यक्षगान / अखिलेश

Gadya Kosh से
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यह काल्पनिक कथा है। इसके चरित्र, स्थान, घटनाएँ, मंतव्य सभी कुछ काल्पनिक हैं। 
उनका वास्तविक जीवन से कोई भी सम्बंध नहीं है।

सरोज जिस दिन पैदा हुई थी, विष्णु दत्त पांडेय ने चार बीघे खेत का मुकदमा जीता था। उसी के हफ्ते-भर बाद उनकी पुरानी गठिया की बीमारी में फायदा होना शुरू हुआ था और जब साल-भर के भीतर ही गाय ने बछड़ा जना, तब उनको लगा था कि सरोज बेटी भाग्योदय बनकर आई है।

सरोज आठ महीने में चलने लगी थी। एक वर्ष दो महीने की हुई, तो बोलना चालू हो गया था। उसने एक दिन अपने आप भगवान जी वाला चंदन माथे पर लगा लिया था। विष्णु दत्त पूजा करने लगते, तो वह उनकी गोद में आकर बैठ जाती और अपने भी हाथ जोड़ लेती। उन्हें लगा था कि हो न हो यह कोई विलक्षण कन्या है।

संभवतः इसीलिए वह इकलौते पुत्र राधेश्याम से भी ज़्यादा उसकी परवाह करते। वह थी भी कितनी प्यारी और चंचल। थोड़ी बड़ी हुई, तो कैसी-कैसी मोहिनी शरारतें करने लगी थी। राधेश्याम के कपड़े पहनकर कभी-कभी लड़का बन जाती। उसे गोया, लड़का बनने का शौक था, माँ के कजरौटे से काजल निकालकर दाढ़ी-मूँछ बना लेती।

एक बार विष्णु दत्त सो रहे थे, तो सरोज आकर उनके कान से सटाकर शंख बजाने लगी थी। शंख बजाते समय उसका चेहरा लाल हो गया था और दोनों गाल ऐसे फूले हुए थे, जैसे दोनों ओर एक-एक लड्डू भरे हों...

विष्णु दत्त अचानक रोने लगे, "सरोज की अम्मा, हमने सरोज का क्या बिगाड़ा था, जो उसने हमारी नाक कटाई..." सरोज की अम्मा कुछ कहने के बजाय विष्णु दत्त से भी अधिक तेज रुदन करने लगीं।

चंपा की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कभी रोते हुए सास-ससुर को देखती, तो कभी पति राधेश्याम को, जो अपने हाथ की टॉर्च को जल्दी-जल्दी जला-बुझा रहा था। उससे कुछ पूछने की हिम्मत चंपा की नहीं हो पा रही थी, लेकिन उसने पूछा, "क्या हुआ?"

"भाग गई कुतिया। रंडी अपने आशिक छैलबिहारी के साथ भाग गई."

विष्णु दत्त और जानकी के विलाप में आर्तनाद अथवा चीख अथवा हिचकी जैसी कोई चीज शामिल हो गई.

छैलबिहारी चैबे गाँव में इंटरमीडिएट फेल लड़का था। उसकी विशेषता थी कि गाँव में उसके जैसे गोरे रंगवाला कोई न था। दूसरी बात, वह सबसे ज़्यादा बीड़ी पीनेवाला था। अत्यधिक बीड़ी पीने से उसके दाँत काले पड़ने लगे थे और होंठ बैगनी।

सरोज को उससे घोर घृणा थी। यदि वह किसी का हार्दिक रूप से अनिष्ट चाहती थी, तो वह छैलबिहारी ही था। अक्सर वह उसे रास्ते में खड़ा मिलता था। करीब आता देखकर वह नाक से धुआँ उड़ाते हुए धीमे कदमों से सरोज की तरफ बढ़ता। निकट आकर कहता, "तुम मुझको बहुत बढ़िया लगती हो।"

छैलबिहारी की तकदीर तब पलटी, जब गाँव की नाटक-मंडली में नायक का पार्ट करनेवाला युवक लोहे के कबाड़ का कारोबार करने कलकत्ता चला गया। रामलीला सिर पर थी, बड़ी तेजी से नायक के लिए यथोचित की तलाश हुई. अंततः अपने रंग-रूप और निखट्टूपन के गुणों के कारण छैलबिहारी सर्वथा उपयुक्त पाया गया।

रामलीला का पहला दिन था। दर्शकों का विशाल समूह इकट्ठा हुआ था। सरोज भी अपनी भाभी के साथ आई हुई थी। कौशल्या ने राम को जन्म दिया, तो बालक राम के अवतार होने की पुष्टि के लिए भगवान विष्णु प्रकट हुए. बड़े जोर के स्वर में शंख, घंटे-घड़ियाल बजने लगे थे। दिव्य भगवान विष्णु कौशल्या माता को दर्शन दे रहे थे। विष्णु भगवान की आरती उतारी जा रही थी। पीछे से किसी ने अपने दोनों हाथ आगे करके उनके चार हाथ कर दिए थे। दर्शकों ने भक्ति से विह्वल होकर हाथ जोड़ दिए. गाना गूँज रहा था-

भए प्रकट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी।

हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप निहारी।

लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज धारी।

भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभा सिंधु खरारी।

सरोज की आँखें फटी रह गईं। अरे! अरे! यह तो छैलबिहारी है। छैलबिहारी के सिर पर बड़ा-सा सुंदर मुकुट सुशोभित हो रहा था। अद्भुत रूप था उसका। उसके वस्त्रों में सलमे-सितारे और शीशे जड़े हुए जगमगा रहे थे। दप-दप कर रहा था उसका मुख-मंडल, गालों पर गेरू और पाउडर मला हुआ था तथा नेत्रों के इर्द-गिर्द मुर्दाशंख की बिंदियाँ उसकी सुंदरता को वर्णनातीत बना रही थीं। उसके दो हाथों में चक्र और गदा सरीखे हथियार थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में काजल लगा हुआ था और आँखों के किनारों से निकली मेखलाएँ कानों तक खिंची हुई थीं। वह मुस्कराई, "यह छैलबिहारी है, जो मेरे पीछे पगलाया रहता है।" वह हँस पड़ी।

अगले दिन जब छैलबिहारी ने बीड़ी फूँकते हुए रास्ते में उससे छेड़छाड़ की, तो उसे पहले की तरह नफरत नहीं महसूस हुई. वैसे, छैलबिहारी को तो यह भी लगा कि वह जरा-सी हँसी है। यह उसका वहम भी हो सकता था, मगर इतना तो हुआ ही कि इसके बाद से छैलबिहारी के अभिनय का उस पर अन्य दर्शकों की तुलना में कुछ ज़्यादा असर होने लगा था। राम के वन-गमन के अवसर पर वह फूट-फूटकर रो पड़ी थी। हालाँकि लक्ष्मण भी नंगे बदन वन को जा रहे थे, पर सरोज के दुख की वजह यह थी कि जाड़े की रात में नंगे बदन छैलबिहारी को कितना जाड़ा लग रहा होगा।

इसी तरह लक्ष्मण को मूर्छा लगने पर विलाप करता छैलबिहारी तेज-तेज अपने बाल नोचने लगा, तो सरोज ने चिहुँक कर बगल में बैठी सहेली की कलाई पकड़ ली थी, जैसे वह अपने ही बाल नोच रहे छैलबिहारी का हाथ वैसा करने से रोक रही हो, लेकिन जब छैलबिहारी ने सीता-स्वयंवर में शिवजी का धनुष तोड़ा था और शेष राजाओं की सूरतें खिसियाई हुई हो गई थीं, तब सरोज को बड़ी प्रसन्नता हुई थी। हाँ, छैलबिहारी के गले में जयमाला डालने के लिए ठिठक-ठिठक कर आती हुई सीता जी पर उसे एक पल के लिए गुस्सा आया था, किंतु अगले ही क्षण वह यह देखकर प्रफुल्लित हो गई थी कि सीता का पार्ट गाँव का लड़का विनोद कुमार श्रीवास्तव कर रहा था, जिसे कि उन्नीस साल का हो जाने के बावजूद अभी दाढ़ी-मूँछ नहीं आई थी। इसी प्रकार जब सीता-हरण के दिन छैलबिहारी ने अचानक अपना सिर रंगमंच बने तख्ते पर जो़र से पटका, तो आवाज सरोज के वक्ष में हुई. वह व्याकुल हो गई, कितनी चोट लगी होगी छैलबिहारी को। इसके बाद दो बार छैलबिहारी सीता के वियोग में तख्ते पर खड़े-खड़े गिरा और कई बार माथा पटका, तो रुलाई से सरोज की हिचकियाँ बँध गईं। उस रात घर लौट आने पर वह सोई नहीं।

सुबह जब वह दिशा-मैदान से लौट रही थी, तो देखा, छैलबिहारी तहमद लपेटे दातौन कर रहा है, उसे देखते ही उसने मुँह का थूक उगला और दातौन तहमद में खोंस ली। उसने कहा:

इंतजार में खड़ा हूँ अब हुस्न का दीदार होने जा रहा है।

सदियों से तड़पने के बाद अब प्यार होने जा रहा है।

इसके बाद उसने कुछ अन्य शेर सुनाए, जो क्रमशः इस प्रकार हैं:

बाल तुम्हारे नागिन जैसे, गाल गुलाबी नैन शराबी.

मतवाला हो उठता हूँ, जब कमर तेरी बल खाती।

हसीनाएँ पहले गुस्सा करती हैं

फिर नखरे, फिर मान जाती हैं।

शुरू में आशिक से बेरुखी करती हैं

और फिर पहचान जाती हैं।

इश्क में अगर और मगर कैसा।

प्यार कर लिया है तो डर कैसा।

ओ मेरे दिल की धड़कन तेरा चेहरा है नूरानी।

देर भले ही लग जाए पर तुम्हीं बनोगी मेरे प्यार की रानी।

उपर्युक्त पंक्तियों को सुनकर सरोज मुस्कराती जा रही थी कि एकाएक रुकी और पलटकर बोली, "हे छैलबिहारी, तख्ता पर इतनी जोर-जोर से न गिरा करो रामलीला में और कभी यदि गिरना बहुत ज़रूरी हुआ, तो गिर जाओ, मगर तख्ता पर अपना सिर तो कतई न पटका करो।"

"क्यों न गिरें हम तख्ता पर? क्यूँ न सिर पटकें हम तख्ता पर?" छैलबिहारी ने पूछा।

सरोज ने मुँह चिढ़ाकर कहा, "क्यूँ क्या, हमको अच्छा नहीं लगता, इसलिए." वह हँसती हुई तेज-तेज चलती हुई ओझल हो गई.

छैलबिहारी ने उसे गया हुआ देखकर आह भरी और गुनगुनाया:

जानम जो तुम इस तरह से यूँ हँसकर जा रही हो।

देख दुनिया कहेगी कि दीवाने से फँसकर आ रही हो।

इस तरह सरोज और छैलबिहारी का प्रेम प्रारंभ हुआ था, जो थोड़े ही दिनों के बाद बहुचर्चित होने लगा था।

सरोज ने चलते-चलते छैलबिहारी की शायरी सुन ली थी और डर गई थी, "क्या वाकई मुझको देखकर लोग जान जाएँगे कि मैं प्रेम करने लगी हूँ? क्या वाकई ऐसा होता है कि इश्क में डूबे पहचान लिए जाते हैं।" घर पहुँची, तो उसे रुलाई आने लगी। उसने मुँह में दुपट्टा ठूँस लिया। फिर न जाने क्या हुआ कि माँ के गले से लगकर फूट-फूट कर रोने लगी। घरवाले हैरत में पड़ गए कि क्या हुआ सरोज को। तुरंत माँ-पिता-भाई-भाभी की धड़कनें बढ़ गईं कि सरोज के साथ कुछ उल्टा-सीधा तो नहीं हो गया। सिर के बालों से लेकर पैर की एड़ियों तक, सरोज का मुआयना किया गया। जब हर प्रकार से दरियाफ्त करके जान लिया गया कि वैसा कुछ नहीं घटित हुआ है, तब उन लोगों ने तसल्ली का अनुभव करते हुए लंबी साँस छोड़ी, मगर उन्हें इस बात की हैरत तो थी ही कि सरोज इस तरह जार-जार रो क्यों रही है।

बहरहाल, सरोज ने जिस दुपट्टे को थोड़ी देर पहले मुँह में ठूँसा था, उसी से आँसू पोंछा और सुबकना भी बंद कर दिया। पानी पीने के बाद वह मन में ठान रही थी कि ज़िन्दगी में कभी भी छैलबिहारी की तरफ आँखें उठाकर देखेगी तक नहीं, लेकिन उसका यह दृढ़ निश्चय उस समय अधमरा हो गया था, जब रात में बिस्तर पर लेटी हुई करवटें बदल रही थी। उसके मन में बार-बार छैलबिहारी की मोहिनी मूरत आती और वह फिदा हो जाती। वह मौन ही मौन में फुसफुसाई, "छैलबिहारी।" और उसकी बड़ी-बड़ी आँखें भर आईं। यह दुख नहीं, प्रेम की उत्कटता का द्रव था। वह फिर फुसफुसाई, "छैलबिहारी, तुमने हम पर क्या किया है। जाने क्यों मेरा मन चाहता है, छैलबिहारी कि मैं तुम्हारे सीने पर चेहरा टिकाकर खूब रोऊँ-खूब रोऊँ। मुझको अपनी बाँहों में भर लो, छैल।"

मगर जब दो दिनों बाद छैलबिहारी ने अँधेरे में उसकी कलाई पकड़कर खींचा था, तो वह काँपकर दूर हट गई थी, "देखो छैलबिहारी, हमारा प्यार दो आत्माओं का मिलन है, न कि दो शरीरों का।"

छैलबिहारी को शारीरिक मिलन-विरोधी विचारों से घनघोर चिढ़ थी, क्योंकि अन्य लड़कियों की तुलना में सरोज उसकी दृष्टि में महज इसलिए श्रेष्ठ थी कि सरोज के वक्ष और नितंब उनसे भारी थे तथा शेष शरीर उनसे बहुत हल्का। अन्य लड़कियाँ आभूषण पहनने से अधिक सुंदर हो जाती थीं, जबकि सरोज द्वारा आभूषण धारण किए जाने पर स्वयं आभूषणों की सुंदरता में वृद्धि होती थी। कान का बाला दूसरी लड़कियों के कानों में लटकता रहता था, किंतु जब सरोज पहनती थी, तो दोनों कानों के बाले जगमग-जगमग करने लगते थे। हवा चलने पर या सरोज का चेहरा जब चंचल होता था, तो वे बाले हिलते थे और उन हिलते हुए दो बालों को देखकर छैलबिहारी को ऐसा अनुभव होता था कि पेड़, पौधे, घर, आसमान, सब गति कर रहे हैं। वे दोनों जैसे कामदेव के प्रक्षेपास्त्र हों कि देखनेवाला छैलबिहारी कामातुर हो जाता था।

हालाँकि वह लोगों के बीच प्रतिक्रिया बिल्कुल उलटे तरीके से देता था। बतलाता था कि सरोज में कौन सुर्खाब के पर लगे हुए हैं। उस जैसी बीसियों को वह खेल-खा चुका है। पर क्या करे, सरोज ससुरी खुद ही उसके पीछे लग गई.

गाँव के लुच्चे-लफंगे और अनेक संभ्रांत भी उसकी बातों को बड़े ध्यान से सुनते। उसने कहा, "एक दिन मुझसे सरोज बोली कि हे...हे छैलबिहारी, हमारा चुम्मा ले लो न। अब मैं क्या करता? लिया चुम्मा।"

कुछ लोगों ने छैलबिहारी-सरोज को अकेले में मिलते-जुलते, हँसते-बोलते हुए देख भी लिया था और यह भी देखा था कि सायँकाल के धुँधलके में या भोर के कोहरे में छैलबिहारी इंतजार में खड़ा-खड़ा, बीड़ी फूँक रहा है और सरोज सहमी-चौकन्नी-सी दबे पाँवों, उससे मिलने आ रही है। कुछ लोगों ने यहाँ तक सुन लिया था कि वह कह रही है, "छैलबिहारी, मैं तुम्हारे लिए स्वेटर बुनना चाहती हूँ, तुम्हें कढ़ाई करके रूमाल देना चाहती हूँ, पर क्या करूँ, घरवालों के सामने कैसे करूँ?" अतः जब छैलबिहारी ने इस बात को कहा कि सरोज खुद उसके पीछे लग गई है, उसने उससे चूमने के लिए कहा, तो श्रोताओं को सत्य अनुभव हुआ।

गाँव में छैलबिहारी के दो खास दोस्त थे, भोला और परमू। तीनों की गहरी मित्रता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक समय में तीनों साथ-साथ पेशाब करते थे और अपनी-अपनी पेशाब की धारों को आपस में लड़ाते थे। परमू और भोला के अलग जीवन-स्थितियों में चले जाने के बावजूद उनकी दोस्ती में फर्क नहीं आया था। परमू प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष गोरखनाथ का कृपापात्र था। बम फेंकने और चाकू़ चलाने में उसे दक्षता थी। कई बार इस विद्या का निपुण प्रदर्शन करने के कारण गोरखनाथ की मंडली में जल्द ही उसे प्रमुखता प्राप्त हो गई थी। उसी ने अध्यक्ष जी से फरियाद करके अपने मित्र भोला को बिजली विभाग का सफल ठेकेदार बनवा दिया था। बाद में भोला और परमू ने संयुक्त रूप से एक जीप खरीदी, जो अध्यक्ष जी के सौजन्य से वन-विभाग में किराए पर चल रही थी। इस प्रकार दोनों ने ही जीवन में सफलता प्राप्त कर ली थी और उनके आगे भी सफल होते जाने की संभावनाएँ थीं।

वे दोनों अक्सर गाँव आते और छैलबिहारी को साथ लेकर मटरगश्ती करते। परमू-भोला छैलबिहारी को बढ़-चढ़कर शहर के किस्से सुनाते। वे अध्यक्ष जी की ताकत और उनके दरबार में अपने विशेष स्थान का रोमांचक बखान करते थे। उनके द्वारा जब शहर के वैभव, ऐश्वर्य और सुख की चर्चा की जाती, तो छैलबिहारी चकित तथा उदास हो जाता था। कहता था, "तुम लोग वहाँ गुलछर्रे उड़ा रहे हो और तुम्हारा यह दोस्त यहाँ गाँव में पड़ा-पड़ा सड़ रहा है।" परमू और भोला सांत्वना देते, "अध्यक्ष जी से बात हो चुकी है। जल्दी ही तुमको किसी ऑफिस में फिट करा देंगे।" छैलबिहारी नाराज हो जाता, "फिट नहीं, घंटा करा देंगे। करा तो रहे हैं एक साल से फिट।"

"सही बात यह है कि तुम खुद गाँव छोड़ना नहीं चाहते। सरोज जैसी जिससे फँसी हो, वह नौकरी की फिक्र क्यों करने लगे।" परमू बोला था।

भोला ने प्रश्न किया, "अच्छा छैलबिहारी, यह बताओ कि सरोज के साथ तुमने क्या-क्या किया अब तक?"

छैलबिहारी उत्साहित हो गया। बीड़ी जलाकर कश खींचा और मुस्कराया, "क्या करूँ, वह प्यासी है, तो मुझे ध्यान देना ही पड़ता है।"

भोला और परमू ने जुगलबंदी की, "कुछ हमारा भी ख्याल रखो, छैलबिहारी।"

छैलबिहारी बोला, " हो जाएगा काम, मगर तब, जब मेरी नौकरी लगवा दोगे, जिस दिन पहली तनख्वाह पाऊँगा, उस रात सरोज तुम लोगों की न हो, तो मेरा नाम छैलबिहारी नहीं।

"नौकरी तो समझो, पक्की। रही बात पहली तनख्वाह की, तो ये लो, अभी देता हूँ।" भोला ने रुपए छैलबिहारी के सामने रख दिए, "लो रख लो।"

छैलबिहारी ने रुपए ले लिए, लेकिन जब वह बाहर खुले आसमान, खुली हवा में आया और कुछ दूर चला, तो हैरत में पड़ गया, "मैंने यह क्या किया। कैसे मुमकिन है यह। वह साली तो सीता-सावित्री की अवतार बनी फिरती है। दुनिया को मारो गोली, मैं तो उसके गाल तक नहीं छू पाया हूँ।" वह अपने भाग्य की विडंबना पर हँसा, "गाल छूने की पड़ी है मुझे। कलाई तक तो पकड़ने नहीं दिया उसने कभी। छटपटाकर छुड़ा लेती है।"

वह निराश-सा लौट आया, "दोस्तो, मुझको माफ कर दो।" उसने रुपए निकालकर जमीन पर रख दिए. हाथ जोड़ा, "अपने पैसे रख लो। दरअसल वे बातें मैं झोंक में बोल गया था।"

"बहाना मत बनाओ, छैलबिहारी। मैं कहता हूँ कि इसी बात पर दोस्ती टूट जाएगी।" परमू ने धमकी दी।

छैलबिहारी गिड़गिड़ाया, "माँ कसम, सही कह रहा हूँ कि मैंने सरोज के बारे में जो कुछ कहा था, झूठ था, हकीकत यह है कि हरामजादी कहती है कि प्यार दो आत्माओं का मिलन होता है।"

उसकी आँखों में आँसू आ गए, "वह बदचलन यह भी कहती है कि विवाह से पहले वासना, पाप है। कुँआरी कन्या की दुम हत्थे नहीं चढ़ती। मैं तो कहता हूँ कि कोई ऐसी तरकीब भिड़ाओ कि हम तीनों ही कामयाब हो सकें..."

तीनों मित्रो ने सम्मिलित रूप से एक व्यूहरचना की, जिसके कई चरण थे, जो क्रमशः इस प्रकार थे-

छैलबिहारी द्वारा सरोज से विवाह का प्रस्ताव और इसके लिए उसे राजी करना-गाँव में विवाह संभव नहीं, इसलिए गाँव से भागना-शहर पहुँचकर मंदिर में छैलबिहारी-सरोज की शादी-रुकने के लिए अध्यक्ष जी की कोठी में व्यवस्था-कोठी पर ही रात में सरोज को इस बात के लिए धन-दौलत-खौफ के जरिए सहमत करना कि वह तीनों को अपना शरीर सुपुर्द करे-सहमत न हुई, तो उसके साथ सामूहिक बलात्कार।

इस व्यूह-रचना पर छैलबिहारी ने कुछ आपत्तियाँ कीं। उसने कहा कि उसका सरोज से शादी करना ठीक नहीं रहेगा। कहीं माँ-बाप तय करेंगे, तो टी.वी., स्कूटर, भैंस और थोड़ा नकद मिलेगा। इस रंडी से शादी करके क्या पाऊँगा। दूसरी बात, अपनी बीवी को पराए मर्दों के हाथ कैसे सौंपा जा सकता है। इसी को इस तरह भी कहा जा सकता है कि दो पराए मर्दों द्वारा गंदी की गई औरत को वह कैसे पत्नी के रूप में स्वीकार करेगा।

"तुम पक्के घोंघाबसंत हो, छैलबिहारी।" भोला बोला, "मंदिर की शादी के गवाह कौन होंगे। हम लोग न! हम लोग क्यों कहने जाएँगे कि तुम्हारी शादी हुई है। उस ससुरी को भी इज्जत प्यारी होगी, तो किसी से कुछ बताएगी नहीं।"

"मान लो, वह कहीं न जाए, कहे कि इस सबके बाद भी पत्नी बनकर मेरे साथ रहने के लिए तैयार है। तब?"

"तब हम उसको नदी में डुबोकर मार देंगे। या मारकर रेल की पटरी पर फेंक देंगे।" परमू ने जवाब दिया।

अब जाकर छैलबिहारी संतुष्ट हुआ और उसका भरोसा बना कि उसके दोनों मित्र पर्याप्त सामर्थ्यवान और समझदार हैं। वह भावुक हो गया। करुण स्वर में बोला, "भैया, तुम लोगों के हाथों में अपनी नैया की पतवार सौंप रहा हूँ।"

सरोज ने 'हाँ' कह दी। वह गाँव से भाग चलने के लिए तैयार हो गई. वह जानती थी कि गाँव में रहते किसी भी प्रकार छैलबिहारी से उसकी शादी नहीं हो सकती और वह छैलबिहारी के बिना हकीकत या सपना-कुछ भी नहीं बुनती थी। वह नींद, सपनों और विचारों में हमेशा छैलबिहारी को साथ रखती थी, लेकिन उसमें प्राचीन समय से स्त्री के भीतर मौजूद रहनेवाला अज्ञात भय भी स्वाभाविक रूप से था। इसलिए छैलबिहारी के प्रस्ताव की उस पर पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि वह थरथराने लगी और उसके चेहरे की चपलता को जैसे ग्रहण लग गया। देर तक उसकी आँखें जमीन पर टहलती रहीं और भर आईं। उसने आँसुओं से डूबी अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को उठाकर छैलबिहारी को देखा। वह रो पड़ी, "छैलबिहारी! मैं तुमको बहुत चाहती हूँ।" उसका सिर छैलबिहारी की छाती पर टिक गया। सरोज का इस प्रकार का स्पर्श छैलबिहारी को पहली बार हासिल हुआ था, वह पुलकित हो गया। सरोज रोती हुई बोली, "छैलबिहारी, मैं अपने माँ, बाप, भाई, भाभी और उनके पेट में पल रहे भतीजे को, ये घर, ये गाँव, ये खेत, ये खलिहान, ये भुतहा खंडहर, जिसमें हम खड़े हैं, सब छोड़कर तुम्हारे साथ चलूँगी। मेरा साथ निभाना। मुझे धोखा मत देना, छैलबिहारी! नहीं तो तुम्हारी कसम, जिंदा नहीं पाओगे अपनी सरोज को।"

छैलबिहारी ने इस अवसर पर एक कवित्त सुनाया:

मर जाऊँगा, मिट जाऊँगा, चाक-चाक हो जाऊँगा।

मेरे प्रियतम अंतिम दम तेरा साथ निभाऊँगा।

उक्त कवित्त पूरा होने पर सरोज ने उसके सीने पर रखे अपने चेहरे को हल्का-सा दबाया और फिर उठाकर उसे देखा, "अच्छा, अब मैं चलती हूँ।"

वह घर आई, तो घर उसे पराया-सा महसूस हुआ। ऐसा लग रहा था कि जैसे घर थोड़ा बड़ा हो गया हो। चूल्हे का मुँह घूम गया हो। अलगनी अधिक नीचे हो गई हो। उसे घर हल्का-सा हिलता हुआ भी अनुभव हो रहा था। उसे समझ में नहीं आया कि इस समय वह घर में क्या करे। वह जाकर बिस्तर पर आराम से लेट गई, मगर जल्दी ही बिस्तर पर पालथी मारकर बैठ गई. ऐसे भी नहीं रहा गया, तो उठ खड़ी हुई. तभी न जाने क्या हुआ कि तकिए में चेहरा धँसाकर रोने लगी। जल्दी ही रोना बंद करके मुस्कराने लगी। भाभी के पास आकर मजाक किया, "भाभी, तैयारी करती जाओ, भतीजा होने पर कंगन लूँगी।" भाभी अपने पेट पर हाथ फेरते हुए, बोलीं, "आपके भइया और बाबूजी कोशिश में लगे हैं। जल्दी ही आप भी ससुराल जाएँगी, तब कुछ दिनों बाद आपको भी वहाँ कंगन बनवाकर ननदों को देने पड़ेंगे।"

सरोज सोच में डूब गई, "छैलबिहारी को तो कोई बहन है नहीं, वह किसे कंगन देगी।" वह उदास हो गई. तभी न जाने उसके भीतर क्या रासायनिक क्रिया हुई कि वह उत्साहित होकर उठी और बाबू-भाई के सारे गंदे कपड़े लेकर धोने लगी। बाद में इस काम से फुर्सत मिलने पर उसने घोषणा की, "आज घर का पूरा खाना मैं बनाऊँगी।" उसने रोज से ज़्यादा घी-तेल-मसालों का प्रयोग करके भोजन को सुस्वादु बनाया। भइया से दो रोटी अधिक खाने के लिए इसरार करने लगी। बीच में पड़ोस में जाकर वह बच्चों को चिढ़ा आई. कुल मिलाकर बहुत खुश दिख रही थी, लेकिन बीच-बीच में सोचती, "मैं क्यों इतना खुश हूँ? क्या यह छैलबिहारी के साथ ज़िन्दगी की शुरुआत करने की उमंग है? या यह घर त्यागने के पहले घरवालों पर उमड़ पड़ा प्यार है? या कहीं वह इतना खुश दिखकर घरवालों को चकमा दे रही है?" उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया, न ही वह किसी नतीजे पर पहुँची। उसे तीनों ही बातें थोड़ी-थोड़ी सही लग रही थीं मगर वह यकीन नहीं कर पा रही थी कि कैसे तीनों बातें एक साथ सही हो सकती हैं।

उसकी दशा अजीब हो गई थी। खुश होकर चहकती रहती कि अचानक किसी सुरक्षित एकांत में जाकर रोने लगती, पर कुछ ही वक्त बाद आँखें पोंछकर हँसती हुई बाहर आती। वह कभी अतिरेक में आकर माँ के गले लगकर झूल जाती, तो कभी भाभी के पेट पर कान सटाकर चुहल करती, "भाभी...भाभी... सुनो, बच्चा बुआ...बुआ... कह रहा है।"

घर के लोगों को उसका यह बदला हुआ रंग-ढंग अनोखा तो लग रहा था। किंतु इतना अस्वाभाविक नहीं कि वे उस पर संदेह करने लगें। या उस पर निगाह रखने की आवश्यकता महसूस करें। बस, केवल माँ जानकी देवी थीं, जो बीच-बीच में उसको गौर से देखने लगती थीं। बेटी जब भी उनसे अधिक प्रेम जताती, तो वह चिंतित हो उठती थीं। उन्हें लगने लगता था कि बेटी के मन में कुछ और है, वह कपट कर रही है। रात को सरोज अपने बिस्तर से उठकर माँ के पास चली आई और बच्चों की तरह सटकर लेट गई, "माँ, अब से मैं तुम्हारे साथ सोया करूँगी।" माँ आहिस्ता-आहिस्ता सरोज के बाल सहलाती रही, फिर बुदबुदाई, "बिटिया, इधर-उधर का कदम मत उठा लेना।"

माँ का वाक्य सुनकर सरोज काँप गई. शव की तरह निस्पंद हो उठी, मगर मामूली-से अंतराल के बाद खिल गई.

उस दिन अँधेरा भी हो गया, लेकिन सरोज स्कूल से नहीं लौटी, तो सबसे पहले जानकी देवी ने ही अपनी चिंता प्रकट की, "सरोज नहीं आई अभी तक, मेरा दिल बहुत घबरा रहा है राधेश्याम के बाबू।" सभी के चेहरे पर भय, चिंता और अपशकुन के पंजे मँडराने लगे। ऐसा लगा कि विष्णु दत्त जैसे अभी-अभी और बूढ़े हो गए हों। वह कराहते हुए से बोले, "बेटा, राधेश्याम! चलो, हम ढूँढ़ते हैं।"

दोनों जब लौटकर वापस आए, तो घर में बहू और सास थीं। अँधेरा था, तंता था। बहू के गर्भ में शिशु था और भय, चिंता, अपशकुन के मँडराते पंजे थे।

घर में घुसते ही विष्णु दत्त अचानक रोने लगे थे।

गाँव में विष्णु दत्त को सलाह मिली कि फौरन थाने चलकर बेटी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखानी चाहिए, लेकिन दूसरे प्रकार के लोगों का मत था कि ऐसा नितांत अनुचित होगा। कन्या की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखा दी गई, बात थाना-कचहरी तक गई तो इज्जत विष्णु दत्त की डूबेगी-इस गाँव की डूबेगी-सबसे बड़ी बात-बरामदगी के बाद सरोज का जीवन नरक हो जाएगा।

"लेकिन समस्या यह है।" पहले पक्ष के लोगों ने कहा कि सरोज के आसानी से मिल सकने के आसार नहीं दिख रहे हैं। जहाँ-जहाँ मुमकिन था, ढूँढ़ा गया। अब वह आसमान से तो टपक नहीं पड़ेगी। नहीं मिल रही है, तो यही अच्छा होगा कि पुलिस में रिपोर्ट लिखाई जाए.

सबसे भिन्न तीसरी धारा राधेश्याम की थी। उसका कथन था, "सरोज दो घंटे में मिल सकती है।" इसके लिए उसने उपाय बताया कि छैलबिहारी की माँ को तथा परमू और भोला की बहनों को निर्वस्त्र करके गाँव में घसीटा जाए. " लेकिन किसी ने उसके विचारों को गंभीरतापर्वूक ग्रहण नहीं किया।

अंततः यही निश्चय किया गया कि दो-तीन दिन इंतजार कर लिया जाए. फिर भी सरोज न मिली, तो रिपोर्ट लिखाने में हर्ज नहीं। हालाँकि विष्णु दत्त यह समझ रहे थे कि रिपोर्ट के लिए जोर देनेवालों में कुछ ऐसे भी थे जो चाहते थे कि थाना-कचहरी के चलते उनकी और उनकी बेटी की फजीहत हो। इसी तरह कुछ लोगों द्वारा रिपोर्ट न लिखाने के लिए दबाव डालने की वजह थी कि वह चाहते थे कि सरोज हमेशा गायब रहे और उनको राय-मशविरा देने का अवसर प्राप्त होता रहे।

तीन दिन बीत गए थे, रिपोर्ट दर्ज कराने के अतिरिक्त दूसरा कुछ सूझ नहीं रहा था विष्णु दत्त को। अगले दिन शाम को वह और राधेश्याम तीन-चार ग्रामवासियों को लेकर थाना पहुँच गए. इन ग्रामवासियों का कहना था कि रिपोर्ट में अभियुक्तों द्वारा सरोज को ले जाने की बात के साथ यह भी दर्ज कराया जाए कि वे उनके घर से चार हजार नकद और करीब 25, 000 के जेवरात भी ले भागे हैं। इस पर विष्णु दत्त ने दबी जबान से प्रतिवाद किया, "पर यह हकीकत नहीं है।" राधेश्याम भड़क गया, "बड़े हकीकत के बाप बनने चले हैं आप! हकीकत तो यह है कि वह रंडी खुद भागी है, तो क्या ऐसे ही रिपोर्ट में कहा जाए?"

थाने का दरोगा कहीं तफ्तीश पर गया था और हेड मुहर्रिर जूस पीने, लेकिन संयोग ही था कि ज़्यादा इंतजार नहीं करना पड़ा, जल्द ही हेड मुहर्रिर मुँह पोंछता हुआ ड्यूटी पर बैठ गया, "क्या हुआ, लौंडिया भाग गई न?"

वे इस भाव से कि 'उसको कैसे मालूम' हेड मुहर्रिर को देखने लगे। तभी वह कड़क उठा, "लानत है तुम लोगों पर कि रिपोर्ट लिखाने आए हो। अरे, मेरी बहन-बेटी होती, तो आकाश-पाताल जहाँ भी होती, ढूँढ़कर लाता और इस करतूत पर उसकी बोटी-बोटी करके चील-कौवों के सामने फेंक देता।" बहरहाल, विष्णु दत्त ऐसे पराक्रमी नहीं थे, इसलिए वह दो कागजों के बीच कार्बन लगाकर प्राथमिक सूचना रिपोर्ट का लेखन करने लगे। वह नामजद प्राथमिक सूचना रिपोर्ट लिख रहे थे। उन्होंने अभियुक्तों के रूप में छैलबिहारी, परमू और भोला को नामांकित किया।

थाने से लौटते-लौटते अँधेरा होने लगा। सभी चुपचाप चल रहे थे। जैसे उनके साथ-साथ मौन भी चल रहा हो। वे गाँव में आ गए, तब भी चुप थे। एकदम खामोश। लेकिन जैसे ही रास्ते में छैलबिहारी का घर पड़ा, राधेश्याम बड़ी तेज आवाज में चिल्लाने लगा, "मैं प्रतिज्ञा कर रहा हूँ... मैं प्रतिज्ञा नहीं, भीष्म प्रतिज्ञा कर रहा हूँ कि यदि मैंने छैलबिहारी की माँ की इज्जत न लूटी, तो राधेश्याम मेरा नाम नहीं।" इतना कहकर उसने चारों तरफ अभिमान से देखा, जिस प्रकार नौटंकी में कोई अभिनेता कड़क संवाद बोलकर वाहवाही के लिए दर्शकों पर निगाह डालता है।

विष्णु और राधेश्याम घर आए, तो विष्णु बहुत थके थे, राधेश्याम बहुत उद्वेलित। बहू ने जल्दी ही खाना परोस दिया। दोनों खाने लगे।

बहू ने ससुर की थाली में रोटी डालते हुए कहा, "हमारे चाचा के लड़का श्याम नारायण नेता हैं, वह किसी काम आ सकते हों तो बुला लिया जाए." राधेश्याम गरजा, "चोप्प साली। अब नेतागिरी नहीं होगी, खून बहेगा। मैं कह रहा हूँ लाशें गिरेंगी!" इसके बाद खाना छोड़कर वह कूद-फाँद करने लगा। विष्णु और जानकी देवी उसे परेशानी और कोफ्त से देखने लगे। जब वह चौकड़ी भरता हुआ बाहर निकल गया, तो विष्णु बहू से बोले। बहू घूँघट थोड़ा-सा आगे खिसकाकर सुनने लगी, "ऐसा है दुलहिन, अभी रुक जाओ, बात दूर-दूर तक फैले, क्या फायदा। कुछ रोज देखते हैं। सरोज हमें तब तक न मिली, तो नेता श्याम नारायण को बुलवाएँगे।"

श्याम नारायण नेता, एक पार्टी की युवा शाखा के जुझारू सदस्य थे। अभाव और विपन्नता उनके व्यक्तित्व से टपकती रहती थी, किंतु दो मामलों में वह शानदार थे। एक नारा लगाने में, पता नहीं कहाँ से उनके कृशकाय शरीर में बहुत जोर से बहुत देर तक गर्जना करने की शक्ति थी। उनके शानदार होने का दूसरा क्षेत्र था प्रेमातुरता। वह प्रायः किसी कन्या को देखकर रीझ जाते थे और प्रणय-निवेदन कर बैठते थे। एक बार उनकी प्रेमातुरता कामातुरता में परिवर्तित हो गई थी। समक्ष खड़ी लड़की पर संकट के मेघ मँडराने लगे थे। वह तो ईश्वर उसका रक्षक था कि श्याम नारायण के पायजामे के इजारबंद में उल्टी गाँठ लग गई, जो उनके लाख प्रयत्न करने पर भी उस समय नहीं खुली थी, पर कामातुरता उनकी मूल प्रवृत्ति नहीं थी। अमूमन वह रीझते भर थे। सरोज पर भी कुछ बार रीझ चुके थे। जब-जब वह अपनी भाभी के मायके में आई थी, तब-तब नेता उसे देखकर व्याकुल हुए थे। उनके द्वारा भाँति-भाँति से प्रेम-भाव को प्रगट किए जाने के बाद भी जब सरोज ने अनुकूल प्रतिक्रिया न दिखलाई थी तो उन्होंने एक दिन उसकी कलाई पकड़ ली थी। सरोज उनकी कलाई पर दाँत काटकर अपनी कलाई छुड़ाने के बाद धमकाते हुए जाने लगी कि उनकी करतूत वह सभी को बता देगी। इस पर नेता श्याम नारायण ने पहले विनती की कि सरोज ऐसा कतई न करे, पर सरोज को सहमत होता न देखकर वह हँसने लगे, "अरे, मेरा तो तुमसे हँसी-मजाक का रिश्ता है और तुमने मेरे मजाक को भी सच मान लिया क्या..."

श्याम नारायण को जब छैलबिहारी के साथ सरोज के भाग जाने की सूचना प्राप्त हुई, तो उनके हृदय में तीन तरह के विचार उठे। एक विचार हैरत का था कि अरे, यह क्या हो गया। दूसरा विचार था विचारधारा का, जिसके अनुसार उन्होंने इस प्रकरण को रूढ़ियों के खिलाफ एक लड़की की बगावत माना और सोचा कि हर युवक-युवती को अपनी पसंद से प्रेमी अथवा जीवन-साथी चुनने का अधिकार है। अंत में जाकर तीसरा विचार उठा। यह विचार अपेक्षाकृत अधिक तीव्र, मर्मांतक, असरकारी और संश्लिष्ट था। इसके उठने पर उन्होंने अपनी कलाई को सहलाया, "यहीं पर दाँत गड़ाए थे उसने।" उन्हें लगा कि छैलबिहारी के साथ भागकर सरोज ने उनको अपमानित, आहत और दुखी किया है। वह दुखी हुए, "सरोज ने यह क्या कर डाला। उसकी जैसी सुंदर लड़की को किसी योग्य व्यक्ति से प्रेम करना चाहिए था।" उन्होंने विश्लेषण किया और इस नतीजे पर पहुँचे कि सरोज को छैलबिहारी से प्रेम नहीं करना चाहिए था। वस्तुतः यह प्रेम था ही नहीं। अर्द्धसामंती, अर्द्धपूँजीवादी समाज में जिस प्रकार मजदूर-किसान शोषक शक्तियों के झाँसे में आकर उन्हीं को अपना उद्धारक मान लेते हैं, उसी तरह सरोज छैलबिहारी को अपना मुक्ति-दाता मानकर प्रेम कर बैठी। अतः उसका यह कृत्य प्रेम और सामंती मूल्यों को चोट पहुँचाने का प्रयास नहीं, बल्कि शोषित-पीड़ित स्त्री की दिग्भ्रमित चेतना की त्रासदी का मामला है। उन्हें महसूस हुआ कि विपत्ति में निहत्थी फँसी सरोज चीत्कार कर रही है और संघर्ष का एक अन्य क्षेत्र उन्हें आहूत कर रहा है। उन्होंने झोला उठाया और विष्णु दत्त-राधेश्याम से मिलने चल दिए.

उनको सामने खड़ा देखकर विष्णु दत्त चकित हुए. जब श्याम नारायण ने बताया कि उन्हें मुसीबत में फँसा सुनकर वह दौड़े चले आए हैं, तो विष्णु दत्त के मन में उनके लिए अत्यंत आदर का भाव पैदा हुआ। चटपट राधे की औरत से बोले, "अरे, अपने भइया के लिए कुछ चाय-वाय बनाओ जल्दी।"

चाय पीने के बाद श्याम नारायण ने बिलकुल विलंब नहीं किया, मुँह पोंछते हुए कहा, "तो बाउजी, आप और जीजा तैयार हो जाएँ और चलें मेरे साथ।"

नेता श्याम नारायण, विष्णु और राधेश्याम को लेकर जिला मुख्यालय में पुलिस अधीक्षक के बँगले पर पहुँचे। उन्होंने विष्णु दत्त की तरफ से एक प्रार्थना-पत्र पुलिस अधीक्षक के नाम लिख रखा था, पुलिस अधीक्षक को दिया। उक्त प्रार्थना-पत्र में निवेदन किया गया था कि माननीय महोदय, अपनी बेटी सरोज के अपहरण की प्राथमिक सूचना रिपोर्ट मैंने गत 15 जनवरी, 95 को थाना श्याम सराय में लिखाई थी। उसमें मैंने अभियुक्तों के नाम का भी उल्लेख किया था। छैलबिहारी, परमू और भोला। माननीय महोदय जी से निवेदन है कि पुलिस अभी तक अभियुक्तों को पकड़कर इस अभागे पिता को उसकी पुत्री वापस दिलाने में नाकाम रही है। हमें इस बात की भी आशंका है कि स्थानीय पुलिस जाँच-कार्य में शिथिलता बरत रही है। अतः आपसे अनुरोध है कि आप उचित कार्यवाही हेतु अविलंब आवश्यक दिशा-निर्देश देकर इस परम दुखी पिता को न्याय दिलाने की कृपा करें।

पुलिस अधीक्षक को लिखे पत्र में ही थोड़ा फेरबदल करके नेता श्याम नारायण ने एक पत्र प्रदेश के गृहमंत्री के नाम और एक पत्र देश के गृहमंत्री के नाम भेजा। उन्होंने एक पत्र देश के लोकसभा अध्यक्ष के नाम भी प्रेषित किया। श्याम नारायण के इन क्रियाकलापों से विष्णु तथा राधेश्याम अभिभूत थे। उन्हें अपने इस रिश्तेदार पर गर्व हो रहा था। दोनों ने ही श्रद्धावनत होकर हाथ जोड़ लिए, "धन्य हैं आप भइया श्याम नारायण ईश्वर आपको दीर्घायु करें।" दोनों ने ही पूछा, "अब आगे क्या किया जाए?" श्याम नारायण बोले, "आगे यह किया जाए कि आप लोग घर लौट जाएँ और मुझको अब अपने तरीके से खोज-बीन करने दें। हमारे हाथ पुलिस से भी ज़्यादा लंबे हैं, आप सब फिक्र न करें। हाँ, कुछ रुपए हों तो देते जाइए, क्योंकि दौड़-भाग में खर्चा तो होगा ही।"

पिता-पुत्र के जाने और जेब में कुछ धन आने के बाद नेता श्याम नारायण में एक भारतीय जेम्स बॉण्ड का अभ्युदय होने लगा। उन्होंने एक पैकेट सिगरेट खरीदी। एक सिगरेट जलाकर कश लिया, "कहाँ से शुरू की जाए तफ्तीश।" उनकी उँगलियाँ दूसरे हाथ की कलाई पर चली गईं और अचानक उनके सामने सरोज का चेहरा जगमगा उठा। वह कल्पना-लोक में देखने लगे कि सरोज आँसुओं में डूबी हुई सिसक रही है। 'मुझे हर हाल में ठोस कुछ करना पड़ेगा।' उन्होंने सोचा और सिगरेट चप्पल से कुचलकर आगे बढ़ गए. इस वक्त उनके अंदर फुर्तीला जेम्स बॉण्ड, भावुकविरही, जोशीला कॉमरेड एक साथ सक्रिय हो चुके थे। उनके कंधे से लटका हुआ झोला एक दृष्टि से देखने पर लगता था कि वह कोई सिद्धहस्त अय्यार या जासूस हैं, जिसके इस पोटले में अनेक हैरतअंगेज चीजें भरी हुई हैं, तो दूसरी दृष्टि से देखने पर लगता था कि वह आदिकाल के कोई योद्धा हैं, जिसके झोले में जानलेवा आयुध भरे हुए हों। तीसरी दृष्टि से देखने पर लगता, वह संत विनोबा भावे अथवा जयप्रकाश जी की परंपरा के सर्वोदयी हैं, जिनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर भूमि माफिया भूदान कर देंगे और डकैत आत्मसमर्पण। चप्पल फटकारते चले जा रहे थे श्याम नारायण, जो इस समय शरीर से दुबले पर भावनाओं से बली थे। वह दृढ़प्रतिज्ञ थे कि सरोज कांड की एक-एक बात, राई-रत्ती, छोटी-बड़ी सारी चीजें ज्ञात करके रहेंगे।

नेता श्याम नारायण ने दौड़-भाग के बाद पाया कि सरोज के गायब होने को लेकर कई तरह की कहानियाँ थीं, जो परस्पर एक-दूसरे से जु़दा थीं और कुछ मायनों में आपस में समानता भी रखती थीं। गाँव से सरोज, छैलबिहारी, परमू, भोला सफेद रंग की कार से भागे थे। यह कार किसकी थी, इसके बारे में उसे कोई एक पहुँचे हुए रईस की बताता था, तो कोई कहता था कि एक बहुत बड़े ठेकेदार ने कुछ ही दिन पहले खरीदी थी। यह भी चर्चा थी कि कार हीरों के एक व्यापारी का लड़का चलाता था, जिसे भोला ने धमकाकर छीन ली थी। कहीं-कहीं सुनाई देता कि वह कार किसी अन्य की नहीं, स्वयं परमू की है, जिसे उसने अफीम की तस्करी से प्राप्त धन से खरीदा था और शहर में ही चलाता था। वैसे, कुछ अनुमान यह भी था कि कार गोरखनाथ की है, परमू और भोला उनसे माँगकर लाए थे।

बहरहाल, कार से जब सरोज सहित चारों लोग जा रहे थे, तो कार बड़ी तेज दौड़ रही थी। उसकी स्पीड के बारे में लेकर 80 किलोमीटर से लेकर 110 किलोमीटर प्रति घंटा तक के अनुमान लगाए जा रहे थे। बीच में कार दुर्गापुर कस्बे में रुकी थी, जहाँ उन लोगों ने कोकाकोला पिया था, लेकिन एक हिस्से को एतराज था कि कोकाकोला पीने की बात सच नहीं है, जनवरी महीने में, वह भी रात को वे कोकाकोला क्यों पीने लगेंगे। दरअसल वे चाय पी रहे होंगे। इस पर कोकाकोला वालों का कहना था कि देखनेवालों की आँखें अंधी नहीं थीं कि चाय के गिलास या कुल्हड़ को कोकाकोला की बोतल समझ लें। इस वाद-विवाद में एक तीसरी धारणा सामने आई, जिस पर कमोबेश सभी ने विश्वास किया। इसके अनुसार वे न चाय पी रहे थे, न कोकाकोला। वे कोकाकोला की बोतल में शराब पी रहे थे। किसी ने पुष्टि करते हुए बताया कि उसे पता है कि दुकान पर सरोज की आँखें लाल थीं और वह झूम रही थी। इसकी भी काट प्रस्तुत की गई कि आँखें लाल होने का कारण सरोज का रोना हो सकता है। रही बात झूमने की, तो कौन-सी शराब थी कि चखते ही झुमाने लगी थी।

उपरोक्त बिंदु तक जानकारों की सूचनाओं में मामूली भिन्नताएँ थीं, किंतु मोटे तौर पर सादृश्य भी था। जैसे कि कार किसकी थी, कार किस स्पीड में चल रही थी या दुकान पर वे चारों क्या पी रहे थे, इन मुद्दों पर तीव्र मतभेद थे, लेकिन वे कार से गए, कार बहुत तेज दौड़ रही थी और बीच में दुर्गापुर कस्बे की दुकान पर रुककर उन लोगों ने कुछ पिया, इन बातों पर जानकारों के बीच पूरी सहमति थी।

मुश्किल यह आ पड़ी कि दुर्गापुर कस्बे की दुकान के बाद क्या-क्या हुआ, इसको लेकर एकदम से अलग-अलग किस्से सामने आने लगे। इन किस्सों में सरोज के घर से भागने और कोकाकोला की बोतल से कुछ पीकर चल देने के बाद की रामकहानी भिन्न-भिन्न तरीके से बयान की गई थी। घटनाएँ, वातावरण, कथोपकथन, मनोरथ और परिणतियों तक में अंतर था। अब चूँकि उक्त समस्त स्वरूपों को स्वतंत्र ढंग से प्रस्तुत करने का स्थान और अवसर नहीं है, अतः उन सभी का अवलोकन करके उनके विश्वसनीय अंशों को पहले अलग-अलग किया गया, फिर सभी के उन चुने गए विश्वसनीय लगनेवाले अंशों को आपस में सुसंगत तरीके से यथायोग्य जोड़ दिया गया। फलस्वरूप एक अधिक प्रामाणिक वृत्तांत सामने आया जो इस प्रकार है:

कार जब गोरखनाथ के आलीशान मकान के सामने रुकी, तो रात के नौ बज रहे थे। वैसे, इस समय यहाँ चहल-पहल रहती थी, लेकिन इत्तेफाक की बात है कि उस दिन सन्नाटा था, क्योंकि गोरखनाथ शराब किंग माताराम जायसवाल के घर रात्रि-भोज पर गए थे। शायद इसलिए कि मार्च का महीना आनेवाला था और किंग को खतरा था कि अबकी बार कहीं उसके हाथ से ठेके निकल न जाएँ।

सन्नाटा देखकर वे चारों उतरे और भीतर पहुँचकर सीढ़ियाँ चढ़ गए. ऊपर एक कमरे में पहुँचकर ही उन्होंने इत्मीनान की साँस ली।

परमू और भोला खाने-पीने के इंतजाम के लिए बाहर निकल पड़े। उनके जाते ही छैलबिहारी सरोज पर लुढ़ककर कहने लगा, "हाय मेरी प्राणप्यारी, अब तो न तड़पाओ."

सरोज ने उसे ठेलकर आराम से बिठाया और खुद खड़ी हो गई, "देखो छैलबिहारी, जब तक मैं तुम्हारी सुहागन नहीं बन जाती, मुझे छूना मत। नहीं तो जान दे दूँगी, अम्मा की कसम।" अम्मा की कसम खाते ही उसे अम्मा की याद आ गई. वह सुबकने लगी। छैलबिहारी भुनभुनाता हुआ बाहर निकलकर नीचे आ गया। नीचे आकर देखा कि अध्यक्ष जी आ गए हैं और भोला-परमू को डाँट रहे हैं। वह वहीं छिपकर डाँट वार्ता सुनने लगा। अध्यक्ष जी बोले, "अरे हरामियो मेरे घर लेकर आने की क्या ज़रूरत थी।" उन्होंने कुछ अन्य फूहड़ किस्म की गालियाँ दी और अंत में कहा, "ऐसा करो, महंत जी के यहाँ चले जाओ, मैं फोन कर देता हूँ।" दोनों जाने के लिए मुड़े कि अध्यक्ष जी फिर बोले, "अरे हाँ, लौंडिया की उम्र कितनी है?"

"सोलह साल।" परमू ने जवाब दिया।

"सोलह साल की दुम, मरोगे ससुरो। अबे, बालिग तो हो जाने दिया होता। अच्छा कल मेरे साथ कचहरी चलना। मैं एक फर्जी बालिग प्रमाण-पत्र बनवा दूँगा। बाद में कोई लफड़ा होने पर काम देगा।"

छैलबिहारी उलटे पाँव लौट गया और कमरे के बाहर खड़ा हो गया। उन दोनों को देखते ही नकनकाते हुए कहा, "सरोज कुमारी से दिक्कतें आएँगी। सती सावित्री लच्छन दिखा रही है। कह रही है कि शादी के पहले छुआ, तो खुदकुशी कर लेगी।" उसकी नकनकाहट कुछ कम हुई, "एक बात मुझे पक्की लगने लगी है कि यह समझाने से समझनेवाली नहीं है।"

"चुप साले बड़बड़ किए जा रहा है।" परमू गुस्सा गया, "साले तुमको उल्टा ही सूझता है। खैर, अभी तो इसको लेकर महंत जी के यहाँ चलना है।"

छैलबिहारी रुआँसा हो गया, "पर तुम लोगों ने तो अध्यक्ष जी के यहाँ के लिए कहा था। ये महंत-साधू के यहाँ पुलिस पहुँच गई, तो क्या होगा?"

"अबे, तुम रहोगे देहाती भुच्चड़।" भोला समझाने लगा, "अध्यक्ष जी के यहाँ तो फिर भी एक बार पुलिस आ सकती है, पर महंत जी के यहाँ किसकी हिम्मत है। अध्यक्ष जी जैसे बाईस उनकी जेब में है।"

महंत जी का आवास एक विशाल मंदिर था। जिसके नीचे की मंजिल में पूजा-पाठ होता था। मंदिर का गर्भगृह था, कीर्तन मंडप था, यज्ञशाला थी और करीब दो दर्जन रिहायशी कोठरियाँ थीं, जिनमें ज्यादातर तीर्थयात्री और मंदिर के सेवक रहते थे।

ऊपर की मंजिल महात्मा जी का आवास था और यह भव्य था। कई कमरे वातानुकूलित थे। सभी में रंगीन टी.वी. था। कुछ में वी.सी.आर. भी था। फर्श पर बढ़िया कालीन बिछी हुई, महँगे पर्दे और आरामदेह फर्नीचर। दीवारों पर देवी-देवताओं की तस्वीरों के अतिरिक्त शेष सितारा होटल जैसा था।

ऐसे ही एक कमरे में सरोज, परमू, भोला, छैलबिहारी पहुँचाए गए, तो आनंदातिरेक और आश्चर्य के कारण उनकी वाणी मूक हो चली। उनमें से हर कोई कमरे को देखता, फिर अपने लोगों को देखने लगता था। जैसे वे परस्पर एक-दूसरे के भाग्य की सराहना कर रहे हों। वे विभोर थे। उन्हें कक्ष सुखद सपना लग रहा था। वह खड़े ही थे, बैठ नहीं रहे थे कि सपना टूट न जाए.

सरोज चमत्कृत थी। टी.वी. के धारावाहिकों में जैसा कमरा देखा करती थी, वैसा ही था यह। वह अपनी किस्मत को सराह रही थी और भगवान को धन्यवाद दे रही थी कि छैलबिहारी जैसा काबिल वर मिला उसको, जिसके इतनी पहुँचवाले दोस्त थे। उसने प्यार से छैलबिहारी को देखा। उसकी चितवन में प्यार, प्रशंसा, धन्यवाद, शुभकामना आदि कई तत्व शामिल थे। एक क्षण के लिए उसके मन में यह ख्याल भी कौंधा कि बेचारा मेरे लिए इतना आतुर है, तो क्यों न आज ही खुद को समर्पित करके इसे खुश कर दूँ। आखिर कल तो शादी हो ही जाएगी। पर यह ख्याल क्षणों में ही था। जल्दी ही वह चौंककर सिहर उठी और सामान्य हो गई.

छैलबिहारी बीड़ी निकालकर सुलगाने लगा तो परमू ने हाथ के इशारे से मना किया और भोला ने बताया, "ये ए.सी. कमरा है। इसमें बीड़ी-सिगरेट पीना मना है। चलो बाहर चलकर पीते हैं।"

बाहर नाक से धुँआ उगलते हुए वे तीनों सोचने लगे थे कुछ। थोड़ी देर बाद परमू ने भोला से पूछा, "टाइम क्या हुआ?"

"दस बजे हैं।" भोला ने बताया।

परमू ने अपनी सिगरेट को बुझा दिया, "तो दोस्तो! नीचे ही मंदिर है। चलो दोनों की शादी वहीं करा देते हैं।"

भोला बोला, "ठीक है, पर पहले पता कर लिया जाए कि इतनी रात में शादी हो पाएगी या नहीं।"

"अरे, करना क्या है।" छैलबिहारी उत्साह में आ गया, "उसकी माँग में सिंदूर लगा दूँगा और माला वह पहना देगी, एक मैं उसको पहना दूँगा। फेरे और मंत्र-वंत्र के चक्कर में न पड़ना है, भोला भइया।"

मगर जब वह भीतर आए, तो योजना गड्डमड्ड हो गई, क्योंकि फोन की घंटी बजने लगी थी। परमू ने फोन उठाया, तो उधर अध्यक्ष जी थे। कह रहे थे, "साले, तुम लोग आज कोई हरकत न करना, वरना महंत जी तुम लोगों की लाशें बिछा देंगे। इसके लिए खुद मुझको उनसे मिलकर परमीशन दिलानी होगी।"

सुबह होने पर परमू ने दिशा-निर्देश हेतु अध्यक्ष जी को फोन मिलाया और विनयपूर्वक आवेदन किया, "बालिग प्रमाण-पत्र का झमेला यदि छोड़ दिया जाए, तो कोई खास नुकसान हो जाएगा क्या?" इस पर अध्यक्ष जी ने उसे बहन की गाली दी और डाँटा, "मरना चाहते हो, तो मरो! अरे, सर्टीफिकेट रहेगा, तो काटेगा नहीं। मान लो, बाद में वह ससुरी कोर्ट चली गई तुम सबके खिलाफ। तब यही कहोगे न, वह छैलबिहारी की ब्याहता है और प्रस्तुत साक्ष्य बलात्कार के नहीं, छैलबिहारी द्वारा उसके पति की हैसियत से किए गए सहवास के हैं और तुम सब बेगुनाह हो।"

"हमको मालूम नहीं था कि इसमें इतना लफड़ा होगा, कहाँ फँसे हम। वैसे अध्यक्ष जी, आपसे कह रहा हूँ कि कार्यक्रम करने के बाद उसको मार डालें या कलकत्ता, बंबई में रंडी के चकले में छोड़ आएँ तो हर्ज है?"

"साले, जो कह रहा हूँ, उसको करो। ग्यारह बजे कचहरी पहुँचो डी.एम. ऑफिस के सामने।"

"मगर अध्यक्ष जी, कचहरी में हमारे गाँव-ज्वार के लोग भी आए होंगे। बड़ा खतरा है वहाँ। कहीं धर न लिए जाएँ।" वह बड़बड़ाया, "एक छोकरी के झमेले में कहाँ फँस गए, भगवान!"

अध्यक्ष जी का दिमाग भन्ना गया। फोन पर ही चिल्लाए, "रोओ मत छिनरो, गाड़ी भेज रहे हैं। उसमें बैठ के पहले मेरे यहाँ आ जाओ."

लगभग दो घंटे बाद कार अध्यक्ष जी के बँगले के मैदान में खड़ी थी। अध्यक्ष जी लोगों से घिरे हुए चलते जा रहे थे। कार के भीतर बैठी सरोज के मुँह से निकल गया, "वही अध्यक्ष जी हैं न।"

तीनों चौंक पड़े, "तुमको कैसे मालूम?"

"इलेक्शन में उनकी फोटोवाले पोस्टर जो लगे थे गाँव में, हमारे कॉलेज की दीवारों पर। हमारे बाबू-भइया सब इनकी ही पार्टी को वोट दिए थे।"

अनेक लोग अध्यक्ष जी का पैर छू रहे थे। पुलिस का एक बड़ा अधिकारी, दो वकील भी अपनी वर्दियों में अध्यक्ष जी के चरणों में झुक रहे थे। इस दृश्य को देखकर सरोज कृत-कृत्य हो रही थी। उसे महसूस हो रहा था कि वह सुरक्षित हाथों में पहुँच गई है। उसने बगल में बैठे छैलबिहारी के कंधे पर सिर रख दिया। उसके केश छैलबिहारी के चेहरे को स्पर्श करने लगे।

अध्यक्ष जी अपनी कार में आकर बैठे। उनकी कार के पीछे इन लोगों की कार चल दी। कचहरी पहुँचने पर दोनों कारें रुकीं और सब बाहर निकले। सबसे अंत में सरोज निकली। अध्यक्ष जी ने उसे देखा, तो भौंचक्का रह गए. उनके मन में विचार उभरा, "यह तो पूरी अप्सरा है।" उन्होंने बिना वक्त गँवाए सरोज के चेहरे को, वक्ष को, कटि को, जंघाओं को देखा और सोचा, ' बला की खूबसूरत यह, कहाँ चूतियों के चक्कर में फँसी है। इसके लिए सर्वथा उपयुक्त तो मैं ही हूँ। "

वह उत्साह में आ गए थे। अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्होंने जल्द ही सरोज का बालिग प्रमाण-पत्र बनवा दिया। बोले, "चलो, झटपट शादी भी संपन्न कराओ."

आखिर सरोज का प्रतीक्षित अवसर आ ही गया। लाल जोड़ा, जेवर, मेंहदी वगैरह से वह वंचित रही थी, किंतु हाथों में उसने चूड़ियाँ खूब पहनी थीं। चटख लाल रंग की साड़ी पहनकर उसने बड़ा-सा गोल जूड़ा बनाया था। उसके मस्तक पर गोल बिंदी थी और माँग में सिंदूर भरा था। मंदिर के कमरे में बैठी वह बार-बार दरवाजे को देखने लगती थी कि छैलबिहारी आया क्या!

और जब दरवाजा खुला, तो छैलबिहारी नहीं, अध्यक्ष जी अंदर आए. वह पान खाए हुए थे। सरोज के पास बैठकर उन्होंने हँसते हुए रोमांटिक कथन किया, "देखो, मेरा मुँह कितना लाल हो गया है।" उन्होंने अपनी जीभ निकालकर अंदर की, "जिसको पान बहुत चढ़ता है, जानती हो, औरतें उसको बहुत चाहती हैं।" वह थोड़ी देर सरोज को देखते रहे, फिर बात आगे बढ़ाई, "तुम भी मुझको बहुत चाहती हो न?"

सरोज चौंक पड़ी और बिस्तर से उतरकर खड़ी हो गई. अध्यक्ष जी ने कहा, "बैठो... बैठो न। हमारी बात का बुरा नहीं माना जाता। हम बहुत बड़े आदमी हैं। कोई ठीक नहीं कि मुझे किसी दिन प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया जाए. मुख्यमंत्री लॉबी का वरदहस्त है मुझ पर।" इतना कह चुकने के बाद उन्होंने अत्यंत इत्मीनान से सरोज के कंधों को पकड़ा। तभी दरवाजे पर थपथपाने की आवाजें आईं। गोरखनाथ ने उठकर किवाड़ खोले। महंत जी कमरे में आए. सरोज ने विपत्ति की घड़ी में देवदूत की तरह पहुँचे आगंतुक को देखा। वह लँगोट पहने थे और सोने की मूठवाली छड़ी लिए हुए खड़े थे। उनकी दाढ़ी उनके ढेर सारा निकल आए पेट पर टिकी हुई थी। जटा-जूट खिचड़ी थे। लँगोट मात्र पहने हुए उनका व्यक्तित्व भीषण रूप से रौद्र लग रहा था। चारों तरफ देखने के बाद वह अध्यक्ष जी से बोले, "व्यवस्था टनाटन्न है न?"

"सब आपकी कृपा है, प्रभु!"

"बाहर हम हैं, चिंता मत करिएगा।"

"आपके किले में हम, क्यों चिंता करें भगवन्।"

महंत जी ने हँसकर आँख मारी, "मौज करो।"

और वह संस्कृत का कोई श्लोक कहते हुए बाहर निकल गए.

मौका देखकर सरोज ने भी बाहर निकलना चाहा। वह बीच दरवाजे में ही थी कि गोरखनाथ ने पीछे से उसके बालों को पकड़ लिया और खींचकर उसे बिस्तर पर पटक दिया, "साली चवन्नी छाप रंडी, चली है हमसे नखरे करने।"

सरोज ने उसके पैर पकड़ लिए, "मुझ पर दया करिए. मैं आपके ही आदमी छैलबिहारी की ब्याहता हूँ।"

वह हँसने लगे, "तुम तो बड़ी भोली लग रही हो।" उन्होंने फोन उठाया।

पाँच मिनट बाद ही छैलबिहारी, भोला और परमू कमरे में थे। छैलबिहारी ने पुचकारा, "नाहक रो रही है। एक बार की ही तो बात है। फिर रहना मेरे साथ।"

सरोज ने इतना दुख, घृणा, जुगुप्सा और क्रोध कभी नहीं अनुभव किया था। वह फूट-फूटकर रोने लगी। रोते हुए ही उसने छैलबिहारी को गाली दी और चिल्लाने लगी। परमू ने लपककर उसका मुँह बंद कर दिया, " चुप्प छिनाल। परमू के हाथ में पिस्तौल एवं फालवाला चाकू था, जिसकी नोक सरोज की सुडौल गर्दन पर हल्की-सी दबी हुई थी।

रो वह अभी भी रही थी, लेकिन उसके रुदन की आवाज बदल गई थी। कुछ-कुछ घिघियाने जैसी. थोड़ी-सी मर्दानी आवाज। ऐसी ध्वनियाँ उसके कंठ से पहले कभी नहीं निकली थीं। उसने उसी तरह रोते और घिघियाते हुए आँखें उठाकर छैलबिहारी को देखा। छैलबिहारी भाँप न सका कि सरोज की आँखों में क्या था-नफरत, लाचारी, मदद की पुकार या अन्य कुछ। वह बड़े प्यार से बोला, "तुमने तो देखी थी नौटंकी। द्रौपदी के पाँच पति थे कि नहीं। आँय! फिर तुम्हारे तो चार ही होंगे। दूसरे, जब राजा दशरथ की तीन रानियाँ थीं, तो तुम्हारे चार पति क्यों नहीं? यही समझ लो कि अध्यक्ष जी तुम्हारे सबसे बड़े पति हैं..."

सरोज ने दुबारा गोरखनाथ के पाँव पकड़ लिए और जोर-जोर से रोने लगी, "ऐसा जुल्म मत करिए हुजूर... मुझे जाने दें मालिक... मैं शादीशुदा हूँ, रहम करिए."

भोला ने पिस्तौल सरोज की तरफ तान दी। सरोज चिल्लाने लगी, "मारो...मुझे मार डालो..."

"तू अनायास ताव खा रही है।" छैलबिहारी ने उसे शांत करने का एक प्रयत्न और किया, "कुंती ने नहीं सूर्य से सम्बंध बनाया था। अहल्या को नहीं इंद्र ने हासिल किया था। फिर सबसे बड़ी बात, तुम्हारा तो पति तुमको ऐसा करने की आज्ञा दे रहा है।"

सरोज की आँखों में आँसू और खून एक साथ उतरे, वह छैलबिहारी की तरफ झपटी. परमू का चाकू उसकी गर्दन में हल्का-सा धँस गया, खून छलक आया। भोला सरोज के पीछे गया और उसकी बाँहें मरोड़कर मुश्कें कस दीं।

छैलबिहारी आवेश में गरजा, " अध्यक्ष जी, इस हरामजादी के हाथ-पाँव बाँध दें।

श्याम नारायण को जब पूर्वलिखित वास्तविकता, सूचनाओं और जानकारियों की शक्ल में इधर-उधर से, अपने और पराए स्रोतों से उपलब्ध हुई, तो उनके हृदय में दुख तथा गुस्से का तेज जलजला पैदा हुआ। उनके भीतर सरोज के लिए हमदर्दी का समुद्र उफनने लगा। पराक्रम दिखाने की इच्छा से उनके दाँत किटकिटाने लगे। उन्होंने निश्चय किया-"मैं गोरखनाथ की ईंट से ईंट बजा दूँगा।" वह यह भी बुदबुदाए, "जब तक मैं गोरखनाथ को जेल नहीं भिजवा दूँगा, चैन की साँस हराम है। मैं आकाश-पाताल एक कर दूँगा।"

आकाश-पाताल एक करने के लिए यानी दौड़-धूप करने के लिए, यहाँ-वहाँ संपर्क करने के लिए जेब में पैसे होने चाहिए थे, जबकि विष्णु दत्त से मिले रुपए भी अब समाप्त हो चुके थे। फिर भी उन्होंने धनाभाव की परवाह नहीं की और प्रदेश की राजधानी जानेवाली ट्रेन पर बेटिकट सवार हो गए. जैसा कि कई बार हुआ था, बेटिकट होते हुए भी वह सही-सलामत सुरक्षित अपने वांछित रेलवे स्टेशन लखनऊ पहुँच गए. स्टेशन से बाहर आ जाने पर उन्हें महसूस हुआ कि बड़ी तेज भूख लगी है। हल्की प्यास भी लगी थी, लेकिन एक तो उनकी जेब में मुद्रा का अभाव था, दूसरे-उन पर धुन सवार थी। वह बिना कुछ खाए-कुछ पिए पैदल ही चल पड़े। चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित पार्टी ऑफिस में जब वह प्रदेश सचिव के कमरे में घुसे, तो हाँफ रहे थे।

सचिव उस वक्त खटिया पर लेटे चाय सुड़क रहे थे। चाय खत्म करके वह श्याम नारायण की तरफ मुखातिब होकर बोले, "क्या बात है, बहुत परेशान दिख रहे हो।"

श्याम नारायण के फेफड़ों को अब थोड़ा आराम मिल चुका था, फिर भी श्याम नारायण उत्तेजित थे। उन्होंने प्रदेश सचिव के अधिक निकट होते हुए कहा, "आंदोलन का बहुत बड़ा मुद्दा लेकर आया हूँ।" उन्होंने सरोज पांडेय के साथ घटित हुए अत्याचार की पूरी कथा कही और निवेदन किया, "सत्तारूढ़ पार्टी के अध्यक्ष गोरखनाथ के विरुद्ध हमें प्रदेश-व्यापी आंदोलन छेड़ना चाहिए. इससे हम सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ जनसंघर्ष खड़ा कर सकेंगे, जिसमें जनता पूरी तरह लामबंद होगी।"

सचिव दियासलाई की तीली से दाँत खोदने लगे, जिससे यह पता चलता था कि चाय पीने के पहले उन्होंने कुछ खाया भी था। दाँत से कुछ निकाल चुकने के बाद वह सोचते रहे, फिर रुक-रुककर कहने लगे, "इस मुद्दे पर आंदोलन नहीं खड़ा किया जा सकता। आखिर इसका जनता की बुनियादी समस्याओं से क्या वास्ता है। सरोज के साथ बलात्कार का हादसा कोई राजनीतिक संदर्भ भी नहीं रखता है। एक समझदार कार्यकर्ता होने के नाते आपको मालूम होना चाहिए कि आर्थिक या बहुत अहम राजनीतिक मसलों पर ही बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी जाती हैं, जबकि सरोज पांडेय के प्रसंग में दोनों ही बातें नहीं हैं।"

श्याम नारायण प्रत्युत्तर में कुछ कहते कि सचिव अपनी पार्टी का मुखपत्र उनके और अपने सामने करके पढ़ने लगे।

श्याम नारायण क्या करते? पार्टी ऑफिस के बाहर निकल आए. बाहर परिसर में नीम का एक पुराना पेड़ था, उसी के नीचे खड़े हो गए, सोचने लगे कि अब क्या किया जाए. उनकी चेतना में पुनः सरोज आकर सिसकने लगी। वह विह्वल हो गए. उनकी तीव्र इच्छा हो रही थी कि उनकी कलाई पर सरोज ने जहाँ दाँत गड़ाया था, उस स्थान को कुचल डालें। उनमें जोर की हिलोर उठी कि सरोज के चरणों पर गिरकर रोएँ। खैर, किसी तरह सँभाला, वैसे, उनको शर्म भी आ रही थी कि राजनीतिक व्यक्ति होने के बावजूद वह अभी तक आँसुओं को नहीं जीत सके थे। बीड़ी जलाकर वह विचारमग्न हो गए. विचार करते-करते इस उधेड़बुन में उलझ गए कि सरोज को कैसे आजाद कराएँ। पार्टी सचिव ने तो फलसफा बघार दिया।

अचानक उनके दिमाग में मीरा यादव का नाम कौंधा। वह उनके ही जिले की थीं और प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी से विधान परिषद् की सदस्य थीं। श्याम नारायण उनसे कभी न चुकानेवाला उधार तथा संगठन-कार्य हेतु चंदा पहले कई बार प्राप्त कर चुके थे। उन्हें उम्मीद की अच्छी-खासी किरणें दिखीं, क्योंकि वह गोरखनाथ की पार्टी को तगड़ी टक्कर देनेवाली विपक्षी पार्टी की नेता थीं, दूसरे औरत थीं। श्याम नारायण का विश्वास मजबूत हुआ कि मीरा यादव सरोज की मदद के लिए निश्चय ही आगे बढ़ेंगी और संघर्ष में उनका साथ देंगी।

अब जाकर उन्हें भयंकर भूख महसूस हुई और प्यास भी। वह दुखी हुए कि वह पार्टी के जुझारू कार्यकर्ता हैं, इतनी दूर से चलकर आए हैं और पार्टी के नेता ने एक गिलास पानी के लिए भी नहीं पूछा। फिर यह दलील देकर अपने को तसल्ली दी कि उनको क्या पता रहा होगा कि मुझे प्यास लगी है, कौन प्रचंड गर्मी का सीजन है।

उन्होंने समय बर्बाद नहीं किया, मीरा यादव के बँगले की तरफ चल पड़े, वह सड़क पर बीच-बीच में घड़ीवालों से टाइम पूछते जाते थे, चलते जाते थे। अंततः 45 मिनट की यात्रा के बाद मीरा यादव के सरकारी आवास में नमूदार हुए.

उस समय मीरा यादव अपनी पार्टी की मुखिया के यहाँ हाजिरी देने गई थीं। इन दिनों मुसीबत में थीं, दो महीने बाद उनकी विधान परिषद् की सदस्यता का कार्यकाल समाप्त होनेवाला था, जबकि राजनीति के गलियारों में चर्चा थी कि मुखिया इस बार उनको प्रत्याशी नहीं बनाएँगे। उनकी जगह पर एक मशहूर बिल्डर को टिकट देंगे। इस बात से मीरा यादव की नींद उड़ गई थी और वह रोज मुखिया के दरबार में हाजिरी देने जाती थीं। यहाँ तक कि मुखिया न रहते, तब भी। आज भी ऐसा था। मुखिया नहीं थे, तब भी मीरा यादव उनकी ड्योढ़ी पर मत्था टेकने गई थीं।

श्याम नारायण को लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा। मीरा यादव आ गईं। वह काफी थकी हुई दिख रही थीं। श्याम नारायण को देखकर जल-भुन गईं, अब यह भुक्खड़ सौ-पचास लिए बिना पिंड नहीं छोड़ेगा। उन्होंने बेरुखी से श्याम नारायण को देखा, मगर वह इस प्रकार के अनादर के अभ्यस्त थे। परवाह नहीं करते हुए बोले, "आपसे सहयोग की ज़रूरत है।"

"हो नहीं सकेगा। मैं भूल गई थी। आज शनिवार है, बारह बजे ही बैंक बंद हो गया था। मैं पैसा नहीं निकाल सकी।"

"मैं पैसे नहीं माँग रहा हूँ, वह तो कल ले लूँगा। दरअसल मैं आपके पास गोरखनाथ के खिलाफ आंदोलन छेड़ने में मदद के लिए आया हूँ।"

"क्या किया गोरखनाथ ने?"

"बलात्कार! मेरी रिश्तेदार सरोज के साथ गोरखनाथ और उसके तीन साथियों ने बलात्कार किया है। बल्कि दो महीनों से उसके साथ बलात्कार किया जा रहा है। वह अभी भी उनके कब्जे में है।"

मीरा यादव की बाँछें खिल गईं। उनके बुझे-बुझे चेहरे पर अब प्रसन्नता की तरंगें नाच-कूद रही थीं, "पर आपके पास जानकारी पक्की है न?"

श्याम नारायण आहत हुए. अत्यंत आर्त स्वर में उन्होंने कहा, "इतने दिनों से जानकारी ही तो इकट्ठी कर रहा हूँ। खाने-पीने-सोने की चिंता नहीं की, जगह-जगह की खाक छानता रहा। अब तो मुझे यह भी मालूम हो गया है कि कहाँ पर कैद की गई है सरोज।"

"कहाँ पर?" चौंक पड़ी मीरा यादव।

"वह जौनपुर के खैराबाद मुहल्ले के 1426 नंबर मकान में छैलबिहारी नाम के आदमी के साथ है। गोरखनाथ के दूसरे दो आदमी परमू और भोला बाहर गए हैं। ऐसी सूचना है कि वह सरोज की बिक्री का सौदा करने गए हैं। ऐसी भी आशंका प्रकट की जा रही है कि यदि वे सरोज को बेच न पाए, तो उसका कत्ल कर देंगे।"

"तो आप गए क्यों नहीं जौनपुर उसे छुड़ाने के लिए?"

"गया था, पर लौट आया। वहाँ गोरखनाथ के पंद्रह-बीस गुंडे असलहों के साथ पहरा दे रहे हैं।"

"पंद्रह-बीस।" मीरा यादव मुस्कराई, फिर श्याम नारायण से कहा, "अच्छा, आप कुछ खाइए-पीजिए और फिर चले जाइए सरोज के गाँव। वहाँ से उसके पिता वगैरह को लेकर आइए. तब तक हम चलते हैं जौनपुर और देखते हैं, जोर कितना गोरखनाथ के बाजुओं में है।"

खाद्य सामग्री आई, तो श्याम नारायण टूट पड़े। वह कुछ बोल भी रहे थे। वह खाते हुए बोल रहे थे कि बोलते हुए खा रहे थे, ठीक-ठीक अंदाजा नहीं लगाया जा सकता था। इस संदर्भ में निश्चयपूर्वक कहा जा सकता था, तो यही कि उनका बोलना और खाना दोनों ही बेहद मार्मिक था। वह पानी पीने लगे, तो लगा कि जैसे शंकर जी गरल पी रहे हैं।

वह कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछकर जाने के लिए खड़े हुए, तो मीरा यादव ने उनको एक हजार रुपए दिए, "रख लीजिए, काम आएँगे।"

प्रदेश की राजधानी से प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्र 'लोक-जागरण' में संवाददाता ललित जोशी के हवाले से विस्फोटक समाचार छपा कि सत्तारूढ़ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष गोरखनाथ ने जनपद हरदोई के थाना श्याम सराय की किशोरी सरोज पांडेय का अपहरण किया और करीब दो माह तक बंधक बनाकर उसके साथ अपने तीन साथियों सहित बलात्कार किया। इस संदर्भ में विश्वस्त सूत्रों से प्राप्त अदालत में दिए गए सरोज पांडेय के 164 के बयान का भी हवाला था, जिसमें उसने उपर्युक्त तथ्य न्यायाधीश के समक्ष स्वीकार किए थे। वैसे, संवाददाता सरोज पांडेय से मिल चुका था और उसने स्वयं सरोज से बातचीत की थी।

समाचार में तीन लोगों के वक्तव्यों को प्रमुखता दी गई थी-

1. सरोज पांडेय-सरोज पांडेय के अनुसार गोरखनाथ, दियरा चौकी के दरोगा एम.पी. सिंह, छैलबिहारी, परमू और भोला ने उसके साथ बलात्कार किया। सरोज ने बताया, "मैं गोरखनाथ के सामने रोई, गिड़गिड़ाई, चीखी, चिल्लाई, उनके पैरों पर गिर पड़ी कि मुझे छोड़ दिया जाए, मगर वह गुस्सा होकर यही कहते कि चुप हो जाओ, नहीं तो गोली मार दूँगा।"

2. दूसरा वक्तव्य गोरखनाथ का था, जिनका कथन था, "यह विरोधी पार्टियों का घिनौना षड्यंत्र है। जनता के बीच तथा मेरी पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर उन्होंने यह जाल बुना है। इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। सरोज पांडेय अन्य कुछ नहीं, बस राष्ट्रप्रेमी शक्तियों से घबरा जानेवाली ताकतों के हाथों खेलनेवाली कठपुतली है।"

तीसरे वक्तव्य पर आने से पूर्व प्रदेश के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मुख्यमंत्री के विचारों से अवगत होना दिलचस्प होगा। मुख्यमंत्री ने विचार व्यक्त किया, "मुझे इस खबर पर सहसा विश्वास नहीं हो रहा है। आदर्श व्यक्तित्व के धनी गोरखनाथ के बारे में ऐसा कल्पना में भी नहीं सोचा जा सकता। वैसे, मुख्यमंत्री होने के नाते सारे मामले की जाँच-पड़ताल के बाद ही कोई मत दे सकूँगा।"

मुख्यमंत्री के उक्त कथन का भाष्य यह किया जा रहा था कि वह गोरखनाथ पर पड़ी वर्तमान विपत्ति से खुश हैं, क्योंकि उद्दंड-आक्रामक शैली के चलते गोरखनाथ की लोकप्रियता बढ़ी थी और जैसा कि चर्चा में था, केंद्रीय नेतृत्व में मुख्यमंत्री-विरोधी लॉबी गोरखनाथ को उनकी जगह मुख्यमंत्री बनाने की गुपचुप मुहिम चलाए हुए थी। अतः मुख्यमंत्री के लिए यह वरदान ही था कि उनके प्रतिद्वंद्वी गोरखनाथ का राजनीतिक भविष्य सरोज पांडेय के साथ बलात्कार के आरोप में फँसकर बर्बाद हो रहा था।

वक्तव्य देनेवाली अगली शख्सियत मीरा यादव केंद्र बिंदु बनी थीं। क्योंकि वही सरोज को आजाद कराकर ले आई थीं और सरोज इस समय राजधानी स्थित उनके ही आवास में ठहरी थी। मीरा यादव का कहना था, "गोरखनाथ बलात्कारी हैं, उनको इस जघन्य कृत्य के लिए कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए. उनकी इस करतूत पर उनकी पार्टी की खामोशी बताती है कि इस कांड में उसकी भी मिलीभगत है।" अखबार में 'मीरा यादव की भीष्म प्रतिज्ञा' सुर्खी के अंतर्गत यह भी छपा था कि मीरा यादव ने प्रतिज्ञा की है कि सरोज पांडेय के न्याय की लड़ाई को अंतिम दम तक लड़ेंगी और अपराधियों को उनके गुनाह की सजा दिलाकर ही मानेंगी।

उसी सुबह शहर के प्रमुख मार्गों, विशेष रूप से विधानसभा तथा उसके आस-पास के क्षेत्रों में दीवारों पर नारे और पोस्टर चिपके हुए देखे गए. उनकी इबारत थी, 'गोरखनाथ बलात्कारी है,' 'गोरखनाथ को फाँसी दो! फाँसी दो!' 'नारी का यह अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान,' 'सरोज तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं।'

अखबार 'लोक जागरण' की प्रतियाँ दो घंटे के भीतर ही गायब हो गई थीं। शहर में ढेर सारे लोग 'लोक जागरण' को खोज रहे थे। उसका संवाददाता ललित जोशी अन्य अखबारों के संवाददाताओं को फोन करके कहता, "बॉस, कैसी लगी बलात्कारवाली रिपोर्ट? मैं गोरखनाथ को जेल भिजवाकर मानूँगा। उसकी राजनीति के ताबूत में आखिरी कील सिद्ध होगी मेरी रिपोर्ट।" दरअसल वह अपना रोब गालिब करने के साथ-साथ अन्य संवाददाताओं को चिढ़ा रहा था कि वे और उनके अखबार नाकारा हैं, जो इस खबर को नहीं छाप सके. इससे निश्चय ही वे स्वयं को बेइज्जत अनुभव कर रहे थे। कुछ इसलिए भी कि उनके अपने संपादक ने आज सुबह की मीटिंग में 'लोक-जागरण' की प्रति पटककर तमतमाते हुए फटकारा था, "आप लोग क्या कर रहे थे कल।" एक संपादक तो इतना क्रुद्ध हो गया कि कहने लगा, "प्रेस क्लब में दारू पीने और मुर्गे की टाँग ठूँसने से फुर्सत ही नहीं मिलेगी, खबर क्या लिखेंगे।"

जिन्हें इस प्रकरण पर फॉलोअप की जिम्मेदारी सौंपी गई, वे झुँझलाए हुए संपादक के केबिन से निकले और विधान परिषद् की सदस्य मीरा यादव को फोन मिला दिया, "क्या विधायिका जी, यही करेंगी आप। आखिर हमको आपने यह खबर क्यों नहीं दी।"

"बुरा मत मानिए... बुरा मत मानिए. दरअसल हुआ यह कि कल जब सरोज पांडेय हमारे घर पहुँची, तो किसी दूसरे काम से आए ललित जोशी पहले से मौजूद थे, मगर आप फिक्र मत करें, आपको भी मिलेगा मैटर। आज शाम को मेरे घर पर सरोज की प्रेस कॉन्फ्रेंस है, आपको ज़रूर पहुँचना है। बहुत धमाकेदार मसाला मिलेगा।"

"पर मुझको अलग से कुछ स्पेशल भी दीजिए."

"मिलेगा... सब मिलेगा, पर पहले प्रेस कॉन्फ्रेंस में आइए न!"

शाम को मीरा यादव के घर का ड्राइंग-रूम प्रेस कॉन्फ्रेस के लिए तैयार था। एक तरफ दो कुर्सियाँ मीरा यादव और सरोज के लिए थीं। सामने पत्रकारों के लिए बैठने का इंतजाम था।

कुछ पत्रकार आ चुके थे। वे बाहर खड़े होकर मीरा यादव के साथ अनौपचारिक वार्ता कर रहे थे। इस तरह थोड़ी देर बीता होगा कि उनमें से कई ने घड़ी देखते हुए कहा, "अब शुरू कीजिए."

"अभी आपके दो-चार साथी नहीं आए हैं। उनका थोड़ा इंतजार कर लिया जाए न!"

"अच्छा, तब तक मोहतरमा को बुलाइए, उनका दीदार तो करें।"

मीरा यादव बाई आँख दबाकर वीभत्स तरीके से हँसने लगीं, "जरा सब्र करें, सब्र करें..." वह भीतर चली गईं।

जब कुछ और पत्रकार भी आ गए, तब मीरा यादव बाहर निकलीं। इस बार वह अकेली नहीं थीं, साथ में सरोज भी थी।

सरोज हल्के हरे रंग का सलवार-कुर्ता पहनी हुई थी। दुपट्टा सफेद था। उसके लंबे घने काले बाल तेल पुते थे। उसका शरीर सूजा हुआ था। सीप की तरह सुंदर-विशाल उसकी आँखें लाल थीं और छुपती फिर रही थीं। गौर वर्ण के उसके चेहरे पर जगह-जगह आँसुओं के धब्बे थे।

मीरा यादव ने उसे एक कुर्सी पर बैठाया और बगल में स्वयं बैठ गईं। वह सामने बैठे पत्रकारों को सम्बोधित करने लगीं। वह बतलाने लगीं कि किस प्रकार हरदोई जनपद के गाँव परसपट्टी से सरोज अपहृत की गई. कहाँ-कहाँ ले जाई गई. वहाँ उसके साथ क्या-क्या सलूक हुआ।

बोलते-बोलते मीरा यादव ने कई बार आँसू पोंछे। दो-चार बार नाक सुड़की। सरोज का सिर सहलाकर 'बेचारी,' 'अभागिन' कहा। भाषण समाप्त करने के बाद नौकर को नाश्ता-पानी ले आने का इशारा किया।

नाश्ते की व्यवस्था एक तरह से इंटरवल थी, जिसके बाद पत्रकार-वार्ता को क्लाइमेक्स की तरफ आगे बढ़ना था।

पत्रकार नाश्ता समाप्त करने के बाद मुँह पोंछकर तैयार हुए. मीरा यादव ने सरोज की पीठ पर हाथ रखकर उसका हौसला बढ़ाया।

एक पत्रकार ने पूछा, "सबसे पहली बार गोरखनाथ ने आपके साथ बलात्कार कब और कहाँ किया?"

सरोज का चेहरा जैसे रास्ता भटक गया। कुर्सी के हत्थों पर पड़े उसके हाथ इस तरह काँपने लगे, जैसे थाप दे रहे हों। उसके होंठ बोलने के लिए खुलते, लेकिन आवाज निकलने के पहले ही ऐंठ जाते।

पत्रकार ने अपना प्रश्न दुबारा दागा। मीरा यादव सरोज को ढ़ाँढ़स देने लगीं, "घबराओ मत सरोज। हिम्मत करके सारी बातें बता दो। डॉक्टर और पत्रकार से बात छुपाने पर अपना ही नुकसान होता है... हाँ... सरोज..."

"28 जनवरी को गोरखनाथ ने पहली बार मेरे साथ गंदा काम किया था, अयोध्या के एक मंदिर की ऊपरवाली मंजिल के कमरे में। यह किसी बहुत बड़े महंत का डेरा है। महंत की दाढ़ी उनके पेट पर लटकी रहती है।"

"आपने गोरखनाथ जी को कैसे पहचाना? कैसे जाना कि वह गोरखनाथ ही हैं।"

"हम उनको पहचानते थे अच्छी तरह से। इलेक्शन में उनकी फोटोवाले पोस्टर हमारे गाँव में लगे थे। एक पोस्टर तो हमारे घर की दीवार पर भी चिपका था। बाबू ने, अम्मा ने... भाभी ने उनकी पार्टी को ही वोट दिया था... भइया भी उनको वोट देने गए थे। पर उनका वोट पहले ही पड़ गया था... हम तभी से गोरखनाथ को पहचानते थे।"

"आपने कुछ और लोगों पर भी बलात्कार का आरोप लगाया है और कहा है कि वे गोरखनाथ के खास आदमी हैं। इसका क्या कोई सबूत है आपके पास?"

"हाँ, परमू और भोला ने भी मेरे साथ बदमाशी की... ये दोनों पहले मेरे मुँह में कपड़ा ठूँस देते थे। ये गोरखनाथ के खास आदमी हैं-यह इससे पता लगा कि यही हमको ले आए गोरखनाथ के यहाँ। इसके अलावा ये इलेक्शन में गोरखनाथ की पार्टी की पर्ची काट रहे थे।"

"और दरोगा एम.पी. सिंह के बारे में क्या कहना है आपका?"

"वो तो मुझको मारे भी थे... बाल पकड़कर थाने में घसीटा था, फिर बंदूक के कुंदे से ठेलते हुए भीतर ले गए और गंदा काम किया। अगर वह गोरखनाथ के आदमी न होते, तो मुझको बचाते, लेकिन उन्होंने तो फिर हमें उन्हीं जालिमों के हवाले कर दिया था... उन्हीं भोला, परमू, छलिया के हवाले।"

"हाँ, छैलबिहारी। उसके बारे में कुछ नहीं बताया आपने?"

सरोज चुप रही। उसे लगा, उसके भीतर बहुत सारी साँस भर गई है। वह साँस को बाहर नहीं निकाल पा रही है। मत्थे पर पसीना उभरने लगा था।

पत्रकार दहाड़ा, "मेरा सवाल है कि छैलबिहारी के बारे में आपके क्या अनुभव हैं?"

सरोज की पलकें फड़फड़ाईं। वह चिल्ला पड़ी, "हाँ, छैलबिहारी ने भी मेरे साथ बलात्कार किया है..." वह फूट-फूटकर रोने लगी। रोते हुए ही भीतर चली गई.

मीरा यादव ने हाथ जोड़े, "आज के लिए बस, इतना ही।"

एक पत्रकार ने नाराजगी प्रकट की, "पर हमको डिटेल्स नहीं मिले अभी।"

"सब मिलेगा। प्रेस कॉन्फ्रेंस का सिलसिला तो अभी आगे भी चलना है।" मीरा यादव पत्रकारों के बीच में आ गईं और धीरे-धीरे चलने लगीं, कमरे से बाहर निकलने पर एक पत्रकार ने कहा, "पर आप पत्रकारों की सेवा करना नहीं जानती हैं। ये शाम-रात का वक्त और आपने बस, समोसा-कॉफी से टरका दिया।"

"तो जो चाहिए, बताइए." मीरा यादव हौसले से बोलीं।

"जो चाहेंगे, आप देंगी?" यह एक समाचार एजेन्सी का वरिष्ठ संवाददाता था।

"हाँ, बिल्कुल दूँगी।" वह मुस्कराई, "पर सरोज पांडेय को नहीं दूँगी।"

सभी हँस पड़े। एक पाक्षिक का ब्यूरो चीफ हँसते हुए बोला, "बहुत खलीफा हैं आप विधायिका जी."

मीरा यादव के यहाँ उनकी पार्टी के मुखिया के निजी सचिव गोवर्धन लाल का फोन आया, "नेताजी ने तुरंत बुलाया है।"

वह खुश हो गईं, "इसी समय का तो मैं इंतजार कर रही थी।" उन्होंने चटपट खादी सिल्क की साड़ी पहन ली और बाहर निकलने से पहले सरोज से मिलने दूसरे कमरे में चली गईं।

वहाँ बिस्तर पर लेटी सरोज दुपट्टे से मुँह ढँके रो रही थी। मीरा यादव ने आवाज दी, "सरोज!"

सरोज रोती हुई उठी, "मुझको मेरे घर क्यों नहीं भेज रही हैं आप?"

"मान लो, तुम घर जाओ और तुम्हें वहाँ घुसने न दिया जाए. घरवाले तुम्हें धक्के देकर खदेड़ दें, तब! आखिर इज्जत लुटा चुकी लड़की का बोझ उठाना आसान है क्या! इसीलिए मैंने तुम्हारे पिताजी को यहीं बुलाया है कि देखूँ, उनका रुख क्या है। मैंने तुमको अपनी छोटी बहन बनाया है, ऐसे कैसे नरक भोगने के लिए वहाँ भेज दूँ।"

"पर दीदी, आप खुद चलकर मुझे छोड़ आइए गाँव। वहाँ अगर मेरे अम्मा-बाबू, भइया-भाभी ने मुझे स्वीकार नहीं किया, तो मैं आपके साथ लौट आऊँगी।"

"जिंदा बचोगी, तब लौटोगी न। समझती क्या हो, गोरखनाथ और उसके आदमी हाथ में मेंहदी लगाकर बैठे हैं! देखो, तुम बाहर निकली नहीं कि हमला हुआ। तुम्हारे 164 के बयान के बाद गोरखनाथ पगला गया है। उसके गुंडे तुमको ट्रक से कुचलकर मार सकते हैं। बम से उड़ा सकते हैं। चाकू घोंपकर तुम्हारा कत्ल कर सकते हैं। देखो सरोज, यदि ज़िन्दगी की सलामती प्यारी है, तो फिलहाल यहाँ से बाहर निकलने का नाम मत लो।"

सरोज के आँसू अभी सूखे नहीं थे कि वह फिर रोने लगी।

मीरा यादव ने उसका सिर सहलाया और बाहर आ गईं। ड्राइवर से बोलीं, "नेताजी के यहाँ।" ड्राइवर ने गाड़ी स्टार्ट कर दी। गाड़ी के स्पीड पकड़ते ही वह मुस्कराईं, "लगता है, सरोज का तीर निशाने पर लगा है। नेताजी मुझे विधान-परिषद का उम्मीदवार दुबारा बनाने का मन बना चुके हैं शायद। तभी तो खुद फोन कराकर बुलाया है। नहीं तो कहाँ मुलाकात का टाइम पाने के लिए गिड़गिड़ाती रहती थी, लेकिन महोदय के कान पर जूँ नहीं रेंगती थी।" वह हल्का-सा हँस पड़ीं, "अब देखती हूँ उस उद्योगपति और बिल्डर मादर... को।" ड्राइवर ने पीछे मुड़कर देखा, "जी, आपने कुछ कहा।"

"अबे, मुझे क्या देख रहा है, सामने देख।" वह बिगड़ उठीं, लेकिन जल्द ही मंद-मंद मुस्कराने लगीं, "यह सरोज भी ससुरी क्या चीज मिली है।" वह उस दिन को धन्यवाद देने लगीं, जब वह सरोज को जौनपुर से लेकर आई थीं। खैराबाद मुहल्ले के मकान नंबर 1426 को उनके आदमियों ने घेर लिया था। वहाँ पहरा दे रहे गोरखनाथ के पक्ष के गुंडों को बुरी तरह मारा गया और भीतर घुस लिया गया था।

छैलबिहारी कहीं गया हुआ था। भीतर सरोज सिल पर मसाला पीस रही थी। मीरा यादव उसके पास पहुँची, "घबराओ मत। मैं तुम्हें इस नरक से आजाद कराने आई हूँ। मुझको अपनी बड़ी बहन समझो।"

सरोज हड़बड़ाकर खड़ी हो गई थी। वह सुहागिन के बाने में थी, माँग में सिंदूर भरा हुआ था। कलाइयों में गझिन चूड़ियाँ थीं। पैर में मोटी पायलें थीं। मकान में बहुत-से राइफल, रिवॉल्वरवाले लोगों को घुस आया देखकर कि या कोई और बात थी, सरोज को चक्कर आ गया, वह बेहोश होकर गिर पड़ी, लेकिन यह वक्त बर्बाद करने का नहीं था। उसे उठाकर गाड़ी में लाद दिया गया था। फिर तो मीरा यादव का काफिला राजधानी स्थित उनके आवास पर ही आकर रुका था।

बाद में होश आने पर सरोज ने बताया था कि लोगों को शक न हो, इसलिए उसे सुहागिन बनाकर छैलबिहारी की बीवी के रूप में रखा गया था। यहीं पर थोड़ी दूर के एक धर्मशाले में परमू और भोला भी छिपे थे, जो अँधेरा होने पर आ जाते थे। वे दोनों तथा छैलबिहारी उसे निचोड़ते रहते रात भर। अब तो वह विरोध भी नहीं करती थी। सरोज ने यह भी बताया था कि महंत जी के मंदिर में वह करीब एक हफ्ता रखी गई थी। उतने दिन उसे गोरखनाथ को सहना पड़ा था। बीच में एक दिन वह मुँह अँधेरे भाग निकली थी। दौड़ते-भागते-छिपते वह किसी तरह थाना पहुँची। उस समय दरोगा एम.पी. सिंह नहा-धोकर अलगनी पर अपनी लँगोट टाँग रहे थे। वह उनके पास जाकर अपनी आप-बीती सुनाने लगी। अभी भी अँधेरा पूरी तरह छँटा नहीं था और वह दरोगा का चेहरा ठीक से देख नहीं पा रही थी। दरोगा उसे भीतर ले जाकर बैठने के लिए बोले और खुद फोन मिलाने लगे। वह गोरखनाथ से बात कर रहे थे। उसी बातचीत में सरोज ने दरोगा का नाम जाना था। रिसीवर रखने के बाद एम.पी. सिंह ने लाइट जलाई और सरोज को देखकर मुस्कराए. उनकी आँखों के भाव को देखकर सरोज डर गई. वह आगे बढ़े तो डरकर बाहर भागी। लेकिन वह स्त्री थी और थकी हुई थी। बाहर थोड़ी ही दूर पर दरोगा ने पीछे से उसके बालों को पकड़ा। वह गिर पड़ी। दरोगा उसके बालों को पकड़े हुए ही पूरे मैदान में घसीटने लगे। वह दर्द से और डर से बिलबिला रही थी। घसीटी जाती हुई वह जब पहरा दे रहे सिपाही के पास पहुँची, तो झपटकर उसके पैरों को पकड़ लिया। दरोगा ने उसके बाल छोड़कर पहरेवाले सिपाही की बंदूक ले ली और उसकी मूठ से उसकी पीठ पर, वक्षों पर, नितंब पर मारने लगे। वह तड़प कर छिटक गई, तो उसने मूठ का तेज प्रहार उसकी योनि पर किया। वह बंदूक की मूठ से मारते हुए उसे भीतर ले गए थे।

ड्राइवर ने गाड़ी रोक दी। सामने पार्टी के मुखिया का बँगला था। मीरा यादव गाड़ी से उतरीं और रौब से चलने लगीं। वह निजी सचिव गोवर्धन लाल के कमरे में पहुँचीं, तो देखा कि कई अखबारों के संवाददाता वहाँ मौजूद थे। सभी ने हँस-हँसकर उन्हें अग्रिम में मुबारकबाद दी और ताना कसा, "टिकट पाने के बाद भी क्या आप सरोज के मामले में अपनी लड़ाई जारी रखेंगी?"

"सरोज की लड़ाई को कृपया राजनीति से मत जोड़िए. मैं हजार बार कह चुकी हूँ कि उस मुद्दे का मेरे टिकट से कोई लेना-देना नहीं है। सरोज की लड़ाई को मैं एक धर्मयुद्ध की तरह लड़ रही हूँ।"

अब तक निजी सचिव ने नेताजी से इंटरकॉम पर बात कर ली थी। उधर से मीरा यादव को भेजने का हुक्म हुआ था।

कमरे में नेताजी अकेले बैठ थे। वह अभिवादन करके मुस्कराईं, पर तुरंत सहम गईं, नेताजी का मूड ठीक नहीं लग रहा था, क्योंकि उनका चेहरा फूला हुआ और लटका, दोनों लग रहा था। मीरा यादव ने सोचा, 'अब क्या करूँ? यहाँ रुकने पर मामला गड़बड़ हो सकता है और लौटा जा नहीं सकता।' उन्होंने अपने वक्ष से आँचल सरका दिया और हल्का-सा होंठ काटकर हँसते हुए नेताजी की तरफ बढ़ीं।

नेताजी जहाँ बैठे थे, वहीं खड़े हो गए. नाटकीय तरीके से दोनों हाथों से इशारा करके मीरा यादव को इस प्रकार बुलाने लगे, "आ...आ...रंडी... आ...जा...रंडी." उन्होंने चुमकार कर पुनः पुकारा, "ऐ रंडी... आ...आ..."

मीरा यादव को लग गया कि उनके साथ कुछ बहुत ही बुरा होनेवाला है, लेकिन वह समझ नहीं पा रही थीं कि ऐसा क्यों हो रहा है।

वह नेताजी के पास आ गईं, तो बोलीं, "मुझसे क्या गलती हुई? मैं तो तन-मन-धन से आपकी सेवा में हाजिर रहती हूँ।"

"हरामजादी, तू ये सरोज नाम की कौन-सी छिनाल लिए घूम रही है?"

"नेताजी, वह छिनाल नहीं है। जुल्म की मारी हुई एक असहाय लड़की है। दूसरे, वह हमारे काम की है। उसके प्रकरण को उछालकर हम गोरखनाथ की पार्टी के वोट बैंक में कमी ला सकेंगे।"

नेताजी ने अजीब तरह से मुँह बिचकाते हुए विभिन्न प्रकार की आवाजें निकालकर मीरा यादव को चिढ़ाया और बिफर पड़े, "तुम, एक तो चूतिया हो, दूसरे मेहरारू। मुझे वोट का गणित सिखाने चली हो। अरे, पता है, प्रदेश में गोरखनाथ की जाति के कितने वोट हैं। खुद मेरे चुनावी क्षेत्र में उसकी जाति के पैंतालीस हजार वोटर हैं। तुम्हारी इस करतूत से हम ये सारे के सारे वोट गँवा देंगे।"

वह कमरे में चहलकदमी करने लगे। मीरा यादव ने कुछ कहना चाहा, तो उसे मना करते हुए वह रुक गए, "सफाई मत दे सूअरी। तुझे मालूम नहीं था क्या कि गोरखनाथ अपनी पार्टी में मुख्यमंत्री का विरोधी है और चुनावों में मुख्यमंत्री के उम्मीदवारों को हराने की कोशिश करता है।"

मीरा यादव गिड़गिड़ा पड़ी, "नेताजी, मुझको ये सब बारीकी नहीं पता थी। मुझको माफ कर दीजिए और आदेश करिए कि मैं क्या करूँ?"

"यही कि तू जल्दी भाग यहाँ से।" नेताजी मटककर बोले, "पूछ रही है कि मैं क्या करूँ।" वह फिर मीरा यादव की तरफ मुखातिब हुए, "भाग... चल निकल यहाँ से।"

मीरा यादव डरीं कि नेताजी कहीं मार न बैठें। दरअसल उनकी जो शोहरत थी, उसको देखते हुए यह असंभव कार्य नहीं था। मीरा यादव डरी-दबी-सशंकित दरवाजा खोलकर बाहर निकलीं।

कार में बैठते ही वह रो पड़ीं। ड्राइवर कौतूहल से शीशे में उनका प्रतिबिंब देखने लगा था।

मीरा यादव के बह रहे थे आँसू, लेकिन वह रूमाल से पोंछ रही थीं नाक। वह कार की खिड़की से बाहर देखती हुई खामोश रोती जा रही थीं। उनका राजनीतिक भविष्य रसातल में चला गया था। जिस चीज को पाने के लिए उन्होंने इज्जत-अस्मत तक की परवाह नहीं की, जिन लोगों की शक्ल देखकर घिन आती थी, उनसे भी लिपट-सिपट गईं और मीठा-मीठा बोलीं। राजनीति में गहरा रसूख रखनेवाले एक नेता के कहने पर मुर्गा भी खा ली थीं और भ्रष्ट हो गई थीं, वह चीज आज नेताजी के कमरे में उनके पास से निकलकर दूर चली गई. वह सिसकीं, "सरोज मादर... ये सब तुम्हारे कारण हुआ।" इस बार ड्राइवर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा, बल्कि बौखलाहट में गाड़ी की रफ्तार तेज कर दी।

यह कोरा संयोग ही था कि इधर अपने मुखिया के दरबार में मीरा यादव अपमानित और आहत हुई थीं, तो दूसरी तरफ लगभग उसी वक्त जब मुखिया मीरा यादव को 'रंडी आ...आ...' कह-कहकर बुला रहे थे, मुख्यमंत्री प्रदेश शासन के प्रमुख गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक को डाँट पिला रहे थे।

हुआ यह था कि मुख्यमंत्री के पास केंद्रीय नेतृत्व के दो बड़े नेताओं ने नाराजगी जाहिर की थी कि वह अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के चलते गोरखनाथ को फँसाकर ठीक नहीं कर रहे हैं। इससे पार्टी की उज्ज्वल छवि को धक्का पहुँच रहा है। अगर हालात दो दिनों के भीतर न संभले, तो केंद्रीय नेतृत्व चुप नहीं बैठेगा। मुख्यमंत्री इस धमकी से दुबले हो रहे थे कि उन्हें यह भनक भी लगी कि उनकी पार्टी के गोरखनाथ समर्थक 38 विधायक गोरखनाथ को नैतिक समर्थन देने के इरादे से सामूहिक इस्तीफा देने का मन बना रहे हैं। वह इतना विचलित हुए कि स्वयं फोन पर प्रमुख गृह सचिव और पुलिस महानिदेशक को, चाहे जिस स्थिति में हों, फौरन हाजिर होने का हुक्म दिया।

और अब, जब दोनों सामने आए, तो वह भन्ना पड़े, "आप लोग एकदम निकम्मे हैं क्या?"

"सर...सर..." दोनों अफसरों ने समवेत कहा।

"हमारी पार्टी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण नेता गोरखनाथ जी पर शरारती तत्व इस तरह प्रहार कर रहे हैं और आप लोग हाथ पर हाथ धरे चुप बैठे हैं। शर्म आनी चाहिए. उनकी मनोदशा का अनुमान लगाइए आप लोग। सोचिए, उस बेकसूर इनसान पर क्या गुजर रही होगी इन दिनों।"

"सर...सर... आप निश्चिन्त रहिए... सब ठीक हो जाएगा... आज ही ठीक हो जाएगा सब।"

"मैं आप लोगों से चापलूसी नहीं, नतीजे चाहता हूँ... जाइए, जुट जाइए जल्दी से। समय मत बर्बाद करिए, अपना और मेरा भी... जाइए..."

यह भी संयोग की बात है कि उसी तिथि में एक अन्य महत्त्वपूर्ण वाकया हुआ। वह यह कि प्रदेश मंत्रिमंडल में गोरखनाथ के कट्टर समर्थक माने जानेवाले सूचना मंत्री ने अपने आवास पर दैनिक समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं, समाचार एजेन्सियों के संपादकों-संवाददाताओं को रात्रिभोज पर बुलाया। ऐसा कहा जा रहा था कि सूचना मंत्री के गोरखनाथ समर्थक होने के बावजूद रात्रिभोज मुख्यमंत्री के निर्देश पर दिया जा रहा था। दावत में सूचना मंत्री ने समस्त अतिथियों को शराब में डुबो दिया था। वह उन्हें अधिक से अधिक शराब पीने के लिए प्रेरित कर रहा था। इसका अनुरोध था कि आज यहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति इतना अधिक पिए कि इस पीने को उसके जीवन में सबसे ज़्यादा पीने के कीर्तिमान के रूप में याद किया जाए. 'खूब पियो, बेफिक्री से पियो' के आह्वान के साथ वह और उसके अभिन्न जन बीच-बीच में 'गोरखनाथ को निरपराध फँसाए जा रहे' विषय पर संक्षिप्त, किंतु सारगर्भित भाषण भी कर रहे थे।

रात्रिभोज को लेकर सुबह से ही चर्चा का बाज़ार गर्म था। एक तो यही हवा थी कि सूचना मंत्री की दावत में अफगानिस्तान से आए एक कुक के नेतृत्व में मांसाहारी व्यंजन तैयार किया जाएगा। सब कुछ इतना बेहतरीन और लजीज होगा कि सरोज कांड में गोरखनाथ का पलड़ा भारी हो जाएगा। मीरा यादव और सरोज को कोई ठिकाना नहीं मिलेगा। दूसरी बात, जिसको लेकर विशेष सनसनी थी कि सुना जा रहा था कि रात्रिभोज में सम्मिलित होनेवाले प्रत्येक पत्रकार को रंगीन टी.वी सेट दिए जाएँगे, जो राज्य सरकार के उपक्रम 'वीडियो विश्व' के उत्पाद होंगे। हालाँकि कुछ पत्रकारों ने मंत्री जी को यह इशारा भिजवाया था कि टीवी सेट दिए जाने की बात सच है, तो वह यह कहना चाहते हैं कि उनके घर में रंगीन टी.वी है। अतः उन्हें यदि राज्य सरकार के ही उपक्रम 'स्कूटर लैंड' का स्कूटर दे दिया जाए, तो कुछ ग़लत तो नहीं होगा। कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने नाराजगी भी प्रकट कर दी थी। उनका कहना था कि पब्लिक सेक्टर के उत्पाद उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते हैं। उनके बच्चे तो ऐसे सामान देखते ही तोड़ डालेंगे।

संवाददाताओं को पता चला कि तीन दैनिक-पत्रों तथा एक समाचार एजेंसी के संपादकों को मारुति-1000 भेंट की जाएगी। अतः संवाददाता अपनी उपेक्षा से अप्रसन्न थे। वैसे, संपादक भी खास खुश नहीं थे। उनका मानना था कि मारुति-1000 मॉडल पुराना पड़ चुका है। राजधानी की सड़कों पर जब सेलो और स्टीम गाड़ियाँ धड़ल्ले से दौड़ रही हैं, तब मारुति-1000 से कैसी खुशी।

लेकिन रात्रिभोज में सूचना मंत्री ने न जाने कौन-सा खाद्य खिलाया था, या कौन-सा पेय पिलाया था, या कौन-सा मंत्र पढ़ा था कि सभी लोग लौटते समय संतुष्ट, बेखुदी और हर्षातिरेक में डूबे हुए थे। सभी की बाँछें खिली थीं और सभी सूचना मंत्री को धन्यवाद देते हुए जो़र-जोर से हाथ मिला रहे थे। हाथ मिलाते हुए जोर-जोर से हाथ हिला रहे थे...

तो इस प्रकार पार्टी के मुखिया द्वारा मीरा यादव को फटकार, मुख्यमंत्री द्वारा गोरखनाथ से वैर-भाव समाप्त करना और उनके समर्थन में खुलकर आना तथा मीडिया को अनुकूल करने के लिए सूचना मंत्री द्वारा आयोजित दावत-ये तीनों अचंभे में डाल देनेवाली ऐसी चीजें थीं, जिसकी कल्पना भी इस मामले में दिलचस्पी ले रहे लोगों ने नहीं की थी और यह तो सपने में भी नहीं सोचा जा सकता था कि इतनी अकल्पनीय तीन-तीन घटनाएँ एक ही दिनांक में घटित हो जाएँगी।

हालाँकि श्याम नारायण मीरा यादव पर कुपित थे कि अखबारबाजी कराकर सरोज प्रकरण का सारा श्रेय वह ले रही है। इसीलिए उन्होंने मन-ही-मन मीरा यादव को 'बदजात कुतिया' और 'राजनीति की पतुरिया' भी कहा था, किंतु उनके पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था कि वह सरोज के पिता विष्णु दत्त को लेकर मीरा यादव के यहाँ जाएँ, क्योंकि जहाँ तक उनकी पार्टी का सवाल है, तो वह सरोज के साथ हुए जुल्म को आम जनता को जुझारू संघर्ष के लिए लामबंद करनेवाला मुद्दा नहीं मानती थी। दूसरी, सबसे बड़ी बात कि सरोज मीरा यादव के ही पास थी। ऐसे में श्याम नारायण क्या करते, विष्णु दत्त को लेकर पहुँचे उसी मीरा यादव के घर, जिसके प्रति वह भयानक घृणा से ओत-प्रोत थे और जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इस महिला बुर्जुआ नेता को वह बदजात कुतिया और राजनीति की पतुरिया से ज़्यादा कुछ नहीं समझते थे।

मीरा यादव के घर श्याम नारायण और विष्णु दत्त पहुँचे, तो पता चला कि मीरा यादव हैं नहीं। पार्टी के मुखिया से उनकी मीटिंग है और मीटिंग कितनी देर चलेगी, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। घर के चारों तरफ मीरा यादव के आदमियों का पहरा था। इतनी रात आए इन दो आगंतुकों को पहरेदारों ने घूरा।

श्याम नारायण बोले, "सरोज मेरे जीजा जी की बहन है और ये सरोज के पिता हैं। हमलोगों को सरोज के पास ले चलिए."

पर पहरेदारों को यह स्वीकार्य नहीं था। उनका कथन था कि "विधायिका जी की आज्ञा के बिना सरोज के कमरे तक परिंदा भी पर नहीं मार सकता।"

"भइया, हम परिंदा नहीं, सरोज के पिताजी हैं। हमको अपनी बेटी से मिलने दिया जाए."

"पिता हो या कोई, जब तक हमें विधायिका जी की इजाजत नहीं मिलेगी, हम किसी को अंदर नहीं जाने देंगे।" एक पहरेदार ने सारे पहरेदारों की तरफ से कहा। दूसरे ने थोड़ी उदारता दिखाई, "तब तक आप ड्राइंगरूम में बैठें। बस, विधायिका जी आती होंगी।"

वे दोनों ड्राइंगरूम में आए और बैठ गए. श्याम नारायण विष्णु दत्त के कान में फुसफुसाए, "हम लोग खूब जोर-जोर से बोलें, जिससे आवाज पहचानकर सरोज खुद ही बाहर आ जाए."

वे जोर-जोर से बोलने लगे। खासतौर पर विष्णु दत्त तो लगभग चिल्लाकर अपने को व्यक्त कर रहे थे। रात के ग्यारह बजे थे। दोनों की आवाजें बाहर जाकर रात के अँधेरे में मँडरा रही थीं।

फिर भी जब सरोज नहीं आई, तो वे निराश हुए. श्याम नारायण में निराशा फैल ही रही थी कि उन्हें मेज पर रखी एक पत्रिका के आवरण पर इन्सेट में सरोज की फोटो दिख गई. द्रुत गति से उनके हाथ ने पत्रिका उठा ली। सरोज प्रकरण पर विस्तृत रिपोर्ट थी, लेकिन रिपार्ट में नया कुछ ज़्यादा नहीं था। अखबारों में छप चुकी चीजों का संकलन थी यह रिपोर्ट। हाँ, गोरखनाथ का एक इंटरव्यू और मामले के कानूनी पहलुओं पर एक बॉक्स ज़रूर विचारोत्तेजक और सनसनीखेज थे। बॉक्स लेखक ने अपनी टिप्पणी में गोरखनाथ के इंटरव्यू में कही गई कुछ बातों को भी शामिल करके टीका-टिप्पणी की थी।

जैसे कि गोरखनाथ ने बयान दिया था कि सरोज पांडेय ने 164 का बयान मीरा यादव के उकसाने पर दिया है। मीरा यादव ने सरोज के पिता विष्णु दत्त को खामोश रहने के लिए अच्छी-खासी रकम मुहैया कराई है। इस पर बॉक्स लेखक का कहना था कि भारतीय समाज में कोई लड़की कभी भी अपने साथ चार लोगों द्वारा बलात्कार का आरोप नहीं लगाएगी, क्योंकि उसे और सभी को ज्ञात है कि इस बात से उसकी इतनी बदनामी होगी कि उसका समूचा जीवन बर्बाद हो जाएगा और जहाँ तक विष्णु दत्त को अच्छी-खासी रकम देकर अनुकूल करने का प्रश्न है, तो यह अविश्वसनीय है-इसलिए कि विष्णु दत्त के पास सोलह बीघे पक्के उपजाऊ खेत हैं और पक्का मकान है। यानी वह आर्थिक रूप से प्रताड़ित ऐसे विवश व्यक्ति नहीं हैं कि कुछ पैसों के लिए अपनी इज्जत और बेटी के भविष्य को सूली पर चढ़ा दें। लेखक ने उदाहरण दिया था कि बलात्कार के इसी प्रकार के मामले (दंड संहिता 1860, सेक्शन 376) में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन माननीय न्यायाधीश वी.जे. राजू ने कहा था, "पार्टीबंदी के कारण कोई भी व्यक्ति अपनी युवा पुत्री को बलात्कार के मुकदमे में डालकर उसके भविष्य को बर्बाद कर देगा, यह विश्वसनीय नहीं है।" (पैरा 8) । इस मुकदमे में बलात्कारी को सात साल के कारावास की सजा हुई थी।

लेखक ने बेहद भावपूर्ण ढंग से लिखा था, " कुछ लोग कह रहे हैं कि सरोज के साथ बलात्कार नहीं हुआ है। अगर वैसा कुछ हुआ है, तो सरोज की मर्जी से हुआ है और उसे संभोग कहा जाना चाहिए, बलात्कार नहीं, क्योंकि बलात्कार के विरुद्ध तो स्त्री लड़ती है, संघर्ष करती है, किंतु सरोज के शरीर पर चोट या घाव के निशान नहीं है। इसके जवाब में मैं कहना चाहता हूँ कि कोई भी स्त्री दो माह तक लगातार कई-कई पुरुषों से लड़ती नहीं रह सकती। ऐसे लोगों से निवेदन है कि वे जान लें कि उड़ीसा उच्च न्यायालय में संहिता 1860 सेक्शन 376 के अंतर्गत लड़की की सहमति और शरीर पर किसी चोट की गैर-हाजिरी का मामला आया था, जिस पर विद्वान न्यायाधीश ने 'सहमति' शब्द की व्याख्या करते हुए कहा था कि सहमति का अर्थ है-समुचित करार, विचारों और भावनाओं की समरूपता, प्रेम की उपस्थिति से होनेवाले कार्य, व्यापार के प्रति स्वेच्छापूर्ण भागीदारी, किसी भी तरह का प्रतिरोध नहीं, कैसा भी इनकार नहीं। यह 'सहमति' शब्द असहायता का समानार्थी कतई नहीं है (पैरा 6) ।

गोरखनाथ के प्रचार-तंत्र ने एक चर्चा यह चलाई थी कि सरोज तो स्वयं संदिग्ध चरित्रवाली है, नहीं तो वह अपने गाँव के तीन-तीन युवकों के साथ क्यों भाग निकलती। इसके जवाब में टिप्पणी में तर्क था कि यदि मान भी लिया जाए कि सरोज का चरित्र संदिग्ध है, तो क्या समाज के पुरुषों को संदिग्ध चरित्रवाली स्त्रिायों-लड़कियों से बलात्कार करने का कानूनी हक हासिल हो गया है?

लेखक ने एक पृष्ठ के आलेख में अत्यंत निपुणता के साथ सरोज की पैरवी की थी। पढ़कर श्याम नारायण का हौसला बढ़ गया। उन्हें लगा कि वह अकेले नहीं हैं और लोग भी हैं, जो सरोज के साथ लड़ाई में शामिल हैं। एक क्षण के लिए तो उनको इतना जोश चढ़ा कि मन हुआ, खड़े होकर 'इन्कलाब जिंदाबाद' लगाने लगें, मगर कुछ देशकाल के संकोच ने, कुछ इस भावना ने कि भीतर मौजूद सरोज को कहीं उनकी यह चिल्ल-पों अच्छी न लगे, उनको नारेबाजी करने से रोका।

उन्होंने विष्णु दत्त को वह लेख दिखाकर उसका भाव समझाया और कहा, "इस लड़ाई में सरोज की जीत निश्चित है।"

विष्णु दत्त बोले, "भगवान हमारी मदद करे।" उनका यह उद्गार श्याम नारायण को नागवार लगा।

भगवान, यानी सरोज के लिए उनके परिश्रम, भाग-दौड़ का कोई मतलब नहीं है। विष्णु दत्त को मुँहतोड़ जवाब देने में वह पूर्णतया सक्षम थे, लेकिन सरोज का पिता होने के नाते उन्होंने उनको बख्श दिया और चुप रह गए.

थोड़ी देर तक चुप रहने की वजह से या कोई दूसरी वजह रही कि उनमें एकाएक आत्मालोचन का सिलसिला शुरू हो गया। जैसे उनमें पार्टी सचिव की आत्मा उतरने लगी, वह विचार करने लगे, "मैं स्वयं कहाँ सच्चा कार्यकर्ता होने का परिचय दे रहा हूँ। सरोज शोषित वर्ग की है नहीं, दलित भी नहीं है कि उसकी पक्षधरता को व्यापक सामाजिक परिवर्तन के आलोक में देखा जा सके. फिर मैं क्यों इतने दिनों से मारा-मारा फिर रहा हूँ? आखिर मुझे हुआ क्या है, जो मैं इतना हलकान हुआ जा रहा हूँ।"

वह आकंठ शर्म में डूब गए. उनको महसूस हुआ कि कहीं वह सरोज के प्रति अपनी पुरानी आसक्ति के चलते तो ये सब नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कलाई की वह जगह छुई, जहाँ सरोज ने दाँत गड़ाए थे और सोचने लगे, "मैं सरोज की मदद सरोज को अपमानित करने के लिए कर रहा हूँ क्या कि एक तुम थी, जिसने मुझे दाँत काट लिया था और देखो, मैं हूँ और मेरा प्रेम कितना महान है कि तुमसे चार-चार लोगों द्वारा बलात्कार करने के बाद भी तुम्हारे लिए हमदर्दी रखता हूँ।"

"कब आएँगी विधायिका जी?" विष्णु दत्त ने ऊबकर पूछा और दीवार पर टँगी घड़ी देखने लगे, "इतनी देर तक वह कौन मीटिंग कर रही हैं।"

इसी समय बाहर कार आने और रुकने की आवाज हुई. मीरा यादव कार से उतरीं और आगे बढ़ीं।

वह भीतर आईं, तो देखा कि उनके ड्राइंगरूम में श्याम नारायण एक अधेड़ देहाती के साथ बैठे हैं। वह तुरंत समझ गईं। कोई और नहीं, सरोज पांडेय का बाप है। वह करीब पहुँचकर विष्णु दत्त के पाँव छूने लगीं। विष्णु दत्त इस आदर-प्रेम से विह्वल हो गए और मूसलधार रोने लगे। अजीब दृश्य था, ड्राइंगरूम में विष्णु दत्त रो रहे थे, मीरा यादव उन्हें दिलासा दे रही थीं और श्याम नारायण उजबक की तरह कभी विष्णु दत्त को और कभी मीरा यादव को देखे जा रहे थे।

विष्णु दत्त रोते हुए ही बोले, "आप इतनी बड़ी नेता और मुझ गरीब का पैर छू लीं।"

"मुझे नेता मत कहें बाबूजी, मैं सरोज की बड़ी बहन हूँ। मुझको आप अपनी बिटिया समझें। मेरे लायक कोई सेवा हो, तो कहें।"

"इतने ही उपकार तुम्हारे क्या कम हैं। बस, अब मुझको सरोज से मिला दो।"

"सरोज!" मीरा यादव चौंक पड़ी, "यहाँ किसी ने बताया नहीं? वह तो गाँव गई, आप लोगों के पास।" "मेरे ख्याल से, उधर आपलोग आए और इधर वह गई. लगातार इन बाबूजी की, अपनी माँ, भाई-भाभी का नाम ले-लेकर रोती रहती थी। मैंने सोचा कि वहीं रहे, कोई दिक्कत नहीं।"

श्याम नारायण मीरा यादव को घूरने लगे। अब विष्णु दत्त कभी श्याम नारायण को तो कभी मीरा यादव को उजबक की तरह देखे जा रहे थे।

मीरा यादव श्याम नारायण के कंधे पर हाथ रखकर मुस्कराईं, "चिंता मत करिए भाई, मैंने व्यवस्था से भिजवाया है अपनी छोटी बहन सरोज को। पूरी सुरक्षा के साथ। हमारे चार आदमी तो बाकायदा ए.के.-47 के साथ हैं।"

"देखिए, साफ कहता हूँ, हमको आपकी बात पर यकीन नहीं आ रहा है। मुझे लग रहा है कि सरोज इस समय इसी मकान में कहीं है।"

"आइए आप दोनों मेरे साथ।" वह चलने लगीं। विष्णु दत्त और श्याम नारायण भी उनके पीछे-पीछे हो लिए.

पूरे घर का कोना-कोना देख लिया, कहीं नहीं थी सरोज। अब मीरा यादव एक आलमारी के सामने रुककर हँसी, "यकीन आया अब।" उन्होंने अलमारी खोली, "लीजिए, इसमें भी देख लीजिए." वहाँ भी नहीं मिली सरोज। मीरा यादव ने अलमारी का लॉकर खोला, दस हजार रुपए की एक गड्डी निकालकर विष्णु दत्त को दिया, "बाबूजी, यह छोटी बहन के लिए बड़ी बहन की तरफ से एक तुच्छ भेंट है।"

विष्णु दत्त भकुआए खड़े थे, गड्डी को हाथ में पकड़े।

"देर न करें आप। सरोज वहाँ राह देखेगी। मेरी गाड़ी आप लोगों को स्टेशन तक छोड़ देगी। आइए." उन्होंने विष्णु दत्त को और श्याम नारायण को घर से बाहर निकलने का इशारा किया। वह खुद भी बाहर निकलकर कार तक आईं।

कार में बैठकर विष्णु दत्त ने मीरा यादव के प्रति कृतज्ञता में हाथ जोड़े, "हमलोगों पर आप अपनी कृपा सदैव बनाए रखिएगा।"

मीरा यादव श्याम नारायण की तरफ देखीं, "फिर आइएगा, तो मिलिएगा।" श्याम नारायण ने उपेक्षा से चेहरा मोड़ लिया। वह खासे नाराज और उदास लग रहे थे।

सरोज-गोरखनाथ प्रकरण एकाएक इस तरह का मोड़ ले लेगा, ऐसा अंदाज नहीं था। अभी कल तक जनता सरोज पर हुए अत्याचार से द्रवित थी और यह विश्वास कर रही थी कि गोरखनाथ की गिरफ्तारी यदि न भी हुई, तो इतना निश्चित है कि उनका राजनीतिक भविष्य चौपट होने से बच नहीं सकता है। विशेष रूप से कॉलेज में पढ़नेवाली लड़कियों में गोरखनाथ के खिलाफ भयंकर घृणा और गुस्सा था। वे पारस्परिक बातचीत में गोरखनाथ के लिए फाँसी से कम की सजा की पैरवी नहीं करती थीं और असंभव नहीं था कि ये लड़कियाँ जल्दी ही सड़कों पर निकल आतीं।

लेकिन इस खबर ने लोगों को हैरत में डाल दिया कि सरोज पांडेय राजधानी छोड़कर अपने गाँव चली गई. इस बारे में मीरा यादव का वक्तव्य था कि उन्होंने सरोज को बार-बार समझाया कि उसकी लड़ाई, अकेली उसकी न होकर समाज की लड़ाई बन गई है, इसलिए मामले को इस तरह अधर में छोड़कर उसका जाना उचित नहीं रहेगा, पर सरोज ने एक न सुनी और अपने परिवारवालों के पास जाने की जिद पर अड़ी रही। उसने यहाँ तक कहा कि यदि उसे घर नहीं पहुँचाया गया, तो वह दुपट्टे को गले में कसकर मर जाएगी। अतः इन परिस्थितियों के मद्देनजर सरोज को उसके गाँव पहुँचा देने के अलावा मीरा यादव के पास कोई चारा न था। मीरा यादव ने यह उम्मीद प्रकट की थी कि जल्दी ही सरोज अपने परिवारवालों से मिलकर आ जाएगी। उसके आते ही गोरखनाथ के खिलाफ संघर्ष को फिर तेज किया जाएगा। कहने का मतलब मीरा यादव का संघर्ष रुका भर है, खत्म नहीं हुआ है।

एक अखबार ने अपने संपादकीय में सरोज पांडेय के पलायन पर अफसोस जाहिर किया था और लिखा था कि सरोज द्वारा इस तरह एकाएक, बिना प्रेस को विश्वास में लिए चले जाने से संदेह की सुई उसकी तरफ भी घूमती है। उसके इस कदम से उन लोगों को मजबूती मिलेगी, जिनकी धारणा थी कि गोरखनाथ पर बलात्कार का आरोप बेबुनियाद है और सरोज किसी लोभ या मजबूरी के तहत तोहमत मढ़ रही है।

अब सरोज ने अखबारवालों को मौका दे दिया था या अखबारवालों के विचारों में ही अकस्मात परिवर्तन आ गया था अथवा सूचना मंत्री के आवास पर हुई दावत का प्रभाव था, इस बारे में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है, लेकिन इतना तय है कि सरोज-गोरखनाथ प्रकरण में समाचार-तंत्र की धुरी बदल गई थी।

'लोक-जागरण' के संवाददाता ललित जोशी जो इस कांड का प्रथम उद्घाटनकर्ता था, से एन.टी.वी. ने एक विशेष भेंट प्रसारित की थी, जिसमें उसने कहा, "यह सच है कि सरोज बलात्कार कांड को सबसे पहले प्रेस के जरिए सामने लाने का सौभाग्य मुझे ही प्राप्त है और आज भी मैं अपनी रिपोर्ट पर कायम हूँ, लेकिन एक सवाल ज़रूर रह-रहकर मेरे भीतर कौंधता है कि गोरखनाथ को सरोज के साथ बलात्कार करने की क्या ज़रूरत थी, क्योंकि गोरखनाथ की जो हैसियत है, उनके पास जो धन, मान, प्रतिष्ठा और शक्ति है, उसको देखते हुए यदि गोरखनाथ चाहें, तो उन्हें वैसी ही लड़कियों की क्या कमी हो सकती है।"

मीडिया जगत में सरगर्मी थी। प्रदेश के सबसे अधिक प्रसार-संख्यावाले समाचार-पत्र ने संपादकीय पृष्ठ पर 'बलात्कार कांड: कुछ प्रश्न' शीर्षक से अग्रलेख छापा, जिसमें कई शंकाएँ उठाई गई थीं। प्रमुख शंकाएँ इस प्रकार थीं:

(क) सरोज के पिता विष्णु दत्त ने सरोज के गायब होने के तीन दिन बाद क्यों प्राथमिक सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई, इस अवधि में वह क्या करते रहे?

(ख) प्राथमिक सूचना रिपोर्ट में कहा गया था कि सरोज स्कूल जाने के बाद नहीं लौटी यानी रास्ते में ही उसका अपहरण हो गया, मगर ध्यान देने की बात है कि रिपोर्ट में यह भी लिखाया गया है कि अभियुक्त विष्णु दत्त के घर से चार हजार नकद और पच्चीस हजार के जेवरात भी लेकर भागे हैं। तो यदि स्कूल के रास्ते में अपहरण हुआ, तो फिर घर से चोरी कैसे हुई? इससे ऐसा संकेत मिलता है कि हो न हो, सरोज ही नकद तथा जे़वर ले गई हो और मामला अपहरण का न होकर सरोज द्वारा किसी अन्य कारणों से घर छोड़ जाने का हो।

(ग) प्राथमिक सूचना रिपोर्ट में जिन तीन लोगों का बतौर अभियुक्त उल्लेख किया गया है, उसमें गोरखनाथ का नाम नहीं है। गौरतलब है कि गोरखनाथ का नाम इस केस में तब जुड़ता है, जब सरोज प्रमुख विपक्षी दल की नेता मीरा यादव के पास पहुँच जाती है। हम यह नहीं कहते, कतई नहीं कहते कि सरोज की जबानी सरोज की कहानी असत्य है। यहाँ हम केवल इस बात की तरफ इशारा कर रहे हैं कि प्राथमिक सूचना रिपोर्ट में मौजूद उपर्युक्त गड़बड़ियाँ सरोज के बारे में यदि किसी के भीतर शुबहा पैदा करें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

प्रदेश के सबसे पढ़े-लिखे और प्रखर संवाददाता ने अपने अखबार के प्रथम पृष्ठ पर लिखा, "सरोज कहती है कि कैद की अवधि में उसके साथ भयानक जुल्म किए जाते थे और उसे ठीक से खाना नहीं दिया जाता था। कभी-कभी उसे बिस्कुट जैसे मामूली खाद्य पदार्थों से ही संतोष करना पड़ता था, पर यह समझ से परे है कि जैसा कि सरोज के पूर्व परिचित भी कहते हैं कि फिर वह मोटी कैसे हो गई. हालाँकि इस संदर्भ में प्रश्न किए जाने पर सरोज ने कहा कि उसकी भी समझ में यह बात नहीं आ रही है। उसका कहना था कि हो सकता है कि ऐसा उन गर्भ-निरोधक गोलियों की वजह से हुआ हो, जो उसे उन दिनों खिलाई गई थीं।"

उक्त संवाददाता की समझ में यह बात भी नहीं आती थी कि जब सरोज को जौनपुर के खै़राबाद मुहल्ले से मीरा यादव ले आईं, तो उसके हाथों में रंग-बिरंगी गझिन चूड़ियाँ और पैरों में पायल क्यों थीं। सरोज की दलील है कि उसे जबरन विवाहित के बाने में रखा गया था। ताकि लोगों को शक न हो, पर सवाल है कि वह क्यों चाहती थी कि लोगों को शक न हो, वह कम से कम अपनी चूड़ियाँ तो तोड़ सकती थी। या कम-से-कम आजाद होने के बाद वह चूड़ियाँ और पायल की बेड़ियों को उतार फेंक सकती थी।

ललित जोशी ने अपने अखबार के मुखपृष्ठ पर पुनः ऐसी खबर दी, जो अन्य अखबारों में नहीं थी। उसने लिखा कि सरोज पांडेय कथित बलात्कार के समय बालिग थी या नाबालिग-इसको लेकर विवाद है, क्योंकि जहाँ सरोज की अवस्था स्कूल के और उसकी जन्मपत्री के हिसाब से 16 साल ठहरती है, वहीं मेडिकल रिपार्ट के मुताबिक वह करीब 'अठारह वर्ष' की है। द्रष्टव्य है कि मेडिकल रिपोर्ट की उम्र को दो साल आगे-पीछे खिसकाया जा सकता है। अतः सरोज बकौल मेडिकल रिपोर्ट, 20 वर्ष की हो सकती है यानी बालिग और ऐसी स्थिति में यदि यह सिद्ध हो गया कि वह घर से स्वेच्छा से भागी थी, तो उसका मुकदमा कमजोर हो जाएगा, क्योंकि कानून के अनुसार नाबालिग लड़की को उसकी इच्छा होते हुए भी भगाना जुर्म है, किंतु बालिग होने पर ऐसा नहीं है। अतः कानूनविदों की राय में मुकदमे में मेडिकल रिपोर्ट की अहम भूमिका हो सकती है। उस स्थिति में तो और भी, जब शुरू-शुरू की मेडिकल रिपोर्ट में सरोज को 'पुरुष सहवास की अभ्यस्त' बताया जा चुका है। उसके बाद ललित जोशी ने कुछ विधि विशेषज्ञों के विचार प्रस्तुत किए थे, जो ललित जोशी की राय से लगभग इत्तिफाक रखते थे।

एक नए, किंतु विचारोत्तेजक और निर्भीक राष्ट्रीय हिन्दी दैनिक ने 'मुद्दा' स्तंभ के अंतर्गत लगभग पूरा पृष्ठ सरोज बलात्कार कांड पर केंद्रित किया। उसके केंद्रीय आलेख में बार-बार यह सवाल उठाया गया कि आखिर सरोज के बारे में सूचनाएँ मीरा यादव तक कैसे पहुँचीं। अखबार के अनुसार, इस गुत्थी को सुलझाए बिना मामले की तह तक पहुँचना मुश्किल है। वैसे, लेखक ने विभिन्न विश्वस्त सूत्रों से कुछ जानकारियाँ हासिल की थीं। एक सूत्र ने बताया था कि सरोज का अपने एक रिश्तेदार श्याम नारायण से गहरा प्रेम चल रहा था, लेकिन एकाएक पासा पलटा और सरोज श्याम नारायण को धता बताकर अपने ही गाँव के युवक छैलबिहारी से प्रेम करने लगी। श्याम नारायण सरोज के धोखे और बेवफाई से धधकता रहा और उसने बदला लेने की ठानी। वह सरोज को बदनामी के उस मुकाम तक पहुँचा देना चाहता था, जिससे सरोज को कोई भी अपना बना सकने की हिमाकत न करे। इस बात की पक्की जानकारियाँ हैं कि विधान परिषद् की सदस्य मीरा यादव से श्याम नारायण की निकटता है और यह भी ज्ञात हुआ है कि सरोज जिस दिन मीरा यादव के यहाँ आई, उसके ठीक एक दिन पहले दोपहर में श्याम नारायण ने मीरा यादव से उनके आवास पर गहन मंत्रणा की थी और यह भी उल्लेखनीय है कि जिस दिन सरोज पांडेय मीरा यादव के आवास से वापस गाँव गई, उस दिन भी श्याम नारायण मीरा यादव के घर पर आए थे और काफी देर तक रहे थे।

संभवतः श्याम नारायण वाली खबर सरोज के मामले में अंतिम खबर लग रही थी। इसके प्रकाशन के कुछ दिनों बाद ही लोगों की स्मृति से सरोज पांडेय और गोरखनाथ धुँधलाने लगे, बल्कि थोड़े अंतराल के बाद तो यह भी जानने में आया कि गोरखनाथ ने दो महाविद्यालयों का उद्घाटन किया और कन्या पाठशाला की आधारशिला रखी। यह भी कि प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में, यहाँ तक कि सुदूर केरल प्रदेश के कोचीन नगर में भी उन्हें चाँदी के सिक्कों से तौलकर उनका अभिनंदन किया गया। उक्त अभिनंदन समारोह के बारे में कई निंदकों की राय थी कि अपने अभिवादन-कार्यक्रमों के प्रायोजक स्वयं गोरखनाथ थे। यदि नहीं, तो कम-से-कम इतना ज़रूर था कि वह आयोजकों के प्रेरणास्रोत निश्चय ही थे।

इसके बाद काफी दिनों तक कुछ सुनने-पढ़ने-जानने में नहीं आया और ऐसा लगने लगा कि पिछले दिनों राष्ट्रीय स्तर पर सनसनी पैदा कर देनेवाला, राजनीति में भारी उथल-पुथल करने की संभावनाओं से भरा हुआ यह वाकया अब दम तोड़ चुका है या ज्यादा-से-ज्यादा बहुत अल्प प्राणवायु शेष है और यही हुआ भी। लोगों की स्मृति से सरोज-गोरखनाथ घटनाक्रम का विलोप हो गया और मीडिया ऐसा कुछ उपस्थित नहीं कर रहा था कि उधर ध्यान जाता।

मगर एक दिन यह खबर जोरदार ढंग से आई कि सरोज ने लखनऊ सेशन जज की अदालत में कहा, "माननीय गोरखनाथ जी ने मेरे साथ शीलभंग की कोई हरकत नहीं की है। मैं तो गोरखनाथ जी को पहचानती तक नहीं।" सरोज अपने 164 के कलमबंद बयान से साफ मुकर गई थी और अपने मौजूदा दाखिल हलफनामे में उसने दर्ज कराया था, "मुझे बरगलाकर गोरखनाथ के खिलाफ बयान दिलवाया गया था। अब मैं अपने उक्त 164 के बयान पर शर्मिंदा हूँ और उसे वापस लेती हूँ।"

कहा जाता है कि सरोज हलफनामा देने अदालत आई, तो वह चॉकलेटी रंग की कंटेसा कार में सवार थी। उसकी कार के आगे-पीछे कई कारें और दुपहिया वाहन थे। वाहनों पर सवार लोगों के बारे में ऐसा माना जा रहा है कि वे गोरखनाथ के खास सिपहसालार थे। इस सेना का नेतृत्व परमू और भोला कर रहे थे। छैलबिहारी के बारे में कुछ चश्मदीदों का कथन है कि वह भी था और कंटेसा में सरोज के बगल में बैठा था, लेकिन कुछ का मानना है कि वह छैलबिहारी नहीं था, सरोज का भाई राधेश्याम था।

एक राय यह भी है कि सरोज कंटेसा में ज़रूर आई थी, लेकिन उसके बगल में बैठा शख्स न छैलबिहारी था न राधेश्याम, दरअसल वह श्याम नारायण था और शेष सैन्य बल गोरखनाथ नहीं, मीरा यादव का था, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि मीरा यादव को ऐसा करने की ज़रूरत क्यों आ पड़ी।

ऐसा भी सुनने में आया कि इस तरह का कोई बयान सरोज ने दिया ही नहीं। गोरखनाथ ने अदालत में सरोज नहीं, सरोज की एक डुप्लीकेट लड़की भेजी थी और सरोज इस बात का खुलासा करने जल्द ही राजधानी आ रही है।

उपरिलिखित तीन धारणाओं में कौन सही थी, कौन नहीं, इसके बारे में ठोस कुछ कहा नहीं जा सकता है या कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई भी सत्य न हो और न ही सत्य के नजदीक हो या हो सकता है कि तीनों ही सत्य के नजदीक हों और मिलकर पूरा सच गढ़ती हों। बहरहाल, मामला काफी उलझ चुका था और हकीकत का सामने आना काफी मुश्किल लग रहा था, क्योंकि पत्रकारों ने अब इसमें रुचि लेना बंद कर दिया था और पुलिस को किसी ने तफ्तीश का आदेश नहीं दिया था। वैसे भी, सरोज ने हलफनामा दे दिया था, तो वह किसके दबाव से आई और उसके साथ कौन लोग थे, इससे पुलिस क्यों वास्ता रखती? और व्यक्तिगत तौर पर आर्थिक रूप से समर्थ कोई व्यक्ति इतनी दिलचस्पी ले नहीं रहा था कि सच्चाई का पता लगाने का कार्य निजी जाँच एजेन्सी अथवा किसी कुशल प्राइवेट डिटेक्टिव को सौंप देता।

हाँ, इतना ज़रूर था कि सरोज इस बात का खंडन करने राजधानी नहीं आई कि लखनऊ की अदालत में हलफनामा देनेवाली लड़की वह नहीं, उसकी डुप्लीकेट थी।

पर सरोज के न आने के बावजूद उपर्युक्त मत के लोग अपनी बात पर कायम थे। उनका कहना था कि वह खंडन करने नहीं आई, तो क्या फर्क पड़ जाता है। यह अकाट्य है कि लखनऊ की अदालत में 164 के बयान को खारिज करके गोरखनाथ को निर्दोष करार देनेवाली लड़की सरोज की डुप्लीकेट थी। इनमें से कुछ दावा करते थे कि वे स्वयं वहाँ मौजूद थे और पूरे विश्वास से यह कह सकते हैं कि वह सरोज कतई नहीं थी। रही बात असली सरोज के राजधानी आकर खंडन न कर पाने की, तो सोचने की बात है कि जो लोग डुप्लीकेट सरोज पेश करके अदालत की धज्जियाँ उड़ा सकते हैं, उनके लिए सरोज को राजधानी आने से रोक लेना कौन-सी बड़ी बात है।

इस पर विरुद्ध विचारवालों ने मुँहतोड़ उत्तर दिया कि वह सरोज थी या नहीं, इससे कोई समस्या नहीं पैदा होती। असल बात यह है कि सेशन जज ने उसे सरोज मानकर उसके हलफनामे को स्वीकार किया और उस पूरी कानूनी कार्यवाही पर एतराज करते हुए अभी तक किसी ने कोई चुनौती नहीं दी है। अतः फिलहाल यही सिद्ध है कि वह सरोज थी और गोरखनाथ पर मँडरा रहे बदनामी के बादल छँट गए हैं और असली सरोज को राजधानी पहुँचने से रोकने की बातें कही जा रही हैं, तो जो शक्ति अदालत को जेब में रख सकती है, सरोज को आने से रोक सकती है, वह क्या सरोज से अपने माफिक बात कहलाने के लिए सरोज को घसीटते हुए अदालत नहीं ले जा सकती थी? इसलिए यह कबूल करने में हर्ज क्या है कि अदालत में मौजूद सरोज असली ही थी! उसके डुप्लीकेट सरोज होने की अफवाहें कुछ शरारती तत्वों की साजिश है।

मगर यह विवाद कोई इतना बड़ा मसला नहीं था, जो लंबे वक्त तक टिक पाता। सरोज की मृत पड़ चुकी दास्तान में पुनः प्राण-प्रतिष्ठा के लिए संजीवनी बनने की क्षमता नहीं थी इसमें। अतः सरोज-प्रकरण के दूसरे प्रसंगों की तरह यह भी, बल्कि यह अन्य से ज़्यादा ही अल्पजीवी और क्षणभंगुर प्रमाणित हुआ।

वैसे, आगे भी कहने को कुछ चीजें हो सकती हैं। आखिर सरोज और गोरखनाथ या परमू, भोला, छैलबिहारी के जीवन में कुछ-न-कुछ घटित हुआ ही होगा। मीरा यादव और श्याम नारायण भी कहीं-न-कहीं होंगे ही। यानी कहानी के चरित्र अभी जीवित हैं और कोशिश की जाए, कल्पना तथा गढ़ंत की थोड़ी मदद ली जाए, तो इन प्रमुख पात्रों की मदद से इस कहानी को आगे बढ़ाया जा सकता है, मगर निश्चय ही इससे ज़रा भी फायदा नहीं होगा। फिर वही हश्र होगा, जो अब हुआ है, शायद इससे भी बुरा हो, क्योंकि दिक्कत यह है कि जिस केंद्रीय वस्तु को लेकर कहानी शुरू हुई थी, वह अचानक लड़खड़ाकर ऐसी लुढ़की कि आगे सँभल न सकी और अंत के पहले ही उसने दम तोड़ दिया। संभवतः सुंदर लड़की, बलात्कार, गाँव, बड़े राजनीतिज्ञ, पुलिस, अदालत आदि तोप मसालों से संपन्न विषय-वस्तु वाली कहानी की ऐसी नीरस, निरुद्देश्य, गड़बड़ और अनुत्पादक परिणति विश्व में कभी नहीं हुई होगी। वह भी ऐसी दशा में, जबकि लेखक ने अपनी तरफ से विस्फोटक अंत के लिए कड़ी मशक्कत की हो।

विचारणीय बिंदु है कि एक अत्यंत रोमांचक संभावनाओं वाली कथा का इतना अरुचिकर और फटीचर अंत क्यों हुआ।

इन सबके अलावा यह दिक्कत भी पेश हुई कि कहानी में कई प्रसंगों का समुचित विकास नहीं हो सका था। पढ़ने के बाद कुछ ऐसे प्रश्न जन्म लेते थे, जो अनुत्तरित ही छोड़ दिए गए थे। जैसे मीरा यादव के घर से क्या सरोज वाकई चली गई थी अथवा अपनी पार्टी के मुखिया से डाँट खा लेने के बाद मीरा यादव ने ही उसे अपने घर से भगा दिया था! और मीरा यादव के घर से निकलने के बाद सरोज पर क्या गुजरी-यह सब कहानी नहीं कह सकी थी। अब इसका भी तो कोई ठिकाना नहीं था कि अदालत में हाजिर होनेवाली सरोज असली थी या नकली। नकली थी तो असली सरोज कहाँ है? किसके शिकंजे में है? जिंदा है या मुर्दा? कुल मिलाकर ऐसे अनेक स्थल थे कहानी में, जहाँ पर इस प्रकार की दुविधाएँ घेर लेती थीं, लेकिन आखिर समाधान भी था, तो क्या था!

अंततः बहुत सोच-विचार के बाद एक निर्णायक, किंतु अद्भुत, बेमिसाल कोशिश की गई. कहानी को सरोज के पास भेज दिया गया। चूँकि सरोज कहाँ पर है, इसका निश्चित संज्ञान नहीं था। अतः कहानी की एक-एक टंकित प्रतिलिपि क्रमशः विष्णु दत्त, मीरा यादव, श्याम नारायण, गोरखनाथ, छैलबिहारी, महंत जी और कोई कसर न रहे, इस दृष्टिकोण से भोला और परमू को भी पंजीकृत डाक द्वारा भेज दी गई. लिफाफे में दो पत्र भी संलग्न थे। एक में सम्बंधित व्यक्ति से निवेदन था कि वह इस कहानी और उसके नाम लिखे गए पत्र को सरोज तक पहुँचाने का कष्ट करे, अति कृपा होगी और सरोज के नाम लिखे पत्र का सार यह था कि सबसे पहले उससे कुशल-क्षेम पूछा गया था, फिर कहानी पढ़ने का आग्रह करते हुए प्रार्थना की गई थी कि वह इस कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे। अंत में सत्रह प्रश्नों की एक तालिका थी, जिसमें कहानी पढ़कर जन्मनेवाले संशयों, जिज्ञासाओं, कौतूहलों का समाधान करनेवाले उत्तर माँगे गए थे। अंत में कष्ट देने के लिए क्षमा-याचना की गई थी और हमदर्दी प्रकट करते हुए कहा गया था कि यदि किसी भी प्रकार की मदद की आवश्यकता पड़े, तो वह कहने में बिल्कुल संकोच न करे।

पत्र समाप्त हो जाने के बाद 'पुनश्च' उपशीर्षक के अंतर्गत एक पंक्ति थी: "याद दिला रहा हूँ कि कहानी लंबी है, मगर पढ़िएगा ज़रूर। कहानी पर आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार मैंने अभी से शुरू कर दिया है। विश्वास करिए, अपनी कहानी पर आपकी राय पाकर बहुत कृतज्ञ होऊँगा।"

और वाकई बारह दिन बाद सरोज का पत्र आया। कहानी उसे कैसे हासिल हुई, इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। उसने चिट्ठी कहाँ से भेजी, यह भी स्पष्ट नहीं था, क्योंकि लिफाफे़ पर मुहर इतनी चटख थी कि अक्षर रोशनाई से पुत गए थे। अगर यह स्पष्ट होता कि चिट्ठी कहाँ से चली है, तो सरोज कहाँ पर है, इस बात का सुराग थोड़ा-ज्यादा लगाया जा सकता था। खै़र, सरोज जहाँ भी हो-अपने गाँव में, गोरखनाथ, महंत, मीरा यादव जिसके भी कब्जे में हो, उसका पत्र तो आया ही था। पत्र की हू-ब-हू नकल नीचे प्रस्तुत है:

आदरणीय लेखक जी,

सादर प्रणाम!

अत्र कुशलम् तत्रस्तु! आगे समाचार यह है कि मुझ पर कहानी लिखी, इसके लिए हमारी तरफ से कोटिशः धन्यवाद। आपने मेरी राय चाही है कहानी पर, तो मैं यही कहना चाहती हूँ कि मैं कहानी-वहानी के बारे में क्या कह सकती हूँ। न ज़्यादा पढ़ी-लिखी हूँ, न विद्वान हूँ, न समालोचक हूँ। शायद आपने इस प्रकार की मंशा इसलिए जाहिर की है कि चूँकि कहानी मुझे केंद्र में रखकर लिखी गई है, तो मुझे कैसी लगती है, यह जानना दिलचस्प होगा। अतः आपकी खुशी के लिए यही कह रही हूँ कि कहानी बहुत सुंदर है। काफी प्रभावशाली है। भाषा बड़ी सशक्त है और शिल्प भी अच्छा है, लेकिन मुझे लगता है कि कहानी में कई जगह आप कन्नी काट गए हैं। या तो उन बातों को आप लिखना नहीं चाहते हैं या उन्हें लिख सकने की काबिलियत आप में नहीं है। जैसे कि गोरखनाथ ने महंत जी के मकान में जब परमू-भोला-छैलबिहारी को भगाकर मेरे साथ बलात्कार किया, इस अत्याचार का कोई चित्रण आपकी कहानी में नहीं है। अपने को गोरखनाथ से बचाने के लिए मैंने जो संघर्ष किया, वह भी नहीं है। बलात्कार के बाद मेरी क्या मनःस्थिति थी, मेरे हृदय पर क्या गुजर रही थी, इन सबको क्या आप सामने ला सके हैं? ऐसे एक-दो नहीं, पूरे तेईस प्रसंग हैं, जहाँ आप सही बात कहने से चूक गए हैं। यदि आपकी इच्छा है कि आपकी कहानी सच्चाई का दर्पण बने, तो आपको उन तेईस प्रसंगों को सही-सही लिखना होगा। ऐसा करें कि आप मेरे पास आ जाएँ, मैं तेईस प्रसंगों के अतिरिक्त भी ऐसी कई चीजें बतलाऊँगी, जिन्हें कहानी में पिरोकर आप उसे अधिक उत्कृष्ट बना सकते हैं। जब आप मिलेंगे, तब मैं उन सत्रह सवालों के जवाब भी आपको दे दूँगी, जिनकी सूची मेरे पास प्रेषित की गई है। हाँ, मैं यह नहीं बताऊँगी कि मैं कहाँ हूँ, क्योंकि यदि मैं अपना पता-ठिकाना लिख देती हूँ तो हो सकता है कि यह खत आपके पास पहुँचने से पहले ही दुश्मनों के हाथ लग जाए. या कौन ठीक है कि आप भी हमारे दुश्मनों के साथ हों और कहानी का चक्कर 'मैं कहाँ हूँ' यह जानने के लिए चलाया गया हो। ऐसा भी हो सकता है कि अभी आप हमारे हमदर्द हों, लेकिन पता जान लेने के बाद किसी दबाव या लालच के वशीभूत होकर मेरे दुश्मनों से मिल जाएँ। यह भी तो मुमकिन है कि आप दुश्मन ही हों। अतः आपको स्वयं ढूँढ़ना पड़ेगा कि मैं कहाँ हूँ। हाँ, इतना तय समझिए कि बिना मुझसे मिले आपकी कहानी में कमियाँ बनी रहेंगी। मैं यह भी कहना चाहती हूँ कि आपने अपनी कहानी के फटीचर अंत का जो रोना रोया है, उस दिशा में भी मिलने पर मैं मदद करूँगी। मैं आपको आगे की ऐसी बहुत-सी बातें बताऊँगी, इसमें आए हुए चरित्रों के बारे में कुछ एकदम नई जानकारियाँ दूँगी, उनके इधर के ऐसे समाचार दूँगी कि आप कहेंगे कि आपकी कहानी में अभी कुछ भी नहीं आया है। आपको निश्चय ही सशक्त अंत करने के लिए मैटर भी दूँगी मैं, बशर्ते आप मुझे ढूँढ़ पाएँ और मुझसे मिल सकें।

सधन्यवाद!

सरोज पांडेय

सरोज के पत्र से मामला सुलझने के बजाय अधिक उलझ गया। सरोज ने बार-बार दुश्मनों का जिक्र किया है। कौन हैं उसके दुश्मन? यदि सेशन जज की अदालत में हलफनामा देनेवाली सरोज असली सरोज नहीं, डुप्लीकेट थी, तब तो गोरखनाथ, परमू, भोला और छैलबिहारी ही उसके दुश्मन हैं, लेकिन अगर वह असली सरोज थी, तो फिर कौन हो सकते हैं उसके दुश्मन।

इसके अतिरिक्त कहानी से जुड़े सत्रह प्रश्न पहले की तरह ही अनुत्तरित थे और सरोज ने अपने पत्र में कहानी के अन्य तेईस प्रसंगों को कटघरे में खड़ा कर दिया था। ऊपर से कहानी के अंत के फटीचर होने की बात उसने भी स्वीकार की थी। अतः हर दृष्टि से यही उत्तम था कि सरोज से मुलाकात की जाए. यह कोई कठिन भी नहीं लग रहा था, क्योंकि जब सरोज तक कहानी और पत्र पहुँच सकते है, तो कोई इनसान क्यों नहीं पहुँच सकता? ज़्यादा से ज़्यादा उसे उन सभी पतों पर जाना पड़ेगा, जिन पर कहानीवाले लिफाफे की रजिस्ट्री की गई थी। ऐसा भी हो सकता है कि पहले या दूसरे संपर्क-सूत्र पर ही सरोज मिल जाए.

लेकिन सरोज किसी भी पते पर नहीं मिली। गोरखनाथ और मीरा यादव ने सरोज का नाम सुनते ही गाली बकनी शुरू कर दी। भोला, परमू और छैलबिहारी मिले ही नहीं। उनके ठिकानों पर जाने पर ज्ञात हुआ कि वे वैष्णव देवी का दर्शन करने जम्मू गए हुए हैं। कुछ लोगों ने दबे स्वर में बतलाया कि वे तीनों भारत-नेपाल सीमा पर तस्करी कर रहे हैं। तभी तो छैलबिहारी के पिताजी ने मकान की एक मंजिल और बनवा ली और चार बीघा खेत खरीद चुके हैं।

श्याम नारायण ने कुछ कहा नहीं, अपना पूरा घर दिखा डाला और तब बोले, "आप ही बताइए, सरोज कहाँ है? नहीं है न! लेकिन सरोज है।" उन्होंने अपनी छाती ठोंककर कहा, "सरोज यहाँ है।" उनकी आँखें भर आईं और आवाज भर्रा उठी, "कहीं मिले, तो मेरा सलाम कहिएगा।"

महंत जी ने भी अपना आवास दिखला दिया और मुस्कराए, "मेरा आवास मंदिर है या समझिए, मंदिर ही मेरा आवास है, मंदिर में देवियाँ, देवता और भक्त मिलते हैं, रंडियाँ-छिनालें नहीं।"

सरोज के घरवालों ने भी निराश ही किया। विष्णु दत्त बताने लगे, "अपहरण के बाद से तो हमलोगों ने सरोज को देखा ही नहीं। मीरा यादव के यहाँ उससे मिलने गया था, तो मालूम हुआ कि वह उसी दिन गाँव के लिए चल दी थी। तब से अर्सा बीत गया, लेकिन वह गाँव नहीं आई. नामालूम कहाँ भटक रही है..." आगे उनसे बोलते नहीं बना।

अदालत में 164 के बयान को खारिज करनेवाला हलफनामा देनेवाली सरोज असली थी या नकली? इस प्रश्न के उत्तर में सरोज के भाई राधेश्याम ने जवाब दिया, "जब मैं गया ही नहीं वहाँ, तो कैसे बता दूँ कि असली थी या नकली। मैं कोई महाभारत का संजय हूँ, जो यहाँ बैठे-बैठे अदालत का सीन देख लूँ?"

"लेकिन चर्चा है कि वह जिस कंटेसा कार में अदालत गई थी, उसमें उसके बगल में आप बैठे थे?"

"मैं बैठा होता, तो वह कुतिया कार से जिंदा नहीं उतरती। गला दबाकर मार डालता।"

कुछ मिलाकर अन्जाम यह रहा कि लाख कोशिशों के बावजूद सरोज से मुलाकात नहीं हो सकी। अब चुप मारकर बैठे रहने के सिवा क्या चारा था।

दो महीने बाद पुनः सरोज का एक खत आया, काफी लानत-मलामत के बाद लिखा गया था कि "कैसे वाहियात लेखक हैं आप कि आपकी कहानी का कैरेक्टर आपसे मिलना चाहता है और आप उसको ढूँढ़ नहीं पा रहे हैं। धिक्कार है आपको।" मुश्किल यह थी कि इस बार भी लिफाफे पर डाक विभाग की मुहर इतनी चटख लगी थी कि अक्षर पढ़ने में नहीं आ रहे थे।