद्ध परम्परा वाले भाषा-साहित्य में बालोपयोगी लेखन का विधिवत् स्वरूप देर से ही सही, जोरदार नहीं है। पर यह भी सत्य है कि प्राचीन काल से लेकर आज तक बालोपयोगी साहित्य का विरल सूत्र अपनी निरन्तरता के साथ बना रहा है। विद्यापति के यहां तक तो है ही।

जिसे हम बाल साहित्य कहते हैं, वह असल में तो बालोपयोगी साहित्य है। अर्थात् बालवृन्द जिसका उपयोग करें, अथवा बालवृन्द को शिक्षित दीक्षित करने में जिस साहित्य का उपयोग हो। मिथिला में शिक्षा का माध्यम कभी मैथिली नहीं रही। मैथिली भाषा में एम.ए., पी-एच. डी., डी लिट् तक की उपाधियां मिलती हैं; पर बाल शिक्षा का माध्यम यह नहीं है। उच्च शिक्षा में आने के बाद ही मैथिली की पढ़ाई शुरू होती है, इससे पूर्व मिथिला के बच्चे अपनी मातृभाषा बोलना मां के साथ और परिवार, समाज में रहकर ही सीखते हैं। डॉ. भीमनाथ झा अपने निबंध 'अपन समाज आ शिशु शिक्षा' में सही कहते हैं, 'मिथिलांचल के बच्चे मां से प्यार पाते हैं मैथिली में, पिता का अनुशासन पाते हैं मैथिली में, मित्रों से झगड़ते हैं मैथिली में। यहां तक कि स्कूल में अपने शिक्षकों से छुट्टी मांगते हैं मैथिली में, रोते-हंसते हैं मैथिली में, पर पढ़ते हैं हिन्दी और अंग्रेजी में।' मुझे अपने दिन अच्छी तरह याद हैं, हम लोग अपने अध्यापकों से मैथिली में प्रश्न करते थे, वे हिन्दी में जवाब देते थे, और अध्यापकों के प्रश्नों का जवाब तो हमें रटन्त हिन्दी में ही देना पड़ता था। स्मरण करते हैं तो वह दृश्य हास्यास्पद और नाटकीय लगता है कि जो शिक्षक सबके साथ, सारी बातें मैथिली में करते थे, वे अपने छात्रों के सामने आते ही, अचानक अपने को एक भाषा की दुनिया से दूसरी भाषा की दुनिया में जाने में पल भर भी देर नहीं लगाते थे। अजीब नाटकीय दृश्य होता था।... विचित्र अवश्य लगता है, पर मेरा अनुमान है कि यह बात उस काल की मिथिला के अध्यापकों में राष्ट्रीय एकता के उस सूत्र को जोड़ती थी, जो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के उद्घोष -- निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल -- से आया था। उल्लेख अनुचित नहीं होगा कि भारतेन्दु की उसी उद्घोषणा के जमाने में मैथिली के विराट रचनाकार कवीश्वर चन्दा झा ने, महाकवि विद्यापति की प्रसिद्ध कृति 'पुरुष परीक्षा' का संस्कृत से मैथिली अनुवाद किया था और उसकी भूमिका हिन्दी में लिखी थी। राष्ट्रवादी भावधारा सरकारी स्कूलों में देर के दशकों तक छाई रही। और फिर यह भी था कि जब पाठ्यक्रम में कहीं मैथिली का जिक्र ही नहीं था, तो वे इस भाषा के आन्दोलनकारी क्यों बनें।

मैथिली में बालोपयोगी साहित्य पर आज तक की इकलौती विश्लेषणात्मक पुस्तक है डॉ. दमन कुमार झा की -- 'मैथिली बाल साहित्य'। इसके अलावा वैचारिक लेख छिट-पुट पत्रिकाओं में ही छपे हैं। अपनी इस पुस्तक में डॉ. दमन उचित कहते हैं कि '... पूर्व के मैथिली रचनाकारों ने बच्चों पर ध्यान नहीं दिया, बच्चों के लिए साहित्य नहीं लिखा। इसलिए उस समय के बच्चे बाद में प्रौढ़ होने पर अपनी मातृभाषा को शास्त्र का दर्जा देने में संकोच करते रहे। कारण, उसकी बाल-मति पर मातृभाषा का कोई चित्र शास्त्र-रूप अथवा विद्या-रूप अथवा पुस्तक-रूप में नहीं बना।... मैथिली की पुस्तकें उन्होंने देखी नहीं, इसलिए उन्होंने मैथिली को पढ़ने का विषय नहीं माना। अपने पुरखों की यह चूक आज तक हमलोगों को सता रही है (पृ0 -21)।'

डॉ. दमन ने अपने इस वक्तव्य में बड़ी बात कह दी है। विश्व साहित्य के परिदृश्य पर ध्यान दें तो आज भी लगता है और पहले तो था ही, कि समृद्ध भाषा वाले सभी उन्नत देशों के रचनाकारों ने बाल साहित्य पर गंभीरतापूर्वक काम किया है। भारत में भी बांग्ला, मलयालम और हिन्दी में इस पर पर्याप्त काम हुआ है। हिन्दी में नवजागरण के लेखकों से शुरू करें तो प्रायः सभी बड़े लेखकों ने बाल-साहित्य में काम किया है। यह दीगर बात है कि इन दिनों हिन्दी में 'बाल-साहित्य' और 'प्रौढ़-शिक्षा साहित्य' के साथ मजाक किया जा रहा है। बड़े लेखक बच्चों के लिए लिखते नहीं और वैसे लोग जो लेखन में कहीं खप नहीं पाते, आकर बाल साहित्य लिखने लगते हैं, प्रौढ़ साहित्य लिखने लगते हैं। वे चुटकुलों और उपदेशों के इन्सुलिन को खींचकर बाल-साहित्य और प्रौढ़-साहित्य बनाना चाहते हैं, बहरहाल...

बाल शिक्षा की स्थिति वैसे मिथिला में, पहले कुछ भिन्न-सी थी। देर तक यहां भाषा के रूप में संस्कृत का वर्चस्त और विषय के रूप में, दर्शन और मीमांसा का वर्चस्व रहा, बाद के दिनों में उर्दू का प्रवेश हुआ, जो शीघ्र ही अंग्रेजी में तब्दील हो गया। विषय का बहुविध विस्तार हुआ।

शाश्वस्त सत्य है कि हरेक जनपद की भाषा वहां की संस्कृति की वाहिका होती है। जाहिर है कि यह स्थिति मिथिला की भी थी। इतिहास गवाह है कि भाषाई आन्दोलन के अगुओं की कमी मिथिला में कभी नहीं रही। जिन दिनों विद्यापति ने 'देसिल बयना सब जन मिट्ठा' की घोषणा के साथ 'तें तैसन जम्पओं अवहट्टा' कहा था, वह संस्कृत की चट्टान जैसी स्थापित धारा से सीधे टक्कर की बात थी। जब चन्दा झा ने 'मिथिला भाषा' में लिखना शुरू किया तो संस्कृतवादियों ने उन्हें कवीश्वर कहकर उपहास करना शुरू कर दिया था। बाद के दिनों में हरिमोहन झा, वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री', राजकमल चौधरी के साथ भी कुछ कम नहीं हुआ। पर बाल शिक्षा का माध्यम मैथिली भाषा नहीं हो सकी। मैथिली में मिथिला के बच्चे दादी-नानी से किस्से भर सुनते रहे, वे किस्से लोक साहित्य के थे।

गुणात्मक रूप से मिथिला की शिक्षा व्यवस्था का उत्कर्ष सब दिन से दर्ज होता आया है, पर संख्यात्मक स्तर पर पुराने समय में स्थिति बहुत बुरी थी। जमीन्दारी प्रथा उधर देर तक रही। फलस्वरूप निर्धनों और निम्नजातीय लोगों के बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का सूत्र ठीक नहीं था। पुस्तैनी रूप से शिक्षित और आर्थिक रूप से दृढ़ परिवार के बच्चों की ही शिक्षा-दीक्षा हो पाती थी। वर्णमाला (देवनागरी) सीखने के बाद वेद, पुराण, सिद्धान्त कौमुदी, अमरकोश और अन्य उपदेशात्मक ग्र्रन्थों के श्लोकों को रटाकर गुरुजन बच्चों को उनके अर्थ रटाते थे। शास्त्रर्थ की पद्धति सिखाते थे। प्रकाण्ड विद्वान अयाची मिश्र के पुत्र शंकर ने जब पांच वर्ष की अवस्था में राजदरबार में -- बालोऽहं जगदानन्द, न मे बाला सरस्वती; अपूर्णे पंचमे वर्षे वर्णयामि जगत्त्रायम् -- कहकर राजा की बोलती बन्द कर दी थी।... समाज और शिक्षा व्यवस्था में संस्कृत के वर्चस्व का यह हाल था। पर इसी के साथ मिथिलाक्षर सीखने और मैथिली भाषा बोलने समझने की धारा भी चलती रही। मुगल सल्तनत के प्रादुर्भाव से फारसी लिपि का क्रम चला। फिर अंग्रेजी आ गई। वर्णमालाओं के इस जंगल से ऊबे हुए बच्चों से धीरे-धीरे मिथिलाक्षर (मैथिली भाषा की लिपि) छूटने लगा। मैथिली भी देवनागरी लिपि में लिखी-पढ़ी जाने लगी। मैथिली फिर भी बाल-शिक्षा का माध्यम नहीं बन सकी।

असल में बाल साहित्य के संबंध में इधर के दिनों में वैश्विक परिप्रेक्ष्य पर जितनी चर्चा होने लगी है, उसका मूल कारण बाल शिक्षा के प्रति सजगता बरतने के लिए। और, तय यह पाया गया कि बाल मन को शिक्षित करने के लिए बाल-मनोविज्ञान की कसौटी पर खुद को शिक्षित करना ज्यादा जरूरी है। इस तरह की प्रशिक्षण की आवश्यकता बाल साहित्य के लेखक, संपादक, प्रकाशक, शिक्षक और अन्ततः बच्चों के अभिभावक... सबके लिए हुई। इस तरह की आवश्यकता अचानक खड़ी नहीं हुई। भारतीय स्वाधीनता, स्वतंत्र नागरिक का स्वाधीन अस्मिता- बोध, वैज्ञानिक विकास के दौर में जीवन-यापन के बुनियादी मसलों से संघर्ष करने हेतु अपने समय के बच्चों को तैयार करने की मंशा, उपलब्ध वातावरण के भले-बुरे संदर्भ से प्रभावित बाल-मन की स्थिति... इन सारी बातों के मद्देनजर ऐसा निष्कर्ष निकाला जाने लगा कि अब बच्चों को संस्कृत के श्लोक रटाने और छड़ी के डर से पढ़ाने, जो विषय और भाषा वह नहीं पढ़ना चाहता, उसे जबरन पढ़ाने का जमाना लद गया। शिक्षाविदों को यह साफ-साफ दिखने लगा कि अध्ययनशीलता ही समाज को सुव्यवस्थित कर सकती है और यह आदत बचपन से ही लग सकती है। अध्ययनशील बचपन ही देश को बेहतर शासक, चिकित्सक, राजनेता, वैज्ञानिक, व्यापारी, नागरिक, किसान इत्यादि दे सकता है; इसलिए देश के बचपन को अध्ययनशील बनाना जरूरी है। अध्ययन चाहे किसी भी भाषा और किसी भी विषय का हो, एक बार वह अध्येता बन जाए, फिर अपनी जरूरत के अनुसार विषय और भाषा चुन लेगा। और, इस चुनौती के समय में शिक्षाविदों को लगा कि ऐसे में सबसे आवश्यक है बाल मनोविज्ञान की परख। इस परख में ऐसा पाया गया कि बचपन में विकसित प्रश्नाकुलता और अध्ययनशीलता का असर स्थायी होता है और इसके लिए पर्याप्त अध्ययन-मनन के बाद देखा गया कि बच्चों को प्रकृति का वैराट्य, पक्षियों की उड़ान, निस्सीम आकाश, परी देश की यात्रा, चटक रंग, जोखिम, फैंटेसी, राक्षसों से मनुष्य की लड़ाई, उस लड़ाई में बल अथवा बुद्धि से मनुष्य की विजय, डाकुओं अथवा दुष्ट चरित्रों की पराजय, पशु-पक्षियों की बातचीत, पेड़-पौधों, नदी-पहाड़ों, सूरज-तारों की बातचीत... इन सारी स्थितियों से संबंधित कहानियां; सांगीतिक प्रस्तुति, नाटिकाएं आदि बहुत आह्लादित करती हैं। बच्चे इन तमाम बातों के अवगाहन में तल्लीन रहते हैं, प्रश्नाकुल रहते हैं, 'फिर क्या हुआ' के प्रश्न के साथ मन ही मन अगली घटना की एक कल्पना भी करते रहते हैं।... इन सारी स्थितियों का समावेश एक साथ लोरियों, लोकगीतों, लोककथाओं, लोक नाटिकाओं में तो था; संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों की कहानियों में तो था, पर नए सिरे से लिखे जाने वाले मौलिक साहित्य में यह अपेक्षा की जाने लगी कि यहां उपदेश तो हों पर वे उपदेश लगें नहीं। इस तरह के साहित्य की जरूरत समझ में आते ही बालोपयोगी साहित्य के लेखक, प्रकाशक, शिक्षक की मुश्किलें बढ़ गईं और इस पर गंभीरता से विचार होने लगा।...

इधर एक पद्धति और पनपी है। स्वातंत्रयोत्तर काल में शिक्षा व्यवस्था की किंचित सुविधा और उदारता के कारण हर तबके के लोगों के बच्चे छोटे-बड़े स्कूलों में पढ़ने लगे। थोड़ी-बहुत आर्थिक व्यवस्था ठीक होने की वजह से और अभिभावकीय दायित्व समझ जाने की वजह से सारे लोग बच्चों की शिक्षा के प्रति सावधान भी हुए। अब इस तरह की सुविधा और समझ ने, अभिभावकीय स्तर पर बच्चों के लिए नई मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। अब हर अभिभावक की मंशा रहने लगी है कि उसके बच्चे कक्षा में प्रथम आए। वाद-विवाद प्रतियोगिता है, तो उसमें भी प्रथम अए। ऊंची छलांग की प्रतियोगिता है, तो वहां भी प्रथम आए। दूसरे स्थान पर अपने बच्चों को कोई देखना ही नहीं चाहता। प्रतिस्पद्र्धा की इस अंधी प्रवृत्ति ने देश के बचपन के एक साथ एक अलहदा अनाचार शुरू कर दिया। नई शिक्षा पद्धति में बस्तों का बोझ ढोते हुए बेचारों की कमर तो टेढ़ी हो ही रही है; अभिभावकों की मंशा पूरी न कर पाने के भय से वे अलग ही त्रस्त रहते हैं।

तो बात चल रही थी मिथिला की शिक्षा पद्धति और मैथिली के बाल साहित्य की। मेरी राय में बाल मनोविज्ञान के गुणसूत्र और बाल रुचि की दिशा को पहचाने बगैर मिथिला में जो अध्यापन पद्धति चल रही थी, ज्ञान और उपदेश का बोझ जिस तरह थोपा जा रहा था, उसी का दुष्परिणाम होता था कि अधिकांश बच्चे थोड़े ही समय बाद पढ़ाई छोड़कर अन्य उद्यमों में लग जाते थे और जो पढ़ाई में डटे रह जाते थे, उनमें से कई लोग आगे चलकर अक्खड़ और तर्क विमुख होकर अपनी मान्यता पर अड़े रहते थे। एक तो ज्ञान की शाखाएं इतनी विकसित नहीं थीं, दूसरे, जो कुछ शाखाएं स्पष्ट थीं, उन्हें भी पात्र की योग्यता और प्रवृत्ति के आधार पर वितरित नहीं किया जाता था।... इस तरह की अध्ययन शैली का असर मिथिला में काफी दिनों तक रहा। जब सरकारी स्कूलों के माध्यम से शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई, तब भी स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया।

मैथिली माध्यम से न तो कहीं शास्त्रर्थ होता था, न पूजा-पाठ, न नौकरी-चाकरी, न धनार्जन। यह सब संस्कृत माध्यम से होता था। इसीलिए सामाजिक प्रतिष्ठा भी संस्कृत में प्रवीण लोगों को मिलती थी। मुगल शासन में फारसी लिपि के वर्चस्व के कारण हिन्दुओं के यहां भी पूजा-पाठ के अलावा सब कुछ की गुंजाईश उर्दू में अधिक दिखने लगी। मुसलमानों के यहां तो दिखनी ही थी। कोर्ट-कचहरी, आदेश-फरमान, काम-काज की भाषा में उर्दू का समावेश हुआ। इसके बाद फिर अंग्रेजी आ गई।... इस क्रमिक विकास में मैथिली भाषा के अनुरागियों का भाषा-प्रेम और मैथिली भाषा की आन्तरिक शक्ति ही कहिए कि निरन्तर इसमें हर तरह की रचना होती रही और लोग, इस भाषा के मान-सम्मान के लिए सदा लड़ते रहे। संविधान की सूची में इस भाषा के दर्ज नहीं होने, कमाई-धमाई का आधार न होने, और इस भाषा का मर्मज्ञ होकर विद्वानों की कोटि में नहीं गिने-जाने की घटना ने इस भाषा को कभी प्रभावित नहीं किया। वैसा देखें तो आज, जब ये सुविधाएं इस भाषा में मिलने लगी हैं, तो कुछ नुकसान ही हुआ है। भाषा का हित होने के बजाय भाषा के व्यापारी और भाषा के राजनीतिक खिलाड़ियों का शिकार मैथिली होने लगी है। पर उन सबका कोई खास असर इस पर नहीं पड़ेगा।

मेरी स्पष्ट राय तो यह है कि बाल साहित्य का मूल स्रोत संसार की किसी भाषा में लोरियों और लोक कथाओं को ही मानना चाहिए। इस मामले में भारत थोड़ा उन्नत साबित हुआ कि यहां ईसा पूर्व 495 के आस पास ही राजा सातवाहन के समय में गुणाढ्य ने बड्डकहा (बृहत्कथा) लिख दी। विश्व कथा साहित्य की यह निराली पुस्तक इतनी प्रभावशाली हुई कि गुणाढ्य का आदर वाल्मीकि और व्यास की तरह होने लगा। इसमें सात लाख श्लोक थे। लोक कथाओं का यह अद्भुत संग्रह माना गया। बाद में बुधस्वामी (गुप्तकाल) और क्षेमेन्द्र तथा सोमदेव ने (सन् 1029 से 1064) क्रमशः बृहत्कथा श्लोक संग्रह, बृहत्कथामंजरी और कथासरित्सागर शीर्षक से गुणाढ्य की मूलकथा को अक्षुण्ण रखते हुए उसका रूपांतरण किया। इनमें कथासरित्सागर सबसे बड़ा और सबसे सरस साबित हुआ, इसमें 21,388 श्लोक हैं। भारत देश की कथा धारा को ऐसा ही एक विलक्षण गौरव 'पंचतंत्र' से मिला। कहा जाता है कि इसके रचनाकार विष्णु शर्मा हैं और महिलारोप्य नगर के राजा अमरशक्ति के तीन उजड्ड पुत्रों को शिक्षित करने हेतु उन्होंने यह पुस्तक लिखी, जो बाद में कई देशी-विदेशी भाषाओं में अनूदित हुई। पर, अन्य मत यह भी है कि यह पुस्तक कौटिल्य की रचना पद्धति से मेल खाती है, हो न हो यह कौटिल्य की रचना हो। किन्तु अधोभाग की कुछ कथाओं में कौटिल्य वाली बात नहीं होने की वजह से इसे भी प्रामाणिक नहीं माना गया। एक मत यह भी है कि हितोपदेश के रचयिता नारायण पण्डित ही 'पंचतंत्र' के भी रचयिता हैं और राजा सुदर्शन के पुत्रों को अध्ययन की ओर आकर्षित करने के लिए उन्होंने यह पुस्तक लिखी। सच क्या है -- यह शोध का विषय है, पर हम भारतीय साहित्य के अध्येताओं के लिए यह गौरव का विषय है कि बाल साहित्य और कथा साहित्य का सूत्र हमारे यहां इतना प्राचीन है। 'बृहत्कथा' की उद्भव प्रक्रिया ही किस्सागोई का प्रमाण देती है और 'पंचतंत्र' के तो रचयिता ही कहते हैं 'नीतिशास्त्र बालावबोधनार्थ भूतले प्रवृत्तम'। पंचतंत्र के हिन्दी प्रस्तोता भगवान सिंह की राय है कि 'विष्णु शर्मा ऐसे शिक्षा शास्त्री थे जो यह मानते और समझते थे कि शिक्षा को बोझ बनाकर बेचारे शिष्यों पर लाद देने की जगह एक ऐसा खेल भी बनाया जा सकता है जिसमें वे अपना मन बहलाते हुए सीख सकें और शरारत करते हुए जान सकें।' अजीब बात यह है कि आधुनिक भारत के जिस समाज को शिक्षाविद् के रूप में इतने प्रगतिशील पूर्वज मिले, वहां के लोग हाल-हाल तक कैसे कहते रहे -- 'स्पेयर द रॉड एंड स्प्वाइल द चाइल्ड', अथवा, 'खेलोगे कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब।' बहरहाल...

अन्य भाषाओं की तरह ही मैथिली का बाल साहित्य कथासरित्सागर, पंचतंत्र हितोपदेश, वेद, पुराण की इन्हीं कथाओं के मौखिक मैथिली रूपातन्तरण, परीकथा, बोधकथा, जातक कथा, राक्षस कथा आदि से शुरू होता है। ये कथाएं सामान्यतया फुरसत के समय में नानी-दादी के मुंह से सुनते हुए मिथिला के बच्चे बड़े होते रहे हैं।

मैथिली के मौखिक बाल साहित्य दो ही स्राोत रहे हैं -- लोरियां और लोक कथाएं। लोक-कलाओं के कुछ अन्य रूप जो हैं -- नाटिकाएं, संस्कार गीत, त्योहार गीत, श्रमगीत, ऋतु गीत, ऋतु नाटिका, व्रत कथा, संस्कार कथा, आचार कथा आदि -- वे सब बाल साहित्य की कोटि में नही आती हैं। तीसरी, चैथी पीढ़ी के बीच सुनने-सुनाने की इस प्रक्रिया में कई बार लोरियों और लोक कथाओं में मिलावट भी होता गया है। लयात्मक होने की वजह से कई बार बच्चे श्रम गीत और ऋतु गीत सुनकर और किस्सागोई होने की वजह से कई बार पुराण कथा और व्रत कथा सुनकर भी उसी तरह आह्लादित होते रहे हैं।

बाल-विनोद और बाल-सुख के लिए जिन गीतों का प्रयोग होता रहा है, उनमें तीन तरह के गीत हैं -- एक तो वैसे गीत, जिसे गाती हुई, प्यार भरी थपकी देती हुई मैथिलानियां बच्चों को सुलाती हैं। इन गीतों का राग इतना सुखद होता है कि निरर्थक शब्दों के लयात्मक उच्चारण से भी बच्चे सो जाते हैं। कुछ गीत ऐसे होते हैं, जिनमें नीन्द को आदर पूर्वक बुलाया जाता है और अपने बच्चों के नीन्द का संदेशा लेकर आने को कहा जाता है --

आ आअ... आ आअ... आ आअ

या फिर

आ आ गे निनियां नीन नेने आ

हमरा नुनू लए नीन नेने आ

अर्थात् --- ओ नीन्द रानी! आओ, आ जाओ, मेरे बच्चे के लिए नीन्द लेती आओ।

या फिर

आ गे निनियां निन्दरवन सए

बौआ आएल हें मातृक सए

लाले पलंग बिछौने आ

हमर बौआकें सुतेने आ

अर्थात् -- ओ नीन्द की रानी! नीन्द वन से तुम मेरे घर आ जाओ। मेरा बच्चा ननिहाल से आया है। इसके लिए लाल पतंग लेती आओ और इसे सुलाती हुई आओ।

कुछ गीतों में बच्चों से ही निवेदन किया जाता है कि सो जा मेरे लाल! डोली में बैठकर तुम्हारे लिए नीन्द रानी आ रही है --

सूति रहू बौटा कहार आबै'ए...

महफा मे नीनियां मल्हार गाबै'ए...

इस तरह के गीतों के कई पाठ हैं। डॉ. दमन कुमार झा अपनी पुस्तक 'मैथिली बाल साहित्य' में जिस तरह उद्धृत करते हैं, उसमें नीन्द को न्यौता देने के साथ-साथ बच्चे को आशीर्वाद, खेल-कूद प्रलोभन, क्रीड़ा इत्यादि की चर्चा भी है।

कुछ ऐसे गीत हैं जिसे बच्चों को प्रसन्न रखने के लिए खेल की तरह गाए जाते हैं। ऐसे गीतों में अधिकांश शब्द निरर्थक होते हैं पर उसकी ध्वनियां बहुत आकर्षक होती हैं। झूला झुलाते, बाहों में, पालने में, पेड़ की टहनियों पर झुलाते... समय ये गीत गाए जाते हैं

झूल-झूल, बौआ झूल, मुन्ना झूल

बाप के झुनझुन्ना झूल

माइ के खेलौना झूल...

या,

अटकन मटकन दहिआ चटकन

माघ मास करैला फ'रै

ओहि करैलाक नाम की

या,

घुघुआ घू, मलेल छू

चान तरेगन बौआ छू

नव घर उठे ऽ ऽ ऽ

पुरान घर खसे ऽ ऽ ऽ

या,

तोरा माइयो नइं झुलेलकौ

तोरा बापो नइं झुलेलकौ

तोरा हमहीं झुलेलौं झुलना, सुन ललना

या,

अटा पटा, हमरा नूनूकें पांच टा बेटा

एकटा गेल गाइमे, एकटा महीसमे...

इस तरह के सारे गीत बच्चों को हंसाने, खेलाने, प्रसन्न रखने, उलझाए रखने, लाड़-प्यार करने, दुनिया-दारी सिखाने... सभी के निमित्त गाए जाते रहे हैं। इनमें मनोरंजन भी है और मंगलमय भविष्य की कामना भी, नए के उत्थान और पुराने के पतन की आकांक्षा भी।

कुछ ऐसे गीत हैं जो बच्चों को दूध पिलाते, खाना खिलाते समय गाए जाते रहे हैं। ऐसे गीतों में अक्सर बच्चों के बड़े सौभाग्य और सुखद भविष्य की लालसाएं भरी रहती हैं --

चन्दा मामा आरे आबह, बारे आबह

सोना के कटोरबा में दूध भात नेने आबह

बौआ के मुंह में घुटूस

या

चन्ना मामा दूर के, पूड़ी पकेलनि गूड़ के

अपने खएलनि थाड़ी मे मुन्नाकें देलनि प्यालीमे

प्याली गेलनि फूटि, मुन्ना गेला रूसि

इन सबके अलावा कुछ ऐसे गीत हैं, जिसे गाते हुए बच्चे आपस में खेलते हैं पर ऐसे गीत शिशुओं के लिए नहीं, कुछ बड़े बच्चों के लिए हैं और कई आयुवर्ग के बच्चों के लिए हैं।

भला हो डॉ. अणिमा सिंह और डॉ. प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन का जिनके सौजन्य से लोककंठों में बसे ऐसे कुछ गीतों का संकलन हो पाया। डॉ. अणिमा सिंह ने 'शिशु गीत ओ खेल' शीर्षक से ऐसे गीतों का संकलन किया जो सन् 1969 में पहली बार मिथिला दर्शन प्रा.लि., कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। 'मैथिलीक नेनागीत' शीर्षक से डॉ. प्रफुल्ल कुमार सिंह 'मौन' द्वारा संकलित गीतों का संकलन मैथिली अकादमी, पटना द्वारा सन् 1988 में प्रकाशित हुआ। इन दोनों संकलनों में लोककंठ में जीवन-रस पा रहे मैथिली के बालोपयोगी गीतों को लुप्त होने से बचा लिया। वर्ना आधुनिकता की आंधी और कान्वेण्ट शिक्षा की चकाचौंध में ये गीत कहां खो जाते, इसका कुछ अनुमान भी न लगता। देखते-देखते कितनी सम्पदा हमारे बुजुर्गों के साथ चली गई, हम हाथ मलते रह गए। केवल अपना ही बचपन याद करता हूं तो अपनी खोई हुई धरोहर याद आती है। इतना तो पूरी आस्था के साथ कहा जा सकता है कि लोककंठ में पलता आ रहा मैथिली का बालोपयोगी साहित्य इतना समृद्ध था कि कहने से बने। बच्चों को सुलाने, दूध पिलाने, खाना खिलाने के अलावा असंख्य खेल-गीत थे। इनमें कुछ गीतों के साथ बड़े लोग बच्चों के साथ खेलते थे, कुछ में बच्चे, बच्चों के साथ खेलते थे। लड़कियों के खेल और लड़कों के खेल के गीत अलग-अलग थे। यथेष्ट मात्र में ये गीत अब लुप्त हो गए हैं। जो कुछ जहां-तहां अभी भी बचे हुए हैं उन्हें कहीं संकलित-प्रकाशित नहीं करा लिया गया, तो हमारे पास अवशेष भी बचे नहीं रह पाएंगे।

असल में, ये सारे गीत किसी शिक्षण पद्धति से नहीं, लोक जीवन के बहाव के साथ विकसित होते रहे हैं, और समयानुसार इसमें परिवर्तन भी होता गया। जैसे बच्चों को खेलने का फिकरा है कि बुजुर्ग, अपने बच्चे की तलहथी थपथपा कर कहता है -- अट्टा, पट्टा, हमरा नूनूकें कए टा बेटा? (अट्टा-पट्टा जैसे निरर्थक शब्दों के साथ पूछता है कि मेरे बच्चे को कितनी बेटे चाहिए?) (ध्यान देने का है कि बेटा ही चाहिए। बचपन से ही बेटे का महत्व संस्कार में किस तरह भरा जाता रहा है -- इसका प्रमाण भी इस गीत में दिखता है।) बच्चा कहता था -- पांच टा (बच्चे को पांच बेटे चाहिए)। इसके बाद पांचों बेटे की व्यस्तता दिखाई जाती था -- एक गया हल जोतने... बाद के दिनों में बेटों की संख्या बदल गई। मात्र दो ही बच्चों की मांग होने लगी। बेटी की भी मांग होने लगी। और बच्चे गाय-भैंस चराने के बदले इंजिनियर डॉक्टर होने लगे।... गरज यह, कि अपने बचपन में सुने शिशु और बालगीतों को आज याद नहीं कर पा रहा हूं। बुजुर्ग लोग चले गए, खजाना लुट गए। आज की नानियां, दादियां बच्चों के साथ रहते नहीं; मां-चाची-बुआ-मौसी के पास समय नहीं है; आयाओं के लिए बच्चों का लालन-पालन पेशा हो गया। आज के बच्चे अपना बचपन देख भी नहीं पाते। ढाई बरस की उम्र पार करते ही 'प्ले स्कूल' में भरती हो जाते हैं। आज के बच्चों को यदि कृष्ण के मिट्टी खाने और यशोदा की डांट पड़ने की कथा सुनाई जाए, तो उसे समझने में परेशानी हो जाएगी। क्योंकि उसने खुद तो मिट्टी खाई नहीं, देखी ही नहीं, छूआ ही नहीं, तो खाएगा क्या? आज के बच्चों के साथ तो इन सबसे कहीं बड़ा दुर्भाग्य यह है कि गोदियों की जितनी विविधताओं का अनुभव हमारी पीढ़ी के बचपन को मिला, पड़ोसियों से लेकर हलवाहों, चरवाहों, भिखारियों, हिजरों, पमरियों की गोदियों में घूमते रहे; आज की आधुनिकता और और न्यूक्लियर परिवार की परिभाषा ने ये सारे शौक आज के बचपन से छीन लिए। खैर...

इन गीतों के अलावा मौखिक बाल साहित्य का विपुल भंडार लोक कथाओं, कथा-काव्यांे और नाट्य-गीतों में व्याप्त रहा है। इस खड में भी दुखद प्रसंग है कि देखते-देखते हमारी यह धरोहर क्षरित हो गई और मैथिली में ये संकलित नहीं हो पाए। डॉ. विभूति आनंद एवं श्रीमती ज्योत्स्ना द्वारा संकलित/संपादित संकलन 'गीतनाद' स्व. देवेन्द्र झा की सदाशयता से भवानी प्रकाशन, पटना द्वारा; श्रीमती कामेश्वरी देवी द्वारा संकलित गीत संग्रह 'संस्कार गीत' मोहन भवनम प्रकाशन, नवानी द्वारा; डॉ. अणिमा सिंह द्वारा संपादित 'मैथिली लोकगीत' लोक साहित्य परिषद, कलकत्ता (सन् 1970) तथा साहित्य अकादेमी, दिल्ली (सन् 1933) द्वारा; पी.सी. राय चैधुरी द्वारा अंग्रेजी में संकलित, योगानन्द झा द्वारा मैथिली में अनूदित संकलन 'बिहारक लोककथा' साहित्य अकादेमी, दिल्ली (सन् 2003); रामलोचन ठाकुर द्वारा संकलित 'मैथिली लोककथा' अरुणोदय प्रकाशन, कोलकात्ता (सन् 2006) द्वारा; डॉ. गंगेश गुंजन द्वारा संकलित 'मिथिला की लोककथाएं' प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित अवश्य हैं; और इन पुस्तकों में मैथिली 'लोक' का महत्त्वपूर्ण अंश सुरक्षित है। इसके अलावा स्व. ब्रजकिशोर वर्मा' 'मणिपद्दम' ने मैथिली लोक साहित्य को ही अपने सृजन का विषय बनाया और वहां विपुल मात्र में लोक साहित्य सुरक्षित हो गया। श्री अखिलेश झा द्वारा संकलित कुछ लोककथाओं का संकलन रे माधव प्रकाशन से प्रकाशित हैे। श्री वागीश कुमार झा. डॉ. प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन, डॉ. मेघन प्रसाद, प्रो. विश्वेश्र मिश्र, श्री मोहन भारद्वाज आदि ने मैथिली लोक साहित्य पर काफी कुछ काम किया हे। पर ये सारे काम, मैथिली 'लोक' कला-साहित्य-संस्कृति की विपुलता की तुलना में बड़े प्रयास के बावजूद पर्याप्त नहीं हैं। और, जिस मसले पर हम बात कर रहे हैं, मैथिली का मौखिक बाल साहित्य, उसका तो न्यूनांश भी यहां नहीं है। काफी कुछ गंवा चुकने के बाद, अब जो बचा है, उतने को भी हम सुरक्षित कर लें, तो एक बड़ा काम हो, पर यक्ष प्रश्न है कि यह बड़ा काम आज के भौतिक और इलेक्ट्रानिक युग में कौन करे? बहरहाल...

हमारे बचपन के समय में मौखिक बाल साहित्य दो सत्रों में बच्चों के कानों में डाले जाते थे। इन सत्रों की प्रतीक्षा पूरे दिन हमारे समय के बच्चे बेसब्री से करते थे। ये दोनों सत्र शाम को होते थे -- भोजन से पूर्व और भोजन के बाद। दिन के सत्रों का लाभ केवल शिशुओं को होता था, उनमें गद्य नहीं होते थे, गीत और फिकरे होते थे। शाम को गद्य वाचन चलता था। भोजन पूर्व सत्र शिशुओं के लिए चलता था, जिन्हें रसोई पक जाने तक जगाए रखना जरूरी था। इस समय थोड़े बड़े बच्चे जो पढ़ने-लिखने लायक हो जाते थे, पढ़ाई करते थे। भोजनोपरान्त उन बच्चों को कहानियां सुनाई जाती थीं। इसीलिए किस्सागो बुजुर्गों के आस पास बच्चों के सोने के लिए मार पड़ती रहती थी। ये किस्से कई-कई रात तक चलते थे। राक्षसों, परियों, पशु-पक्षियों, राजा-रानियों, राजकुमार-राजकुमारियों की ये कहानियां बच्चों की उत्सुकता, कल्पनाशीलता, जिज्ञासा आदि को उद्बुद्ध करती थीं। ये वैसी कहानियां होती थीं जिनमें बच्चे शुभ-अशुभ, भद्र-अभद्र अच्छे बुरे सबकी पहचान कर लेते थे। ये मौखिक बाल साहित्य ही उस समय के बचपन को संवारते थे, उसका चरित्र निर्माण करते थे, खूंखार होने के बावजूद शेर जैसा जानवर अच्छे लोगों को कैसे प्यार करने लगता है, सांप जैसा विषैला जन्तु कैसे बुराई का विरोधी और अच्छाई का पक्षधर होता है, स्वर्ग की परियां और अप्सराएं कैसे अच्छे लड़के से शादी करने को तैयार हो जाती हैं, राजकुमार किस तरह निर्धन और कुरूप लड़की से शादी कर लेता है -- ये सारी कथाएं सुन-सुनकर ही मिथिलांचल के बच्चे अपनी मातृभाषा के प्रति अनुराग और चरित्र निर्माण के प्रति सावधानी रखते रहे हैं।

कुल मिलाकर स्थिति साफ दिख रही है कि भारतीय स्वाधीनता से पूर्व मैथिली में बाल साहित्य के लिखित रूप का कोई स्वरूप तय नहीं हुआ था। चर्चित प्रसंग है कि जब कभी समष्टिगत बात होती है, वृहत स्तर पर सोचने की बात होती है, तो मिथिला के बुद्धिजीवी और अन्य तरह से भी सामथ्र्यवान लोग पर्याप्त उदार हो जाते हैं, क्षेत्रीयता और आत्मनिष्ठता से परे हो जाते हैं। हो सकता है, आज की मिथिला और आज के मैथिल में ऐसी झांकी न मिले, पर अतीत में ऐसा ही होता आया है। ऐसा अकारण नहीं हुआ कि जिस भाषा में ज्योतिरीश्वर, विद्यापति, गोविन्ददास, उमापति, जीवन झा, मनबोध, पुलकित लाल दास, भोला लाल दास, चन्दा झा, भुवनेश्वर सिंह 'भुवन', सीताराम झा, कांचीनाथ झा 'किरण' हरिमोहन झा, यात्री, राजकमल चौधरी ने रचना की हो, उस भाषा को अब आकर संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज करने लायक समझा जा सका। दरअसल मैथिलों ने कभी अपने अधिकार के लिए सावधान रहना और लड़ना नहीं सीखा। परिणाम यह हुआ कि स्वाधीनता के बाद भी सरकारी बही में मैथिली को स्वीकृति नहीं दी गई, फलस्वरूप नव शिक्षा पद्धति में भी मैथिली को स्थान नहीं मिला। पाठ्यक्रम में कहीं विषय अथवा भाषा के रूप में मैथिली नहीं आई, इस कारण अलग से बाल-साहित्य लिखा नहीं गया, प्रकाशन नहीं हुआ। पर ऐसा नहीं कहा जा सकता कि बाल साहित्य सिरे से गायब था।

असल में बाल साहित्य की दो प्रमुख सावधानियां होती हैं -- विषयु-वस्तु के स्तर पर, और भाषा-शिल्प एवं उपस्थापन शैली के स्तर पर। मिथिला के बच्चों की प्राथमिक शिक्षा जिस तरह के विषय और जिस तरह की भाषा से शुरू होती थी, उसमें, मातृभाषा में लिखी गई गरिष्ठ कथा-कविता भी उनके लिए पसंदीदा और रोचक हो जाती थीं। मिथिला का लोक-जीवन ऐसा था कि निरक्षर स्त्री-पुरुष के मुंह में भी विद्यापति और तुलसीदास की पंक्तियां तैरती रहती थीं। इस लिहाज से मिथिला का बाल-समुदाय शिक्षारंभ करते ही उन पंक्तियों को सुनने लगता था। लिहाजा, बड़ों के लिए लिखा गया साहित्य भी उनके लिए रोचक होता था। मातृभाषा में रचित होने की वजह से बोधगम्य और कथात्मक होने की वजह से रोचक पाकर वे उन्हें उत्फुल्ल होकर गाया करते थे। ऐसे साहित्य में विद्यापति और चन्दा झा की रचनाओं के कई अंश तो होते ही थे, मनबोध का 'कृष्ण-जन्म', सीताराम झा, कांचीनाथ झा 'किरण', काशीकान्त मिश्र 'मधुप', तन्त्रनाथ झा, चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर', वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' आदि के पद्य और हरिमोहन झा का गद्य बच्चों के लिए आकर्षण का विषय हो गया। इन सभी रचनाकारों की यद्यपि कई रचनाएं शुद्ध रूप से बालोपयोगी हैं, पर यह सच है कि आज तक मैथिली में, और भाषाओं के रचनाकारों की तरह बाल साहित्य के विशेष रचनाकार के रूप में किसी की अलग से छवि बन नहीं पाई। इधर आकर जीवकान्त द्वारा रचित तीन काव्य संकलन आए हैं... जिन्हें शुद्ध रूप से बालोपयोगी पुस्तकें कह सकते हैं। इससे पूर्व के मैथिली के बाल साहित्य का भंडार अभी भी पत्रिकाओं के बंडल में ही छिपा है।

मैथिली पत्रकारिता के भी सौ से अधिक वर्ष हो गए। पर मैथिली बाल साहित्य के इकलौते अनुसंधान कर्ता डॉ. दमन कुमार झा को पत्रिकाओं में बाल साहित्य के सूत्र सन् 1949 से मिलने शुरू हुए। महिनाथ झा के संपादन में दरभंगा में छपने वाली इस पत्रिका 'शिशु' में उन्हें 1949 के अंक में छह कविताएं, चार कहानियां, एक एकांकी, दो निबंध और बाल साहित्य विषयक एक समीक्षा मिली।

चर्चा पहले भी हो चुकी है कि मैथिली के रचनाकारों को अपनी मातृभाषा के प्रति पर्याप्त अनुराग रहने के बावजूद, स्वाधीनता संग्राम में अपनी आहुति देने के क्रम में एकाग्रता इतनी थी कि भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर उनके मन में कोई द्वन्द्व नहीं था और वे इन बातों को संभवतः अपनी रणनीति का अंग नहीं बनाना चाहते थे, वर्ना जिस चन्दा झा ने 'पुरुष परीक्षा' का अनुवाद संस्कृत से मैथिली में किया, वे उसकी भूमिका हिन्दी में नहीं लिखते। 'न्यायक भवन कचहरी नाम, सब अन्याय बनल तहि ठाम' जैसी तीक्ष्ण और समकालीन पंक्ति लिखने वाले चन्दा झा के सोच-फलक पर यह बात धोखे से भी नहीं आई होगी कि जिस मातृभाषा में लिखने की वजह से मेरा पड़ोस मेरी योग्यता का उपहास कर रहा है, उस मातृभाषा की अस्मिता को आगे करने का लाभ छोड़कर हम स्वाधीनता संग्राम को हवा दे रहे हैं; और स्वाधीनता के बाद मेरी मातृभाषा सरकारी बही में उपेक्षित रह जाएगी। बहरहाल...

स्वातंत्रयोत्तर कालीन देशीय शासन व्यवस्था ने मैथिली की उपेक्षा की और तब मैथिली के रचनाकारों की समझ में यह बात आई कि हमारे साथ छल हुआ है। तब तक देर हो चुकी थी। फिर भी समकालीन बुद्धिजीवियों ने यथायोग्य उद्यम किया। मिथिला और मैथिली भाषा-साहित्य के संपूर्ण अस्तित्व का सवाल सामने खड़ा था। ऐेसे में बाल साहित्य का सवाल अन्य कई सवालों में से एक सवाल की तरह सामने आया। भाषा और साहित्य के मसलों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने वालों ने इस बारीकी को समझा। विधिवत् व्यापारिक प्रकाशन व्यवस्था मैथिली में न रहने के बावजूद उन लोगों ने समय-समय पर बालोपयोगी रचनाएं की। पत्र-पत्रिकाओं में बालोपयोगी रचनाओं का स्तंभ प्रकाशित होने लगा। इन स्तंभों में स्वतंत्र रूप से यदा-कदा प्रकाशित कुछ बाल-पत्रिकाओं में स्वातंत्रयोत्तर काल की सभी पीढ़ी के रचनाकारों ने कहानी, कविता, एकांकी, चुटकुला, पहेली, बुझौवल, निबंध इत्यादि लिखना शुरू किया। कुछ चिन्तकों ने रणनीति बनाकर बाल साहित्य की चिन्ताजनक स्थिति पर वैचारिक लेख भी लिखा। सन् 1963 आते-आते प्रख्यात आलोचक रमानाथ झा ने तो साफ-साफ कहा कि 'अभ्यास मनुष्य को शैशव में ही लगता है। रुचि विकास बचपन में ही हो सकता है। यदि बच्चों को हम लोग ऐसा साहित्य पढ़ने दें जिसमें उन लोगों को सुरुचिपूर्ण सामग्री मिले, पढ़ने में मन लगे, तो मैथिली पढ़ने की ऐसी आदत लगेगी जो कभी छूटेगी नहीं। इसलिए अभी मैथिली के साहित्यकारों के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण काम है शिशु-साहित्य का निर्माण... यदि हम लोग मिथिला भाषा में उसे पढ़ने की सामग्री न दें, मैथिली पुस्तकों के द्वारा उसके मनोरंजन का प्रबंध न कर सकें, तो वे लोग भाषान्तर की पुस्तकें पढ़ेंगे।... भाषान्तर द्वारा ऐसा होने पर हमारे बच्चों को जो लत लग जाएगी उससे भविष्य में मैथिली के प्रचार मे जो बाधा होगी उसका अनुमान कर सकते हैं (शिशु साहित्य/बटुक (मासिक)/अप्रैल 1963)।'

प्रो. रमानाथ झा की लेखनी से यह चिन्ता तो काफी देर से प्रकाश में आई, पर रचनाकारों ने इसका परिमार्जन पहले से शुरू कर दिया था। 'शिशु' (1949) के अलावा सुधाकान्त मिश्र के संपादन में इलाहाबाद से 'बटुक' मासिक (1961), धीरेन्द्र के संपादन में लोहना से 'धीया-पूता' का प्रकाशन शुरू हो चुका था।

स्वातंत्रयोत्तर काल में मातृभाषा के माध्यम से शिशु शिक्षा की बात चली तो अवश्य, पर मैथिली को इसका लाभ नहीं मिल सका। डॉ. दमन कुमार झा युक्ति संगत तर्क देते हैं कि 'भाषाधार प्रान्त जब बनने लगा, तब तेजस्वी राजनेता के अभाव में, भारत के मानचित्र पर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कायम करने में मिथिला चूक गई।... बिहार को हिन्दी प्रदेश घोषित किया गया। फलस्वरूप बिहार की मातृभाषा सरकारी पंजी में हिन्दी दर्ज हो गई, जबकि वास्तविकता इससे भिन्न थी।' सच तो यह है कि आज भी बिहार, झारखंड के किसी क्षेत्र की मातृभाषा हिन्दी नहीं है। डॉ. दमन की व्याख्या से थोड़ी-सी असहमति मुझे यह है कि ऐसा तेजस्वी नेता के अभाव के कारण नहीं, मातृभाषा के प्रति वीतरागी प्रवृत्ति के कारण हुआ। वे राजनेता भी तो आखिर उसी शिक्षण पद्धति से गुजरे थे, जिसमें उन्हें मैथिली भाषा की गरिमा-महिमा का बोध नहीं कराया गया। आखिरकार उनके मन में मैथिली के प्रति अनुराग हो तो कहां से ?... जैसे भी हो, स्वातंत्रयोत्तर काल की इस दुर्घटना ने मैथिली के रचनाकारों को पूरी तरह झकझोड़ा। वे अपने को ठगा-सा महसूस करने लगे। बच्चों के मन में मातृभाषा के लिए सम्माजनक स्थान बनाने के प्रयास में उन लोगों ने भरपूर उद्यम किया। दशकों, सदियों पूर्व के पूर्वज रचनाकारों की आन्दोलनधर्मिता की विरासत उनके समक्ष थी। विद्यापति, गोविन्ददास, मनबोध, चन्दा झा की रचनाएं भाषाई सहजता के कारण लोक जीवन में पर्याप्त चर्चित थीं। उन लोगों की कई रचनाओं में बाल साहित्य के तत्व ढूंढकर बच्चों के बीच मैथिली का अलख जगाने लगे। मनबोध के 'कृष्णजन्म' और चन्दा झा के 'वाताह्वान' को बाल साहित्य की तरह परोसने लगे और खुद भी सहज रचनाएं कर शिशुओं के बीच मैथिली का प्रचार जोर-शोर से करने लगे।

विदित है कि मिथिला के बच्चों को रामायण, महाभारत की कथाएं; वेद, पुराण, उपनिषद, बाह्मण, अरण्यक की नीति कथाएं; घर, परिवार के लोग और गुरुजन निरंतर सुनाते रहते थे। लोक कथाएं तो वे सुनते ही थे। ऐसे में राम और कृष्ण की बाल लीलाएं उनके लिए आनन्द प्रद हुआ करती थीं। उल्लेखनीय है कि सहज भाषा और रमणीय लय बच्चों के लिए रुचिकर प्रसंग हैं; आज भी, और उन दिनों भी। ऐसे में स्वाधीनता पूर्व के मैथिली भक्तों को मनबोध रचित 'कृष्ण जन्म' के प्रसंग बड़े काम आए। सहज भाषा, सरल छन्द विधान, जनपदीय शब्दावली, समकालीन मुहावरे, शास्त्रीय जटिलता से अलग लय और लोक जीवन की तालबद्धता के कारण 'कृष्ण जन्म' की पंक्तियों ने बच्चों की यादास्त में अपनी बेहतर जगह बनाई, और, यूं कहिए कि मैथिली में लिखित बाल साहित्य की गाड़ी चल पड़ी।

उल्लेख हो चुका है कि मैथिली भाषा में व्यापारिक प्रकाशन व्यवस्था न तब थी, न अब है। समय-समय पर मातृभाषा के अनुरागी, समाज-सुधार के प्रति नैतिक रूप से प्रतिबद्ध लोगों के द्वारा इस भाषा में प्रकाशन का काम जैसे-तैसे होता रहा है। जाहिर है कि मैथिली में बाल पत्रिकाओं की कोई व्यवस्थित धारा नहीं बन पाई। प्रभूत श्रम के बावजूद डॉ. दमन कुमार झा मात्र पांच बाल पत्रिका ढूंढ पाए--शिुश (महिनाथ झा/दरभंगा/1949), बटुक (सुधाकान्त मिश्र/इलाहाबाद/1961); (सुधाकान्त मिश्र, इलाहाबाद/1961); धीया पूता (धीरेश्वर झा 'धीरेन्द्र'/लोहना, मधुबनी/1956); नेना भुटका (सच्चिदानन्द 'सच्चू'/ रुपौली, मधुबनी/1996); बाल मिथिला (प्रभात/पटना/1998)। इसके अलावा अन्य पत्रिकाओं में बालोपयोगी रचनाओं के लिए स्तंभ अवश्य था, जिनमें समकालीन रचनाकार लिखते रहे। ऐसी पत्रिकाओं में 'मिथिला मिहिर' का योगदान सर्वाधिक माना जाएगा। 'स्वदेश', 'वैदेही', 'देस कोस', 'कर्णामृत', 'माटि पानि', 'बसात', 'आंजुर', 'हालचाल','भाखा', 'कोसी कुसुम', 'स्वाती', 'चतुरंग', 'प्रवासक भेंट', 'अनुवार्ता', 'भारती मंडन' आदि पत्रिकाओं में बालोपयोगी रचनाओं के लिए नियमित स्तंभ प्रकाशित होता रहा है। इन तमाम पत्रिकाओं में 'बाल मिथिला' अलग से उल्लेखनीय पत्रिका है, क्योंकि इसका लेखन, संपादन, प्रकाशन, वितरण ... सारा कुछ बच्चों के द्वारा ही संपन्न हुआ। वे सारे बच्चे अब युवा हो चुके हैं और भावी जीवन के दबाब का संग्राम जीतने में लगे हुए हैं। अलबत्ता यह कम सराहनीय नहीं है कि अपने बाल्यावस्था में इन लोगों ने अपनी इस सूझ-बूझ का परिचय दिया। दुखद है कि इन बच्चों द्वारा मैथिली के बड़ों की की गई इस भत्र्सना (जी हां, इसे मैं भत्र्सना ही कहूंगा) से भी कोई हलचल नहीं हुई। इधर के दिनों में यह देखा जा रहा है कि व्यवस्थित ढंग से साहित्य से जुड़़े लगभग लोगों की चिंता का हिस्सा बाल साहित्य लेखन बन रहा है। लोग इस दिशा में गंभीरता से सोच रहे हैं।

पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाएं वैसे तो किसी भी भाषा में बहुत दिनों तक सुरक्षित नहीं रहतीं, मैथिली में कहां से रह पाएगी। पर जितनी भी बची-खुची रचनाओं की सूची विश्वसनीय स्रोतों से उपलब्ध कर डॉ. दमन ने अपने शोध प्रबंध में प्रस्तुत की है, उतने का भी विधिवत् संकलन हो जाए, तो मैथिली का बाल साहित्य भरा-पूरा नजर आएगा और उन पर कायदे से चर्चा हो सकेगी। इन पत्रिकाओं में सीताराम झा, प्रवासी साहित्यालंकार, कांचीनाथ झा 'किरण', काशीकान्त मिश्र 'मधुप', महामहोपाध्याय उमेश मिश्र, रमानाथ झा, सुरेन्द्र झा 'सुमन', आरसी प्रसाद सिंह, ईशनाथ झा, रमाकर, सुभद्र झा, जयकान्त मिश्र, पुण्यानन्द झा, लक्ष्मीपति सिंह, गोविन्द झा, चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर', उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास', ब्रज किशोर वर्मा 'मणिपद्म', शैलेन्द्र मोहन झा, हरिमोहन झा, राजकमल चौधरी, सोमदेव, रामदेव झा, रमानन्द रेणु, धीरेन्द्र, हंसराज, मायान्द मिश्र, लिलि रे, रमाकान्त मिश्र, केदारनाथ लाभ, बालगोविन्द झा, कमलनारायण झा 'कमलेश', दुर्गानाथ झा 'श्रीश', जयदेव मिश्र, अमरेश पाठक, देवेन्द्र झा, मंत्रोश्वर झा, भीमनाथ झा, रमानाथ मिश्र 'मिहिर', विद्यानाथ झा 'विदित', विश्वेश्वर मिश्र, लक्ष्मण चौधरी 'ललित', प्रफुल्ल कुमार सिंह 'मौन', मार्कण्डेय प्रवासी, सुशीला झा, शेफालिका वर्मा, सुधाकान्त मिश्र, रुद्रकान्त 'मिश्र', जीवकान्त, जयनारायण झा 'विनीत', गोपालजी झा 'गोपेश', शंकपिया, जय प्रकाश चौधरी 'जनक', प्रदीप मैथिली पुत्र, फजलुर रहमान हाशमी, रामलोचन ठाकुर, उदयचन्द्र झा 'विनोद', विभूति आनन्द, शिवशंकर श्रीनिवास, शैलेन्द्र आनन्द, केदार कानन, राज, ज्योत्स्ना आनंद, रामभरोस कापड़ि 'भ्रमर', फूलचन्द मिश्र 'रमण', सियाराम सरस, नारायण जी, तारानन्द झा 'तरुण', कुमार शैलेन्द्र, हीरेन्द्र कुमार झा, दमन कुमार झा, शंकरदेव झा, लूटन ठाकुर, अजित आजाद, विनय विश्वबंधु, सुधाकान्त दास, विद्यानन्द झा, कालीनाथ झा, शरदीन्दु कुमार चौधरी, बुचरू पासवान, इंदिरा झा, बच्चा ठाकुर जैसे महत्वपूर्ण रचनाकारों द्वारा लिखी गई कविताएं, कहानियां, निबंध, नाटक, एकांकी, बाल उपन्यास, बाल साहित्य विषयक समीक्षात्मक एवं चिन्तन प्रधान आलेख/समीक्षा, राष्ट्रीय महापुरुषों और मिथिला विभूतियों की जीवनियां इत्यादि प्रकाशित हुई हैं। इन तमाम रचनाओं में रचनाकारों का आयास बच्चों में कुतूहल, उत्सुकता, प्रश्नाकुलता और आह्लाद जगाकर उन्हें उद्बुद्ध करना और बहुत हुआ तो जाते-जाते कोई छोटा-सा परोक्ष उपदेश दे देना है। ये रचनाएं बालवृन्द में शिष्टाचार, प्रकृति बोध, नीति शिक्षा, परिवेश के प्रति जागरूकता, पालतू और बनैले पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं की जानकारी, साधु-असाधु आचरण का विवेक भरने में निश्चय ही सफल हुई होंगी। इन रचनाकारों में रचनाकारों का उद्यम वही रहा है, जो प्रकाण्ड शिक्षाशास्त्री विष्णु शर्मा (अथवा नारायण पंडित) का 'पंचतंत्र' में रहा है। गरज यह नहीं कि इन सभी रचनाकारों को मैं एकबारगी विष्णु शर्मा अथवा नारायण पंडित की कोटि में बैठाने की जिद कर रहा हूं, बल्कि इन रचनाकारों के उस उद्यम की प्रशंसा करना चाहता हूं, जिसमें वे बाल साहित्य के नाम पर किए जा रहे नारेबाजियों से बच पाए हैं। अपनी तमाम रचनाओं में ये लेखक उपदेशक की भंगिमा से अलग हैं। सरल-सहज शब्दावली; सुपरिचित दृश्यों के बिम्ब; हास्य और पुलक से भरी उक्ति भंगिमा; बुद्धिमानी, बहादुरी, देश-प्रेम और समाज-प्रेम से भरा-पूरा विवरण -- सब इन रचनाओं में मौजूद हैं। कई रचनाओं में सुुपरिचित लोरियों, फिकरों, लोकोक्तियों, लोक कथाओं किम्बदतियों का रचनात्मक सहारा लिया गया है।

उक्त सूची में केवल उन्हीं रचनाकारों का नाम दर्ज है, जो निरंतर लिखते रहे और अभी भी लिख रहे हैं और मैथिली लेखन की दुनिया में जिन्होंने अपना एक प्रतिमान स्थापित कर लिया। इन सबके अलावा इनसे तीन-चार गुनी अधिक संख्या में ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने बेहतरीन बाल-साहित्य लिखा, पर वे भूमिस्थ ही रहे। उनकी रचनाओं पर न तो चर्चा हुई, न वे रचनाएं संकलित होकर कहीं पुस्तकाकार हुईं। परिस्थिति गवाह है कि भारतीय साहित्य की रचनाधारा में मान्यता और प्रोत्साहन सम्मान के अभाव के कारण असंख्य लोगों के रचनाकार असमय काल कवलित हो गए; उनकी रचनाएं पत्रिकाओं की फाइल में अथवा रचनाकार की डायरी में दबकर रद्दी बाजार में लुप्त हो गईं। मैथिली भाषा के बाल साहित्य का सत्यानाश इस तरह भी घटित हुआ।

कोई शक नहीं कि प्रारंभिक काल से ही मैथिली भाषा के बाल साहित्य का स्वरूप विधिवत स्पष्ट रहा है। महाकवि विद्यापति और गोविन्द दास के पद लालित्य, भाषाई सहजता, लोकोक्ति सम्मत उपस्थापना और सुपरिचित विषय संदर्भ के कारण इनके यहां कई ऐसी रचनाएं हैं जो अपने सरल अर्थों में बालोपयोगी हैं, तो विश्लेषण, व्याख्या के स्तर पर शोधोपयोगी। आगे आकर महाकवित मनबोध के यहां यह और भी स्पष्ट हुआ है। ध्यातव्य है कि सन् 1788 में उनका देहांत हो गया। उनका बहुप्रशंसित, बहुचर्चित महाकाव्य है 'कृष्णजन्म'। साहित्येतिहास में महाकवि मनबोध और महाकाव्य 'कृष्णजन्म' की गणना मैथिली साहित्य के आधुनिक काल की भावभूमि बनाने वालों में होती है। विषय और भाषा शिल्प -- दोनों ही स्तरों पर इस कृति के जन सरोकार की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम होगी। कृष्ण की बाल लीला को इस कृति में तमाम चमत्कारों के चित्रण के बावजूद 'देव लीला' से पृथक रूप में प्रस्तुत किया गया है। किंबदंतीय समस्त चमत्कारिक किस्सों का आतंक इस कृति में कहीं पर ठेठ मानवीय लोकाचारों पर छाया हुआ नहीं है। किसी ग्वाले के घर जन्मे एक आम बच्चे के आचरण को बड़ी ही रोचक शैली में यहां प्रस्तुत किया गया है। ठेठ मिथिला के लोकाचारों और विवरणों से भरी इस रचना के विविध प्रसंग मैथिली बाल साहित्य के अनुपम उदाहरण हैं। सम्पूर्णता में यह कृति मैथिली साहित्य का धरोहर तो है ही। बाल साहित्य के रूप में यह श्रीमद्भागवत और हरिवंश पुराण की कथा पर आधारित एवं गोकुल, मथुरा, द्वारका परिसर में केंद्रित प्रसंग का अनुवाद नहीं, पुनर्रचना है। इसी तरह पुराकथाओं पर आधारित कई प्रबंध काव्य हैं, जिन पर बाल साहित्य की दृष्टि से विचार किया जा सकता है। डॉ. दमन ने पर्याप्त तर्क के साथ अपने शोध प्रबंध में ऐसा ही किया है। तेजनाथ झा (1854- 1934) रचित 'रामजन्म'(1929); हरिनन्दन दास (जन्म-1840) रचित और शैलेन्द्र मोहन झा एवं खुशीलाल झा द्वारा संपादित 'सुदामा-चरित' इसी कोटि की रचनाएं हैं। चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर' की रचना 'मूस महिमा', रमापति चौधरी की रचना 'धृतराष्ट्र विलाप', श्री भुवनेश्वर प्रसाद 'अध्यापक' रचित 'मैथिली बाल रामायण', फजलुर रहमान हाशमी रचित खण्डकाव्य 'हरबाहक बेटी' (हलवाहे की बेटी, अर्थात सीता), जनार्दन झा 'जनसीदन' रचित 'मैथिली नीति पद्यावली', सीताराम झा रचित 'शिक्षा सुधा' और उपदेशाक्षमाला', सुरेन्द्र झा 'सुमन' रचित 'सनेस', श्रीकृष्ण मिश्र रचित 'अग्रदूत', उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास' रचति 'अक्षर परिचय' आदि ऐसी कृतियां हैं जिनमें मैथिली की श्रेष्ठ बाल कविताओं का बहुविध स्वरूप देखा जा सकता है। 'रामजन्म', 'सुदामा चरित', 'धृतराष्ट्र विलाप', 'मैथिली बाल रामायण' तथा 'हरबाहक बेटी' जैसी प्रबंधात्मक शैली में लिखी गई काव्य कृतियां पुराकथाओं पर आधारित अवश्य हैं, पर रचनात्मक कौशल की दृष्टि से इन रचनाओं की नवीनता और सृजनात्मकता रेखांकित करने लायक है। 'रामजन्म' का रचनाकाल सन् 1929 है, अनुमानतः 'सुदामा चरित' का रचनाकाल उन्नीसवीं शताब्दी का अधोकाल रहा होगा। पर भाषा इसकी इतनी सहज, रोचक और कमनीय है कि आज के बच्चों को भी सहज रूप से आकर्षित करती है। विस्तृत फलक के विषय पर की गई यह रचना अपनी आंशिकता में भी और समग्रता में भी इकहरे अर्थों से बाल मन को आकर्षित करती है, तो यह रचनाकार की कालजयी दृष्टि का ही परिचायक है। अर्थ गांभीर्य में जाने पर तो यह विशिष्ट रचना है ही।

चर्चा हो चुकी है कि शासकीय रूप से और सामाजिक मान्यता के आधार पर मैथिली में लिखित बाल साहित्य का कोई स्थापित स्वरूप नहीं था। प्राचीन समय के मान्यतादाता संस्कृत के पांडित्यपूर्ण श्रेष्ठता के अहंकार में चूर थे, और बाद के मान्यदाता अंग्रेजी के दर्प में मस्त रहने लगे, फिर मैथिली कहां रहती? पर इतना तो तय था कि बड़ों के लिए लिखा गया साहित्य यदि बच्चों को भी रोचक लग जाएं, तो उन्हें पढ़ने और उन रचनाओं में रमने से किसे कौन रोकता? पूरे परिदृश्य पर विहंगम दृष्टि देते हुए ऐसा दिखता है कि स्वाधीनता पूर्व भी, और स्वाधीनता के बाद भी, मैथिली में बाल साहित्य की विधिवत् व्यवस्था हो अथवा न हो, रचनाकारों ने निरंतर इस दिशा में अपनी चिन्ता जारी रखी है। कवीश्वर चन्दा झा की पहली कृत्ति है -- वाताह्वान। इसमें संस्कृत, हिन्दी, मैथिली -- तीनों भाषाओं का समावेश है। यह काल निश्चय ही सन् 1857 के आसपास का रहा होगा। इस रचना में कवि ने ललित लय, सहज भाषा, देशज शब्दावली का इतना मनोरम समन्वय किया है कि कोई भी चेतना संपन्न समीक्षक उसे बालोपयोगी साहित्य की कोटि में रखेगा और उसकी विषद् व्याख्या करेगा। वैसे इस रचना में वायु का आह्वान किया गया है। तथ्य है कि उल्लिखित कई कृतियों की रचना रचनाकारों ने अपने समय के बच्चों को नीति सुबुद्ध और व्यावहारिक ज्ञान संपन्न करने हेतु की और अपने रचना कौशल का उत्कर्ष उनमें दिखाया। ऐसा करने वाले रचनाकारों में अधिकांश लोग या तो पेशे से अध्यापक थे, या स्वभाव से। अध्यापकों को राष्ट्र-निर्माता कहा गया है, वे सदा ही अपने राष्ट्र का भविष्य बच्चों में देखते हैं, जो सच भी है। काश! उन मनीषियों को पूरी तरह शासकीय समर्थन मिला होता! आज ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो बेहतरीन मैथिली बोलते हैं, पर लिख नहीं पात,े तेजी से पढ़ नहीं पाते। इसका मूल कारण उनके बाल्य-जीवन में मैथिली भाषा की पुस्तकों का अभाव ही है। बचपन में मनुष्य को जिस भाषा से साहचर्य नहीं हुआ, उस भाषा की पुस्तकों के प्रति उसे कभी लगाव नहीं हो सकता। यही कारण है कि वाचन संस्कार में पूरी तरह मैथिली बसी रहने के बावजूद, देवनागरी लिपि में लिखी मैथिली होने के बावजूद, कुछ लोग कहते हैं कि 'मैथिली पढ़ै मे हमरा उसरै नइं अए', अर्थात् मैथिली पढ़ते वक्त वे लोग बहुत सुविधाजनक स्थिति में नहीं रहते हैं।... यह सुखद है कि इधर आकर मैथिली के रचनाकारों की चेतना इस बात के लिए सावधान हुई है।

उल्लिखित कृतियों और इनके अतिरिक्त अन्य कई रचनाकारों की कृतियों को देखते हुए, मैं अक्सर सोचता हूं, आखिर बाल साहित्य कहा किसे जाए? उसकी सही परीक्षा क्या है, उसके अधिकारी पंच कौन हैं,... मेरे हिसाब से यह फैसला केवल बच्चे ही दे सकते हैं। जो साहित्य बच्चों को पसन्द आ जाए, बच्चे जिसे रुचि लेकर पढ़ें, जो साहित्य बच्चों को प्रसन्न कर सके, उसकी जिज्ञासा वृत्ति और प्रश्नाकुलता को बढ़ा सके; उसके बारे में लेखक, आलोचक घोषणा करे या न करे, वह बाल साहित्य हुआ। इसी दृष्टि से 'मूस महिमा', 'मैथिली नीति पद्यावली', 'शिक्षा सुधा', 'सनेस', 'अक्षर परिचय' घोषित बाल साहित्य है; और 'कृष्ण जन्म', 'राम जन्म', 'सुदामा चरित', 'हरवाहक बेटी' आदि घोषित नहीं होने के बावजूद बाल साहित्य है, क्योंकि इनमें वे सारी विशेषताएं भरी हुई हैं, जो किसी अच्छे बाल साहित्य के लिए अपेक्षित होती हैं। इस दृष्टि से चन्दा झा की 'चन्द्रपदावली', तन्त्रनाथ झा की 'नमस्या', चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर' की 'गुदगुदी', रवीन्द्र नाथ ठाकुर की 'चलू चलू बहिना' एवं 'जहिना छी तहिना', इन्द्रनाथ झा की 'धूप दीप', राधाकान्त ठाकुर की 'एक आंखि गंगा', उपेन्द्र दोषी की 'यंत्रणाक क्षणमे', यन्त्रनाथ मिश्र की 'हिलकोर', उमा रमण झा की 'चारू आश्रम', रामलोचन ठाकुर की 'अपूर्वा' आदि कृतियों में कई बालोपयोगी कविताएं संकलित हैं। परिस्थिति वश यह हैरत की बात नहीं मानी जा सकती कि जब इतने रचनाकारों ने बालोपयोगी रचनाएं कीं, तो वे ऐसी पोथियां अलग से क्यों नहीं छपवाईं। कहा जा चुका है कि व्यवस्थित प्रकाशन संस्थान और सुनिश्चित बाजार व्यवस्था मैथिली पुस्तकों की तब नहीं थी, आज भी नहीं है। दरअसल, वाणिज्य एक जोखिम का काम है। कृषि कर्म में प्राकृतिक आपदाओं के कारण जिन मुसीबतों का सामना मैथिलों को करना पड़ता रहा है, उसमें देव शक्ति पर बनी उनकी आस्था ही उनके जीने और जीवन-यापन करने का संबल रहा। संभवतः इस कारण, या अपने आलस भाव के कारण, जोखिम लेने की ललक वहां नहीं हुई। जिस मिथिला में स्याही, कलम, कागज की खरीद-फरोख्त के आंकड़े अन्य क्षेत्रों की तुलना में सर्वदा आगे रहे हैं, वहां आज भी प्रकाशन की दुनिया में प्रवेश करने से लोग क्यों घबराते हैं, यह चिन्ता का विषय हो सकता है। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, आज भी मैथिली के रचनाकार अपनी जेब से पैसे लगाकर पुस्तकें छापते हैं, और बांट देते हैं। ऐसे में यदि 'अ-आ संग गा' और 'संग आबै संग गाबै' शीर्षक से तैयार बाल गीतों के संग्रह साइक्लोस्टाइल रूप में प्रकाशित हुए, तो यह विस्मयकर नहीं है। 'जिद्दी राजू' शीर्षक बालोपयोगी कविताओं के संकलन की कविताएं पहले 'बटुक' पत्रिका में प्रकाशित हुईं, बाद में संकलित हुईं। इनके अतिरिक्त अन्य कई रचनाकारों के संकलन में भी प्रचुर मात्र में बाल कविताएं संकलित हैं।

स्वातंत्रयोत्तर काल में सत्ता पक्ष द्वारा मैथिली की उपेक्षा हुई। शासकीय तौर पर अनेक गुत्थियों को नहीं सुलझा पाने की स्थिति में सरकारी बही में मैथिली को समुचित मान्यता नहीं मिली, फलस्वरूप मैथिली पीछे रह गई। आजादी के जश्न से मुक्त होकर लोगों ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो उन्हें अपनी मातृभाषा का आधार हिला हुआ मिला। लोग इस पर फिर से संघर्ष करने लगे। अंततः सफलता हाथ लगी, और बिहार स्टेट टेक्सट बुक पब्लिशिंग कारपोरेशन, पटना ने पहले से दसवें वर्ग तक के बच्चों के लिए मैथिली में पुस्तकें प्रकाशित कीं। इनमें पांचवीं कक्षा तक के बच्चों की पुस्तकें मूल नहीं, अनूदित थीं। साहित्येतर पुस्तकें तो अनूदित होनी ही थीं। इस तरह हम देखते हैं कि बीसवीं शताब्दी के अंतिम तीन दशक फलदायी साबित हुए। पर दुर्भाग्य मिथिलांचल का, कि मिथिला क्षेत्र के विद्यालयों में पदस्थापित शिक्षकों और मैथिल समाज की अपनी अदूरदर्शिता के कारण मैथिली फिर भी उपेक्षित ही रही। अध्यापकों का असहयोग भाव और अभिभावकों का भय-भाव फिर से सफल हुआ। माध्यम के रूप में स्वीकृत होकर भी, व्यवहार में मैथिली नहीं आ सकी। अभिभावकों और छात्र-छात्राओं को इस संभावना से आतंकित किया गया कि बोर्ड परीक्षा में प्रश्न-पत्र मैथिली में नहीं आएगा, परीक्षा की उत्तर पुस्तिकाएं जांची नहीं जाएंगी, बच्चे का कैरियर बाधित होगा... इत्यादि।

पर मैथिली बाल साहित्य के सृजन को इन विपत्तियों से कोई खास अवरोध नहीं हुआ। सरसरी तौर पर बाल साहित्य की स्पष्ट छवि यूं बनती है कि पूर्वजों द्वारा रखी मजबूत नींव पर 1930-35 के आसपास कलम उठाने वाले मैथिली रचनाकारों की पीढ़ी ने मैथिली में बाल साहित्य के महत्व को गंभीरतापूर्वक महसूस किया। यह भारतीय साहित्य में प्रगतिशील चेतना के उद्भव का दौर था। सीताराम झा, उमेश मिश्र, रमानाथ झा, काशीकान्त मिश्र 'मधुप', कांचीनाथ झा 'किरण', भुवनेश्वर सिंह 'भुवन', हरिमोहन झा, ईशनाथ झा, सुरेन्द्र झा 'सुमन', वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री', आरसी प्रसाद सिंह आदि मैथिली रचनाकारों के युवावस्था के जोश-खरोस का दौर था। इस पीढ़ी ने देश-दशा की नब्ज को गंभीरता से परखा। 'निज भाषा उन्नति अहै' के नारे को राष्ट्रीय आन्दोलन का मूल मंत्र समझकर, और अपने पूर्वज रचनाकारों द्वारा दी गई आहुति के सम्मान में इन लोगों ने उस नारे का कोई विरोध नहीं किया, पर अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की सुरक्षा हेतु अपने बाल-बच्चों मेें मातृभाषा का संस्कार भरने के प्रति सावधान अवश्य हुए। भाषा केवल मनुष्य की अभिव्यक्ति का साधन ही नहीं, सांस्कृतिक विरासत की सुरक्षा और मानव चिन्तनशीलता का आधार भी होती है।-- यह तथ्य इस पीढ़ी के मनीषियों को भली-भांति समझ में आ रही थी। 'बालोपयोगी रचना किस पीढ़ी में अधिक हुई' -- इस तरह के तुलनात्मक आंकड़े से किसी खास आन्दोलन में दिए गए योगदान का मूल्यांकन नहीं हो सकता। बड़ी बात यह है कि बालोपयोगी साहित्य की आवश्यकता का अनुभव सबसे अधिक इसी पीढ़ी के लोगों को हुआ, और शायद इसीलिए इस पीढ़ी ने इस मसले पर सुनियोजित ढंग से चिंतन किया, चेतना का अलख जगाया, जिसे अगली पीढ़ी के कई महत्वपूर्ण लेखकों ने प्रतिबद्ध होकर आगे बढ़ाया। धीरे-धीरे कारवां बन गया। इस पीढ़ी के आगे बढ़ते ही उपेन्द्रनाथ झा 'व्यास', ब्रजकिशोर वर्मा 'मणिपद्म', गोविन्द झा, रामकृष्ण झा 'किसुन', जयकान्त मिश्र, चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर', शैलेन्द्र मोहन झा, राजकमल चौधरी, मायानन्द मिश्र, धीरेन्द्र, हंसराज, रामदेव झा, लिलि रे की शानदार पीढ़ी आई। इन लोगों ने अपने पुरखों की चिन्ता का संज्ञान लिया, इस मसले पर वैचारिक लेख लिखे, समाज में इस चिंता को जीवन्त और जाग्रत किया; साथ-साथ श्रेष्ठ कोटि की रचनाएं भी कीं। इस मामले में मैथिली के बाल साहित्य को थोड़ा उन्नत ही कहा जाना चाहिए। परिस्थितिवश अपनी प्रभुताई आरेखित नहीं कर पाया, यह दुखद अवश्य है। सूचनानुसार बाल साहित्य पर पहला शोध प्रबंध कलकत्ता विश्वविद्यालय में बांग्ला में सन् 1960 में सुश्री आशा गंगोपाध्याय और पहला हिन्दी शोध प्रबंध कलकत्ता विश्वविद्यालय में सन् 1968 में श्री हरिकृष्ण देवसरे ने लिखा। इस लिहाज से देखें, तो मैथिली में यह काम काफी देर से, बीसवीं शताब्दी के अन्त में हुआ। पर उल्लिखित चिन्तकों ने इस मसले पर स्वाधीनता के पूर्व, और तत्काल बाद के वर्षों में ही गंभीर आलेख लिखे, जिसका परिणाम इस तरह सामने आया कि बगैर किसी सुसंगत प्रकाशन व्यवस्था, बगैर शासकीय समर्थन के बालोपयोगी रचनाएं होती रहीं, छपती रहीं, प्रचारित-प्रसारित होती रहीं। उल्लेखनीय है कि मैथिली की सभी विधाओं में बाल साहित्य का विधिवत अस्तित्व कायम है।

अनुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद के माध्यम से आई हुई कथात्मक कृतियों 'पुरुष परीक्षा', 'उपाख्यानमाला', 'पंचतंत्र', 'हितोपदेश', 'ईसोपकथा शतक' (ग्रीक कथा), 'बरखा आनए बेंग' (रूसी लेखक कोन्स्तानतीन पौस्तोवस्की की कहानी), 'भयानक षड्यंत्र' (लंदन की जासूसी कहानी), 'रवीन्द्रनाथक बालकथा' को न भी गिनें तो भी मैथिली में बालोपयोगी कथाओं का सूत्र सबल रहा है। सन् 1932 में लिखी तन्त्रनथ झा की बाल कहानी 'योगक संगी' सन् 1974 में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष उनकी बालोपयोगी लघुकथाओं का एक और संग्रह प्रकाशित हुआ, शीर्षक है 'लघुकथा'। ये दोनों कृतियां मैथिली लिपि में प्रकाशित हुईं। लेखक की हस्तलिपि में साइक्लोस्टाइल रूप में प्रकाश में आईं। मैथिली लिपि (जिसे तिरहुता या मिथिलाक्षर कहा जाता है) में इसे प्रकाशित करने का उनका तर्क था कि देवनागरी लिपि में होने के कारण ही लोग मैथिली को हिन्दी की बोली मानते हैं, दूसरा तर्क था कि यदि बचपन में मिथिलाक्षर का अभ्यास हो जाए, तो वह बालक ताउम्र अपनी मातृभाषा की लिपि को जीवन्त रखेगा। प्रकाशन वर्ष की दृष्टि से यह मैथिली की प्रथम बालोपयोगी कथात्मक कृति नहीं है। इससे वर्षों पूर्व सन् 1957 में प्रचलित लोककथाओं पर आधारित चौदह मौलिक बाल कथाओं का संकलन 'कथा-कहानी' (शैलेन्द्र मोहन झा) और सन् 1964 में विभिन्न लेखकों की नौ कथाओं का प्रकाशन चार कथा सीरीज में 'कथा कहए कथिनी' शीर्षक से बटुक पत्रिका में हुआ। सन् 1990 में इन्द्रकान्त झा की आठ बाल कथाओं का संकलन 'नम्रताक जीत', सन् 1990 में इन्द्रकान्त झा की सात नीतिकथाओं का संकलन 'सेवाक फल मेवा', सन् 1985 में मिथिला की किंबदंतियों के नायक गोनू झा के किस्सों का विभूति आनन्द द्वारा पुनर्रचित अद्भुत संकलन 'एक टा छला गोनू झा', सन् 1999 में चन्द्रनाथ मिश्र 'अमर' द्वारा संपादित इक्कीस श्रेष्ठ बाल कथाओं का संकलन 'कथा किसलय', और फिर श्यामानन्द जी द्वारा लिखित चौदह कहानियों का संकलन 'बाल संदेश' प्रकाशित हुआ। ये सारे संकलन मैथिली की बालोपयोगी कहानियों के अद्भुत उदाहरण हैं। इन सबकी समीक्षा या व्याख्या करने की सुविधा का यहां अभाव है। सारे संकलन बालकथा साहित्य के अन्यतम उदाहरण हैं। 'कथा किसलय' को थोड़ा विशिष्ट इस रूप में लिया जा सकता है कि इसमें बालसाहित्य के विज्ञान सम्मत संदेश से लेकर नए-पुराने, स्त्री-पुरुष सभी वर्ग के रचनाकार पूरी अर्थवत्ता के साथ समाविष्ट हैं। परिपूर्ण तो कुछ भी नहीं होता, इसलिए त्रुटियां भी होंगी ही।

मैथिली के पहले बालोपयोगी उपन्यास का लेखक होने का श्रेय, अपनी पीढ़ी के श्रेष्ठ कथाकार रामदेव झा को जाता है। इनका 'इजोत रानी' उपन्यास सन् 1967 में पहले 'बटुक' पत्रिका में धारावाहिक, फिर वहीं से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। 'इजोत रानी' इस उपन्यास की नायिका हैं, जो नायक की भौजाई के परिहास में कल्पित पात्र है, पर नायक राजकुमार ने उसे सच साबित कर दिया। इस उपन्यास की एक विलक्षणता यह भी है कि इसमें एक भी शब्द संयुक्ताक्षर नहीं है। सन् 1978 में 'मिथिला मिहिर' साप्ताहिक पत्रिका में धारावाहिक रूप से ब्रजकिशोर वर्मा 'मणिपद्म' का उपन्यास 'भारतीक बिलाड़ि' प्रकाशित हुआ, जो बाद में पुस्तकाकार हुआ। इस उपन्यास में विज्ञान कथा का सहारा लिया गया है। बाद के दिनों में रोबोट की प्रामाणिकता समक्ष आने पर वही कल्पना सत्य दिखने लगी। वैज्ञानिक कल्पना के साथ-साथ इस उपन्यास में उस कल्पित शक्ति के सहयोग से लोकमंगल करने का उद्यम दिखाया गया है। इस रूप में आज भी देखें तो यह कृति आज की विध्वंसकारी वैज्ञानिक शक्ति को धता बताती है। इसके अलावा बांग्ला से अनूदित उपन्यास 'चन्नाक पहाड़' (विभूति भूषण बंद्योपाध्याय), मराठी से अनूदित 'जंगलमे एक राति' (लीलावती राय) और 'अन्तरिक्षमे विस्फोट' (जयन्त नार्लीकर), अंग्रेजी से अनूदित 'मंगल ग्रहक राजकन्या' भी प्रकाशित है।

तथ्य है कि मैथिली का कथालेखन स्वाधीनता के कुछ ही वर्ष बाद अत्याधुनिक हो गया था, पर दुखद है कि उन तमाम श्रेष्ठ कथाकारों की लेखनी बालोपयोगी कथा-सृजन की ओर प्रवृत्त नहीं हुई, जबकि पुस्तकाकार होने की गुंजाईश भले कम हो, धारावाहिक प्रकाशन की व्यवस्था उन दिनों पत्रिकाओं में कम नहीं थी। कुछ कारण तो रहा होगा...।

मैथिली की पत्रिकाओं में बालोपयोगी एकांकी तो बहुत प्रकाशित हुए हैं, पर संकलन कोई नहीं है अब तक। इसी तरह निबंध, संस्मरण, जीवनी आदि तो दर्जनों प्रकाशित हैं, पर संकलन के रूप में कुछ ही उपलब्ध हैं। बाल साहित्य विषयक समीक्षात्मक आलेख भी दो-ढाई दर्जन निश्चय ही प्रकाशित हैं। शोधग्रंथ अब तक मात्र एक है, जो पुस्तकाकार प्रकाशित है, डॉ. दमन कुमार झा का 'मैथिली बाल साहित्य'। इस आलेख को दिशा देने में उक्त शोध प्रबंध का महत्वूपर्ण योगदान है। मैथिली में अभी इस दिशा में गंभीरतापूर्वक काम होने की घनघोर आवश्यकता है। शोध परक भी, सृजनात्मक भी, और आलोचनात्मक भी। मैथिली में बाल रंगमंच की आवश्यकता है। सभी विधाओं में रचनाएं उपलब्ध होने के बावजूद अभी त्वरा के साथ लेखन, मूल्यांकन, प्रकाशन, मंचन की अतीव आवश्यकता है। अपनी जेब से खर्च करके ही सही, दर्जनों पुस्तकें प्रतिवर्ष मैथिली में छपती हैं, बिकती या वितरित होती हैं, उनमें पांच प्रतिशत भी बाल साहित्य नहीं होता। प्रवचन देते वक्त मैथिली के वक्तव्यवीर लोग बाल साहित्य पर लम्बा चैड़ा प्रवचन देते हैं, बड़े-बड़े गोले फेंकते हैं, पर बालोपयोगी लेखन करने में उनकी या तो प्रतिभा जवाब दे देती है, या दोयम दर्जे का हो जाने का खतरा (गरज यह, कि मैं बड़ा लेखक हूं, बाल साहित्य जैसी छोटी चीज मैं क्या लिखूं)। शायद वे भूल जाते हैं कि विश्व स्तर के शायद ही कोई बड़े रचनाकार हों, जिन्होंने बालोपयोगी रचना न की हो। अभी-अभी विश्व पुस्तक मेले में रूस को अतिथि देश सम्मान दिया गया था। रूसी मंडप में रूसवासियों ने अपने सांस्कृतिक प्रदर्शन के रूप में एक बड़ा हिस्सा बाल साहित्य के लिए सुरक्षित और विशेष रूप से रेखांकित कर रखा था। मेरी राय तो यह है कि श्रेष्ठ कोटि के बाल साहित्य की धरोहर जुटाए बिना कोई भाषा साहित्य श्रेष्ठ हो ही नहीं सकता। क्योंकि किसी भाषा का श्रेष्ठ बाल साहित्य ही आने वाले समय में उस भाषा के जनपद को श्रेष्ठ नागरिक दे सकता है। हमें यह चुनौती स्वीकार करनी चाहिए कि हम खुद जिम्मेदार बन सके हांे या नहीं, कल के जिम्मेदार नागरिक का सर्जक अवश्य बन जाएं।


मैथिली बाल साहित्य पर इतनी चर्चा के बाद यह भी गौरतलब है कि अपने ज्ञान के लिए हमें किताबें नहीं, बच्चों को पढ़ना चाहिए। इन दिनों हमारे देश में बाल साहित्य पर बहुत सोचा जा रहा है। यह चिन्तन-मनन कितना तात्विक है -- तय कर पाना कठिन है, मगर एक धंधे के रूप में यह काफी पनपा है। सावधानीपूर्वक इस धंधे में लगे कुछ लोगों को यशःकीर्ति, पुरस्कार, सम्मान और कुछ लोगों को नौकरी-चाकरी अथवा धन-धान्य पर्याप्त मात्र में मिला है, मिल रहा है। हरिकृष्ण देवसरे, क्षमा शर्मा जैसे लोग कम हैं, जो बाल साहित्य की नाजुक संवेदना से साहचर्य, और ममत्व रखते हैं। लोगों को समझना चाहिए कि बाल साहित्य के प्रति सावधानी रखने का मतलब केवल के भविष्य के प्रति ही नहीं, अपने और अपने पीढ़ियों के प्रति भी सचेत रहना है। बाल साहित्य के नाम पर चुटकुलेबाजी का धंधा करना किसी देशद्रोह से कमतर नहीं।

बाल समुदाय तो इस मामले में बेचारा है। विडंबना है कि शिक्षक, अभिभावक, सरकारी- गैरसरकारी शिक्षण पद्धति, बाल मनोविज्ञान के विशेषज्ञ, शासकीय समुदाय के लोग... सबों ने मिलकर तय कर लिया है कि हम उनके भविष्य निर्माता हैं, हमारे ही निर्देशन में उनकी तकदीर बन सकती है, वर्तमान समय के प्रदूषित वातावरण में हम सावधान न रहें, तो उनका बाल मन प्रदूषित हो जाएगा और वह पटरी से उतर जाएगा। ... इस सावधानी में वे यह भूल जाते हैं कि पूरे वातावरण में गन्दगी फैलाने के आधार स्रोत वे लोग स्वयं हैं, वे अपने आचरण सुधार लें, तो बच्चों का भविष्य आप से आप सुधर जाएगा।

इन दिनों बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर चिन्तन-मनन करने वाले अधिकांश लोग दुर्योगवश बच्चों को 'कच्चा माल' समझ रहे हैं, उन्हें अनन्त संभावनाओं से भरा हुआ खजाना नहीं समझते। बात मैं दो उदाहरण से शुरू करता हूं --

मेरे एक अध्यापक मित्र के घर किसी ने फोन किया। मेरे मित्र ने अपने बच्चे से कहा कि फोन उठा कर कह दो कि पापा घर पर नहीं हैं। बच्चे ने फोन उठाकर कह दिया -- अंकल, पापा कह रहे हैं कि वे घर पर नहीं हैं।... फोन रखने के बाद उस बालक और पिता का संवाद और मजेदार हुआ। बालक ने पिता से प्रश्न किया कि आप बोलते हैं कि झूठ नहीं बोलना चाहिए, फिर आप ही क्यों झूठ बोलते हैं?

मेरा एक अनुज मित्र अपने बेटे को गणित पढ़ा रहा था। किताब में सवाल था कि असलम के पास दो हजार लड्डू थे, सात सौ लड्डू उसने रामू को, चार सौ लड्डू ऑस्कर को, और तीन सौ हरविन्दर को दे दिए। असलम के पास कितने लड्डू बचे? -- बच्चे ने प्रश्न किया--पापा, ऐसा कैसे हो सकता है ? एक बच्चे के पास दो हजार लड्डू कैसे हो सकते हैं? --बच्चे की मां अध्यापिका है। उसने दूर से आंखें तरेर°-- तुमको पढ़ने में मन नहीं लगता, लगाऊं अभी कस के एक?

इन दो प्रसंगों में आप बाल मनोविज्ञान और हम लोगों जैसे बच्चों की नुमाइन्दों की करतूत के बीच की खाई को पढ़ सकते हैं। हम जैसे लोग जब बच्चों का पाठ्यक्रम बनाने बैठते हैं, तो हमारे मन में सभी राजनीतिक, धार्मिक पार्टियां, सरकारी-गैरसरकारी कार्यकलापों, विचारधाराओं और सत्तासीन सरकार की कुर्सी घूमती रहती है, बेचारे बच्चों की कोमल जिज्ञासा और सहज प्रश्नाकुलता नहीं रहती। याद रखते हैं कि इस पाठ्यक्रम में लिंग भेद, धार्मिक सद्भाव, सामाजिक रीति-रिवाज अथवा दलगत राजनीति को लेकर कोई ऊंगली न उठाए; बेचारे बच्चों का कुछ भी हो।

सर्वविदित है कि बच्चों को रंग, लय, हरकत, अभिनय, उड़ान, फैंटेसी, जोखिम, बहादुरी, जिज्ञासा आदि से अगाध प्रेम होता है। यही कारण है कि उन्हें तितली, चिड़िया, परी, राक्षस, नदी, समुद्र, ट्रेन, भूत, पहाड़, चन्द्रमा, सूर्य आदि से संबंधित कहानियां और गीत अच्छे लगते हैं, चटक रंगों से भरे चित्र वाली किताबंे अच्छी लगती हैं, अभिनय करके सुनाई जाने वाली कविताएं और कहानियां अच्छी लगती हैं। इसके अलावा बच्चों को वे अच्छे लगते हैं, जो उन्हें ज्यादा सुने, सुनाए और समय दे। यह अकारण नहीं है कि बच्चों को तीसरी पीढ़ी के साथ समय बिताना ज्यादा मनभावन लगता है। दादा-नाना, दादी-नानी के पास इतनी फुरसत होती है कि वे इन्हें उतना समय दे पाते हैं, उनकी अविश्वसनीय कल्पनाओं का समर्थन कर पाते हैं, और इनको तरह-तरह की कहानियां सुनाकर उन्हें तुष्ट कर पाते हैं। 'हैरी पॉटर' आज हमारे यहां काफी लोकप्रियता अर्जित कर पाया, इसके पक्ष-विपक्ष में लंबी बहस लंबे समय से होती रही है। ऐसा नहीं है कि इस तरह की संपदा हमारे पास नहीं है। नानी-दादी की हमारी मौखिक परम्परा काफी समृद्ध है, उसका संरक्षण आवश्यक है। वह पीढ़ी और वह प्रथा हम अब खोते जा रहे हैं। हमारे परिवारों में नानी-दादी की परिभाषा और बच्चों के लालन-पालन की प्रक्रिया बदलती जा रही है।

सूत्र ढूंढें, तो वेदों में भी मिल जा सकते हैं, मगर बाल साहित्य का बेहतरीन स्वरूप हमारे यहां पंचतंत्र में हैं। कथासरित्सगार, और लोक कथाओं में, परीकथाओं में तो है ही। मुद्रण कला के विकास के बाद बाल साहित्य को अधिक से अधिक समृद्ध किए जाने की कोशिश की गई है। विशेष रूप से बाल पत्रिकाओं, चित्र कथाओं का प्रकाशन शुरू हुआ। बाल मन की जिज्ञासा वृत्ति को गुदगुदाने के लिए पशु, पक्षी, बन्दर, भालू, शेर,गीदड़, राक्षस, भूत के आश्रय से जो कहानियां सुनाई जाती थ°, अथवा पंचतंत्र में जिस तरह की प्रेरक कथाएं लिखी गई थ°; बाद के दिनों में मनुष्य को पात्र बनाकर वैसी कहानियां लिखी जाने लग°। तेनाली राम, गोनू झा, बीरबल, गोपाल भांड जैसे लोकनायक की हाजिर-जवाबी और हंसोड़पन से, तथा चुटकुलों, गीतों से बच्चों के कोमल मन को रिझाया जाने लगा, बाल साहित्य विधिवत एक विधा के रूप में स्थापित हुआ।

हमें यह गांठ बांध लेनी चाहिए कि आज के समय का सबसे बड़ा बाल साहित्य हम लोग ही हैं। अपने समय के बच्चों को हम अपने आचरण से जो नहीं दे पाए, वह कहानी कविता लिखकर किसी भी सूरत में नहीं दे पाएंगे। आज के बच्चों में पहले की अपेक्षा मेधा शक्ति अधिक है। इसका कारण आज का समाज और भौतिक संसाधन ही है। क्रेच, प्रेपरेट्री और प्ले स्कूल से लेकर प्राथमिक विद्यालय में उपलब्ध संसाधनों के कारण, या कहें कि बाजार में उपलब्ध बालोपयोगी सामग्रियों के कारण आज के बच्चे बहुत बातें तीव्रता से सीख जाते हैं। इन सुविधाओं के कारण बच्चों में जिज्ञासा बढ़ गई हैं। आज के बच्चों के पास सवाल बहुत होते हैं। वे हर कुछ जानना चाहते हैं। बाजार और संचार माध्यमों के प्रचार में, दीवार पर लगे सार्वजनिक इश्तहारों में आज के बच्चे ऐसे सवाल ढूंढ लेते हैं कि तत्काल आपको झेंप जाना पड़ सकता है। मगर वैसे सवालों का सामना हमें बच्चों को डांट कर नहीं करना चाहिए।

समय के दबाव ने आज के बच्चों की दुनियादारी बदल दी है। घर से बाहर रहने वाली मांओं की संख्या लगातार बढ़ रही है; कई कारणों से दादी-नानी का संग-साथ नहीं मिल रहा है। शैशव क्रेच अथवा धाई की गोद में बीत जाता है, बचपन प्ले स्कूल में। ऐसे में आज के बच्चों के जीवन में बाल साहित्य और समकालीन समाज के युवा, प्रौढ़, बुजुर्ग नागरिकों के आचरण की भूमिका बढ़ गई है। थोड़े दिन पहले की घटना है-- ठंड का मौसम था, सुबह सुबह देखा, मेरे पिताजी बिना चादर ओढ़े बरामदे में बैठे थे, मैंने गरजते हुए-से उनको कहा-- चादर ओढ़कर बैठिए। ठंड लगेगी तो मुझे परेशान होना पड़ेगा। तीन वर्ष की मेरी भतीजी 'छोटी' सुन रही थी। उसे मैंने कल ही सिखाया था-- बड़ों के साथ तेज आवाज में बात नहीं करनी चाहिए। आज उसने तत्काल मुझसे प्रश्न कर दिया-- ताता, बाबा तो त्यों दांत लहे ऐं? एं? बलों छे तेद आवाद में बात नहीं तलनी ताइए।... ऐसे हालात में हमें केवल लेखन में ही नहीं, अपने आचरण में भी सावधान होना पड़ेगा... केवल अपने बच्चों के लिए नहीं, पूरे समाज के बच्चों का जीवन क्रम सुधारने के लिए हम सबको अपने आचरण में सुधार लाना पड़ेगा।

बाल साहित्य लिखते वक्त लेखकांे को यह ध्यान रखना पड़ेगा कि आज के बच्चे खारिज भी बहुत जल्दी करते हैं। जिन लोगों से उनका संवेदनात्मक संबंध है, खून और परंपरा का संबंध है, उन्हें खारिज करते तो उन्हें देर नहीं लगती, फिर लेखक क्या हैं ? -- कथा वस्तु, चित्र, भाषा, शब्दावली, घटना सूत्र... किसी भी स्तर पर उनकी पकड़ ढीली हुई, तो बच्चों को मुंह मोड़ते देर नहीं लगती। विष्णु शर्मा ने अपने समकालीन राजा सुदर्शन की जिन उद्दंड संतानों को पढ़ाने के लिए पंचतंत्र जैसी पुस्तक लिखी थी, उसमें उनके लिए अलग से कहीं नहीं लिखा -- कि बच्चो, इस पाठ से तुम्हें क्या शिक्षा मिलती है ?... मगर आज के शिक्षकों और पाठ्यक्रम निर्माताओं ने जब इन कहानियों का उपयोग पाठ्यक्रम में किया, तो कहानी के अंत में यह रटा-रटाया सवाल लगाना जरूरी समझ लिया।

असल में विष्णुशर्मा जैसे बड़ेे शिक्षाशास्त्री का मानना था कि शिक्षा को बोझ बनाकर लादने के बजाए इसे ऐसा खेल बनाया जाना चाहिए, जिसमें वे खेल-खेल में सब कुछ सीखें, शरारत करते हुए सब कुछ जानें। उनकी राय में शरारती बच्चों की तुलना में शरीफ बच्चों को समझाना असान काम था।

आज कई सरकारी-गैरसरकारी संस्थानों/संगठनों में बाल साहित्य पर गंभीरता से काम हो रहे हैं। कार्यशाला और पुस्तक लेखन का काम विपुल मात्र में होता है। नवसाक्षर साहित्य का भी यही हाल है। अध्ययन, मनन और लेखन से वर्षों से जुड़ा हुआ हूं और यह तय कर पाया हूं कि बच्चों और नवसाक्षरों के लिए लिखना, और कुछ भी लिखने से ज्यादा कठिन है। जय प्रकाश भारती, हरिकृष्ण देवसरे, कृष्ण कुमार, पंकज बिष्ट, प्रयाग शुक्ल, प्रकश मनु, क्षमा शर्मा, मधु पंत, जैसे बाल साहित्य के विशेषज्ञों, और नागार्जुन, कमलेश्वर, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, चित्रा मुद्गल जैसे बड़े रचनाकारों से बातचीत करते हुए भी यही जान पाया हूं। मगर इन दिनों देखता हूं कि लोगों ने इस काम को बड़ा आसान समझ लिया है। वे बच्चों और नवसाक्षरों को इतना बड़ा मूर्ख समझ बैठे हैं कि सब से पहले एक उपदेश तय करते हैं, उसके बाद उस उपदेश के लिए एक कहानी गढ़ते हैं, और फिर उसे लिखकर छपा डालते हैं। मगर बच्चे तो निर्णय करते हैं, उन्हें निर्णय देते देर नहीं लगती। कितने भी बड़े संस्थान की छपी पुस्तक क्यों न हो, वह बच्चों की कल्पना शक्ति और प्रश्नाकुलता को गुदगुदा नहीं पाई, तो बच्चे उन्हें किनारे कर देते हैं। यह मैदान इतना जोखिम भरा है कि बड़े-बड़े लिक्खाड़ इसमें उतरने में घबराते हैं। मगर यह भी सच ही है कि 'बुद्धिमान जो कहने को बार-बार सोचते, कतराते हैं, मूर्ख जन सहज ही बार-बार कह आते हैं।'

इन दिनों बाल साहित्य लिखने वालों को पंजाबी कविता की वह पंक्ति याद रखनी चाहिए -- इस पेड़ को मैंने खूं से स°चा है/पत्तियों पर मेरा नाम नहीं/यह क्या कम है कि इस पेड़ को मैंने खूं से स°चा है... स्व. विष्णु चिंचालकर को मैंने बच्चों के साथ काम करते देखा है। 'कबाड़ से जुगाड़' करते हुए गुरु जी (विष्णु चिंचालकर) सैकड़ों बच्चों के बीच बिना किसी ऊब के कितने तल्लीन रहते थे, सड़क पर फेंके पॉलीथीन को उठाकर बच्चों को क्या से क्या कहानी बनाकर दिखा देते, और बच्चे सांस रोककर उनका करतब देखते रहते... क्या अजीब दृश्य होता था! एकलव्य संस्था के कार्यकर्ता लोग बच्चों के साथ जिस तरह कार्यशाला में जीवन बिताते हैं... बाल साहित्य को प्रयोगात्मक रवैये के साथ आगे लाने में बच्चों को जानने की बड़ी जरूरत है। आज के बच्चे प्रज्ञा संपन्न तो होते ही हैं, बड़े स्वाभिमानी भी होते हैं और अपने को बेवकूफ नहीं समझते।

बच्चों के साथ सबसे बड़ी सुविधा होती है कि उसका मस्तिष्क दुनियावी छल-प्रपंच, राग-द्वेष से खाली रहता है। और यह सुविधा, बाल साहित्य के नाम पर लिखने का धंधा करने वालों के लिए सबसे बड़ी असुविधा बन जाती है। उस पवित्र खजाने में आप कूड़ा-कचड़ा नहीं रख पाएंगे।

कुछ संस्थाओं ने बच्चों के आयुवर्ग के आधार पर पुस्तकों का प्रकाशन शुरू किया है। यह प्रयोग बच्चों के लिए बहुत ही कारगर साबित हुआ है। उदाहरण के तौर पर स्कूल पूर्व के बच्चों के लिए प्रकाशित पुस्तकों की दुनिया को देखें। इस कोटि की पुस्तकों में केवल चित्रों की शृंखला होती है। कोई भाषा नहीं होती। इस शृंखला को देख देख कर बच्चे उसमें स्वयं कहानी गढ़ लेते हैं। इसके बाद के आयु वर्ग में वे थोड़ा चित्र घटाकर कुछ कहानी, अथवा गीतमय कहानी डालते हैं। अगले आयुवर्ग में चित्र थोड़ा और घट जाता है, भाषा थोड़ी और बढ़ जाती है।

मगर, जैसा कि पूर्व में भी कहा गया, किताबों का छप जाना काफी नहीं होता। इसके साथ बच्चों के लिए पाठ प्रक्रिया की बड़ी जरूरत है। कहानी/कविता में बच्चों को भंगिमा, अभिनय, एक्शन बहुत प्रिय लगता है। अपने घर से ही उदाहरण दूं-- मेरी भतीजी कभी-कभी अभिनय करती है। उस अभिनय की पटकथा वह स्वयं गढ़ती है। संवाद मुझे पहले रटा देती है। मैं उसका बाबू होता हूं और वह मेरी मम्मी हो जाती है। मुझे स्कूल जाने को कहती है, स्कूल जाते हुए मुझे मम्मी मम्मी कह कर रोने को कहती है और वह मुझे सांत्वना देकर स्कूल भेजती है।

इस युग के बच्चों का सामना करने के लिए आज हमें और हमारी संस्थाओं के सामने कितनी बड़ी चुनौती है, यह विचार करने की बात है। यह सुखद है कि आजकल गतिविधि पुस्तकों की ओर संस्थाओं का ध्यान बहुत तेजी से मुड़ा है, ढेर सारी गतिविधियां भी आयोजित होती हैं। बाल साहित्य में जो भी लेखक, चित्रकार वस्तुतः कुछ योगदान करना चाहते हैं, उन्हें इन गतिविधियों में निरंतर भाग लेना चाहिए; विशेषज्ञ की तरह नहीं, प्रशिक्षु की तरह। बच्चों को सिखाने के लिए नहीं, उनसे सीखने के लिए, उनको पढ़ने के लिए, उनको समझने के लिए।

बाल मनोविज्ञान का आधार तिल-तिल बदलता रहता है, दस बरस पूर्व बाल मनोविज्ञान की जो स्थिति थी, वह आज नहीं है। आज के बच्चों का मनोविज्ञान तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है। मैं समझता हूं कि जीवन-यापन के लिए विहित पढ़ाई के अलावा मनुष्य अपने आस-पास के बच्चों को पढ़ ले, तो उसे एक जीवन की सफलता हेतु और कुछ भी पढ़ने की आवश्यकता नहीं है। यह पढ़ाई थके हुओं को आराम, रोते हुए हुओं को मुस्कान और हारे हुओं को विजय का रास्ता देती और दिखाती है, मनुष्य के जीवन को सार्थक करती है। यूं ही पंडित जवाहर लाल नेहरू के जीवन में बच्चों का महत्व नहीं बढ़ गया था। गुलाब की कली और बच्चों की मुस्कान उनके जीवन में क्या महत्व रखती थी--यह सबको पता है।

ये बातें मैथिली में लिखे जाने वाले नए बाल साहित्य के लिए ही नहीं, सभी भाषाओं के बाल साहित्य पर लागू होती है।