मैरी कॉम: महज प्रियंका को चुनौती नहीं है / जयप्रकाश चौकसे

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मैरी कॉम: महज प्रियंका को चुनौती नहीं है
प्रकाशन तिथि : 24 जुलाई 2014


प्रियंका चोपड़ा अभिनीत यथार्थ जीवन से प्रेरित 'मैरी कॉम' प्रदर्शन के लिए तैयार की जा रही है। ज्ञातव्य है कि मणिपुर की युवा मैरी कॉम को बॉक्सिंग में ओलिम्पिक ब्रॉन्ज पदक मिला है और वे पहली भारतीय महिला हैं जिन्हें यह सम्मान हासिल है। उनकी सहमति से उनके जीवन पर यह फिल्म बनाई गई है जिसके लिए प्रियंका चोपड़ा ने बॉक्सिंग का प्रशिक्षण लिया और अभिनय में विश्वसनीयता लाने के लिए उन्होंने अपने शरीर में मांस पेशियों को सशक्त बनाया गोयाकि अपनी कोमलता को कठोरता में बदला और लोकप्रिय तथा पुरुष केंद्रित सोच के अनुरूप कहें तो अपने 'जनानापन' में कुछ 'मर्दाना तत्व' का समावेश किया है।

यथार्थ यह है कि हर पुरुष में एक स्त्री मौजूद है और हर स्त्री में पुरुष विद्यमान है। उत्तर पश्चिम के महान निर्देशन जहानू बरुआ का कहना है कि मैरी कॉम की भूमिका किसी उत्तर पश्चिम प्रांत की लड़की अभिनीत करती तो अधिक विश्वसनीय होता परंतु वे यह भी स्वीकार करते हैं कि फिल्म बनाने में बहुत धन लगता है। पूंजी निवेशक की सुरक्षा के लिए सफल सितारे को लेना पड़ता है तथा एक सोद्देश्य फिल्म के अधिकतम दर्शकों तक पहुंचने को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। स्वयं जहानू बरुआ की सोद्देश्य फिल्म 'मैंने गांधी को नहीं मारा' अधिक दर्शकों तक नहीं पहुंच पाई। घुमा फिराकर बात दर्शक के उतरदायित्व पर जा टिकती है कि वह किस तरह की फिल्मों को प्रोत्साहित करता है। बाजार और विज्ञापन शक्तियों के साथ आयात की गई जीवन शैली बड़े महीन ढंग से आम मनुष्यों की रुचियों को प्रभावित करती है। सच तो यह है कि आज सामूहिक अवचेतन इन्हीं शक्तियों के कब्जे में जा चुका है।

बहरहाल इस फिल्म के साथ राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा यह जुड़ा है कि उत्तर पश्चिम के सातो प्रांतों के लोगों के मन में यह बात बैठ गई है कि शेष भारत के लोग उन्हें अपना नहीं मानते। कॉलेज परिसरों में इन प्रांतों से आए छात्रों को भी बहुत कुछ सहना पड़ता है। कुछ समय पूर्व दिल्ली में ऐसे ही एक छात्र की हत्या हुई थी। शीघ्र ही दिखाए जाने वाले "कौन बनेगा करोड़पति' में उत्तर पश्चिम की एक प्रतियोगी ने जानकर 'कोहिमा कहां है' पर दर्शक अभिमत मांगा और जब सौ प्रतिशत लोगों ने इसे भारत का अंग कहा तो उसी जगह से आई महिला प्रतियोगी ने कहा कि 'सब जानते हैं परंतु कोई मानता नहीं'। उस प्रतियोगी ने सारे देश को कटघरे में खड़ा कर दिया। अमेरिका में जब नीग्रो मारे जाते हैं और ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्र पीटे जाते हैं तो राष्ट्रीय क्षोभ मनाया जाता है परंतु हम स्वयं उत्तर पश्चिम के प्रांतों के लोगों से समानता का व्यवहार नहीं करते और यह तो इस सामाजिक समस्या के ग्लेशियर का मात्र ऊपरी हिस्सा है जबकि हकीकत यह है कि अनेक अल्पसंख्यकों को भी यह शूल चुभता है परंतु वोट की राजनीति ने सत्ता के स्वार्थ के लिए देश की अखंडता को ही खतरे में डाला है और हम सब जानकर इस नासूर को अनदेखा करते हैं।


उत्तर पश्चिम क्षेत्र की पृष्ठभूमि पर बनी मणिरत्नम की 'दिल से' में यह संकेत स्पष्ट था कि वहां कानून व्यवस्था बनाने के लिए भेजे फौजी लोगों ने अत्याचार और बलात्कार किए हैं। सेना में आंशिक रूप से ही सही परंतु धर्मनिरपेक्षता की भावना टूटी है जिसका संकेत राहुल बोस अभिनीत "शौर्या' में मानव अधिकार के दस्तावेजों सहित प्रस्तुत किया गया था। समाज शास्त्र के विशेषज्ञ इन "फिल्मी प्रमाणों' को खारिज कर सकते हैं, मानव अधिकार आयोग की रिपोर्ट को भी खारिज कर सकते हैं परंतु एक बार इन क्षेत्रों में दौरा करके अवाम के भय को समझने का प्रयास कर सकते हैं। शीशे यक-ब-यक नहीं तड़कते, निगाहों के खंजर उन्हें कमजोर करते हैं और यह किसी को नजर नहीं आता। राष्ट्र इस्पात के कहे जाते हैं, राष्ट्रीयता शीशे सी कोमल भावना है उसे अक्षुण्ण रखना सबकी जवाबदारी है। प्रियंका ने बहुत परिश्रम किया है परंतु कोई भी मेकअप उन्हें उत्तर पश्चिम की नहीं बना सकता परंतु अभिनय का पैनापन इस कवच को भी तोड़ सकता है।

बॉक्सिंग में बहुत प्रहार सहने पड़ते हैं और हर प्रहार का अवचेतन पर असर पड़ता है जो आंखों में नजर आना चाहिए। यह आशा की जा सकती है कि प्रियंका चोपड़ा दर्शक से दर्द का रिश्ता बना लें जैसे 'भाग मिल्खा भाग' में फरहान अख्तर ने किया था। प्राय: कलाकार अपने शरीर में भूमिका के अनुरूप परिवर्तन पैदा करते हैं गोयाकि अपने शरीर की बांसुरी पर भूमिका की धुन प्रस्तुत करते हैं परंतु यह बार-बार किए जाने पर किसी दिन बांसुरी विद्रोह कर सकती है। एक पुराना गीत है "विरह ने कलेजा यूं छलनी किया, जैसे जंगल में बांसुरी पड़ी हो'।